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मैन्जी की भय पर अधिष्ठित हिंसा की धारणा इस संवेदनशीलता का सच्चे रूप में उच्य हो जाता का सचोट उत्तर है। जैन आगम माचरांग है, तो हिंसा का विचार असम्भव हो जाता है। सूत्र में तो प्रात्मीयता की भावना के माधार पर ही जैनागमों में अहिंसा को व्यापकता अहिंसा सिद्धान्त की प्रस्तावना की गई है। जो जैन विचारणा में हिंसा का क्षेत्र कितमा व्यापक मोकप्रिन्य जीव समूह) का अपलाप करता है वह है, इसका बोध हमें प्रश्न व्याकरण सूत्र से ही स्वयं अपनी प्रात्मा का भी अपलाप करता। सकता है, जिसमें अहिंसा के निम्न साठ पर्यायइसी अन्ध में मागे पूर्ण-मात्मीयता की भावना को वाची नाम दिये गये हैं27-1. निरिण, 2. निर्वृत्ति परिपुष्ट करते हुए भगवान महावीर कहते है- 3. समाधि 4. शान्ति 5. कीर्ति स. कान्ती 7. प्रेम जिसे तू मारना चाहता वह सू ही है, 8. वैराग्य 9. श्रुतांग 10. तृप्ति 11. दया जिसे तू शासिम करना चाहता है यह तू ही 12. विमुक्ति 13. क्षान्ति 14. सम्यक् पाराधना है और जिसे तू परिताप देना चाहता है वह भी 15. महती 16. बोधि 17. बुद्धि 18 वृति तू ही है । भक्त परिज्ञा में इसी कथन की पुष्टि 19. समृद्धि 20, ऋद्धि 21. वृद्धि 22, स्थिति होती है उसमें लिखा है-किसी भी अन्य प्राणी (धारक) 23. पुष्टि (पोषक) 24. नन्द (मानन्द) की हत्या वस्तुतः अपनी ही हत्या है और अन्य । 25. भद्रा 28. विशुद्धि 27. सब्धि 28. विशेष जीवों को दया अपनी ही दया है।
दृष्टि 29. कल्याण 30. मंगल 34. प्रमोद
32. विभूति 33. रक्षा 34. सिद्धावास 35. मना. भगान बुद्ध ने भी अहिंसा के प्राधार के रूप स्वव 36. कैवल्यस्थान 37. शिव 38. समिति में इसी 'मात्मवत सर्व भूतेषु' की भावना को ग्रहण 39. शील 48.संयम 41. शील परिग्रह 42. संवर किया था मूत्र निपात में वे कहते हैं कि जैसा मैं 43. गृप्ति 44. व्यवसाय 45. उत्सव 46. यज्ञ हं वैसे ही ये मब प्राणी हैं, और जैसे ये सब प्राणी 47. पायतन 48. यतन 49. अप्रसाद हैं वसा ही में हू-इस प्रकार अपन समान सब 50. प्राश्वासन 51. विश्वास 62. अभय प्राणियों को समझकर न स्वयं किसी का वध करे 53. सर्व अनाघात (किसी को न मारना) मौर न दूसरों से कराये ।
54. चोक्ष (स्वच्छ) 55. पवित्र 56. शुचि गीता में भी हिंसा की भावना के प्राधार के।
57. पूता 58. विमला 59. प्रभात और रूप में प्रत्मवल सर्वभूतेषु' की उदात्त धारणा ही 60. निमलतर। है। यदि हम गीता को प्रदतवाद की समर्थक माने
इस प्रकार जैन प्राचार दर्शन में अहिंसा शन्द्र तो महिंसा के आधार की दृष्टि से जैन दर्शन और एक व्यापक दृष्टि को लेकर उपस्थिति होता है, अद्वैतवाद में यह अन्तर हो सकता है कि जहां उसके अनुसार सभी सद्गुण अहिंसा के ही विभिन्न जैन परम्परा में सभी प्रात्मानों की तात्विक रूप है मोर अहिंसा ही एक मात्र उद्गुण है। समानता के माधार पर प्रहिंसा की प्रतिष्ठा की अहिंसा क्या है? --हिंसा का प्रतिपक्ष गई है वहां अद्वैतवाद विचारणा में तात्विक अभेद अहिंसा है28 यह महिंसा की निषेधात्मक परिभाषा के आधार पर अहिंसा की स्थापना की गई है। है। लेकिन नात्र हिंसा का छोड़ना अहिंसा नहीं कोई भी सिद्धान्त हो, अहिंसा के उदुभाव की दृष्टि है। निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समप्र पक्षों का से महत्व की बात यही है कि अन्य जीवों के साथ स्पर्श नहीं करती । वह एक आध्यात्मिक उपलब्धि समानता या अभेद का वास्तविक संवेदन ही महिंसा नहीं कही जा सकती है। निषेधात्मक अहिंसा की भावना का मूल उद्गम है26 | जब व्यक्ति में मात्र बाह्म बनकर रह जाती है, जबकि प्राध्या
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