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अपने को पीड़ित अनुभव कर रहा था। तमिलनाड प्रेम संबंधी। तिरुकुरल में कुल 133 अध्याय मौर की संस्कृति, उसकी भाषा, उसके साहित्य और हरेक अध्याय में 10 कुरल हैं। 'कुरल' तमिल उसके जनजीवन, सब पर श्रमणत्व की छाप पड़ भाषा का एक विशिष्ट छंद है । दोहे की तरह इसमें गई और सारा प्रदेश भगवान् महावीर के महिंसा भी दो चरण होते हैं। पहले चरण में चार पोर धर्म की शीतल छाया में सुख व शांति का अनुभव दूसरे में तीन पद होते है । यथा :करने लगा।
___"अगर मुदल एळ तल्लाम् मादि तमिलनाडू द्रविड़ संस्कृति और द्रविड़ भाषा
भगवन् मुदट्रे उलगु ।" तमिल का केन्द्र है। तमिल संस्कृत की तरह प्रति
-(अर्थात् वर्णमाला के 'म' की तरह संसार प्राचीन, साहित्यिक दृष्टि से संपन्न भाषा है। इसकी एक विशेषता यह है कि यह भाषा लोकजीवन से -
. में प्रथम स्थान उन मादि प्रभु का है।) कभी लुप्त नहीं हुई। संस्कृत कभी जनभाषा थी, तिरुकुरल नाम तिरु और कुरल शब्दों के योग कालांतर में वह पंडितों की भाषा बनी और भाज से बना है । तिस अर्थात् श्रीसंपन्न, देवी, पवित्र तो उसका क्षेत्र ग्रंथों और ग्रंथागारों तक सीमित हो और कुरल अर्थात् कुरल छंद । तिरुकुरल के कई गया है। पर तमिल भाषा थोड़े-बहुत परिवर्तन के नाम प्रचलित हैं जैसे, मुप्पाल्, उत्तर वेद, तमिलवेद साथ प्राज भी उसी रूप में बोली और लिखी देवनूल, प्रादि । इन सबमें तिरुकुरल सर्वाधिक लोकजाती है, जिस रूप में वह दो-तीन हजार वर्ष पहले प्रिय नाम है। भारतीय साहित्य के कुछेक ग्रंप प्रयुक्त हुआ करती थी। अपनी मधुरता और मोज ऐसे हैं, जिनका संसार की कई भाषामों में अनुवाद पूर्ण अभिव्यक्ति की सक्षमता के लिए वह आज भी हो चुका है। ऐसे ग्रन्थों में तिरुकुरल का भी स्थान विख्यात भाषा है । तोल्गाप्पियम जैसे प्राचीन है। देश विदेश की भनेक भाषामों में यह रूपांतरित व्याकरण ग्रन्थ, तिरुक्कुरल जैसे महान नीति-ग्रन्थ की गई है और कई भारतीय व विदेशी विद्वानों ने
और शिलप्पधिकारम् जैसे आदर्श महाकाव्य का इस पर टीकाएं लिखी हैं। प्रायः एक काल में जो प्रणयन इसी भाषा में हमा है। जैन संतों ने इस लिखा जाता है, उसकी भाभा शनैः शनैः क्षीण भाषा का बड़ा उद्धार किया है। अनेक व्याकरणों होती चली जाती है। परन्तु तिरुकुरल जैसे कतिपय कोशों, नीति ग्रन्थों और महाकाव्यों पर जैन धर्म ग्रंथ ही इसके अपवाद होते है, जिनकी दयुति युगों का अद्भुत प्रभाव देखने में माता है । तिरुवल्लुवर तक मंद नहीं पड़ती। ऐसे ही जैन संत थे और तिरुकुरल ऐसी ही जैन तिरुकुरल के लेखक तिरुवल्लुवर के नाम, कृति है।
जन्मस्थान और जीवन के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं मार्य जनता के हृदय में जो स्थान वाल्मीकि, है। ये माण भी कई नामों से जाने जाते हैं जैसे कालिदास और तलसी ने बनाया है, वही स्थान नायनार, देवर, देव पूलवर. पेरु नावलर प्रादि। तमिल जनता के हृदय में संत तिरुवल्लुवर ने बनाया वल्लव जाति से सम्बन्धित होने के कारण ही है। तिरुवल्लुवर द्वारा रचित तिरुकुरल (तिरुक्कुरल) कदाचित् ये तिरुवल्लुवर कहलाये। इनके जन्म के सूक्तियों का विलक्षण संपादन है। इसमें कवि ने सम्बन्ध में भी दो मत हैं। कुछ विद्वान् इन्हें ईसा 1330 कुरलों के माध्यम से धर्म, अर्थ और काम पूर्व प्रथम शताब्दी का बताते हैं तो कुछ ईसा है। की सम्यक् व्याख्या की है। तमिल भाषी इसे बाद की दूसरी-तीसरी शताब्दी का। इनका मूला अपनी भाषा का वेद मानते हैं । तिरुकुरल के तीन जन्म स्थान भी अनिश्चित है । बहुप्रचलित धारणा भाग हैं धर्म संबंधी, अर्थ व राजनीति संबंधी तथा के अनुसार इनका जन्म मद्रास नगर के 'मइलापुर
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