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घर में मोटरकार खड़ी है और खड़ी ही रहे, कभी विरुद्ध अन्तःकरण की वृत्ति एक प्रालंवन पर काम में न पाए । वे उसका उपयोग करना चाहते अवस्थित हो जाती है। उनके अनुसार व्यग्र चेतना हैं । व्यवहार की भूमिका में जीने वाले यह पसन्द ज्ञान होती है, वही स्थिर होकर शान हो नहीं करते कि हमारे मन का यन्त्र निकम्मा पड़ा जाती है । रहे । वे उसे सक्रिय करने के लिए चेतना का क्या प्राण और अपान का निग्रह ध्यान है ? उपयोग करते हैं । मन का निर्माण ही न हो, यह नहीं है । प्राण और अपान के निग्रह से प्रचुर ध्यान का प्रादि बिन्दु नहीं है, उसकी अग्रिम वेदना उत्पन्न होती है। उससे शरीरपात का प्रसंग भूमिका है। उसका प्रादि-बिन्दु है-मन के साथ आता है। इसलिए ध्यान-काल में प्राण और जुड़ने वाली चेतना का विवेक करना । मन के साथ अपान को मंद करना चाहिए। ध्यान का समय चेतना जुड़े, पर राग-द्वेष युक्त चेतना न जुड़े । अन्तर्मुहूर्त है । एक प्रालंबन पर इतने समय तक प्राण की धारा मन को सक्रिय बनाए पर उसके एकाग्र रहना पर्याप्त है । इसके बाद मालम्बन साथ माकांक्षा न पाए, प्रमाद न पाए और कषाय बदल जाता है । हठपूर्वक एक ही पालम्बन पर न पाए । जब राग-द्वेष, आकांक्षा, प्रमाद और चेतना को स्थापित करने का प्रयत्न इन्द्रिय के कषाय के दरवाजे बन्द कर देते हैं तो फिर जो उपघात का हेतु बन सकता है । चैतन्य आता है वह मन को सक्रिय बनाता है, ध्यान में श्वास और काल प्रादि की मात्रा चंचल भी करत है, किन्तु उस चचल1 मे मन की गणना नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने पर का शोक नहीं होता, मन की प्रशांति नहीं होती। चेतना व्यग्र हो जाती है इसलिए ध्यान नहीं फिर चंचलता हमारा कोई अनिष्ट नही कर होता । पाती।
आचार्य रामसेन के अनुसार एक मालम्बन उमास्वाति के अनुसार एक पालम्बा र
पर अन्तःकरण की वृत्ति का निरोध ध्यान है। अन्तःकरण की वृत्ति का निरोध करना ध्यान है 1
उसी प्रकार चिन्तन रहित केवल स्व-संवेदन भी
ध्या हैअनासक्त चेतना, अप्रमत्त चेतना और वीतराग
अभावो वा निरोध. स्यात्, स च चिन्तान्तरग्ययः । चेतना सहज हणन है। इसके विपरीत, असक्त
ए चिन्तात्मको यद्वा स्वसंविच्चिन्तयोज्झिता ।। चेतना, प्रमत्त चेतना और राग-द्वेष चेतन मन की
जैन प्राचार्य ध्यान को प्रभावात्मक नहीं चंचल अवस्था निर्मित करती है । उस समय शोक
मानते । इसके लिए किसी न किसी एक पर्याय का बढ़ता है, अशांति बढ़ती है, क्रोध बढ़ता है, प्रवचना
मालम्बन अावश्यक है । स्व-संवेदन ध्यान को और लोभ बढ़ाता है । इस स्थिति में ध्यान की
निगलम्बन-ध्यान कहा जाता है किन्तु यह सापेक्ष योग्यता प्राप्त नहीं होती।
शब्द है । उसमें किसी श्रुत के पर्याप्य का पालंबन ध्यान की परिभाषा
नहीं होता इस दृष्टि से वह निरालम्बन है । जिनभद्र के अनुसार स्थिर चेतना ध्यान और निरालम्बन ध्यान में ध्याता और ध्येय भिन्न नहीं चल चेतना चित्त कहलाते हैं :
होते । उसमें शुद्ध चेतना का उपयोग ही होता है । थिरमज्भवसणं तं भाणं,जं चलं तयं चित्त। उसके सिवाय किसी ध्येय का ध्यान नहीं होता ।
प्राचार्य प्रकलंक ने बताया है-- 'जैसे शिर्वात सालम्बन ध्यान में ध्येय और ध्यान का भेद होता प्रदेश में प्रज्वलित प्रदीपशिखा प्रकंपित नहीं होती है । जैन साधकों का अनुभव है कि प्रारम्भ में वैसे ही निराकूल प्रदेश में अपने विशिष्ट वीर्य से सालम्बन ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। उसके
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