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महावीर का प्रात्मवाद
और सुखवादी परम्परा
---मुनि श्री गुलाब चन्द्र नार्मोही भगवान् महावीर ने कहा-पुढो छन्दा इह परमात्मा में भी विश्वास कैसे कर सकता है ? माणवा, पुढो दुखं पवेहये -'संसार में पृथक्- क्योंकि अध्यात्म-साधना का प्रथम सोपान प्रात्मतत्व पृथक् विचार वाले व्यक्ति हैं एवं उनके अभिप्राय । का स्वीकरण है। जिसे यह भी पता नहीं कि मैं
और संवेदनाएं भी भिन्न-भिन्न हैं।' विचार स्वा- कौन हूं और मेरा स्वरूप क्या है, वह साधना-क्षेत्र तंत्रय का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह आवश्यक में गति रिस प्रकार कर सकेगा ? महावीर ने इस नहीं कि एक ही विचार से प्रभावित हों । पूर्व और सन्दर्भ में कहा---'इह मेगेसिंगो सण्णा भवइ के पश्चिम की दर्शन परम्परा भी इसी आधार पर अहं पासी के वा इग्रो चुत्रो इह पेच्च भविस्सामि ।' खड़ी हुई । प्रात्मवाद और अनात्मवाद का इतिहास साहित्य की भाषा में उन्होंने इसी तथ्य को इस भी कुछ ऐसा ही है। कुछ दार्शनिक आत्मा का प्रकार प्रकट किया -- अस्तित्व तो स्वीकार करते हैं, किन्तु उसके स्वरूप 'जम्स नचि पुरा पच्छा मज्झे तस्स को में उनका मतभेद है। प्रात्मा को मानते हुए भी सिया'—जिसके पूर्व और पश् वा नहीं है, उसके सांख्य दर्शन उसे कर्ता नहीं मानता। वह प्रकृति का मध्य भी कम होगा ? किन्तु सर्वोच्छेदवादी प्रात्मा कर्ता मानता है । इस सम्बन्ध में उसने कहा है - और उसकी समस्त पर्यायों से इमर करते हैं। प्रमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अनात्मवादी स्थूलग्राही होते हैं। वे कहते हैं
कि पद-तल से कशाग्र तक प्रात्मा है। वही जीव अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म प्रात्मा कपिलदर्शने ॥
है। उसके अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई स्वतंत्र वह आत्मा के भोगी रूप को तो स्वीकार तत्व नहीं हैं। देहात्मवादियों के अनुसार भवकरता है किन्तु कर्ता रूप को नहीं। जैन दर्शन परम्परा संभव नहीं है। इसे स्पष्ट करते हुए वे प्रात्मा को कर्ता और भोक्ता दोनों रूप से स्वीकार कहते हैं कि बीज से वृक्ष की उत्पति होती है, करता है।
किन्तु जब बीज ही जल गया तो अकुर कैसे फूटेगा? कुछ दार्शनिक सर्वोच्छेदवादी होते हैं। वे इसी प्रकार अगले जन्म का बीज शरीर है। जव मात्मा के गुण, धर्मों में से एक को भी स्वीकार शरीर ही जल गया तो पुनर्जन्म कैसे संभव है ? नहीं करते । जिसे प्रात्मतत्व में विश्वास नहीं, वह देह को बीज मानने वाले कुछ दार्शनिक ऐसा
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