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चित्तौड़पट्ट के
दिगम्बर
भट्टारक
विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ।
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मेवाड़ ( मेदपाट) राज्य ऐतिहासिक दृष्टि से राजस्थान का प्रायः सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित राज्य रहा है । सुप्रसिद्ध चित्तोड़दुर्ग (चित्रकूटपुर) को ईस्वी सन् को प्रारंभिक शताब्दियों से लेकर 1567 ई. में मुगलसम्राट अकबर द्वारा उस पर अधिकार किये जाने तक, लगभग डेढ़ सहस्र वर्ष पर्यन्त उक्त राज्य की राजधानी बने रहने का श्रेय प्राप्त रहा । प्रारम्भ में मौर्यवंश की एक शाखा का इस प्रदेश पर अधिकार रहा । चन्द्रगुप्त एवं सम्प्रति मौर्य के ये वंशज स्वभावतः जैन धर्म की प्रोर भाकर्षित रहे । भाठवीं शती ई० के प्रारम्भ में चित्तौड़ के मोरिय (मौर्य) नरेश धवलप्पदेव थे जिनके ज्येष्ठ पुत्र एवं उत्तराधिकारी श्री वल्लभ राहुष्पदेव थे । सम्भवतया इनके एक कनिष्ठ भ्राता वीरप्पदेव थे जो संसार त्यागी होकर जैनाचार्य वीरसेन स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हुए । उन्होंने इसी चित्रकूटपुर में एलाचार्य के निकट सिद्धान्तों का अध्ययन किया प्रतीत होता है। मोर तदनन्तर राष्ट्रकूट राज्य के बाटनगर में अपना विद्यापीठ स्थापित करके वहां धवल, जयधवल प्रादि विशालकाय प्रागमिक टीकाप्रन्थों की रचना की थी । राहप्पदेव का उत्तराधिकारी उनका भागिनेय, गुहिलपुत्र बप्पारावल 750 ई० के लगभग चित्तौड़ का राजा हुआ । उसी के समय में सुप्रसिद्ध ग्रन्थकार माचार्य हरिभद्रसूरि इस नगर हुए। इस गुहिलोत वंश की परम्परा इस राज्य में तब से वर्तमान पर्यन्त प्रायः भविच्छिन्न चली भाई । मेवाड़ के इस रारणावंश के शासक मुख्यतया शैव रहे यद्यपि कोई-कोई परम वैष्णव भी हुए, और कई एक तथा राज्यवंश के अनेक स्त्री पुरुष जैनधर्मानुयायी भी हुए। कम से कम इस विषय
में
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