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बालकों ने भी सीधे श्रमण-धर्म की दीक्षा लेकर तपस्या की र मुक्ति प्राप्त की । उपासकदशा जैसे एकाध ग्रंथ में उपासकों के व्रती जीवन का वरणन अवश्य मिलता है; किन्तु प्रायः सारा भागम वाड्मय श्रमण जीवन अंगीकार करने वालों की कथाओं से भरा है । आगम युग के पश्चात्वर्ती काल में ही श्रावकाचार प्रति वादक ग्रंथों की रचना की ओर श्राचार्यों का ध्यान गया है। श्रागम युग में और सम्भवतः भगवान महावीर की दृष्टि में मनगारधर्म ही कर्म-मुक्ति के लिए प्रावश्यक समझा गया था। बड़े-बड़े सम्पत्तिशाली गृहस्थ पुत्र भौर राजपुत्र भरी जवानी में, पांच-पांच सौ पत्नियों को विलखती छोड़कर श्रमण-पथ पर चल पड़ते हैं । और वैभव भी कैसा ? भद्रा पुत्र शालिभद्र की 32 पत्नियों ने बीस-बीस लाख स्वर्ण मुद्राओं के रत्न कम्बल पैर पोंछकर यों फेंकदिये मानों पुछन्ना हो ! ऐसे धन-लिप्त लोगों को वैभव के नशे से विरत करने के लिए सर्वस्व त्याग का मार्ग ही आवश्यक था । महावीर जिस प्रकार की सामाजिक या धार्मिक क्रान्ति का सपना देख रहे थे, उसे साकार करने के लिए सुविधा का या यथाशक्ति त्याग का उपाय यथेष्ट फलदायक नहीं था, क्योंकि विषमता चरम सीमा तक पहुंच गयी थी । हर क्षेत्र में विषमता थी, शोषरण था और महावीर थे समता के प्रतीक । समाज में समता लाने के लिए वैभव की प्रतिष्ठा को नीचे उतारना श्रावश्यक था। अपहरण के द्वारा अप्रतिष्ठित होनेकी अपेक्षा महावीर ने अपरिग्रह द्वारा प्रतिष्ठित होने का मार्ग खोला और हम देखते हैं कि झुण्ड के झुण्ड लोग, युवक और युवतियां उनके श्रमरण- संघ में शामिल होते हैं, दिगम्बर बनते हैं और घर-घर से भिक्षा लेकर समता की अलख जगाते हैं ।
बाद में, ऐसे गृहत्यागी श्रमरणों का समर्थ संघ बन जाने पर, यह आवश्यकता अनुभव होने लगी कि साधना का एक ऐसा मार्ग भी होना चाहिए जो सामान्य गृहस्थ के उपयुक्त हो और श्रमरण-धर्म
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का पूरक संरक्षक भी हो। चूंकि श्रमरण-धर्म का पालन कठिन होता है, अतः श्रावक-धर्म का मध्यम मार्ग, अणुव्रत का मार्ग खुल गया । यह इसलिए भी श्रावश्यक था कि मामाजिक मर्यादाएं तथा सामजिक सन्तुलन बना रहे, स्वेच्छाचार पर नियन्त्रण रखा जा सके, समाज में नैतिक वातावरण वृद्धिगत हो श्रीर श्रमणों का संरक्षण भी हो ।
पग
श्रावक के प्राचार धर्म को भले ही अणुव्रत का मार्ग कहा जाता हो, किन्तु वह श्रमण-धर्म से कम महत्व का कतई नहीं है। महाव्रत अंगीकार करके सर्वसंगपरित्यागी दिगम्बर तथा अरण्य विहारी बनकर मुक्ति की साधना करने की अपेक्षा परिवार के बीच समाज में रहकर अपने को संयत बनाने में या लोक कल्याणाभिमुख बनाने में अधिक पुरुषार्थ एवं तपस्या अपेक्षित है। ऐसे श्रसुव्रती या श्रावक को लोक संग्रह भी करना पड़ता है, पारस्परिक सौहार्द भी जगाना पड़ता है, व्यक्तिगत तथा सामाजिक बुराइयों का सामना भी करना पड़ता है । वह कर्म से विमुख नहीं हो सकता । निरन्तर व्यव हार निरत तथा लोक-सम्पर्क में रहते हुए उसे मन वचन और कायगत संयम रखना पड़ता है । पग पर उसके सामने श्राकर्षण और प्रलोभन की फिसलन होती है, किन्तु उसे प्रतिपल सतर्क रहना पड़ता है । उसका जीवन वास्तव में सामूहिक साधना का कर्मक्षेत्र होता है। एक प्रकार से वह अपने गले में सर्प माल धारण करके कर्म क्षेत्र में उतरता है । वह पलायनवादी नहीं होता । वह कर्दममय सांसारिकता में ही कमल की भांति ऊपर उठता है । स्वामी समन्तभद्र अपने समय में बड़ी क्रांतिकारी बात कह गये हैं कि मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ उत्तम होता है । किन्तु वास्तव में देखा जाय तो गृहस्यों का जो क्रीड़ा क्षेत्र है, वही मुनियों के लिए दुष्कर तपस्याभूमि है - मुनि उसमें अपने को सम्हाल ही नहीं सकते । आज तो समन्तभद्र को भी उलटकर अपनी बात में संशोधन करके कहना पड़ता कि मुनि भले ही निर्मोही हो, लेकिन
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