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हिंसा, कूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह,
किबाड़ों से बन्द एक मानवी कोठरी, अधेरी !
षट् षट् दर्शनों की
खट् खट् से खोला गया इसे
हार गए मिस्त्री महान
जब युग के !
साधना से सधकर
तब साधक महावीर ने
हिय के नयन जब खोले
और यों बोले"कोठरी बाहर से नहीं
अन्दर से बन्द है । एतदर्थं बाहर से नहीं अन्दर से वह खुलनी है ।" जीवन के इस प्रकार
खुल गए किबार,
अज्ञ तम मिट गया
और प्रकाश पूर्ण हो गयी कमनीय कोठरी जहान में ! बाहरी विधयां
युग के विधान बड़े,
हो गए व्यर्थ सब
रहे पड़े !
जनता समय की तब बोल उठी एक स्वर ! जय जय युग नाम, वीर प्रभु मेरे प्रणाम ! !
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जय जय युग नाम ! बोर प्रभु !
मेरे
प्रणाम !!
रचयिता
डॉक्टर
महेन्द्रसागर
प्रचंडिया,
अलीगढ़
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