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वाचक-क्यों नहीं ? जिन-जिन स्थानों पर तीर्थंकरों के परण पड़ते हैं, जहां-जहां तीर्थंकर के पंच
कल्याणक होते हैं, वे सभी स्थान कालान्तर में पूजनीय बन जाते हैं, सम्मेदशिखर, गिरनार
पालीतारणा प्रादि ऐसे तीर्थस्थान हैं। वाचिका-तीर्थकर स्वयं कल्याणकारी होते हैं, वे प्रात्म-कल्याण भी करते हैं पोर लोक कल्याण
भी, फिर उनका कल्याणक महोत्सवों से क्या सम्बन्ध ? वाचक-कल्याणक महोत्सव उनकी विशिष्ट शक्ति और गरिमा के प्रतीक हैं । जब तीर्थकर गर्भ
माते हैं, उनकी माता को विशेष प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं, रत्नों की वर्षा होती है और इन्द्रादि मिलकर उत्सव मनाते हैं। जन्म होने पर इन्द्र का मासन कांप ... उठता है, देवतामों के यहां स्वयंमेव घंटे बजने लगते हैं।
(घण्टों की ध्वनि) मेरू पर्वत पर ले जाकर उनका अभिषेक किया जाता है। विश्व में सर्वत्र शांति छा जाती है । नारकी जीव भी क्षण भर के लिये यातनामों से मुक्त हो जाते हैं । इन्द्र सात बार प्रदक्षिणा कर उनकी स्तुति करता है
नमोत्थणं. मरिहन्ताणं. भगवन्ताणं, माइगराणं, तित्थयराणं, संयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाण, पुरिसवरपुंडरी
पाणं, नमों जिणाणं, बिअमयाणं । पाचिका-जन्म के समय तीर्थकर साधारण बालक की तरह ही होते हैं फिर उनके लिये इतना
अलौकिक प्रदर्शन ? .. वाचक-यह प्रदर्शन नहीं, उनके विशिष्ट गुणों और अतिशयों के प्रति लोक श्रद्धा और आत्मोल्लास
का प्रकटीकरण है । तीर्थकर जन्म से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के धारक होते हैं । उनका शरीर स्वस्थ एवं बलिष्ठ होता है। वे जब सांस लेते हैं तब कमल की
गन्ध माती है। वाचिका-इससे लगता है वे जन्म से ही असाधारण होते हैं । वाचक-पूर्व जन्म के पुण्योदय से उनमें असाधारण क्षमता तो होती ही है, पर वे क्षत्रिय वंश में
उत्पन्न होते हैं जिनका उत्तरदायित्व क्षतों का त्राण करना होता है । वैभव विलास के . सभा उपकरण उन्हें सुलभ होते हैं फिर भी सांसारिक सुखों के प्रति उनका कोई माकर्षण
नहीं होता. वे विवाह भी करते हैं पर निर्जेद का कारण उपस्थित होते ही प्रवज्या अंगीकृत
कर लेते हैं। वाधिका-विवाह ! पत्नी के प्यार को ठुकराकर उसकी सुनहरी कल्पनामों पर तुषारापात करना
कितना जघन्य अपराध है ? जो अपने परिवार को पूरी तरह नहीं अपना सकते वे संसार
को क्या अपना बनायेंगे? पाचक-तीर्थकर की दृष्टि बड़ी उदार और व्यापक होती है । वे सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार
समझते हैं । उनका हृदय संवेदनशील होता है, वे दूसरों के दुख को अपना बनाकर उसे .. दूर करने का सतत प्रयत्न करते हैं । प्रवज्या उन्हें अपने स्वार्थ के घेरे से बाहर निकालकर
परमार्थ की मोर उन्मुख करती है।
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