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उन्मुक्त किये।
भगवान् महावीर की चेतना में स्त्री पुरुष का भगवान् महावीर ने जो कि समत्व के प्रहरी थे, भेद पाया ही नहीं। उन्होंने आध्यात्मिक विकास निर्भयतापूर्वक नारी-जागरण का बिगुल बजाया । और स्व साधना के लिए उनमें कोई रेखा नहीं उन्होंने अनेकों महारानियों और राजकुमारियों के खींची। जिस परम पद को पुरुष पा सकता है। जीवन में चैतन्य की ज्योति जलाई । तुच्छ से तुच्छ उसको नारी भी प्रपने में प्रकट कर सकती है। प्रबोध समझी जाने वाली अबलामों में भी उन्होंने भगवान महावीर ने नारी स्वातन्त्र्य और नारी उच्च एवं महान् भावनामों को प्रतिष्ठित किया । समत्व की घोषणा ही नहीं की अपितु व्यावहारिक साध्वयो के समान ही उनकी श्राविकाओं की संख्या क्षेत्र में उसकी अवतारणा भी की। राजकुमारी भी बड़ी विशाल थी । अनेक श्रमरणोप सिकाएं धर्मचन्दन बाला जो विक्रीत होकर दासी जीवन व्यतीत श्रद्धा और धर्म-दृढता में अद्वितीय थीं। कुछेक कर रही थी। उन्होने उसे दीक्षित कर 36 हजार तत्व ज्ञान और धर्म चर्चा में बहुत निपुरण थी। साध्वियों की मुखिया बनाया।
सुलसा, जयन्ती और रेवती आदि अनेक श्राविकाएं ___ साधु के समान ही साध्वी को भी हर पद की ऐसी थीं, जो किसी दिग्गज विद्वान् से भी बिना अधिकारिणी होने का विधान बनाया । उपाध्याया झिझक धर्म-विवाद कर सकती थी। विवाद ही और प्राचार्या तक के व्यवस्था पद उसके लिए नहीं अपने तर्क-श्रद्धा, प्राचार और प्रतिभा बल से
उन्हें निरुत्तर करपरास्त कर डालती थी। तत्कालीन समाज में नारी का स्थान
जैन धर्म में स्त्री का गौरव सदा से रहा है। , यद्यपि तात्कालीन समाज-व्यवस्था में नारी
इस अवसपिणी काल में सर्व प्रथम मुक्ति गमन का पूर्ण रूपये उपेक्षित और पद-दलित कर दी गई
श्रेष्ठतम श्रेय श्री ऋषभनाथ स्वामी की मातुश्री थी। उसका समाज में कोई स्थान ही नहीं रह गया मरुदेवा की है। जिन्होंने हाथी पर बैठे बैठे निर्मोहथा। वह मात्र भोग की सामग्री समझी जाती थी। दशा में उत्तर कर कैवल्य प्राप्त किया।
उसे शिक्षा के अयोग्य करार दे दिया गया था। । 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्" ऐसे अत्याचार मूलक सूत्र ।
ब्रह्मी, सुन्दरी जो कि आदिनाथ भगवान् की ग्रथित किये गये। उसे क्रीत दासी से अधिक कुछ
पुत्रियां थी, प्रवजित बन कर परम तत्व में लीन
था। नहीं माना जाता था। अात्मिक-उत्थान और धार्मिक-पाचरण पर भी उसे कोई स्वतंत्रता नहीं मल्ली कुमारी तो 19वां तीर्थकर हुई है। जैन थी। पुरुष की छाया मात्र बना रहना ही उसका
का सबसे उत्कृष्ट और सर्वोत्तम पद उसने पाया।
का धर्म था। उसके चारों ओर ऐसी मजबूत दीवारें राजिमती, जिससे भगवान् नेमिनाथ ने पशुओं
खड़ी कर दी गई थीं कि वह अपने विषय में कोई का करुण कदन सुनकर मुंह मोड़ लिया था, . भी प्रावाज बुलन्द नहीं कर पाती थी।
विरह-विदग्ध बनकर विभ्रान्त नहीं बनी, प्रत्युत निरन्तर की उपेक्षा और प्रबल माघातों से विवेक पूर्वक परम साध्य के लिए अग्रसर हुई थी महिला समाज में हीन भावना घर कर गई थी। और पतित होते रथ नेमि को उद्बोध देकर बचाया अपने सामर्थ्य और स्वत्व को उद्दीप्त तथा विकसित था। कितने नाम लिए जाएं अनेकों ऐसी सन्नारियां करने, का भाव कुण्ठित बन चुका था। अपने हुई हैं, जिन्होंने शील में, सहिष्णुता में और धर्म
औचित्य के विषय में उसका मन टूट चुका था। श्रद्धा में पुरुषों से भी बढा चढा शीयं दिखाया है। समाज का एक एक सबल अंग पोषण के प्रभाव में जिनके उच्च आदर्शों के प्रागे मस्तक स्वयं विनत प्रक्षन और बेकार बनता चला जा रहा था। हो जाता है।
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