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जाकै घट प्रगट विवेक गणधर को सौ हिरदै हरखि महामोह को हरतु है । साचो सुख मानें निज महिमा भडोल जानं, धापुहि मैं प्रापनो सुभाउ ले घरतु है । जैसे जल- कर्दम कतक - फल मिन्न करें, तैसें जीव-प्रजीव विलछनु करत है । प्रतम सकति साथै, स्थान को उदो आराध, सोई समकिती भवसागर तरतु है ॥ सम्यक्त्वी श्रावक का भवसागर यों ही पार नहीं हो जाता । श्रभ्यास, साधना और सातत्य से मंजिल निकट भाती है । पलभर की असावधानी तुम-जन्मान्तर तक व्यथा में, पीड़ा में, दुख के महागर्त में ले जाती है । गमन-सिद्धि पैर भी,
के अभ्यास के पश्चात् भी इस तरह खड़ा या फिसल जाते हैं कि उठना कठिन हो आता है । सम्यकत्यी साधक अपने शरीरिर को वालय मानकर उसे सक्षम, पवित्र, स्वच्छ रखता है । या को अनावश्यक भार लादकर सताना वह पाप सकता है । तन को वह कारागृह नहीं समझता,
पंगु मोर क्षीण नहीं करता। बस इतना ही सकता है कि साधन है, पर साधन को भी साध्य ऐसे एकरूप कर देता है जैसे दूध में शर्करा ।
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वह अपने तन की उपेक्षा नहीं करता, उसे धरोहर समझता है । उसकी समस्त इन्द्रिय-प्रवृत्तियां इतनी सहज, नम, कमनीय, सुन्दर बन जाती हैं कि उसका स्पर्श मात्र शीतलता प्रदान करता है । इसके लिए वह कतिपय गुणों की अपने में अवधारणा करता है । पारस्परिक व्यवहार की कसौटी ये ही गुण हैं, जिन पर वह खरा उतरने का प्रयास करता है । यु गुण बनारसीदास जी के शब्दों में इक्कीस हैं । ये मानव की व्यापक निष्ठा, उदात्त मनोभावना भोर सहज- कर्मठता के परिचायक हैं । ये गुण परस्पर पूरक तो हैं ही, एक रूप भी हैं, अखण्ड स्रोत की भांति । ये गुरण तो मनुष्य को इक्कीस यानी परिपूर्ण अहिंसक बना देते हैं । कवि के शब्दों में वे गुण हैं
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लज्जावंत दयावंत प्रसंत प्रतीतवंत, परदोष को ढकैया, पर-उपगारी है । समदृष्टि, गुनग्राही गरिष्ट, सबकों इष्ट, शिष्ट पक्षी, मिष्टवादी, दीरघ विचारी है ॥ विशेषग्य, रसग्य कृतग्य, तग्य, धरमग्य, न दीन न अभिमानी मध्य विवहारी है ।
सहज विनीत पाप क्रिया सौं प्रतीत, ऐसोश्रावक पुनीत इकवीस गुनधारी है ।।
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