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इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। रखता है । अपने साधनों द्वारा उसे भी अभिव्यक्ति राजेश एक व्यक्ति है। वह अपने पिता की अपेक्षा की स्वतन्त्रता है। यह महावीर के स्याद्वाद की पुत्र है तथा अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है। वह फलश्रुति है। पति है एवं जीजा भी। मामा है और भानजा भी। महावीर अनेकान्तवाद व स्याद्वाद से उन अब यदि कोई उसे केवल मामा ही माने पोर अन्य गलत धारणामों को दूर कर देना चाहते थे, जो सम्बन्धों को गलत ठहराये तो यह राजेश नामक व्यक्ति के सर्वागीण विकास में बाधक थीं। उनके व्यक्ति का सही परिचय नहीं है इसमें हठधर्मी है। युग में एकान्तिक दृष्टि से यह कहा जा रहा था प्रज्ञान है। महावीर इस प्रकार के प्राग्रह को कि जगत् शाश्वत् है, अथवा क्षणिक है। इससे वैचारिक हिंसा कहते हैं । मज्ञान से अहिंसा फलित वास्तविक जगत् का स्वरूप खंडित हो रहा था। नहीं होती। अतः उन्होंने कहा कि स्याद्वाद पद्धति मनुष्य का पुरुषार्थ कुण्ठित होने लगा था नियतिवाद से प्रथम वैचारिक उदारता उपलब्ध करो। केवल के हाथों । अतः महावीर ने प्रात्मा, परमात्मा और अपनी बात कहना ही पर्याप्त नहीं है, दूसरों को भी जगत इन तीनों के स्वरूप का वह यथार्थ सामने अपना दृष्टिकोण रखने का अवसर दो। सत्य के रख दिया, जिससे व्यक्ति अपनी राह का स्वयं दर्शन तभी होंगे । तभी व्यवहार की अहिंसा सार्थक निर्णायक बन सके । अपूर्व थी महावीर की यह होगी।
देन । सत्य को विभिन्न कोणों से जानना और कहना
अनेकान्त व स्याद्वाद के सम्बन्ध में महावीर दर्शन के क्षेत्र में नयी बात नहीं है। किन्तु महावीर ने जो कहा वह उनके जीवन से भी प्रकट हुअा है । ने स्याद्वाद के कथन द्वारा सत्य को जीवन के गायत्री
वे अपने जीवन में कभी किसी की बाधा नहीं बने । धरातल पर उतारने का कार्य किया हैं। यही जगत में रहते हुए किसी अन्य के स्वाथ से न उनका वैशिष्ट्य है। हम सभी जानते हैं कि हर टकराना, कम लोगों के जीवन में सध पाता है । वस्तु से कम से कम दो पहलु होते हैं । कोई भी महावीर के अनुसार यह टकराहट अधूरे ज्ञान के वस्तु न सर्वथा अच्छी होती है और न सर्वथा अहंकार से होती है। प्रमाद व विवेक से होती बुरी:
है। अतः अप्रमादी होकर विवेकपूर्वक प्राचरण 'दृष्टं किमपि लोकेस्मिन् न निर्दोष न निर्गुणम् ।' करने से ही अनेकान्त जीवन में आ पाता है।
अनेकान्त दृष्टि से ही सत्य का साक्षसार नीम सामान्य व्यक्ति को कड़वी लगती है। वही रोगी के लिए औषधि भी है। प्रतः नीम के सभव है । सम्बन्ध में कोई एक धारणा बना कर किसी दूसरे महावीर द्वारा प्रतिपादित स्याद्वाद में वस्तु के गुण का विरोध करना बेमानी है। सामान्य नीम अनन्त धर्मात्मक होने के कारण उसे प्रवक्तव्य की जब यह स्थिति है तो संसार के अनन्त पदार्थों .. कहा गया है । मुख्य की अपेक्षा से गौण को प्रकथअनन्त धर्मों के स्वरूप को जान कर उनका प्राग्रह- नीय कहा गया है। वेदान्त दर्शन में सत्य को पूर्वक कथन करना सम्भव नहीं है। मह वीर ने अनिर्वचनीय और बौद्ध दर्शन में उसे श य व इसे गहराई से समझा था। अतः वे मनुष्य तक विभज्यवान कहा गया है। अन्य भारतीय दार्शनिकों ही सीमित नहीं रहे। प्राणी मात्र के स्पन्दन की के अतिरिक्त प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्राइसटीन व सापेक्षता को भी उन्होंने स्थान दिया। मनुष्य की दार्शनिक वर्टनरसेल के सापेक्षवाद के सिद्धान्त भी भांति एक सामान्य प्राणी भी जीने का अधिकार महावीर के स्याद्वाद से मिलते-जुलते हैं । महावीर
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