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श्रेष्ठ तो मोही गृहस्थ ही माना जायेगा । मानवधर्म का यथार्थ प्रतिनिधि वस्तुतः श्रावक ही है !
श्रावक के आधारभूत बारह व्रत माने गये हैं । श्रावकाचार के ग्रन्थों में इन व्रतों को पांच-पांच भावनानों तथा पांच-पांच प्रतिचारों का वर्णन भी मिलता है। इन व्रतों का सांगोपांग या अल्पांश में ढ़तापूर्वक पालन करने वालों की तथा चोरी-छिपे विकारवृत्ति के प्रलोभन वंश इनका भंग करने वालों की दृष्टान्त कथाएँ भी उद्बोधन के लिए लिखी हुई मिलती हैं । मनुष्य ही नहीं सिंह, हाथी, सर्प, भालू, बैल और वानर जैसे पशु तथा पक्षी भी धर्म का उपदेश सुनकर तथा जातिस्मरण होने के फलस्वरूप किसी एक व्रत के प्रर्थात् श्रहिंसा के किसी एक अंश का पालन करके कष्ट सहन करके प्राण त्याग किया और सद्गति प्राप्त कर चुके हैं । अपने एक पैर के नीचे श्राश्रय लेने वाले खरगोश की प्राणरक्षा की अनुकम्पा भावना से प्रेरित हाथी का जीव सद्गति प्राप्त करता है और बाद वह श्रेणिक पुत्र मेघकुमार के रूप में जन्म लेता है । महावीर का दर्शन करने वाले चंडकौशिक सर्प की कथा प्रसिद्ध ही है । आज भी परिवारों में परस्परविरोधीवृत्ति के जानवर प्रेम करते हुए पाये जाते हैं। ये प्रारणी बुद्धि में मनुष्य की अपेक्षा निकृष्ट कोटि के माने जाते हैं, लेकिन इनका स्नेहपूर्ण वर्ताव और पारस्परिक त्याग देखकर मनुष्य गद्गद् हो जाता है। कई बार ये मूक प्राणी मनुष्य के, गुरु या मार्गदर्शक तक बन जाते हैं। ये नहीं जानते कि वे किस व्रत का, किस अंश में पालन कर रहे हैं और उनकी क्या गति होगी, किन्तु इससे इतना तो निःसन्देह कहा जा सकता है कि स्नेह की, ममता की, करुणा की और पारस्परिकता की साधना महाकठिन है। श्रावक इसी महाकठिन साधना करने में जीवन को खपाता है ।
व्रतों की संख्या का या उनकी शास्त्रीय परिभाषाओं का, सीमा रेखा का महत्व सुविस्तृत एवं अनन्तप्रायामी जीवन के आगे नगण्य है । महत्व
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केवल सांकेतिक है । व्रत के निर्देशक सूत्र केवल मार्गसूचक पट्टिकाएं हैं कि मार्ग लम्बा है या कंटकाको, सुना है या भयावना; लु-लपट वाला है या धूल-धवकड़ से भरा है, ऊबड़-खाबड़ है या सीधा समतल ; टेढ़ा-मेढ़ा है या सीधा । मनुष्य की शारीरिक शक्ति एवं सामर्थ्य की सीमा भी है । यह मनुष्य की विवेक शक्ति पर निर्भर है कि वह देश, काल, शक्ति, परिस्थिति देखकर पथ पर कितनी दूर तक जाने में समर्थ है । व्रत एक भी हो सकता है, बारह भी हो सकते हैं और बारह सौ भी हो सकते हैं - एक व्रत के एक श्रंश के श्रनन्त आयाम हो सकते हैं और एक-एक व्यक्ति के अलगअलग हो सकते हैं । जैनधर्म ने सदैव व्यक्तिस्वातंत्र्य को सर्वोपरि महत्व दिया है। मनुष्य का धर्म वैयक्तिक और सामूहिक दोनों प्रकार का होता है । उसके पुरुषार्थ की सफलता इसी में है कि वह दोनों में सन्तुलन साध सके प्रवाहशील परम्परा में वह अपनी उपयोगिता और आवश्यकतानुकूल सारतत्व ग्रहण करके प्रागे बढ़ता है ।
यह विज्ञान और विकासशीलता का युग है । यो युग कभी अवैज्ञानिक नहीं रहा, समाज प्रगतिशील ही रहा है । फिर भी आज का युग अंतरिक्ष वैज्ञानिकता में प्रवेश कर गया है, मानव ने अपने से सहस्रों गुना शक्ति यंत्रों में संचित करके अपने समय की बचत करने में सफलता प्राप्त करली है । समाज का स्वरूप बड़ी तेजी से बदलता जा रहा है। और यह बदलाव ही उसके विकास का लक्षण है । इस बदलाव से मनुष्य नित-नूतनता प्राप्त करता है और जीर्ण-शरण को उतारता - फेंकता चलता है । शास्त्र निर्देशित विधान या परिभाषाएं उसके समक्ष नये-नये परिवेश तथा प्रर्थ में प्रस्तुत होती हैं और इस तरह वह क्रियाजड़ता में न उलझकर प्रगति करता है । व्रत के पालन में जड़ता तभी प्राती है, जब व्रतों की लीक पीटी जाती है— लीक पिटती रह जाती है, जीवन आगे बढ़ चुका होता है । मक्षिका स्थान पर मक्षिका तो मारकर ही रखी के
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