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भटालिकाएं खड़ी हैं। उनमें भोग विलास की रहती है और धीरे-धीरे बिल्कुल लुप्त हो जाती है। सारी सामग्रियां उपलब्ध हैं। मानों स्वर्ग यहीं यह सुख इन्द्रियों की उत्तेजना से मिलता है अतः उतर पाया है। दूसरी ओर बहुत बड़ी संख्या में एक प्रकार का नशा है, प्राकुलता है । इन्द्रिय सुख ऐसे लोग हैं जिनके पास न खाने को पूरा अन्न है कितना ही भोगा जाय तृप्ति नहीं होती है । भोगने न रहने का मकान है और न पहनने को वस्त्र है। से शक्ति क्षीण होती है और एक दिन व्यक्ति भोगने इस सामाजिक विषमता से वर्ग संघर्ष बढ गया है। में असमर्थ हो जाता है। जिससे सर्वत्र अशांति, असुरक्षा और भय का वाता. इन्द्रिय सुख से अन्तःकरण में प्रथियों का वरण बना हुआ है तथा जीवन पहले से अधिक
निमारण होता है। इन्हें जैनागमों में कर्म बंध कहा दुःखी हो गया है।
गया है । यह कर्म बंध ही शारीरिक रोगों मानसिक यही स्थिति भगवान महावीर के समय भी क्लेशों, सामाजिक संघर्षों युद्धों प्रादि सब प्रकार के थी। उस समय संपन्नता में विपन्नता में प्राकाश दुखों का कारण है अन्तः दुख से मुक्ति पाने का पाताल जितना अन्तर था। एक ओर राजा- उपाय कर्मबंध से मुक्ति पाना है। महाराजाभों व सेठ-साहकारों के यहां धन का ढेर लग कर्म बंध से मुक्ति पाने के दो उपाय हैं जिन्हें रहा था तो दुसरी मोर बाजारों में मानव पशु- जैन दर्शन में संवर और निर्जरा कहा गया है । पक्षी की तरह बेचे जाते थे। राजा अपनी सत्ता इन्द्रिय और मन को संयम में रखना, हिंसा, झूठ, के बल पर मनमानी करते थे । सेठ अपनी सम्पत्ति चोरी, कुशील प्रादि पाप न करने का व्रत लेना के बल पर किसी को भी खरीद लेते थे। ऊंच संवर है । इससे नये कर्मों का बंध होना रुक जाता नीच का भेदभाव चरम सीमा पर था।
है। उपवास, विनय, सेवा, स्वाध्याय ध्यान मादि ___महावीर ने इस विषम स्थिति को देखा तो करना निर्जरा है। निर्जरा से पहले बंधे हुए कर्मों उनका हृदय करुणा से भर गया और वे इसके का नाश होता है। जब सब कर्मों का नाश हो निवारण का उपाय ढूढने लगे। प्रापने घर बार जाता है तो मात्मा सब दुःखों से हमेशा के लिए छोड़कर साढ़े बारह वर्ष तक चितन मनन और मुक्त हो जाता है । यह ही मोक्ष है। तपस्या की। अन्त में सर्व दुःखों से मुक्ति पाने का जिस प्रकार दवा से शारीरिक विकार दूर होने उपाय ढढ ही लिया। मापने बताया कि इन्द्रिय पर तत्काल शांति स्वस्थता व प्रसन्नता का अनुभव सुख वास्तविक सुख नहीं है । जिस प्रकार दाद के होता है उसी प्रकार संवर और निर्जरा से जितने रोगी को खाज खुजालने से सुख मिलता है परन्तु जितने अंश में प्रात्मा के विकार दूर होते जाते हैं, उसका परिणाम दुःख ही है। इसी प्रकार इन्द्रिय उतने उतने अश में शांति, समता और प्रानन्द की सुख का परिणाम दुःख ही है ।
उपलब्धि होती है । अतः सच्चा सुख राग, द्वेष मोह भगवान महावीर ने बताया कि इन्द्रिय सख भादि विकारोको दूर करने में है भोग भोगने में नहीं। में अनेक दोष है। यह सुख वस्तुओं के प्राधीन भगवान महावीर ने अपने अनुभव के आधार है प्रतः व्यक्ति को पराधीन बनाता है। जिन पर बताया कि भूतों से निर्मित शरीर का अन्त हो वस्तुमों से यह सख मिलता है वे नश्वर हैं जाने पर प्राणी के जीवन का अन्त हो अतः यह सुख भी नश्वर है । इन्द्रिय सुख चाहे जाता है। शरीर में शरीर से भिन्न एक प्रात्म कितना ही मधुर क्यों न हो भोगने के समय जो तत्व में अनन्त विलक्षण शक्तियां विद्यमान हैं। मधुरता पहले क्षण मिलती है वह दूसरे क्षण नहीं शरीर तो मात्मा की शक्तियों को प्रकट करने का
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