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भारमा ज्ञानवान है, मारमा शान-स्वरूप है, मात्मा योग्यता जितनी अधिक होगी उतने ही पदार्थों को नायक स्वभाव रूप है इत्यादि। पर ज्ञानवान् मान सकता है। केवलज्ञानी में ही एक मात्र सन मात्मा को शुद्ध निश्चयनय की कसौटी पर देखा- कुछ जानने की योग्यता होती है, क्योंकि उन्होंने परखा नहीं जा सकता, क्योंकि प्रात्म ज्ञानवान् है अपनी आत्मा को निर्मल स्वच्छ बना लिया है रागऐसा कथन करने पर प्रात्मा से पृथक् ज्ञानवान् की द्वेष-मोह और कर्मों का प्रभाव करके । "ज्ञान प्रतीति होती है, परन्तु ज्ञान-स्वरूप है, ज्ञान ही चित्रपट के समान है, उसमें तीनों काल संबंधी मात्मा ह, तब शुद्ध निश्चयनय की प्रतीति हो उठती वस्तुमों के चित्र युगपत् प्रतिभासित रहते हैं, उसी है- 'जे माया से विनाणे जे विन्नाणे से माया।" प्रकार ज्ञान में भी।" प्रतीन्द्रिय मूर्तिक और प्रमूपति : जो प्रात्मा है वही विज्ञान है । अभिप्राय तिक, क्षेत्रान्तरित भोर कालान्तर समस्त पदार्थों यह है कि प्रात्म-स्वरूप स्वयं ज्ञान स्वरूप है । ज्ञान को एवं स्व और पर ज्ञेय को जानता है वह प्रत्यक्ष के बिना उसकी कोई स्थिति नहीं।
ज्ञान होता है । "विशदं प्रत्यक्षम्" । ज्ञान गुण से __ जैनदर्शन में सप्त तत्व की विशेष महत्वता युक्त मात्मा दर्शन रूप है, प्रतीन्द्रिय है, सबसे महानस्वीकार की गई है, उसमें भी जीव तत्व की। ज्ञाता, श्रेष्ठ है, नित्य है, मचल है, पर पदार्थो के प्रवलद्रष्टा रहना जीवात्मा का स्वभाव हैं, रागी-द्वेषी म्बन से रहित है और शुद्ध है।। होना विभाव है तथा नर नारकादि अवस्थाएं एक ही पदार्थ में अनंत धर्म हैं, एक-एक धर्म धारण करना आत्मा की पर्यायें हैं। जो जीव, में अनंत-अनंत पर्याय हैं । यद्यपि उन अनंत गुणों पदार्थों का ज्ञाता द्रष्टा है वह स्वसमय है, किंतु को देखने की शक्ति अाज हममें न हो, पर ज्ञानका इसके विपरीत राग-द्वेष की भावना से वह संसार आवरण हटते ही वह अनंत शक्ति (ज्ञान-गुण) में परिभ्रमण करता रहता है, परसमय में अपने हमारे सामने प्रत्यक्ष रूप से झलकने लगते है, मस्तित्व को न पहचानने के कारण। "मैं शरीर जिससे अनंत धर्म और अनंत पर्यायों की अभिव्यक्ति नहीं हैं, मन नहीं है, वाणी नहीं हूँ तथा इन सबके हो उठती है । "जो एक को जानता है, वह सबको कारण है मैं उनका न कर्ता हूं और न अनुमंता जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को ही हूं," क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्य के परिणमन है जानता है । यथा :उनका कर्ता मैं कैसे हो सकता हूँ।
"जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ । ज्ञानका कार्य हैं जो पदार्थ जहां है उन पदार्थों जे सम्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥" को उसी रूप में जानना एवं प्रकाशित करना।
(प्राचारांग सूत्र) शान स्वय प्रकाशमान है, दीपक की तरह । जिस किसी भी एक पदार्थ के मनंत धर्मो और उसकी तरह दीपक अपने प्रकाश द्वारा पर पदार्थों को अनंत पर्यायों को जानने का अर्थ होता है कि प्रकाशित पौर स्वयं भी प्रकाशवान रहता है। उसी उसने सम्पूर्ण पदार्थ को पूर्ण रूप से जान लिया है। प्रकार ज्ञान भी। ज्ञान गुण का कार्य है ज्ञेय को पूर्ण रूप से जानने का सामर्थ्य किसमें ? केवलज्ञानी जानना । संसार में जितने पदार्थ हैं वे सब ज्ञान के में, क्योंकि उसमें ज्ञान-गुण का पूर्ण विकास हो ज्ञेय हैं और शान उनका ज्ञाता है । ज्ञान अनंत है, गया ? किस कारण से ?" दोषावरण का सर्वथा क्योंकि शेय अनंत है, परन्तु जब तक उस पर क्षय हो जाने से । जिस प्रकार सुवर्ण आदि में भावरण पड़ा हुमा रहता है, तब तक अनंत ज्ञय निहित किट्टकालभादि बाह य और अन्तर का दोषों को जानने में असमर्थ रहता है । प्रावरण हटने पर का पूर्णतया क्षय हो जाता है, उसी प्रकार किसी वह प्रसीम और मनंत बन जाता है । ज्ञान की विशेष प्रात्मा में भज्ञानादि दोष तथा उसके कारण
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