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ही परिक्रमा बन जाती है, शयन की प्रणति बन दिखाई देने लगते हैं। वह राग की ज्वाला से जाती है, कर्म ही पूजा बन जता है, श्रम-स्वेद ही बचने बचाने के लिए प्रयत्नशील हो उठता है। अमृतरस बन जाता है। उसका वचन ही शास्त्र बन
ऐसे प्रष्ट गुणधी सम्यक् दृष्टि श्रावक का जाता है, सम्पूर्ण त्रिलोक उसी के रूपाकार में
गह्य जीवन भी नदी की भांति सदा सौख्यकारी निहित हो जाता है-सहज सम धि भली । उसका
होता है। उसके आसपास बहने वाली वायु भी यही मानन्द-धर्म उसे संसार दुःख से उठाकर
जगत के जीवों मे प्राणों का संचार करती है। उत्तम सुख में अधिष्ठित करता है। यह उत्तमसुख
उसके स्मित मात्र से या दृष्टिक्षा मात्र से प्रकृति न परलोक की वस्तु है न क्रय की जाने वाली
रसप्ल वित हो उठती है। श्रावक स्वयं नहीं चीज । इसलिए श्रावक के लिए कहा जाता है।
जानता कि वह क्या है, उसका जीवन कैसा है। कि वह निरन्तर श्रवण करता रहता है-पांचों
वह तो बस समाज में रहता है, बहता है और इन्द्रियों की बमता का संयम पूर्वक सम्यक् उपयोग
जल की भांति जहां रिक्तता देखता है, दौड़ जाता करता है. उन्हें साम्ययोग में एकाकार कर देता
है और समानता ला देता है । वस्तुतः जीवन का है-न उनको बहकने देता है न उनको बांधकर
आनन्द दूसरों को जीने का अवसर देकर, दूसरों रखता है। उसकी लोकाभिमुख फिर भी योग
को जिलाकर जाने में है। अतिथि संविभान में निष्ठ शारीरिक समग्रता निरन्तर अप्रमाद में,
इसी ओर इंगित है। बांटकर खान का मानन्द रमणीयता में, सरसता में हिलोलें मारती रहती
अनिर्वचनीय है। श्रावक श्रमण का उपासक अर्थात है, प्रेम का अथाह सागर इसमें गंभीर ध्वनि गर्जन
श्रमिक होता है-न वह किसी का स्वामी बनना करता रहता है । वह प्रतिपल बर्तमान में, अभिनव
चाहता है, न किसी को दास बनाना । श्रम पूर्ण वर्तमान में रहता है। अपने कर्म को भूत और कर्मठता मोर कर्म को अकर्म बना डालने की भविष्य से जोड़ने की भूल वह नहीं करता। साधना ही उसके जीवन का सौंदर्य है। वर्तमान ही उसका सत्य होता है, यही उसका संबल होता है।
जैन-प्राचार में श्रावक के लिए ग्यारह प्रति. है श्रावक का दर्शन विशुद्ध होता है-मिथ्यात्व माओं का विधान है । ये मनुष्य को उत्तरोत्तर सेवा प्रथवा भ्रांति के अन्धकार से वह उज्ज्वल प्रकाश को पराकाष्ठा तक पहुंचाती हैं । पारम्परिक शब्दार्थ में भा गया होता है। वह अपने को सब में और और माचार-प्रणाली में तो आज इन प्रतिम भों सब में अपने को देखता है। जाति, वेश, लिंग, का उद्देश्य लुप्त ही हो गया है और यही कारण परम्परा, वर्ण, वर्ग सबके प्रति उसकी दृष्टि प्रात्म- है कि इन प्रतिमाओं के प्रतिपालक खान-पान के रूप होती है, समता पूर्ण होती है। वह नि शकित झमेले से या प्रपच से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। भाव से दृढ़तापूर्वक सबको अपने में स्थिर करते ग्यारहवीं प्रतिमाधारी भी सम्यक् रूप में पहली हए, प्यार की अमृत वर्षा करते हुए, निरकांक्ष प्रतिमा पर खड़ा नहीं हो पा रहा है । ऊंचा से होकर वात्सल्य बोटता चलता है। रत्नत्रय का ऊंचा देश सेवक या जन सेवक बनने की दृष्टि से । भोर-मुकुट धारण कर प्रेम की वंसी बजाते हुए इन प्रतिमाओं में अद्भुत आशय निहित है । अहिंसा, बह पारस्परिक जुगुप्सा वा घृणाभावना पर विजय संयम और तप का त्रिवेणी संगम इन प्रतिमामों में प्राप्त करता है, दोषों की भोर उसका ध्यान ही अभिव्यक्त होता है । सत्यं, शिवं पौर सुन्दरं का नहीं जाता, बल्कि अपनापन इतना प्रगढ़ हो समवेत स्वरूप प्रतिमाधारक के रोम-रोम से व्यक्त बाता है कि सबके अनेक दोष उसे अपने में ही संचित होता है । ऐसा प्रतिमाधारी ही श्रावक होता है। "
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