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की प्रतिष्ठा प्रायं सुहस्ति द्वारा वीर निर्वाण संवत निर्माता कलाकार सूत्रधार उस्ता मोहन, हरबंस, 203 में सम्प्रति के प्रश्रय में ही सम्पन्न हुई। दयाल व मथुरा थे। यद्यपि ये सभी उल्लेख व संदर्भ बहुत प्राचीन नहीं हैं। अतः उनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो राजस्थान के विभिन्न परिसदों में जैन धर्म सकती है परन्तु उनसे यह तो स्पष्ट है ही कि एवं संस्कृति की आधारशिला पाठवीं शताब्दी तक जन-मानस में यह धारणा बलवती है कि राज- पर्याप्त सुदृढ़ हो चुकी थी । मेवाड़, गोड़वाड़, स्थान में जैन धर्म की परम्परा बहुत प्राचीन है। मारवाड़, अलवर-कोटा क्षेत्र इस दृष्टि से महत्व
पूर्ण हैं । राजस्थान में रचित प्राचीन जैन साहित्य शुङ्ग व कुषाण काल में सूरसेन प्रदेश जैन धर्म एवं भगणित जैन-मूर्तियों के प्रतिष्ठा-लेखों का व संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था भौर पूर्वी राज- अध्ययन-इस दिशा में आवश्यक एवं गवेष्य है । स्थान उसका अविभाज्य भंग था अतः मथुरा से सुप्रसिद्ध जैन प्राचार्य हरिभद्रसूरि चित्तौड़-निवासी जैन धर्म की लहर का प्रवेश राजस्थान में होना थे और उन्होंने अपने ग्रन्थों में 8वीं शताब्दी में स्वाभाविक था । भरतपुर परिसर से 5-6वीं चित्तौड़ में जैन मन्दिरों की विद्यमानता का उल्लेख शताब्दी की जैन मूर्तियाँ ज्ञात हैं । भरतपुर संग्रहा- किया है । वीरभद्र द्वारा निर्मित जालोर के प्रादिलय में जवीना से प्राप्त सर्वतोभद्र आदिनाथ एवं नाथ मन्दिर में उद्योतनसूरि ने वि० सं० 835 इसी जिले से मिली नेमिनाथ की मूर्तियाँ इसी युग (778 ई) में 'कुवलयमाला' को रचना की , इस की कलाकृतियाँ है जिनमें गुप्तकालीन कला की ग्रन्थ की प्रशस्ति में उल्लेख है कि यज्ञदत्तगणि के स्पष्ट छाप है । वर्गाकार पीठिका पर चारों शिष्यों ने समस्त गुर्जर-देश को 7-8 वीं शताब्दी दिशाओं से उन्मुख दिगम्बर मादिनाथ के लम्बे में जिन देवालयों से समलंकृत कर दिया (रम्भो कान, माजानुबाहु, कंधों पर लटकते केश, वक्ष- गुज्जरदेसो जेहिकमो देवहरएहि)। वि. सं. 915 स्थल पर श्रीवत्स, लता-पत्रकों से निर्मित छत्र में जयसिंहसूरि द्वारा नागौर में लिखित 'धर्मोपदेशगुप्तकला का स्मरण दिलाते हैं । तथैव, 2 फीट माला विवरण' के अनुसार उस समय नागौर क्षेत्र 4 इंच ऊंची नेमिनाथ प्रतिमा में मासनस्थ तीर्थ- में कई जिनालय थे (नागउराइसु जिण-मन्दिराणि कर को बद्धपदूमांजलि मुद्रा में अंकित किया गया जायाणि ऐगाणि) । वहां कृष्णर्षि ने वि.सं. 917 है। उनके घुघराले केश, धनुषाकार भौहें, किंचि- में 'नारायण-वसति-महावीर जिनालय' की प्रतिष्ठा निमीलित नेत्र, श्रीवत्स चिन्ह-गुप्तकालीन कला की थी । श्रीमाल निवासी सिद्धर्षि ने वि.सं. 963 परम्परा के अनुकूल हैं । मूर्ति की चरण चौकी पर में 'उपमितिभवप्रपंचकथा' की रचना की मोर भगवान नेमिनाथ का लांछन शंख उत्कीर्ण है। जैन संघ ने उनके वैदुष्य से प्रभावित होकर उन्हें भरतपुर संग्रहालय में मध्यकालीन जैन प्रतिमाओं 'व्याख्यानकार' की उपाधि से समलंकृत किया । में अनेक अभिलेखयुक्त हैं जिनमें पार्श्वनाथ की मेवाड़ के करेड़ा के जैन मन्दिर से प्राप्त वि. सं. वि.सं. 1077 (बद्देना से प्राप्त) तथा वि.सं. 1039 के अभिलेख में संडेरकगच्छ के प्राचार्य 1109 तथा भुसावर से प्राप्त नेमिनाथ की वि.सं. यशोभद्रसूरि का उल्लेख है । पद्मनन्दि कुछ 1110 की मूर्तियाँ उल्लेखनीय है । बयाना के 'जम्बूदीपपन्नति' (रचनाकालः 10वीं शताब्दी) में निकट ब्रह्माबाद से प्राप्त जैन परिकर का निर्माण बारां (कोटा) में श्रावकों एवं जिन मन्दिरों की तपागच्छ संघ द्वारा वि.सं. 1679 में मुगल सम्राट चर्चा है। मालवा के प्रख्यात कवि धनपाल नुरूद्दीन जहांगीर के राजत्व में हुमा । उसके वि. सं. 1081 के लगभग 'सत्यपुरीय महावीर
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