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________________ 1-104 श्रावक-धर्म की परिपूर्णता में श्रावक से योग- पैदा होती है और यह मनुष्य को पतन में ढकेलती दान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। दोनों है । श्रावक का जीवन सहज होता है, वह केवल मिलकर श्रावो कत्व को परिपूर्णता प्रदान करते हैं। प्रसन्नता के लिए प्रवृत्त होता है। उसमें कोई शुचिर्भूत श्राविका की कोख से ही धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक शल्य नहीं रह जाती। उसका चित्त चन्दन की तीर्थंकर आदि महाप्राण पुरुषोत्तम अवतरित होते तरह शीतल हो जाता है। यह स्वार्थ और परमार्थ हैं । श्राविका ही श्रावक को परम मकाम में ले में एक-सा होता है । उसके व्यवहार में भी परमार्थ जाती है। परम ब्रह्म की साधना के लिए उसे होता है और सौदे में भी त्याग होता है। वह तजकर अरण्यवास करने की, पलायन की भूमिका आत्म-गवेषक होता है। समस्त ऋद्धि-सिद्धियो उसे ने हो, वृत्ति ने ही समाज और व्यक्ति को उत्तम अपने भीतर दीखने लगती हैं और वह अपनी सुख से वंचित कर दिया है । नितांत अक्रिय आन्तरिक लक्ष्मी के कारण पदीन लखपति होता व्यक्तिमत्ता अध्यात्म के नाम पर पुजने लगी और है। उसका हृदय विराग-रस से आपूरित सुख-सागर श्रम की यथार्थ देवी श्राविका तिरस्कृत हो गयी। होता है । मोह की अभेद्य-चट्टान को भेदने भेद मूलक दृष्टि के कारण ही माज श्रावक धर्म को अकूत शक्ति उसमें प्रा जाती है। उसका अपना महत्व एवं प्रभाव खो बैठा है। कहते हैं प्रयास अपने में अपने को पाने का होता है । कविमहावीर के संघ में तो श्रावकों से दुगुनी संख्या वर बनारसीदास ने मुग्ध भाव से ऐसे सम्यक्त्वी श्राविकाओं की थी और वे सौंध का सचालन भी श्रावक की, पारदर्शी श्रावक की, प्रकाश-पुज करती थीं। नारी को, श्राविका को, जगज्जननी श्रावक की वन्दना की है। हम यहां नाटक समय. को नरक की खान, वासना की पुतली कहकर मनुष्य सार से उनके तीनों कवित्त उद्धत कर रहे हैं। ने अपने को समग्र ब्रह्म से तोड लिया है समझ यह भेद-विज्ञान जग्यो जिन्हके घट, रहा है कि ब्रह्म में रमण कर रहा है। इस भ्रांति सीतल चित्त भयो जिम चन्दन । और मिथ्याचरण का बही परिणाम हुअा जो केलि कर सिव-मारग मैं, होना था। जगमांहि जिनेसुर के लघुनन्दन ।। __व्रत साध्य नहीं साधन मात्र हैं। व्रत तभी सत्य सरूप सदा जिन्हक, तक उपयोगी एवं प्रावश्यक हैं, जब तक मन में प्रगट्यो अवदात मिथ्यात निकन्दन । द्वत है, तमस का प्रावरण छाया है या विकारों सात दसा तिन्ह की पहिचानि, का प्रभाव है। अन्ततः तो प्रत्येक को व्रतातीत कर कर जोरि बनारसि वन्दन ।। होना ही है व्रतातीत हुए बगैर वास्तविक आनन्द, सहजानुभूति संभव नहीं। मुक्ति की कामना से मुक्ति हुए बिना मुक्ति नहीं मिलती। चलना सीख जाने स्वारथ के साचे परमारथ के साचे चित्तपर बालक मां की अगुली तज देता है, वैसे ही व्रत साचे, साचे बैन कहैं, साचे जैनमती हैं । पीछे छूट जाने चाहिए। व्रतों से उत्तीर्ण होकर ही काहू के विरुद्ध नाहिं, परजाय-बुद्धि नाहिं श्रावकत्व का कमल खिलता है। शरीर के अवयवों प्रातमगवेषी, न गृहस्थ हैं न जती हैं ।। का स्वस्थ स्थिति में जैसे भार नहीं लगता-पता ही रिद्धि-सिद्धि वृद्धि दीस घट में प्रगट सदा, नहीं चलता वैसे ही व्रत भार रूप नहीं होने अन्तर की लच्छी सौं अजाची लच्छपती हैं । चाहिए । कामना, प्रतिष्ठा, यशस्विता या भय से दास भगवंत के, उदास रहैं जगत सौं, व्रतों का पालन करना भार ही है। इससे प्रतिक्रिया सुखिया सदैव, ऐसे जीव समकिती हैं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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