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हाव-भाव व विभ्रम-विलास से उन्हें ध्यान-च्युत ने जिनको जयाचार्य भी कहते हैं लिखा हैकरने के विविध प्रयत्न किये, किन्तु सफलता नहीं संगम दुख दिया पाकरोर मिली।
सुप्रसन्न नजर दयाल, रात्रि समाप्त हुई। प्रातः काल महावीर ने जग उद्धार हुवे मो थकी रे अपना ध्यान समाप्त किया और बालुका की ओर
ए डुबे इण काल, विहार किया। फिर भी संगम ने दुष्प्रयत्न नहीं
- नहीं इसो दूसरो महावीर ॥ छोड़ा । तथा महावीर के साथ-साथ रहने लगा।
महावीर वास्तव में क्षमा की प्रतिमूर्ति थे । छः महीने पर्यंत संगम महावीर को भयंकर कष्ट
संगम के प्रति भी महावीर के मानस में करुणा का देता रहा । उसने अधमता की सीमा लांध दी थी। लेकिन भयंकर तूफान और धनघोर मेघ गर्जनाएं
अजस्र स्रोत बहता रहा। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र को प्रातंकित नहीं कर
धन्य है उस उदधि को, जिसने विश्व को क्षमा सकती, उसी प्रकार संगम का आतंक महावीर को का पाठ पढ़ाया था। प्रभावित नहीं कर सका। .
, , अन्त में यही कहूंगी कि__ महावीर की इस उत्कृष्ट साधना की स्तुति करते. .. वो एक गुल था, जिसके जलवे हजार थे। हुए तेरापंथ संघ के चतुर्थ प्राचार्य श्रीजीतमल जी वो एक साज था, जिसके नगमे हजार थे।
धर्म ही जगत का रक्षक है धर्मो वसेन्मनसि यावदलं स तावत्, : ..
हन्ता न हन्तुरपि पश्य गतोऽथ तस्मिन् । दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्माजानां रक्षा ततोऽस्य जगतः खलु धर्म एव ।।
-प्रा० गुणभद्रः आत्मानु• २६ अर्थ-जब तक मानव के हृदय में धर्म रहता है तब तक वह अपने मारने वाले को भी नहीं मारता किन्तु जब धर्म चला जाता है तो पिता पुत्र को और पुत्र पिता को मार डालता है अतः निश्चयपूर्वक यह कहा जा सकता है कि धर्म ही इस जगत् का रक्षक है।
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