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3. वर्तमान शरीर शास्त्र का अभिमत है कि और न स्थिर । जैसा उपादान होता है वैसा ही मन का स्थान मस्तिष्क है।
वह निर्मित हो जाता है । चेतना अतीत कालीन ____ मैं सोचता हूं कि ये सारी सापेक्षताएं हैं। विभिन्न संस्कारों से प्रभावित होती है। उसकी यदि हम कहें कि मन समूचे शरीर में व्याप्त है तो निर्मल धारा माती है और मन के साथ योग यह सापेक्ष ही होगा। हमारे स्नायु-संस्थान में करती है तो मन निमंल बनता है, राग-द्वेष रहित जितने भी ग्राहक स्नायु हैं, जो बाह्य विषयों को बनता है । चेतना के साथ मल माता है, आसक्ति ग्रहण व रते हैं, उनका जाल समूचे शरीर में फैला पाती है, प्रज्ञान प्राता है, राग-द्वेष पाता है तो हुप्रा है । वे शरीर के सब भागों से ग्रहण करते हैं। मन का स्वरूप दूसरा हो जाता है। निर्मल चेतना इस प्रकार मन का शासन सर्वत्र व्याप्त है । राजा का योग भी मन में सक्रियता लाता है और मलिन अपनी राजधानी में बैठा है । कोई पूछे कि राजा चेतना का योग भी उसमें सक्रियता लाता है । कहाँ हैं तो कहा जा सकता है कि जहां तक राज्य सक्रियता दोनों ओर से आती है। किन्तु मन को की सीमा है वहां तक राजा है । वह भले राज- स्थिति में अन्तर पा जाता है। उसका प्रवाह दो धानी में हो, किन्तु उसका शासन सारे राज्य की दिशाओं में विभक्त हो जाता है। राग-द्वेष रहित सीमा में चलता है तो राजा सर्वत्र व्याप्त है। चेतना का योग होने पर मन होता है पर प्रासक्ति 'मन हृदय के नीचे है'- यह भी सापेक्ष है। नहीं होती। राग-द्वेष युक्त चेतना का प्रवाह सुषुम्णा की एक धारा हृदय को छूती हुई जाती प्राता है तब मन भी होता है और प्रासक्ति भी है । उसका हृदय के साथ सम्पर्क है इसलिये हृदय होती है, यही चंचलता है । इसकी अतिरिक्त मात्रा को मन का केन्द्र मानना बड़े महत्व की बात है। या पुनरावर्तन ही प्रशांति है। वह भावपक्ष का मुख्य स्थान है।
मन की तीन अवस्थाएं निष्पन्न होती हैंमन का स्थान मस्तिष्क है, यह बहुत स्पष्ट राग द्वेष युक्त मन, राग-द्वेष शून्य मन, मोर है । ज्ञानतन्तुमों का संचालन उसी से होता है। अमन (मानसिक विकल्प का निरोध) वह उन पर नियन्त्रण और नियमन करता है। ध्यान की भूमिका में हमें सबसे पहले इस पर __मन के स्वरूप को जानना इसलिए आवश्यक विचार करना होता है कि किस प्रकार की चेतना है कि वह हमारी साधना का मुख्य प्राधार है । को उसके साथ जोड़ें और जोड़ें तो किस रूप में उसी के आधार पर ध्यान करना है, उपलब्धियों जोड़ें, और कुछ क्षण ऐसे बिताए कि मन के तथा अनुपलब्धियों का लेखा जोखा करना है। साथ चेतना को जोड़े ही नहीं। जब हम चेतना मन के साथ चेतना का योग न हो तो ध्यान की को मन के साथ जोड़ते ही नहीं तब चेतना अलग कोई प्रावश्यकता ही नहीं। फिर हम स्वयं सिद्ध होती है और मन अलग । जब हम इंजन में ईधन बन जाते हैं। 'चेतना मन के साथ जुड़ी ही नहीं- डालते ही नहीं तब इंजन कैसे चलेगा ? मोटर इसका अर्थ है कि मन सक्रिय होता ही नहीं। उस कार तभी चलती है जब उसके इंजन में ईधन डाला स्थिति में कोई विकल्प नहीं होता, संकल्प नहीं जाता है। वायुयान तभी चलता है जब उसके होता, चिन्ता नहीं होती । मन का यन्त्र मृतवत् इंजन में ईधन डाला जाता है । जब ईधन नहीं डाला पड़ा रहता है। यह ध्यान की भूमिका है । यह जाएगा तब उनमें गति नहीं होगी । यन्त्र होगा शुद्ध उपयोग की भूमिका है। मन का स्वरूप पर सक्रियता नहीं होगी। यह ध्यान की सबसे चेतना की धारा से निर्मित होता है। वह अपने अच्छी स्थिति है । किन्तु व्यवहार में जीने वालों आप में न कलुषित है और न निर्मल , न चंचल है के लिए यह मान्य नहीं होता । वे नहीं चाहते कि
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