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तक अक्षर हैं । प्रस्तुत अभिलेख पहली बार स्टलिंग पूर्वतः अन्धकारावृत उड़ीसा के सम्राट खारवेल का द्वारा 1820 ई० में प्रकाश में आया और 1826 चरित प्रामाणिक रूप से हमारे समक्ष उजागर ई० में अनुवाद सहित इसका प्रकाशन हुआ । किया है। कालान्तर में जेम्स प्रिन्सेप (1837 ई०), कनिधम
प्रस्तुत शिलालेख एक जैन अभिलेख है (1877 ई०), राजा राजेन्द्रलाल मित्र (1860 ई.)
जिसमें खारवेल के जन्म से लेकर राज्याभिषेक के म. भगवानलाल इन्द्रजी (1883 ई०), बुल्हर
बाद के तेरहवें वर्ष तक की घटनाओं का संक्षिप्त (1895, 1898 ई०), ब्लाख (1906 ई०), लूडर्स और फ्लीट (1910 ई०), डा० राखालदास बनर्जी
वर्णन है। जैन पद्धति के अनुसार यह अभिलेख
महत और सिद्धों के अभिवादन से प्रारम्भ होता (1913 और 1917 ई०), डा० काशीप्रसाद,
है। जैनों में पंच परमेष्ठियों के अभिवादन की जायसवाल (1917, 18, 27 ई०) प्रभृति अनेक विद्वानों ने विवेच्य अभिलेख के संशोधित पाठ परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। उसी का प्रतीक रूप प्रकाशित किये। इस प्रकार हाथीगुम्फा अभिलेख के
अर्हन्त और सिद्ध यहां दिया गया है। सम्पूर्ण पाठ को बार-बार पढ़े जाने की कहानी अत्यन्त लेख में खारवेल के लिए ऐर, महाराज और मनोरंजक है।
महामेघवाहन जैसे राजकीय विरुदों का प्रयोग
हुआ है । डा० दिनेशचन्द्र सरकार का मत है कि हाथीगुम्फा अभिलेख से उद्घाटित जैन सम्राट
वह 'ईला की सन्तन्ति' अर्थात् चन्द्रवंशी क्षत्रिय था । खारवेल का इतिहास माधुनिक विद्वत्ता को महान्
वह कलिंगाधिपति था और कलिंग के महामेघवाहन उपलब्धि हैं। यह तथ्य इस दृष्टि से भी अत्यन्त
वंश में उत्पन्न हुआ था। प्रस्तुत अभिलेख के महत्वपूर्ण है कि प्रद्यावधि खारवेल के सम्बन्ध में
विपरीत उसकी अग्रमहिषी उसे अपने लेख में साहित्य से, मुद्रामों से तथा अन्य किसी स्रोत से
'कलिंग चकवर्ती'3 कहती है। प्रतः इस तथ्य से किसी भी प्रकार की जानकारी उपलब्ध नहीं हुई।
यह ज्ञात होता है कि हाथी गुम्फा अभिलेख के इस महान् सम्राट के बारे में हम जो कुछ भी जानते
उत्कीर्ण होने के पश्चात् ही किसी समय किसी हैं वह इस शिलाखण्ड की दुर्बोध वाणी के रूप में
विजय के उपलक्ष में उसने चक्रवर्ती का विरुद प्रकट हुमा । पुरालिपिवेत्ताओं को इसका अर्थ
धारण किया हो। इन लेख में राजा का नाम समझने में लगभग एक शती (1820 ई० से
खारवेल लिखा गया है। डा० सरकारका मत है 1917 ई०) का दीर्घकाल लगा। प्रस्तुत अभिलेख
कि क्षार+वेल का अर्थ समुद्री तट पर शासन करने का पढ़ा जाना विद्वानों की अनवरत जिज्ञासा,
वाला है। महान् साधना और कठोर परिश्रम की विजय है। सर प्राशुतोष मुकर्जी का कथन है कि प्रस्तुत इस शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि भभिलेख ने भारतीय इतिहास में अज्ञात और पन्द्रह वर्ष की प्रायु प्राप्त कर लेने के पश्चात्
1. ज. बि. उ. रि. सो., खण्ड 10 पृ. 8 2. सेलेक्ट इन्स्क्रिप्सन्स, खण्ड 1, पृ. 21], टिप्पणी 6 3. प्रोल्ड ब्राह्मी इन्स्क्रिप्सन्स, पृ. 57. 4. सेलेक्ट इन्स्क्रिप्सन्स, खण्ड 1, पृ. 211
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