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वापस प्राप्त करके गुफा मंदिर में उसकी पुनप्रतिष्ठा सर्व पाषण्ड (धर्म) पूजक, अनेक देवायतनों का करने के कारण धर्म की पोर खारेवल की निष्ठा निर्माता, अद्वितीय सैन्यबलवाला, राषचक्रवाला, और सम्मान भावना ही दूर-दूर तक विख्यात हो प्रवर्तित राजचक्रवाला, राजर्षि वसुकुलोत्पन्न तथा चुकी थी। खारवेल के इस प्रभावक व्यक्तित्व ने महाविजयी कहा गया है। इस सभा को एक सफल आयोजन के रूप में सम्पन्न
खारवेल के व्यक्तित्व की महिमा का बखान करने करने में अपना विशेष योगदान दिया। समूचे देश
वाले उपयुक्त प्रथम तीन विशेषण विशेष रूप से से जैन वाङमय के अध्येता विद्वान्, श्रावक मौर
ध्यान देने योग्य हैं। इन विशेषणों के भाषार पर साधु कुमारीपर्वत पर एकत्र हुए और सूत्रों का
यह विश्वास किया जा सकता है कि अपनी उत्तर पठन-पाठन तथा यथा संभव लेखन वहां हुआ।
अवस्था में खारवेल ने भी, चन्द्रगुप्त मौर्य की तरह, जैन वाणी का यह गुन्थन वर्णमाला के चौसठ
जैन साधु की दीक्षा अंगीकार कर ली थी । उसका वों, स्वरों और संयुक्ताक्षरों में किया गया।
अन्त समय भी जैन माचरण की चार आराधनाओं इसका संकेत शिलालेख के 'चोयठि-मंग संतिक' से
(सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र तथा मिलता है।
सम्यक् तप) की साधना में व्यतीत हुआ। यहां हम शिलालेख से यह ज्ञात नहीं होता कि यह 'क्षेमराज' सम्बोधन में समस्त जीवों के कल्याण की तेरहवां वर्ष खारवेल के राज्यकाल का अंतिम वर्ष कामना से युक्त उसका सम्यक् दृष्टि रूप, 'वृद्धराज' या या उसने और अधिक समय तक शासन किया। विशेषण में बढ़ते हुए निर्मल ज्ञान वाला उसका उसकी महिषी द्वारा बाद में अंकित शिलालेखों में सम्यक् ज्ञानी रूप तथा 'भिक्षुराज' पद में खारवेल उसे 'चक्रवर्ती' के ऐश्वर्यशाली पद के साथ स्मरण का तपस्यालीन, महावती, सम्यक् चारिणी रूप करना इसका संकेत देता है कि खारवेल ने आगे भी देखते हैं। मोक्षमार्ग की इन तीन उपलब्धियों से राज्य करके अपनी सम्प्रभुता का संवर्द्धन किया। अब खारवेल का जीवन पवित्र हो गया मोर यह शिलालेख तो उसके विरुदों और व्यक्तित्व परक सम्यक् तप उसके व्यक्तित्व में प्रतिष्ठित हो गया विशेषणों के उल्लेख के साथ समाप्त होता है। तब उसके लिये धर्मराज का सहज सम्बोधन हमें यहां उसे क्षेमराज, वृद्धराज, भिक्षुराज, धर्मराज, स्वतः सार्थक प्रतीत होने लगता है ।
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