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जिस प्रकार बालक के जन्म के साथ इष्ट मित्र जिसके जीवन में न पाप का उदय हो पोर न पाप व सम्बन्धी-जन वस्त्रादि लाते हैं और कभी-कभी भाव हो, तो फिर दुर्घटनाएं कैसे घटेंगी, क्यों तो सैकड़ों जोड़ी वस्त्र बालक को इकट्ठे हो जाते घटेंगी ? निष्ट संयोग पाप के उदय के बिना हैं । लाते तो सभी बालक के अनुरूप ही हैं, पर वे संभव नहीं है तथा वैभव और भोगों में उलझाव सब कपड़े तो बालक को पहिनाए नहीं जा सकते। पाप भाव के बिना असंभव है। भोग के भावरूप बालक दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है, वस्त्र तो पाप-भाव के सद्भाव में घटने वाली घटनामों में बढ़ते नहीं। जब बालक 20-25 वर्ष का हो जावे शादी एक ऐसी दुर्घटना है, जिसके घट जाने पर तब कोई मां उन्हें वही वस्त्र पहिनाने की सोचे, दुर्घटनाओं का एक कभी न समाप्त होने वाला जो जन्म के समय भाये थे और जिनका प्रयोग सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है। सौभाग्य से नहीं कर पाया है, तो क्या वे वस्त्र 20-25 वर्षीय महावीर के जीवन में यह दुर्घटना न घट सकी। युवक को मा पायेंगे ? नहीं आने पर वस्त्र लाने एक कारण यह भी है कि उनका जीवन घटना वालों को भला बुरा कहें तो यह उसकी ही मूर्खता प्रधान नहीं है। मानी जायेगी, वस्त्र लाने वालों की नहीं। इसी लोग कहते हैं कि बचपन में किसके साथ क्या प्रकार महावीर के वर्द्धमान, वीर, अतिवीर आदि नहीं घटता, किसके घटने नहीं फूट नाम उन्हें उस समय दिये गये थे, जब वे नित्य नहीं टूटते ? महावीर के साथ भी निश्चित रूप से बढ़ रहे थे, सन्मति (मति-ज्ञानी) थे, बालक थे, यह सब कुछ घटा ही होगा ? भले ही प्राचार्यों ने राजकुमार थे। उन्हीं घटनाओं पोर नामों को न लिखा हो। पर भाई साहब : दुर्घटनाएं बचपन लेकर हम तीर्थंकर भगवान महावीर को समझना से नहीं, बचपने से घटती हैं; महावीर के बचपन चाहें, समझाना चाहें, तो यह हमारी बुद्धि की ही तो पाया था, पर बचपना उनमें नहीं था। अतः कमी होगी न कि लिखने वाले प्राचार्यों की। वे घुटने फूटने और दांत टूटने का सवाल ही नही नाम, वे वीरता की चर्चाएं यथा-समय सार्थक थीं। उठता। वे तो बचपन से ही सरल, शांत एवं
तीर्थकर महावीर के विराट व्यक्तित्व को चिंतनशील व्यक्तित्व के धनी थे। उपद्रव करना समझने के लिए हमें उन्हें विरागी वीतरागी दृष्टि- उनके स्वभाव में ही न था और बिना उपद्रव के कोण से देखना होगा। वे धर्मक्षेत्र के वीर, अंति- दाँत टूटना, घुटने फूटना संभव नहीं। वीर और महावीर थे, युद्धक्षेत्र के नहीं। युद्धक्षेत्र कुछ का कहना यह भी है कि न सही बचपन और धर्मक्षेत्र में बहुत बड़ा अंतर है। युसुक्षेत्र में में पर जवानी तो घटनाओं का ही काल है। शत्रु का नाश किया जाता है और धर्म क्षेत्र में जवानी में तो कुछ न कुछ घटा ही होगा। पर शत्रुता का, युद्धक्षेत्र में पर को जीता जाता है और बन्धुवर ! जवानी में दुर्घटनाएं उनके साथ पटती धर्मक्षेत्र में स्वयं को। युद्धक्षेत्र में पर को मारा हैं, जिन पर जवानी चढ़ती है, महावीर तो जवानी जाता है और धर्म क्षेत्र में अपने विकारों को। पर चढ़े थे, जवानी उन पर नहीं। जवानी बढ़ने __ महावीर की वीरता में दौड़-धूप नहीं, उछल- का अर्थ है-यौवन संबंधी विकृतियाँ उत्पन्न होना कूद नहीं, मारकाट नहीं, हाहाकार नहीं, अनन्तशांति और जवानी पर चढ़ने का तात्पर्य शारीरिण है। उनके व्यक्तित्व में वैभव का नहीं, वीतराग- सौष्ठव का पूर्णता को प्राप्त होना है। विज्ञान की विराटता है।
राग संबंधी विकृति भोगों में प्रगट होती! एक बात यह भी तो है कि दुर्घटनाए'या तो और द्वष संबंधी विद्रोह में न वे रागी थे, पाप के उदय से घटती हैं या पाप भाव के कारण। द्वषी । प्रतः न वे भोगी थे और न ही द्रोही।
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