________________
2-38
में कोई सन्देह नहीं है कि राणाश्रों के मेवाड़ में जैनधर्म को प्रभूतः सम्मान, संरक्षरण एवं प्रश्रय प्राप्त रहा, और फलस्वरूप अनेक जैनवीरों ने राज्य की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दी, अनेक जैन राजनीतिज्ञों एवं प्रशासकों ने राज्य के सुचारु संचालन में स्तुत्य योग दिया, जैन श्रेष्ठियों एवं व्यापारियों ने उसका आर्थिक अभ्युदय साधन किया, और अनेक जैन मुनियों एवं विद्वानों ने उसके धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन को प्राणवान बनाये रखा । इस राज्य और राजधानी में दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही ग्राम्नायों के अनुयायी श्रावक परस्पर सद्भाव पूर्वक रहते रहे, मोर दोनों के ही साधुसाध्वियों का उन्मुक्त विहार रहा ।
दिगम्बर परम्परा के नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छबलात्कारगरण-कुन्दकुन्दान्वय के भट्टारकों की पट्टावलियों से ऐसा प्रतीत होता है कि 12वीं शती ई० के मध्य के लगभग प्राचार्य हेमकीर्ति ने चित्तौड़ में सर्वप्रथम अपनी भट्टारकीय गद्दी की स्थापना की थी जिस पर अगले लगभग 50 वर्षों के बीच क्रमशः 14 मट्टारक हुए । अन्तिम भट्टारक बसन्तकीर्ति ने चित्तौड़ से पट्ट का केन्द्र अजमेर ( श्रजयमेरू) में स्थानान्तरित कर दिया जहां भगले लगभग 50 वर्ष में 6 भट्टारक हुए। इनमें अन्तिम सुप्रसिद्ध प्रभाचन्द्र थे जो हम्मीरभूपाल से समच्चित भट्टारक धर्मचन्द्र के प्रशिष्य और बाल तपस्वी एव स्याद्वादाम्बुधि भी रत्नकीति के शिष्य एवं पट्टधर थे । वह 1318 ई0 के लगभग सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में अजमेर से दिल्ली चले आये श्रीर वहीं अपना पट्ट स्थापित करके उसे ही उन्होंने अपनी नाय का केन्द्र बनाया और वहीं 1353 ई0 के लगभग उनका शरीरान्त हुआ है। उनके सुशिष्य भः पद्मनंदि थे, जिनके पट्टधर शुभचन्द्र हुए, और शुभचन्द्र के पट्टधर सुप्रसिद्ध प्रतिष्ठाकारक भट्टारक जिनचन्द्र हुए जिन्होंने अपने पट्टकाल
Jain Education International
(1450-1514 ) ई0 में पचासों प्रतिष्ठाविधान किये और सहस्रों जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित कीं । संभवतया दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी की मन्दिर मूर्ति भंजक नीति की यह प्रतिक्रिया थी । भट्टारक जिनचन्द्र दिल्ली में कम हो रहे प्रतीत होते हैं - उनका प्रधान कार्यक्षेत्र राजस्थान रहा । संभवतया अपने अन्तिम समय में इन्होंने पट्ट का केन्द्र दिल्ली से पुनः चित्तौड़ में स्थानान्तरित कर दिया था, जहां जैन धर्म के प्रति अति सहिष्णु वीरवर राणा सांगा का प्रतापी शासन था । ग्रों तो पट्ट का केन्द्र चाहे अजमेर में रहा अथवा दिल्ली में, मेवाड़ प्रदेश में उसके भट्टारकों की आम्नाय चलती थी और वह उनके कार्य क्षेत्र के भीतर ही सदैव रहा ।
इस पुनः स्थापित चित्तौड़ पट्ट के प्रथम श्राचार्य, भट्टारक जिनचन्द्र के सुशिष्य एवं पट्टमर भट्टारक प्रभाचन्द्र थे, जिनका उल्लेख बहुधा अभिनव प्रभाचन्द्र एवं प्रभेन्दु नामों से भी हुआ है । उनके पट्टकाल 1514--1524 ई0 के लगभग रहा । इनका जन्म अजमेर के निकटस्थ नवलक्षपुर ( नालछा ) के प्रसिद्ध एवं सुसम्पन्न वैद्यवंश में छुपा था । पितामह हरिपति वैद्य को पद्मावती देवी सिद्ध थी, और वह सुल्तान फीरोज़शाह तुगलुक द्वारा सम्मानित हुए थे। पिता पद्मश्रेष्ठि बहुदानी, शाकम्भरी में विशाल जिनालय के निर्मापक, मिथ्यात्वघातक, जिनगुण-नित्यपूजक और इतने प्रभावशाली थे कि राजा लोग भी उनका बड़ा आदर करते थे, विशेषकर मालवा के सुल्तान गयासशाह से उन्होंने बहुत मान प्राप्त किया था । ज्येष्ठ भ्राता वैद्यराज बिझ ने मालवा के सुल्तान शाहनसीर से और भतीजे वैद्य धर्मदास ने से महमूदशाह प्रभूत सम्मान पाया था । धर्मदास के पुत्र रेखा वैद्य को शेरशाह सूरी ने सम्मानित किया था और रेखा का पुत्र जिनदासवैद्य होलि रेणुका चfत्र' का कर्त्ता अच्छा साहित्यकार था । ऐसे
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org