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र छठवीं-सातवीं शती में प्रवर पहाड़ी कहते थे। अनुसार यह किसी विशेप वृक्ष का दान नहीं था वगृह और गोरथगिरि दोनों पहाड़ी दुर्ग थे। वरन् कल्पद्रुम मह नाम का एक उत्सव था जो सा प्रतीत होता है कि उत्तर और पश्चिम दिशाओं बड़े समारोह पूर्वक मनाया जाता था। संभव है यह क्रमशः गंगा और सोन नदियों से सुरक्षित होने वर्तमान के वन महोत्सव की तरह कोई उत्सव रहा कारण पाटलिपुत्र पर केवल दक्षिण की ओर से हो । इस पंक्ति में तीन प्रकार के भवों का वर्णन क्रमण किया जा सकता था। इसी प्रोर गोरथ- है- घर, मावास और परिवसन डा० जायसवाल 26 गरि स्थित था । यह एक सैन्य दुर्ग था जो का कथन है कि घर का अर्थ गृहस्थों के रहने टलिपुत्र की वाह्य रक्षापंक्ति का कार्य करता था। योग्य मकान से है । याज्ञवल्क्य के अनुसार परिवसन हली बार जब खारवेल ने वृहस्पतिमित्र पर का तात्पर्य विशाल भवन से है जिसमें सामूहिक साक्रमण किया था तब वह पागे नहीं बढ़ सका रूप से अनेक साधक रह सकें। 27 लेकिन प्रावास गा। प्रतः जब चार वर्ष बाद पाटलिपुत्र पर का अर्थ स्पष्ट नहीं है। इसी वर्ष खारवेल ने माक्रमण किया गया तब उसने वहां के राजा को अड़तीस लाख मुद्राओं से महाविजय नामक एक ली प्राधीनता स्वीकार करने को विवश किया। राजभवन का निर्माण कराया । महाविजय प्रासाद
कर कार्य के करने में उसकी कीत्ति चारों को सन्निवास कहा गया है जिससे अनुमान होता और फैल गयी जिसके फलस्वरूप यवनराज डर से है कि यह अनेक भवनों का एक समूह था । जयभीत होकर मथुरा भाग गया । कुछ इतिहास- दसवें वर्ष में दण्ड, सन्धि और सामनीति का कारों के अनुसार यह यवनराज हिन्द-यूनानी नरेश पालन करते हुए उसने भारतवर्ष के विरुद्ध एक डिमेट्रियस था। इस मत का प्राधार "डिमित' अभियान किया और उस देश को विजित किया। सब का पाठ है किन्तु यह पाठ विवादास्पद है। हिन्दू राजनीति के अनुसार विदेश नीति के साम. आ. सरकार का कथन है कि यदि यहाँ 'डिमित' दाम, दण्ड और भेद चार प्रमुख अंग है जिनको पाठ को सही मान लिया जाय तो भी, यह यूनानी द्वितीय ई०पू० में मान्यता मिलना प्रारम्भ हो गयी राजा दूसरी ई.पू. के पूर्वाद्ध में होने वाला डेमेट्रियस थी। यहां पर यह उल्लेखनीय है कि खारवेल ने नहीं हो सकता, क्योंकि खारवेल के इस लेख की अभिलेख में 'भेद' का नाम नहीं लिया। संभवतः माथि पहली शती ई. पू. मानी जाती है।
उसने उसे निम्न कोटि का समझकर अपनी विदेश
नीति के अन रूप नहीं माना। अगले वर्ष उसने शासन के नवें वर्ष में उसने पल्लव,कल्पवृक्ष, अपनी सेनामों का मुंह दक्षिण की ओर मोड़ दिया बाव, हस्ति, चालकों सहित रथ, गृहनिवास और और पीथुन्ड नामक राजा की राजधानी जीतकर विधामशालायें दान की तथा ब्राह्मणों को कर देने वहां "गषों से हल चलवा दिया" । यह स्थान से मुक्त कर दिया । हेमाद्री 25 के अनुसार हाथियों टाल्मी द्वारा वर्णित पितुन्द्र नगर है जो प्रान्ध्रप्रदेश और घोड़ों सहित स्वर्णनिर्मित कल्पवृक्ष का दान के मछलीपट्टन प्रदेश की राजधानी था। इसी वर्ष महादानों में से एक था। लेकिन जैन शास्त्रों में यह उसने तमिल देश के राजानों के संघ की शक्ति को विधि कुछ परिवर्तनों के साथ मिलती है। उनके नष्ट कर दिया ।
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26. चतुवर्ग चिन्तामणि दान-खण्ड 26. ज. बि. उ. रि. सो. खण्ड 4, पृ, 380 27. याज्ञवल्क्यस्मृति, ?.187
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