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राजस्थान की प्राचीन जैन मर्तिकला
-श्री विजयशंकर श्रीवास्तव अधीक्षक, पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग, जोधपुर ।
प्राचीन समय से ही राजस्थान जैन धर्म व श्री केशी गणधर ने यहाँ भगवान महावीर के स्कृति का प्रमुख गढ़ रहा है। उसके विकास जीवनकाल के 37वें वर्ष में जीवन्त स्वामी के
प्रसार में राजस्थान का विशिष्ट योगदान है। मन्दिर व प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। इस मन्दिर एक प्रमुख प्राचार्यों व जैन विद्वानों की यह प्रमुख का वि सं. 1425 वैशाख सुदि । रविवार को मर्यस्थली रही, विभिन्न सम्प्रदायों व गच्छों का कोरंटकगच्छ के प्राचार्य सावदेवसूरि द्वारा जीर्णोद्धार हा उद्भव व विकास हुमा तथा जैन संघ का किया जाकर कलश, दंड चढ़ाया गया-तथा देवजस्थान के जन-जीवन पर अद्भुत प्रभाव रहा। कुलिकामों में 24 तीर्थकरों की प्रतिमानों की राजस्थान के साहित्य, संगीत, कला व संस्कृति के प्रतिष्ठा की गयी । कवि सुन्दरगणि (17वीं अन्य उपादानों को जैन-धर्म ने जिस प्रकार प्रभा- शताब्दी पूर्वार्ध) की सूचनानुसार गंगाणी (जोधवित व अनुप्राणित किया-उसके परिणामस्वरूप पुर से 28 कि. मी.) के जैन मन्दिर में सम्राट देलवाड़ा और राणकपुर जैसे विश्व-विश्रु त जैन चन्द्रगुप्त मोर्य द्वारा भगवान पाश्र्वनाथ दी स्वर्णमन्दिरों का यहाँ निर्माण हुआ, तीर्थकरों, प्राचार्यों प्रतिमा की प्रतिष्ठा श्रुत केवली भद्रबाहु द्वारा प्रादि की सहस्रों की संख्या में प्रस्तर एवं धातु करवायी गयी । सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति मूर्तियां निर्मित हुई, अगणित संख्या में जैन कथा- द्वारा अनेक नवीन जैन मन्दिरों का निर्माण, पुराने नकों पर हस्तलिखित ग्रथों का आलेखन हुमा, मन्दिरों का जीर्णोद्धार एवं अगणित जैन प्रतिसंचित्र पाण्डुलिपियों, विज्ञप्ति पत्रों के माध्यम से मानों की इन मन्दिरों में प्रति ठा-परम्परानुसार राजस्थानी चित्रकला को अपने निश्चित स्वरूप बहत ही लोक-प्रचलित है। राजस्थान के भी कई निर्धारण में पर्याप्त सहायता मिली।
पुराने जैन मन्दिर व प्रतिमाएँ सम्प्रति द्वारा
निर्मित किये जाने की धारणा जन-साधारण में . राजस्थान के मध्यकालीन अभिलेखों में उल्लेख व्याप्त है। टॉड ने कुभलमेरू के जैन मन्दिर का है कि भगवान महावीर ने पश्चिमी राजस्थान के निर्माता सम्प्रति को लिखा है । गोड़वाड़ प्रदेश के श्रीमाल (जालोर परिसर का भीनमाल) व अर्बुद- नारलाई (जिला पाली) के प्रादिनाथ मन्दिर के भूमि (प्राबू क्षेत्र) में स्वयं पधार कर उसे पवित्र मूलनायक की प्रतिमा की चरण चौकी पर वि.सं. किया । प्राबू रोड से लगभग 8 कि. मी. दूरस्थ 1686 का अभिलेख उत्कीर्ण है-जिसमें इस मंदिर मंगथला (मुडस्थल) के मन्दिर के द्वारखण्ड पर को मूलतः निर्मित कराने का श्रेय सम्प्रति को उत्कीर्ण विसं. 1426 के अभिलेख के अनुसार दिया गया है। गंगाणी में पदुमप्रभु की प्रतिमा
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