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जा सकती है । जड़ शब्दों की पकड़ में गतिशीलता अहिंसा में समा जाते हैं । यहां अहिंसा पारस्परिक कहां?
रूढ़ अर्थ में जीवदया या जीवरक्षण नहीं है। व्रत-पालन का विधान या संकेत इसलिए नहीं अहिंसाव्रती श्रावक के समक्ष अनन्तमुखी जीवन की है कि वैसा करने से मनुष्य को प्रतिष्ठा या स्वर्ग सहस्रावधि धाराएं नित्य नये रूपों में व्यक्त होती का ऐश्वर्य मिले । किसी भी प्रकार की कामना की रहती है और प्रत्येक धारा परस्पर-विरोधी भी हो माकांक्षा से व्रत का पालन करना भयजन्य पलायन सकती हैं । अहिंसा तो प्रात्मवत् सर्वभूतेषु का चरम है, समस्याओं से मुह चूराना है और सदाचरण उत्कर्ष रूप है। इसमें सीमा और मर्यादा का, का, सामाजिक दायित्व का सौदा करना है । अपने प्रमाण मोर अंश का, संकल्प और विकल्प का, कम को बेचने जैसा है। शक्ति और सामर्थ्य से हीन और ज्यादा का, सुविधा या असुविधा का प्रश्न ही दास-वृत्ति का मनुष्य प्रादेशों का अक्षरशः पालन नहीं उठता । उसकी प्रत्येक क्रिया अहिंसा से प्रोतकरके स्वामिभक्त या प्रिय पात्र बना रह सकता है प्रोत होगी, वही अभिव्यक्त होगी। क्रियाएं या तो और इस कला में वह अभ्यास द्वारा इतना निष्णात अहिंसक होती हैं या फिर हिंसक । भांशिक अहिंसा भी हो जा सकता है कि उससे कोई गलती या चूक का व्रत लेकर कुछ क्रियाओं के करने में हिंसा की न हो-वह यांत्रिक बन सकता है। लेकिन यही छूट लेना एक प्रकार से अपनी कमजोरी का बचाव सब से बड़ी प्रात्मवंचना भी है। प्रात्मवंचक मनुष्य करना है या अपनी वासना को खुली छूट देना है। प्रतों का पालन बड़ी सावधानी तथा सतर्कता पूर्वक क्रिया मात्र में हिंसा मानकर प्रक्रियमाण होकर करते हैं । बार-बार वे शस्त्रों के प्रमाण भी प्रस्तुत बैठ जाना भी अहिंसा का पालन नहीं है । क्रिया कते हैं । नैतिकता का, संयम का, धार्मिकता का का सम्बन्ध बाह्यता से अधिक प्रांतरिकता से है। । मुखौटा लगाकर विचरने वाले ये ही लोग व्रतों से क्रियाशीलता के अभाव में अहिंसा की कल्पना तक
ने बचाव के अनेक उपाय खोज लेते हैं। इस नहीं की जा सकती। वस्तुतः क्रियाशीलता ही सोकवादी जड़ता में से ही दिखावा, छलावा और अहिंसा की कसौटी है। भुलावा निपजता है। नियमों तथा आदेशों का एक उदाहरण से हम अपनी बात स्पष्ट करें। पालन तो सैनिक और कारखाने के मजदूर भी एक आदमी को जोर की प्यास लगी है। वह ऐसे करते हैं, सम के प्राणी भी करते हैं। लेकिन यह क्षेत्र में है जहां मीलों तक पानी का मिलना कठिन प्रांतरिक विकास का प्रमाण नहीं है। नियमों या है। किसी तरह एक गिलास पानी का प्रबन्ध हो वतों का अन्धानुकरण आकर्षक और चमत्कारिक सका है। गिलास उसके हाथ में आ गयी है और हो सकता है. लेकिन उसमें स्वायत्त चेतना नहीं मुंह से लगाते-लगाते एक दूसरा प्यासा पा जाता होतो। श्रावक व्रतों का पालन व्रतों से ऊपर उठने है। वह गिलास उसे थमा दिया जाता है। इस के लिए करता है, अपने को मांजने के लिए त्याग में अहिंसा, संयम और तप तीनों हैं। तीनों करता है।
की समवेत अनुभूति प्रथम प्यासे मनुष्य में अपार भगवान् महावीर ने अहिंसा, संयम व ता रूप प्रानन्द भर देती है। जब मनुष्य 'क्षेमं सर्वप्रजानां' धर्म को उत्कृष्ट मंगल कहा है। जिस व्यक्तित्व में की उदात्त भावना से जीवन जीने लगता है, तब इसका दर्शन होता है, उसे देवता भी नमन करते उसमें अपने-पराये का भेद रह नहीं जाता और हैं। पांच व्रतों को भी इन तीनों में समाहित किया इसी में उसकी सार्थकता है। ऐसा व्यक्ति संग्रह जा सकता है। प्रचौर्य और अपरिग्रह संयम में प्रा और त्याग की वस्तुनिष्ठता से ऊपर उठ जाता जाते हैं. सत्य और ब्रह्मचर्य तप में और सबके सब है। उसका भोग भी योग बन जाता है, चलना
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