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________________ ५-19 बाधिका-इस नैराग्य भावना का कोई बाह्य कारण भी होता है ? पाचक होता है, पर बाह्य कारण जीवन को तभी बदल सकता है जब उसमें पहले के संस्कार विद्यमान हों । प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने राज्य-दरबार में नीलांजना अप्सरा को नाचते हुए देखा (नृत्य की आवाज) और देखा कि नाचते-नाचते ही वह इस नश्वर संसार को छोड़ चली गई हैं। (मृत्यु का सन्नाटा) इस क्षणभंगुरता के बोध से ऋषभ का चिंतनोप्रवाह गैराग्य की मोर अभिमुख हुना। दूल्हे के वेश में सजे बाइसने तीर्थंकर नेमिनाथ ने तोरण द्वार पर दीन पशु-पक्षियों की करुण कातर पुकार सुनी । (कातर ध्वनि) विवाह के प्रीतिभोज के लिए उन निरीह पशुओं की हिंसा का यह करुण दृश्य उनसे न देखा गया और वे बारात लेकर उल्टे पांव लौट पड़े। बाचिका-तीर्थकर क्या एक से अधिक भी होते हैं ? । वाचक-प्रागमिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक युग में 24 तीर्थकर होते हैं। वर्तमान युग के 24 तीर्थकरों में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हैं और अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी । पाचिका-ऋषभदेव को प्रथम तीर्थकर और युगादिदेव क्यों माना गया है ? वाचक-इसलिये कि उन्होंने गृहस्थावस्था में मानव सभ्यता का सूत्रपात किया। पेड़-पौधों पर बसर करने वाले लोगों को पुरुषार्थ का पाठ पढ़ाकर कृषि कर्म करना सिखाया। मार मोर लिपि का बोध करा कर प्रात्मा की अनन्त ज्ञान शक्ति का परिचय दिया, मन्याय भौर मत्याचार के खिलाफ लड़ना सिखाया। अन्धकार में भटकती हुई मानवता को तीयं की स्थापना कर धर्म का प्रकाश दिया। इसीलिए वे मादिनाथ बन्दनीय पूजनीय हैं, हैं, स्तुति करने योग्य हैं । (स्तुति-पाठ) ... भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणामुद्योतकं दलितपापतमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा वालंबनं भवजले पततां । जनानाम् वाधिका-ऋषभ पौर महावीर के बीच जो बाईस तीर्थकर हो गये हैं उनकी कोई विशिष्ठ पहचान भी है ? बाचक-मात्म-गुणों की दृष्टि से सभी तीर्थकर समान होते, सभी तीर्थ की स्थापना कर धर्म का प्रचार करते हैं । हां प्रत्येक तीर्थकर अपने विशिष्टि चिह्न से पहचाना जाता है । ऋषभदेव की मां मरुदेवी ने प्रथम स्वप्न वृषभ का देखा, बालक ऋषभ के वक्षस्थल पर भी वृषभ का ही लांछन था, इसीलिये वृषभ उनका चिह न मान लिया गया। भगवान् महावीर अपने किसी भव में सिंह थे । सिंह की तरह अधर्म और अनाचार के विरुद्ध दहाड़ने के कारण सिंह ही उनका चिह न मान लिया गया। प्रत्येक तीर्थकर का अपना अलग-अलग ..... चिहान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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