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________________ 1180 थी। पशुबली तो सामान्य बात थी। भगवान उस युग की सामाजिक व्यवस्था में भाषा महावीर तो क्रांतिकारी थे। उन्होंने ऐसे कार्यों क्रांति की एक और कड़ी भगवान महावीर में का घोर विरोध किया और जनता के सामने जोड़ी। उनके युग में संस्कृत भाषा की प्रधानता अहिंसा प्रधान धर्म प्रतिपादन किया । महावीर ने अवश्य थी किन्तु वह जन साधारण से अपना समाज के प्रत्येक व्यक्ति से रत्नत्रय युक्त जीवन सम्बन्ध खो चुकी थी। संस्कृत केवल एक वर्ग व्यतीत करने पर जोर दिया। महावीर के रत्नत्रय विशेष की भाषा बन कर रह गयी थी और उम है-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र। वर्ग ने ही समाज में अपना प्रभुत्व कायम रखने के समाज के प्रत्येक व्यक्ति को मूढ़तामों एवं अहंकार लिए उसके विस्तार के सभी द्वार बन्द कर दिये युक्त जीवन से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने थे। उन्हें ही उसके अध्ययन अध्यापन की सुविधा सम्यक दर्शन का प्रतिपादन किया। उन्होंने लोक थी और वे ही उसका प्रयोग करने के अधिकारी मूढ़ता, एवं गुरु मूढ़तामों के बारे में कहलाने लगे थे। इसलिये भगवान महावीर ने समाज को पागाह किया। उन्होंने कहा कि नदियों उसी भाषा को अपनाया जो विशिष्टों की नहीं में स्नान करने में शुचिता मानना तथा स्नान से थी। उन्होंने प्रर्धमगधी को अपनाया जो उस समय पुण्य मर्जन करने में विश्वास करना मूढ़ता है। लोक भाषा थी जिसमें ऊर्जा थी तथा जो जन-जन देवी देवताओं की शक्तियों में विश्वास करना देव को जोड़ने वाली थी। महावीर ने अपने सभी मूढ़ता है तथा साधु एवं सन्यासियों के चमत्कारों में विश्वास करना गुरु मूढ़ता है। इसी तरह उन्होंने सन्देशों एवं प्रवचनों में अर्धमागधी भाषा काही अहकार की मनोवृति को निन्दनीय बताया तथा प्रयोग किया। महावीर की इस भाषा क्रांति ने समाज में अपनी बुद्धि का महंकार, धर्म का मह- समाज में एक दम हलचल मचा दी और लाखों कार जाति एवं शरीर का अहंकार, योग व तपस्या लोग सहज ही उनके हो गये । इस प्रकार भगवान का अहंकार से दूर रहने का उपदेश दिया क्योंकि इनके रहने पर समाज एवं व्यक्ति में पारस्परिक ___ महावीर प्रथम धर्माचार्य थे जिन्होंने सैकड़ों वर्षों के ई एव द्वेष बढ़ता है और समाज का एको. पश्चात् जनता को उसी की भाषा में धर्म एवं करण के स्थान पर विघटन होता है । जीवन विकास की बात बतलायो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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