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सबसे अधिक खराब स्थिति अन्तिम वर्ण वालों की को अमान्य घोषित किया। महावीर का कहना था थी। वे पूर्ण रूप से तीन वर्ण वालों के प्राश्रित कि जन्म से न कोई ब्राह्यण है और न क्षत्रिय न थे। समाज में उनका न कोई स्थान था और न कोई वैश्य है और न कोई शूद्र । किन्तु अपने कर्मों सम्मान । धर्म के अतिरिक्त विकास के कार्य मी के माधार पर इनका विभाजन किया जाना उनके लिए बन्द थे। उनका कार्य तो केवल सेवा चाहिए। इसके अतिरिक्त उन्होंने यह भी कहा कि करना ही रह गया था। शिक्षा पर एक वर्ण का घृणा पाप से करो पापी से नहीं क्योंकि घृणा हिंसा अधिकार था। उससे क्षत्रिय व वैश्य वंचित रहते की पृष्ठ भूमि है। भगवान महावीर ने मुनि एवं थे। वेद व स्मृति पढ़ने का तो प्रश्न ही नहीं था। प्रायिका के लिये महाव्रत एवं श्रावक-श्राविका के समाज में परस्पर घृणा, द्वेष एवं कलह का वाता- लिए अणुव्रत को जीवन में उतारने पर बल दिया। वरण व्याप्त था एवं नैतिक मूल्यों में एकदम हिंसा करना, असत्य बोलना, चोरी करना, प्रसदागिरावट मा गयी थी। साधारण आदमी भी अपनी चारी जीवन व्यतीत करना तथा मावश्यकता से जीविका प्रर्जन में ही लगा रहता था। उनका अधिक वस्तुओं का संचय करना निन्दनीय है और मनोबल गिर चुका था इसलिये वह उच्च वर्ण के इनसे प्रत्येक मनुष्य को बचना चाहिए। साधुओं के अत्याचारों को सहन कर लेता था।
लिए इन पापों को पूर्ण रूप से त्यागने का उपदेश भगवान महावीर ने 12 वर्ष तक घोर साधना दिया । वास्तव में जिस समाज को इन बुराइयों से के साथ-साथ देश को सामाजिक एवं धार्मिक पूर्ण रूप से अथवा एक देश रूप से मुक्ति मिल प्रवस्था का गहरा प्रध्ययन किया तथा अपनी जावे वह समाज स्वतः ही स्वस्थ समाज बन साधना पूर्ण होने पर वे देश में स्वस्थ समाज की जायेगा। जिस समाज में नैतिकता का मूल्य हो रचना में लग गये। उन्होंने सर्वप्रथम समाज में वहीं समाज स्वस्थ समाज है। व्याप्त हिंसा का घोर विरोध किया और अहिंसा महावीर के युग में भी धन की पूजा अपनी धर्म के परिपालन पर सर्वाधिक जोर दिया। चरम सीमा पर थी। कुछ लोग सम्पन्न थे तो उन्होंने ऐसे समाज निर्माण का उपदेश दिया जिसमें अधिकांश समाज विपनता से ग्रस्त था । अन्तिम मानव ही नहीं पशु पक्षी तक बिना किसी भय एवं वर्ण वालों का जीवन, रहन सहन, खानपान ऊंची पाशंका से जीवन यापन कर सकें। उन्होंने कहा जाति कहलाने वालों के हाथों में था। वे ही उनके कि सिा केवल जीवों का वध नहीं करने तक भाग्य विधाता थे। महावीर ने. सबको जीवन में ही सीमित नहीं है किन्तु परस्पर में एक दूसरे को अपरिग्रह का उपदेश दिया। वे निम्रन्थ थे । तिल नीचा ऊंचा मानना, घृणा करना, छोटे आदमी तुष मात्र भी उनका अपना नहीं था। उन्होंने का तिरस्कार करना एवं अपने में अहं भाव रखना सामाजिक जीवन में संचय मनोवृति का विरोध सब हिंसा में सम्मिलित हैं। मानव मात्र से प्रेम किया। उसको निन्दनीय बतलाया। अधिक संचय करना सच्ची अहिंसा है। क्योंकि जैसे हमें अपना मनोवृत्ति में हिंसा, असत्य, चोरी, अनैतिकता एवं जीवन प्रिय है वैसे ही दूसरों को भी प्रिय है। लोभ जैसी बुराइयों को प्रोत्साहम मिलता है। इस इसलिए समाज में किसी भी जीव का घात नहीं मनोवृत्ति से कभी पारिवारिक व कभी सामाजिक किया जाना चाहिये।
शान्ति नष्ट होती है। उन्होंने देशवासियों को " महावीर ने सम्पूर्ण समाज को मुनि, प्रायिका, उतना ही धन संचय करने का उपदेश दिया जितना श्रावक एवं श्राविका इन चार भागों में विभाजित कम से कम में सामाजिक व धार्मिक दायित्व पूरा किया तथा चार वर्षों में विभाजित समाज रचना हो सके। उस युग में 363 मतमतान्तर थे। और
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