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में कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है फिर भी नाम से विख्यात है। जो 15 वीं शती में पुन: कुछ प्राचीन गीतों भजनों एवं चारण भाटों की धीरे-धीरे आबाद हुआ और 17वीं शताब्दी तक जनश्रुति के अनुसार वीरमदंत एवं नाकोरसेन आबाद ही रहा। उस समय यहां करीबन 2700 दोनों बन्धुत्रों ने क्रमशः वीरमपुर एवं नाकोर नगरों जैन परिवारों की जनबस्ती थी। लेकिन आज की स्थापना की थी। प्राचार्य स्थूलीभद्रसूरि की मात्र केवल जैन तीर्थश्री नाकोड़ा के अतिरिक्त निश्रा में वीरमपुर में श्री चन्द्रप्नभू की एवं नाकोर कोई परिवार इस स्थल पर नहीं रहता है । सैकड़ों में श्री सुविधिनाथ की जिन प्रतिमानों की प्रतिष्ठा खण्डहर नाकोड़ा जैन मन्दिर के पास आज भी करवाई। वीर निर्वाण सं० 281 में सम्राट अपने प्राचीन वैभव, शिल्पकला, निर्माण अशोक के पौत्र ने, वी०नि० सं० 605 में उज्जैन कला के प्रतीक बने हुए हैं। भाखरी के के विक्रमादित्य ने, वी० नि० सं० 532-वि० स० समीप राजदरवार के अवशेष अब भी विद्यमान 82-में आचार्य श्री मानतुगसूरि द्वारा इन जिन हैं। इस स्थान से प्राधा मील दूर मेवानगर गांव मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया गया। वि० सं० आया हुप्रा है। 415 में आचार्य देवसूरि ने वीरमपुर में, 421 में नाकोड़ा जैन तीर्थ स्थान की परिधि में मुख्य नाकोर नगर के इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवा तीन विशाल शिखर धारी जैन मन्दिर, कई छोटे कर प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई। इसके पश्चात् नवीं शिखरों की देव गुम्बज, दो वैष्णव मन्दिर विद्यमान शताब्दी में जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ हुआ। हैं जिसमें सबसे पुराना एव वर्तमान मुख्य वि० स० 909 में वीरमपुर निवासी तातेड़ गोत्रीय श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ स्वामी का जिन मन्दिर सेठ हरकचन्द ने जीर्णोद्धार करवा कर श्री महावीर है। जो समय समय पर विनष्ट एवं विध्वंस स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई। उसके होता रहा और इसका जीर्णोद्धार चलता ही रहा । पश्चात् मुगल आक्रमणकारी नीति के भय से इस इस मन्दिर में प्रतिष्ठित भगवान श्री महावीर स्थान से जिन प्रतिमाओं को अन्यत्र सुरक्षित ले स्वामी की प्रतिमा के स्थान पर सं० 1429 में जाया गया। वि० सं० 1133 में श्री महावीर पुण्यात्मा जिनदत्त श्रावक को स्वप्न में नाकोर स्वामी की प्रतिमा को मन्दिर में विराजमान किया नगर के समीप श्री श्यामवर्णी पाश्वनाथ की नगर गया लेकिन कुछ परिस्थितियों के कारण इसकी प्रतिमा के होने का प्राभास मिला ।प्रतिमा नाकोर वि० सं० 1223 में वीरमपुर सकल संघ ने पुनः से प्राप्त हुई। उसको कहां प्रतिष्ठित किया जाय प्रतिष्ठा करवाई। वि० सं० 1200 में मुगल इस पर नाकोर नगर एवं वीरमपुर के जैन समुदाय बादशाह पालमशाह ने वीरमपुर एवं नाकोर नगरों में विवाद शुरू हो गया । बिना बैलों के रथ पर पर अाक्रमण कर खुलकर विनाश किया। उस प्रतिमा विराजमान की और अन्तिम निर्णय लिया कि समय इन दोनों स्थानों का करीबन 120 से जहां रथ रुकेगा वहीं प्रतिमा प्रतिष्ठित की जावेगी। भी अधिक प्रतिमानों को सुरक्षा हेतु न.कोर नगर रथ वीरमपुर आ रुका अतः प्रतिमा वीरमपुर के से 2 मील दूर कालीदह-नागदह-पहाड़ी में जाकर मन्दिर में प्रतिष्ठित करवाई गई। तभी से यह छिपाया गया।
स्थल श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ के नाम से ख्याति __ विनाश की घटनाचक्रों से ग्रस्त वीरमपुर अजित करने लगा है। ऐतिहासिक गतिविधियों के साथ बदलता रहा। नाकोड़ा तीर्थ के इस श्री पार्श्वनाथ जैन यह विभिन्न समय में बीरमपुर, महेबा, महेवानगर मन्दिर का विशाल शिखर और उसके प्राजू बाजू मेवानगर एवं वर्तमान श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ के दो सुन्दर शिखर हैं । मन्दिर में मूल गन्न गूठ
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