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(आबू) को सरस्वती मूर्ति का पूर्व में उल्लेख किया में सच्चिका कहा गया है । इसी स्थल के एक अन्य जा चुका है। अभी हाल में लाडनू (नागोर) के अभिलेख में रत्नप्रभसूरि द्वारा चामुण्डा को सचिया दिगम्बर जैन मन्दिर से जैन सरस्वती की एक रूप में परिवर्तित करने का उल्लेख है । यह लेख अन्य भव्य मूर्ति ज्ञात हुई है । इसकी पाद पीठ पर वि. सं. 1655 का है। जोधपुर संग्रहालय में उत्कीर्ण लेख के अनुसार वि. सं. 1219 वैशाख रेवाड़ा, (हर्षवाड़ा, परगना जसवन्तपुरा-मारवाड़) शुदि 3 शुक्रवार को श्रेष्ठी वासुदेव की पत्नी से प्राप्त एक देवी प्रतिमा (महिषमदिनी) का प्राश देवी ने सकुटुम्ब उसकी प्रतिष्ठा प्राचार्य श्री निचला भाग सुरक्षित है जिसकी चरण चौकी पर अनन्तकीर्ति द्वारा करायी। इस दृष्टि से अजमेर उत्कीर्ण लेख में कहा गया है कि "गणिनि चरणसंग्रहालय की जैन सरस्वती प्रतिमा भी उल्लेखनीय मत्या द्वारा सच्चिका देवी की इस प्रतिमा की है । जन-धर्मावलम्बियों ने वैष्णवी को चक्रेश्वरी प्रतिष्ठा सम्वत् 1237 फाल्गुन सुदि 2 मंगलवार तथा महिषमदिनी को सच्चिका देवी के रूप में को ककु (ककुदसूरि)-द्वारा करायी गयी।" जूना परिवर्तित कर दिया । चक्रेश्वरी एवं सच्चिका की (मारवाड़) में भी सचियामाता का मन्दिर है अनेक प्रतिमाएं विशेषतः पश्चिमी राजस्थान से जिसमें भी उक्त प्राशय का समान अभिलेख है और ज्ञात हैं । चक्रेश्वरी को विद्यादेवियों में स्थान प्राप्त गणिनि चरणमत्या द्वारा वि. स. 1237 में होने के कारण जैन मूर्ति विज्ञान में उनको महत्व- सच्चिका प्रतिमा को प्रतिष्ठा परिणत है। लोदवा पूर्ण एवं विशिष्ट लोक-प्रियता प्राप्त हुई और (जैसलमेर) के चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मन्दिर उनका प्रकन प्राचीन मन्दिरों के विभिन्न भागों में की परिक्रमा में रखे मकराने को गणपति मूर्ति की आवश्यक हो गया। प्रोसियां, घाणेराव, सेवाड़ी, चरण चौकी पर उत्कीर्ण अभिलेख से ज्ञात होता पाहाड़ आदि के महावीर मन्दिर में उनका चित्रण है कि श्री देव गुप्ताचार्य के शिष्य पं: पद्मचन्द्र ने विभिन्न संभागों में प्राप्त है । 'उपके शगच्छ पट्टा- समस्त गोष्ठिका के आदेश पर वि. सं. 1337 में वली' में सच्चिका देवी का जो स्वरूप वर्णित है, अजमेर दुर्ग में जाकर वहां सच्चिका व गणपति वह महिषमर्दिनी से साम्य रखता है। भोसियां सहित द्विपंचासत जिन बिम्ब निर्मित कराया। (जोधपुर) में सचिया माता मन्दिर में पूजित प्रतिमा महिषमर्दिनी को ही है। इस मन्दिर में
भगवान महावीर-राजस्थान के जन समुदाय में
विशेषतः लोकप्रिय रहे । परम्परानमार उन्होंने इस वि. सं. 1234 तथा वि. सं. 1236 के प्रभिलेख
क्षेत्र में स्वयं पधार कर उसे पवित्र किया। यही विद्यमान हैं । इन अभिलेखों में मन्दिर को क्रमशः
कारण है कि राजस्थान के अधिकांश प्राचीन 'सच्चिको देवो प्रासाद एवं 'श्री संचिका देवि देव
मन्दिरों में मूलनायक रूप में उन्हें ही प्रतिष्ठित गृह' संज्ञा प्रदान की गयी है। वि. सं. 1234 के
किया गया। भगवान महावीर की एक सुन्दर के प्रभिलेख में साधु माल्हा द्वारा आत्म-श्रयार्थ ।
प्रतिमा का निर्माण परमार कृष्णराज के राजत्व इस मन्दिर के जंघा पर चंडिका, शीतला, सच्चिका ।
में विः संः 1024 में वेष्टिक कूल के बद्धमान देवि, क्षेमकरी, क्षेत्रपाल की प्रतिमा बनाने का नामक व्यक्ति ने बरकाना में किया। इस प्रतिमा उल्लेख है । ये प्रतिमाएं मन्दिर के बाह्य मंडोवर का निर्माता कलाकार नरादित्य था । भगवान (जंघा) भाग पर प्राज भी विद्यमान हैं । गर्भ गृह। महावीर ने अपना प्रारम्भिक जीवन राजकुमार की पिछली प्रधान ताक में महिषमदिनी विराजमान रूप में प्रारम्भ किया । कैवल्य ज्ञान से पूर्व की इस हैं जिन्हें पास में उत्कीर्ण वि. सं. 1234 के लेख अवस्था में उन्हें 'जीवन्त स्वामी' की संज्ञा मिली।
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