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जैनधर्म का बिहार से पुराकालिक श्रीर अत्यन्त ही सघन सम्बन्ध है । जैनों की परम्परित मान्यता की दृष्टि से प्रत्येक कल्पकाल में चौबीस जैन तीर्थकर प्राविर्भूत होकर अपने धर्म का केवल प्रवर्तन ही नहीं प्रचार और प्रसार भी करते हैं । एक कप की कालावधि एक हजार महायुग की होती है, अर्थात् 4 अरब 32 करोड़ मानव वर्ष । वर्तमान कल्प में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम चौबीसवें तीर्थकर महावीर हुए हैं । इस कल्प में, बारहवे तीर्थकर वासुपूज्य, उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ, बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ इक्कीसवे तीर्थंकर नेमिनाथ एवं Satara तर्थकर भगवान् महावीर को जन्म देने का अनन्यदुर्लभ गौरव बिहार को ही है । सच पूछिए, तो तीर्थंकरों के 'तपोबिहार' के कारण ही इस प्रदेश या प्रान्त या राज्य का नाम “विहार" (Vihar) पड़ा, जो अंगरेजों के समय में आकर, अगरेजी उच्चारण की अनवधानता के कारण, 'बिहार' (Bihar) हो गया ।
बिहार को इसलिए भी अत्यधिक गौरव है कि वह भगवान महावीर की जन्मभूमि, तपोभूमि और निर्वारण भूमि होने के साथ ही कर्म भूमि भी रहा है। बिहार के राजकुलों भगवान महावीर or कौटुम्बिक सम्बन्ध भी था । यही कारण है कि उनके समय में और उनके बाद भी बिहार में जैन धर्म का अच्छा प्रचार प्रसार हुआ, फलतः अनेक राजे और राजकुल जैन धर्मानुयायी हो गये । इस
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जैनधर्म और बिहार प्रो. श्रीरंजन सूरिदेव, पटना
ष्ट से बिहार को जैनधर्म का मुख्य केन्द्र होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है।
भारतीय इतिहास में, जैन धर्म की वैज्ञानिक और व्यावहारिक विशेषता से प्रभावित श्रौर उसमें दीक्षित बिहारी राजानों की बड़ी लम्बी परम्परा मिलती है। इनमें प्रथम भारतीय गणराज्य वैशाली के राजा चेतक और कुण्डपुर नरेश सिद्धार्थ के अलावा राजा श्रेणिक ( 601-552 ई. पू.), राजा अजातशत्रु ( 552 - 518 ई. पू.), राजा नन्द या नन्दिवर्द्धन (305 ई. पू.), मोर्य सम्राट चन्द्रगुप्त (320 ई. पू.) सम्राट अशोक (277 ई. पू.) सम्राट सम्प्रति (220 ई. पू.) आदि के नाम सगर्व उल्लेख्य हैं ।
प्राचीन इतिहास के परिप्रेक्ष्य के अनुसार, विहार में, भगवान महावीर से प्रारम्भ करके चार सौ वर्षों तक जैनधर्मी राजाओं तथा राजन्यों के द्वारा जैन धर्म की न केवल प्रशासनिक एवं राजनयिक दृष्टि से, अपितु उससे अधिक सामाजिक एवं श्राध्यात्मिक भावना से महती उपासना की गई । जैन धर्म को बिहार की इस अद्भुत देन की ऐतिहासिक भूमिका सदा अविस्मरणीय बनी रहेगी ।
दार्शनिक दृष्टि से विचार करें, तो ज्ञात होगा कि तत्कालीन बिहार में एक ओर गौतम बुद्ध अपने क्षणिकवाद के प्रचार में लगे थे, तो दूसरी मोर
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