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________________ भवान महावीर और कर्मसिद्धान्त संसार के सभी प्राणी स्वोपार्जित कर्मानुसार सुख-दुख का अनुभव कर रहे हैं। वास्तव में भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित कर्म सिद्धान्त इतना सूक्ष्म भोर व्यवस्थित है कि जिसका अध्ययन करके मानव कर्म से छूट सकता है और शुद्ध, निरंजन निर्विकार सिद्ध स्वरूप परमात्म तत्व की प्राप्ति सहज ही कर सकता है। प्राचार्य गुणभद्र स्वामी ने प्रात्मानुशासन ग्रन्थ में लिखा है-यह प्रशानी प्राणी दूसरों के विषय में हित और अहित की कल्पना करके तदनुसार उन्हें शत्रु और मित्र सम्रझने लगता है परन्तु वास्तव में जो उसका अहित. कारी शत्रु कर्म है उसकी ओर इसका ध्यान ही नहीं जाता है ! जीव बाल्यावस्था में जो गर्भ एवं जन्म प्रादि के असह्य दुख को भोगता है उसका कारण वह कर्म ही है ! तत्पश्चात् यौवन अवस्था में भी उक्त कर्म के ही उदय से प्राणी कुटुम्ब के भरण-पोषण की चिन्ता से व्याकुल होकर धन के कमाने प्रादि में लगता है और निरंतर दुःसह दुख को सहता है। इसी कर्म के निमित्त से वृद्ध अवस्था में इन्द्रियां शिथिल पड़ जाती हैं, शरीर विकृत हो जाता है और दांत टूट जाते हैं। इस प्रकार जो कर्म सब ही अवस्थाओं में उसका अनिष्ट कर रहा है उसे अहितकर न मानकर यह प्रज्ञानी प्राणी मागे भी उसी के वश में रहना चाहता है। लोक में देखा जाता है कि जो व्यक्ति किसी का एक बार कुछ मनिष्ट कर देता है तो उससे भविष्य में वह किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता परन्तु यह कर्म जो कि एक बार नहीं बार'बार इस प्राणी का मनिष्ट करता है फिर भी यह भविष्य में भी उस कर्म के ही प्राधीन रहनाः चाहता है। न्यायप्रभाकर, मायिकारत्न -श्री ज्ञानमतीजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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