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________________ 2-114 जैन मान्यता में ही कल्पकाल के दो भेद उत्सपिरणी मोर अबसपिणी करके प्रत्येक छह-छह भेद किये गये हैं अन्य वैदिक मान्यता में ऐसा नहीं है। ___ भार्यभट्ट को प्रथम गणित एवं ज्योतिष का विद्वान माना जाता है किन्तु, उनसे पूर्व ही अन । मान्यता के ग्रन्थ सूर्य प्रज्ञप्ति (ई. पू. 365). चन्द्र प्रज्ञप्ति (ई पू. 365), गर्ग संहिता (ई. पू. 5000 से ई. पू. 300), ज्योतिषकाण्ड इत्यादि में ज्योतिष शास्त्र की अनेक महत्वपूर्ण बातों का वर्णन किया गया है। इन ग्रन्थों के अवलोकन करने से स्पष्ट मालूम हो जाता है कि मेयन, मलमास, नक्षत्रों की श्रेणियां, सौर मास, चन्द्रमास, प्रादि का विवेचन हो चुका था। इससे भी अधिक प्राचीन और यथार्थ भौगोलिक एवं गणित सम्बन्धी 'दीवसागर पण्णति' ग्रन्थ है जो अवश्य ही 400 ई. पू. से पहिले रची गई होगी। यद्यपि प्राज यह कृति अनुपलब्ध है, तथापि बाद की अनेक भूगोल सम्बधी कृतियों में अनेक बार इसका सन्दर्भ दिया गया है। जैनाचार्यों के ग्रन्थो में गणित के अनेक ऐसे मौलिक सिद्धान्त निबद्ध है, जो भारतीय गणित में अन्यत्र नहीं मिलते। उपलब्ध जैन साहित्य भले ही इतना प्राचीन न हो, पर उसके तत्व मौखिक रूप से खरबों वर्ष पहिले विद्यमान थे। बल्कि निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाय तो जैन ऋषियों और मुनियों द्वारा ही सर्वप्रथम ज्योतिष विषयक प्रत्येक विषय पर प्रकाश डाला गया था। जैन मान्यता के अनुसार द्वितीय कुलकर ने नक्षत्र विषयक शकानों का निराकरण कर अपने युग के व्यक्तियों को प्राकाश मण्डल की समस्त बातें बतलाई थीं। अक्षर संकेतों द्वारा संख्या की अभिव्यक्ति प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के गोम्मटसार में स्पष्ट उपलब्ध होती है । छेदागम और चूणियों में भी यह प्रणाली है जिससे अंकों का परिज्ञान होता है। . आर्य भट्ट को प्रथम व्यक्ति कहा जाता है जिन्होंने जीवा के फलनों का पता लगाया तथा ज्योतिष में इनका उपयोग किया । किन्तु, आर्य भट्ट के प्रार्यभट्टीय ग्रन्थ की टीका करने वाला। भास्कराचार्य (प्रथम) ने अपनी टीका में किसी प्राचीन गणित ग्रन्थ की तीन गाथाएं उद्धृत की है। 'इस टीका की प्रति मैसूर राज्य प्राच्य पुस्तकालय बगलोर में बतलाई जाती हैं। ये तीनों गाथाए भास्कराचार्य ने 'प्रार्थभट्रीय'के गणितपाद के दशव श्लोक की टीका में दी हैं। उनमें पहली दो जाम निकालने और वृत्तांश का क्षेत्रफल निकालने का नियम बताती हैं और तीसरी 'करणों (Surds) में जोड़ने की विधि बतलाती है । इनमें से प्रथम गाथा- . _ 'योगाहरण विक्कम्भं एगाहेण संगुणं कुर्यात् । . , ... चन्द्रमणियं अस्स तु मु म (स) ? सा जीव्वा सकरवताणात । . अर्थात् व्यास में गहराई (वाण) को घदा के, शेष में गहराई से गुणा करो, गुणनफल। 'चौगुने का वर्गमूल वृत्तांश की जीवा होगी। दुसरी गाथा; ... 'इसुपाय गुण जीवा दसिकरणि भवेत वि गाणि पदं । . ___ धनुह अस्मिं खत्त एवं करणं तु दा अन्नम् ॥' ' अर्थात् जीवा को बाण के चौथाई और पक्ष के वर्गमूल से गुणा करने पर वृत्तांश क्षेत्रफल आता हैतीसरी गाथा--- 'मो वठ्ठि प्रदस्त कण, इमूल समासस्स मोत्थवत् । प्रो पठ्ठपामगणिय, करणि समासं तुणा मव्वम् ।।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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