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में धर्म का पुट प्राता है तब वह केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि जीवन विकास का साधन बन जाती है । जैन शिल्प और कला की यही विशेषता है । जैन धर्म शुद्ध वैज्ञानिक र बौद्धिक धर्म है उसमें जीवन की कहीं उपेक्षा नहीं की गई है । एक और प्राध्यात्मिक विकास की दृष्टि से मोक्ष का चिन्तन है तो दूसरी श्रोर जीने की कला का भी सूत्रपात एवं क्रमिक विकास है । जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ चौसठ कलानों के सृष्टा माने जाते हैं। अत: जैन शिल्प और कला के विकास
का युग अत्यन्त प्राचीन ही मानना चाहिए। जैनों ने वास्तुकला एवं शिल्प के निर्माण में योगदान दिया ही है किन्तु उसके सैद्धान्तिक पक्ष को भी अछूता नहीं छोड़ा । वस्तुतः जैन धर्म पूर्णत्व में प्रास्था रखता है, समग्रता का प्रतीक है । जीवन का चाहे कोई भी क्षेत्र क्यों न हो जैन धर्म ने उसका विकास किया है। चित्रकला, मूर्तिकला, गणित, ज्योतिष, खगोल, भूगोल, सभी विषयों को जैन धर्म, जैन प्राचार्यों एवं जैन विद्वानों ने अपनी प्रतिभा एवं ज्ञान से समृद्ध किया है।
"जैसा कि हमें ज्ञात है सम्भवतः जैन धर्म मूलभूत सिद्धान्तों के रूप में सर्व प्राचीन विचार पद्धति को प्रस्तुत करता है । यह विचार कि सम्पूर्ण प्रकृति
हमें प्राणहीन प्रतीत होती है उसके भीतर भी जीवन है और वह पुनः जीवित हो सकती हैं । जैनों का यह सिद्धान्त दृढ़ पुरातनवादिता का सूचक है, जो वर्तमान समय में भी बना हुआ है ।"
--- जोर्ल चारपेन्टियर, फ्रान्स : उत्तराध्ययन सूत्र की भूमिका पृ. २१
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