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बे आगे चाहते हैं
क्षेमं सर्व प्रजानां प्रभवतु बलवान्धामिको भूमिपालः । काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् ।
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि मास्म भूज्जीवलोके........ ।
लेकिन आवश्यकता केवल भावना भाने अथवा प्रार्थना करने की नहीं उन आदर्शों को अपने जीवन में उतारने की है तब ही हमारा २५०० वां निर्वाण वर्ष मनाना सार्थक तथा हमारा जीवन सफल हो सकता है तथा विश्व विनाश के कगार से हट कर सुख और शांति की सांस ले सकता है। विद्वानों के प्रति समाज का दायित्व
आज समाज से जैन धर्म और दर्शन के तलस्पर्शी ज्ञान रखने वाले विद्वानों का प्रायः प्रभाव होता जा रहा है। इसका एक मात्र कारण है मां जिनवाणी के इन सेवकों के प्रति समाज की घोर उपेक्षा वृत्ति । पेट के पाटी बांध कर भी मां जिनवाणी के कोष में अपने अथक परिश्रम से वृद्धि करने वाले उन सेवकों की समाज ने कभी भी सध नहीं ली। जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन मां जिनवाणी की सेवा में लगा दिया वे आज कैसी अभाव की जिन्दगी जी रहे हैं यह जानने का समाज ने कोई प्रयत्न नहीं किया। फलतः कोई नवीन विद्वान् इस पथ पर अग्रसर होना नहीं चाहता।
आवश्यकता उनको सम्मानित करने की उतनी नहीं है जितनी उनकी रोटी रोजी की व्यवस्था करने की । इन दिनों कई ऐसे विद्वानों के उदाहरण सामने आए हैं और छटपुटरूपेण उनकी समाज ने सहायता भी की है किन्तु वह तो समुद्र में बूद के बराबर भी नहीं है । कुछ सौ रुपयों की सहायता
आज के युग में कितने दिनों का जीवन-यापन करने को पर्याप्त हो सकते हैं ? २५०० वें निर्वाण वर्ष में समाज को कुछ इस सम्बन्ध में करना चाहिए। महावीर जयन्ती की छुट्टी
प्राशा थी कि भ० महावीर का इतने समारोह से निर्वाण वर्ष मनार, वाली हमारी सरकार कम से कम उस महान् आत्मा के जन्म दिन की तो अब छट्टी घोषित कर ही देगी किन्तु पत्रों के पढ़ने से ज्ञात हुवा कि हमारो वह आशा भी फलवती नहीं हुई। जब अन्य धर्मों के महापुरुषों के जन्म दिवस की छट्टी सरकार रखती है तो मात्र भ० महावीर के जन्म दिवस की
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