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प्रति भेदभाव और प्रन्यान्य होता है । इन रिटयाचिकामों में एक प्राइवयं एवं विस्मयजनक बात यह थी कि उनमें जैनों की ओर से यह कहा गया गया था कि महावीर का कार्यक्षेत्र एक धर्म विशेष था और इसलिए उन्हें महामानव या समाजसुधारक के रूप में नहीं माना जा सकता ।
उच्च न्यायालय ने प्रार्थियों की इन दलीलों को रद्द करते हुए माननीय न्यायाधीशों श्री बी. एस. देशपाण्डे तथा माननीय न्यायाधीश श्री योगेश्वर दयाल अपने ऐतिहासिक निर्णय में कहा है
'धर्मनिरपेक्षता के विषय में पश्चिमी धारणा यह है कि सरकार को धार्मिक कार्यक्रमों से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिये । संविधान का उद्देश्य यह नहीं है कि सब धर्मों से बिल्कुल दूर रहें बल्कि उसका उद्देश्य यह है कि सरकार धर्मों के विषय में निष्पक्ष धारणा रखे और सभी धर्मों तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों से समान व्यवहार करे ।
भारतीय संस्कृति में धर्म एक अनिवार्य अंग है लेकिन लक्ष्य प्रोर उद्देश्य की दृष्टि से सांस्कृतिक गतिविधि धार्मिक गतिविधि से भिन्न होती है। जैनों को जहां जैन धर्म का पालन करने तथा भगवान महावीर निर्वाणोत्सव मनाने का पूर्ण अधिकार है वहां सरकार और ग्राम व्यक्तियों को भगवान महावीर के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता ।
भगवान महावीर ने अहिंसा का जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया उसका लाज मी देश व अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में बड़ा महत्व है । बलशाली व्यक्ति कमजोर का शोषण न करे, हिंसा न की जाय, तथा राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को शांतिपूर्ण वार्ता से सुलझाने के प्रयास किये जांय, इन सभी बातों को भगवान मह वीर के इस सिद्धान्त से बल मिलता है। इस बात पर हर व्यक्ति को गर्व होना चाहिये कि इन महान सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले भगवान महावीर इस देश में ढाई हजार साल पहले अवतरित हुए ।
आधुनिक समय में इन सिद्धान्तों का बड़ा महत्व है और सरकार तथा अन्य व्यक्तियों का ऐसे महापुरुषों का निर्वागोत्सव मनाने का पूरा अधिकार है ।"
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दिल्ली उच्चन्यायालय के उक्त निर्णय ने जहां एक ओर सरकार के इस - सम्बन्ध में आई विघ्न बाधाओंों को दूर कर उसका मार्ग प्रशस्त किया है वहां जैनों पर भी यह महान् उत्तरदायित्व आया है कि वे अपने कार्यकलापों एवं प्राचारण में भ. महावीर की बताई शिक्षाओं और सिद्धान्तों को उतार अपने आपको भगवान् महावीर का सच्चा अनुयायी प्रमाणित करें ।
भगवान महावीर ने कभी भी अपने आपको किसी धर्म, जाति प्रथवा वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रखा और न कभी इनको कोई महत्व ही प्रदान किया । उनकी दृष्टि में मानव की महत्ता उसके वृद्धिगत होती है किसी धर्म, जाति • अथवा वग विशेष में जन्म लेने से नहीं । उन्होंने कहा - ' गुणाः पूजास्थानं न च
गुणों से
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