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है । सब एक जैसी बात क्यों नहीं कहते। एक दूसरे की बात परस्पर विरोधी-सी क्यों लगती है ?
इन प्रश्नों ने अनेकान्त के दर्शन को जन्म दिया | भोले मन, तुम जितना जानते हो, वह तो एकांश ज्ञान है, तुम जितना कहते हो, वह तो एकांश कथन है । जितने जन कहेंगे उनकी दृष्टि बिन्दुएं अलग-अलग होंगी । उनका अपना चिन्तन दूसरे से सापेक्ष होगा । यह जान लें तो कहीं विरोध नजर ही नहीं प्राता । विचार के स्तर पर इस चिन्तन को अनेकान्त नाम दिया गया और वाणी के स्तर पर स्याद्वाद । जीवन में इस सापेक्ष सिद्धान्त का प्रयोग सारी जटिलताओं को समाप्त कर देता है । विभिन्न दार्शनिक दृष्टियों का समाधान इससे अच्छा मौर क्या हो सकता है ।
जैन दर्शन के इन सिद्धान्तों की प्राधार भूमि पर जिस श्राचार-संहिता का भवन खड़ा हुआ, उसे एक शब्द में कहें तो कह सकते हैं "अहिंसा" । सत्य, भचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, सच मानों तो इसी के अंग हैं। अहिंसा के बिना इनकी साधना हो ही नहीं सकती । आपने असत्य बोला M नहीं कि हिंसा हो गयी । चोरी की बात सोची नहीं कि हिंसा तभी हो गयी । श्रब्रह्म और परिग्रह की हिंसा प्रत्यक्ष दिखाई देती है । हिंसा बहुप्रायामी है और उसका समाधान है एक मात्र ग्रहसा ।
महावीर ने अहिंसा का प्रयोग समग्र जीवन के लिए किया। सामाजिक जीवन और अार्थिक क्षेत्र में इसका प्रयोग कैसे हो सकता है, राजनीति इसका वरण कैसे करे, इस सबके लिए उन्होंने आधार सूत्र दिये - जब तक मानव-मानव में ऊंच-नीच की दीवार खड़ी रहेगी, अहिंसा सघ नहीं सकती । सामाजिक जीवन संतुलित हो नहीं सकता । सबको समान मानो और समान अवसर दो । धन और जन को कुछ हाथों में केन्द्रित करना ठीक नहीं है । परिग्रह की मर्यादा बना कर चलना होगा । बिना अनुमति किसी की वस्तु लेना अनुचित है । भले
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ही वह धर्म के नाम पर क्यों न हो। दूसरे के प्रारण तो किसी भी स्थिति में नहीं लेने चाहिए ।
राजनीति के विषय में उन्होंने कहा- शासक को प्रजाजन से उतना ही भ्रंश लेना चाहिए जितने से वह पीड़ित न हो । जैसे भौंरा फूल में से रस ग्रहण करके अपने को तृप्त कर लेता है और फूल को नुकसान भी नहीं पहुंचाता, ऐसे ही शासक को अपना भागधेय ग्रहण करना चाहिए।
जैन दर्शन की यह स्पष्ट फलश्रुति है कि वर्ग भेद चाहे वह धर्म के नाम पर हो चाहे आर्थिक कारणों से, वह हिंसा है। स्वर्ग के सुखों का प्रलोभन देकर वर्तमान की साधन सुविधाओं को स्वाहा करना असत्य है, चोरी है, हिंसा है। प्रर्थ को अपने हाथों में समेट लेना परिग्रह है मोर परिग्रह बिना हिंसा के हो नहीं सकता ।
धाज हम जिस युग में जी रहे हैं उसमें जैन दर्शन के सिद्धान्तों की व्यापकता भोर अधिक नजर श्राती है । प्राज कोई भी बड़े से बड़ा व्यक्ति, बड़े से बड़ा समाज मोर बड़े से बड़ा राष्ट्र अपनी बात को, अपनी विचारधारा को दूसरे के ऊपर थोप नहीं सकता । इसे में तो अनेकान्त के चिन्तन का प्रसार ही कहूंगा । वर्गहीन समाज, समानाधिकार, प्रार्थिक सन्तुलन और धर्म निरपेक्ष शासन की जो इतनी व्यापक रूप से बात कही जाने लगी है, वह महावीर की साधना के बट बीज का खतनार वृक्ष है । हिंसा का प्रयोग व्यक्ति के जीवन से समाज श्रौर राष्ट्र के जीवन में किस प्रकार हो सकता है. इसका प्रयोग करके गांधीजी ने हमारे सामने रख दिया है, जिसका प्रभाव सम्पूर्ण विश्व पर है ।
जैन दर्शन के सिद्धान्तों की समय-समय पर अनेक प्रकार से व्याख्या की गयी । निःसन्देह मानवीय मूल्यों की दृष्टि से उनका व्यापक क्षेत्र है। जैन विश्वन ने विभिन्न युगों में दूसरे जीवनदर्शनों को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है । तीर्थंकरों का चिन्तन मानवीय मूल्यों के जिस व्यापक धरातल पर प्रतिष्ठित है वह देश प्रौर
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