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________________ 1-28 अध्यात्म स्वर गूजा-"संसार चक्र व्यूह है । राग- बनाने योग्य मानता है वह स्वयं तू ही है। दूसरे द्वषमयी जजीर है । इसके माध्यम से प्रात्मा का शोषण करना अपना ही शोषण है, दूसरे के ने अपने को संसार से बांधा है । यह संसार मास्मा अधिकारों को छीनना अपने ही अधिकारों को की ही पकड़ है । परिग्रह पदार्थों में नहीं भीतर में छीनना है । दूसरों से घृणा करना अपने को घणाहै । भीतर के ममत्व ने ही पदार्थ को पकड़ा है। स्पद बनाना है। दूसरे को हीन समझना अपने को यह पकड़ ही परिग्रह है। देह पोर प्रात्मा दोनों ही हीन घोषित करना है। भिन्न तत्व हैं। देह जड़ है, प्रात्मा ज्योतिर्मय है। तू ही अपना रक्षक है, तू ही अपना मित्र मात्मा अनंत प्रानंद का स्रोत है। मैं देह नहीं है।' धन और बैभव से त्राण पाने की कल्पना प्रात्मा हैं। मोह के सघन प्रावरण ने मात्मा के निरर्थक है। जो लक्ष्मी पर प्रासक्त है उसके न प्रानन्द को रोका है। अज्ञान के अभ्रपटल ने तप है, न संयम है, न नियम है, न धर्म है । मात्म ज्ञान को आच्छादित किया है । साधना का व्यक्ति की महत्ता धन में नहीं, अध्यात्म गुणों लक्ष्य स्व को पाना है और प्रात्मा को जगाना है।" के जागरण में है। - महावीर की इस विशद भावधारा में वेग प्रत्येक प्रात्मा अनंत शक्ति सम्पन्न है। हर बड़ा । वे क्षपक श्रेणी पर प्रारूढ़ हुए । क्रान्ति का प्रात्मा में परमात्म स्वरूप छुपा है और हर इन्सान लावा फूटपड़ा, संसार की पकड़ ढीली हो गई। में भगवान बनने की क्षमता निहित है। राग द्वेष की जंजीर टूट गई। शास्त्रीय भाषा में भगवान महावीर के ये सशक्त स्वर मानवयह मोह मुक्ति थी। साहित्यिक भाषा में यह अन्तः- मानव के हृदय को छू गये। उनकी सन्देशधारा से क्रान्ति थी। समाज का सारा वातावरण अन्दोलित हो उठा। ... अन्तः क्रान्ति की दिव्य किरण परिपूर्णता में मुक्त प्रात्मा में अनंत शक्ति है । कर्म युक्त । प्रकट हुई। विभक्त चेतना पूर्णता का प्रतिबिम्ब अवस्था से मुक्त होते समय जो अनंत शक्ति का है । चेतना के पूर्ण प्रभ्युदय में खण्डित चेतना की अनावरण होता है उसकी लहरें समग्र वातावरण विषम लहरें विलीन हो गई । भव भगवान महावीर में तरंगित होती हैं । अणु बम के विस्फोट पर की विशद और सर्वव्यापी आत्मानुभूति के दर्पण में भयंकर विनाशक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है और वह कोई छोटा नहीं था। कोई बड़ा नहीं था। कोई लम्बे समय तक चलती है। उससे अनंत गुणी दास नहीं था। नर और नारी के अध्यात्म अधि- सृजनात्मक प्रक्रिया तीर्थकर त्व को प्राप्त प्रात्मा की कार में कोई भेद नहीं था। पर स्व से विभक्त नहीं अध्यात्म ऊर्जा से घटित होती है । भगवान महावीर था। सब समान रूप से उसके ज्ञान दर्पण में प्रति- द्वारा संघटित अन्तः क्रान्ति की निष्पत्ति तीर्थकरत्व विम्बित हो रहे थे। की उपलब्धि थी। इस महान प्रध्यात्म उपलब्धि . अध्यात्म की यह प्रबल अनुभूति स्वरों का रूप के साथ निर्मल ऊर्मा की किरणें चारों दिशामों में लेकर उभरी। मानव को संबोधित करते हुए विकीर्ण हुई। उससे समाज में नये प्रभात का भगवान महावीर ने कहा-"मानव तू सब को उदय हुआ। मात्म तुला से तोला । अध्यात्म के महा साम्राज्य भगवान महावीर के क्रांत स्वरों ने व्यक्तिमें कोई हीन और कोई अतिरिक्त नहीं है ।। तू व्यक्ति को झकझोरा । नारी जो उस युग में दासौ जितको हनन के योग्य मानता है, तू जिनको अनु. बनकर जी रही थी। उसके भाग्याकाश पर नाना शासन में रखने के योग्य मानता है, तू जिनको प्रकार के अभिशापों की काली छाया मंडरा रही परिताप देने योग्य मानता है, तू जिनको दास थी, वह मात्र भोग की वस्तु समझी जाती थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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