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(6)
उसने सोचा मैं देख रहा
जो वह असीम वैभव विशाल,
श्ररण भंगुरता का है प्रतीक,
यह दृश्यमान संसार जाल,
(7)
होता है तन धन क्षीण विपुलता का होता है सर्वनाश,
हर्षातिरेक से मस्त, क्षणिक मैं दुख से करते प्रश्र पात,
(8)
बहु श्रोर असीमित तृष्णा की खाई बढ़ती ही जाती है दृढ़ता शठताओं पशुता से नित होड़ लगाई जाती है
(9)
प्राचरणहीन कुल के बल पर बन रहे धर्म के अधिकारी असहाय दीन वासना शमन की पुतली है केवल नारी
(10)
यज्ञादि अनुष्ठानों में नित
प्रति, हिंसा की जलती ज्वाला,
असहाय मूक पशुमों के
शोणित से सन रही यज्ञशाला,
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