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अर्थात् जिन करणि संख्याओं को जोड़ना हो उममें किसी उपयुक्त संख्या का भाग देकर, भाय. फलों के वर्गमूलों को सामान्य रीति से छोड़ दें और योग में उपयुक्त संख्या (भाजक) का गुणा करो तो करणियोग पावेगा।
भास्कर (प्रथम) (ईसा की छठी शताब्दी के पूर्वाद्धं के विद्वान्) द्वारा उद्धृत तीनों गाथाए बड़े महत्व की हैं। जैन धर्म के ग्रन्थ अधिकतर प्राकृत में ही हैं। और ये गाथाएं किसी गरिणत जैन ग्रन्थ की होनी चाहिए । जो कि 'आर्यभट्ट' से पहिले की ही होने की सम्भावना है। "
आर्यभट्ट ने अपने आर्य सिद्धान्त के गणित पाद में गणित सम्बन्धित प्राएं दी हैं। उनमें दशगुणोत्तर संख्याओं के नाम, वर्ग, धन, वर्गमूल, त्रिभुज, वृत्त और अन्य क्षेत्र, इनके क्षेत्रफल, धन, गोल, इनके घनफल भुजज्यासाधन और भुजज्या सम्बन्धी कुछ विचार, पैराशिक, भिन्न कम (प्रपूर्णांक)
राशिक अथवा बीज गणित सम्बन्धी दो एक उदाहरण आदि दी हैं। प्रार्यभट्ट से पूर्वी जैन नथ धवला टीका, तिलोयपण्यत्ति आदि ग्रन्थों में संख्यामों के स्वरूप, नाम, अक्षर सकेलों द्वारा संस्थानों की अभिव्यक्ति, वर्गमूल, बृत्त, त्रिभुज आदि सभी गणित विषय पाए हैं। इनमें कुछ को डा. नेभिचन्द्र शास्त्री ने जगाचार्यों द्वारा प्रस्तुत 'गणित सम्बन्धी कतिपय मौलिक उद्भावनाएं" लेख में "उदधत की हैं।10
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.. आर्यभट्ट का आर्य सिद्धान्त प्रायः दक्षिण भारत के मालावार प्रांत में ही अधिक पाया जाता है । जिस क्षेत्र में तामील एवं मलयालम भाषा का प्रचार है। इसी क्षेत्र दक्षिण भारत में जैनाचार्य कुंद कुद (ई. पू. 8 अथवा वि. सं. 49) भी हुए थे। ये भद्रबाहु द्वितीय के शिष्य थे 11 भद्रबाह द्वितीय भी दक्षिण में ईसा से पूर्व तीसरी शताब्दी के बाद पाकर बसे थे और उस समय मैसूर में जैन लोग फैल गये थे । भद्रबाहु ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने ज्योतिष के 'नैमित्तिक शास्त्र, भद्रबाहु संहिता' उपसर्गहर स्तोत्र, दशाश्रु तस्कंध, प्रादि ग्रन्थों की रचना की थी। इनसे भी पूर्व ई, पू. 600 से ई. पू. 300 के पास पास गर्गाचार्य भी हो चुके थे जो कि जैन मालूम होते हैं ।
इस प्रकार चाहे आर्य भट्ट ने अपनी ज्योतिषी गणना करके यह प्रथम प्रगट किया हो कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमते हुए सूर्य के चारों ओर घूमती है, पर उनको प्रथम भारतीय गणितज्ञ मान लेना ठीक नहीं लगता। यह अवश्य है कि उन्होंने ज्योतिष गणित को परिशोधित परिमार्जित किया और कुछ मौलिता भी दी। पर, उनको ज्योतिष गणित के निर्माता नहीं कह सकते। यह निश्चित है कि उन्होंने जैनाचार्यों के उपलक्ष ज्योतिष विषयक ग्रन्थों का अध्ययन अवश्य किया होगा और उन पर मनन भी किया होगा। जो उनको अच्छा लगा होगा-उसे स्वीकार किया होगा। उन्होंने स्वयं ने 'आर्यभट्टीय' iv, 43' में कहा है-'मैंने ज्योतिष सम्बन्धी सच्चे-झूठे सिद्धांतों के समुद्र में गहरा गोता लगाकर अपनी बुद्धि रूपी नौका के माध्यम से सद्ज्ञान की मूल्यवान विभाजित मणि का उद्धार किया है।'
1. ज्योतिष विज्ञान जनवरी फरवरी 60 पृ. 15 2. देखिए 'कादम्बिनी' दिसम्बर 69 में प्रकाशित लेखक का लेख वराहमिहिर का काल निर्णय
एवं 'वेद-चक्षु' सम्पादक केदारनाथ प्रभाकर पृ. 71 से 79 तक।
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