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संन्यासी की प्रसिद्धि और बढ़ते हुए प्रमाव के रखे ? वह उसे अपने पास रखने लगा। इस से कारण एक निन देवराज इन्द्र का प्रासन डोल पास रहने वाले वन्य-पशु भयभीत होने लगे । सबकी उठा । इन्द्र घबराया पौर सोचने लगा-कहीं यह भावनाएं बदलने लगी। प्रेम, करुणा और महिंसा तपस्वी मेरा भासन न छीन ले । अपने प्रासन को का स्रोत सूखने लगा। हिंसा और प्रतिहिंसा की सुरक्षित रखने के लिए प्रावश्यक है कि तपस्वी को भावनाएं जागने लगी। तपस्वी का प्रभाव भी उसकी साधना से विचलित करू। उसे एक उपाय समाप्त होने लगा। उसकी शान्ति और समाधि सूझा। उसने ब्राह्मण का रूप बनाया। हाथ में खंडित हो गई। मन विचचित हो गया। इससे एक तलवार ली और संन्यासी की कुटिया के पास इन्द्र का आसन पुनः जम गया । वह तलवार सत्ता से गुजरा । जाते-जाते उसने कहा-बाबा ! मुझे की प्रतीक थी। जो इसमें उलझ जाता है वह प्रागे जाना है। इस तलवार को साय रखकर अपना सब कुछ खो देता है। भारतीय संस्कृति ने क्या करूंगा? पाप के पास रख द और लौटते सत्ता और सम्पत्ति के स्थान पर सदा त्याग, तपस्या वक्त ले लूंगा। मैं अभी-अभी माता हूं।
और संयम को महत्व दिया है। इस महत्व को
सम्यग् रूप से समझ कर महावीर के मूलभूत संन्यासी ने बहुत देर तक उसकी प्रतीक्षा की सिद्धान्तों पर बल दिया जाए और तदनुरूप प्राचारण किन्तु ब्राह्मण तो फिर लोटा ही नहीं। उसे लोटना किया जाए-यही भगवान महावीर के प्रति सच्ची भी नहीं था। सन्यासी अब तलवार को कहां श्रद्धांजलि हो सकेगी।
जैन धर्म स्याद्वादो वर्तते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते ।
नास्त्यन्यपीड़न किञ्चित् जैनधर्मः स उच्यते ॥ जिसमें स्याद्वाद है, किसी के प्रति भी किसी प्रकार का कोई पक्षपात नहीं है, जिसमें अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार की कोई पीड़ा नहीं पहुँचाई जाती, वह जैन धर्म कहलाता है ।
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