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तीर्थकरत्व और बुद्धत्व प्राप्ति के निमित्तों का तलनात्मक अध्ययन
जैन और बौद्ध धर्मों में तीर्थङ्करस्व एवं बुद्धत्व प्राप्ति के निमित्तों का विवेचन किया गया है। उनके तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों धर्म साहित्य व प्राचार्यों में विचारों का पर्याप्त आदान-प्रदान हुअा है ।
जैन साहित्य में तीर्थकर प्रकृति के प्रास्रवों का वर्णन मिलता है। प्राचार्य उमास्वामि ने परम्परानुसार मान्य षोडस भावनामों का उल्लेख किया है जिनका परिपालन करने से व्यक्ति तीर्थकर बन सकता है
___ दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नताशीलवतेष्वनति. चारोऽभीषणज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधि-वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यवहुश्रुत प्रवचन भक्तिरावश्यकापरिहारिण मार्गप्रभावना प्रवेचनवत्सल त्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।.... .
दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों में अनतिचार, अभीक्ष्णं : ज्ञानोपयोग, संवेग, यथाशक्ति त्याग व तप, साधु समाधि, वैयावृत्ति, अहंदूभक्ति, प्राचार्य भक्ति, बहुश्रुत (उपाध्याय) भक्ति, प्रवचन भक्ति, पावश्यक में अपरिहारिणत्व, मार्गप्रभावना मौर प्रवचन वात्सल्य ये सोलह भावनायें तीर्थकर नामकर्म के प्राश्रुव के कारण हैं । उत्तरकालीन दिगम्बर माचार्यों ने इसी परम्परा का अनुकरण किया है । श्वेताम्बर परम्पर। ने षोडस भावनाओं के स्थान पर बीस भावनायें स्वीकार की हैं । वहां सिद्धवत्सलता, स्थविरवत्सलता तपस्वी वत्सलता और अपूर्वज्ञान ग्रहण इन चार भावनामों को और जोड़ दिया गया।
इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहिं मासे विय बहुलीकरणहिं तित्वयर मामगोमं काम निम्वत्तेसु तं जहा
-डा. भागचन्द जैन अध्यक्ष, पालि प्राकृत विभाग, मागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर
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