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दोनों ने उसका उपयोग अपनी-अपनी रचनाओं में इसे कुन्दकुन्दाचार्य की कृति नहीं मानते । वास्तव किया हो, ऐसी स्थिति में आदान-प्रदान की बात में वह कुन्दकुन्दाचार्य की कृति है भी नहीं : वह समुचित नहीं जान पड़ती।
उनकी परम्परा के प्राचार्य वट्टकेर की कृति है। इतिहास से प्रकट है कि भगवान महावीर का
मूलचार में 12 अधिकार हैं और 1203 के
लगभग गाथाएं है। जिनमें अधिकारानुसार विषय 'रिणग्गंढ णातपुत्त' रूप से उल्लेख मिलता है ।
का स्पष्ट विवेचन किया गया है । यह मूल निग्रन्थ अशोक के शिलालेखों में "रिणगंग्ढ' शब्द का प्रयोग
परम्परा का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। संभवतः इस जैन साधुषों के लिये हुप्रा है । अतएव जैन संघ
की रचना पाचारांग सूत्र का सार लेकर की गई उस समय निर्गन्थ नाम से ख्यात था। और यही
12वें पर्याप्ति अधिकार के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों निग्रन्थ संघ वाद को मूलसंघ नाम से प्रसिद्ध हुआ
का विचार है कि इस अधिकार की वहां जरूरत नहीं
थी। उन्हें यह जान लेना चाहिये कि प्राचार्य धारवाड़ जिले से प्राप्त कदम्ब वंशी राजा महोदय ने श्रमणों को जीवस्थान की उत्पत्ति, भेदशिवमगेश वर्मा के शिलालेख (78) में श्वेताम्बर प्रभेद और कर्म बन्धादि का का बोध कराने के लिये महाश्रमण संघ और निग्रंथ महाश्रमण संघ का उसकी रचना की है जिससे वे जीव हिंसा से अपने जूदा जुदा उल्लेख पाया जाता है । ईसा की चतुर्थ को संरक्षित रख सकें, और अहिंसक वृत्ति का ध्यान पंचम शताब्दी में दिगम्बर परम्परा को 'मूल' नाम रखते हुए अपती प्रवृत्ति को निर्दोष बना सकें। इस प्राप्त हो गया था। गंगवंशी नरेश अविनीत के सम्बन्ध में प्राचार्य वसुनन्दी की उत्थानिका महत्व शिलालेख में मूलसंघ का स्पष्ट उल्लेख पाया पूर्ण है। विशेष के लिये अनेकान्त वर्ष 12 किरण जाता है।
. 11 पृष्ठ 355 पर प्रकाशित लेखक की रचना देखें। ___ मूलाचार मूलसंघ का प्राचीन आचार ग्रंथ है। प्राचार्य वट्टकेर मूलसंघ की परम्परा के विद्वान इसमें किसी को विवाद नहीं हो सकता । इसकी हैं। उनकी यह एक मात्र कृति मूलाचार है जो रचना शैली और विषय का विवेचन कुन्दकुन्दाचार्य श्रमणों के मूल प्राचार का निरूपक है। चूंकि की शैली से भिन्न है। मूलाचार का गहराई से रचना का 5वीं शताब्दी में उल्लेख है । अतः वह अध्ययन करने पर उसका स्पष्ट प्राभास मिल जाता उससे पूर्व की रचना है। संभवतः वट्टकेर या वेट्ट है। स्व. पं० नाथूराम जी मे मी, डा० ए०एन० केरि का समय विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी उपाध्ये और पं० कैलाश चन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री, होना चाहिये।
1. "इति श्रीमदाचार्य वट्टकेरि प्रणीत मूलाचार श्री वसुनन्दी प्रणीत टीका सहिते द्वाद
शोऽधिकारः।" वट्टकेराचार्यः प्रथम तरं तावन्मूल गुणधिकारप्रतिपादनार्थं मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्त ।"
(मूलाचार वृत्ति उत्थानिका) 2. 'पुलिसेट्टि बलिय वेट्टकेरिय ललितष्ण. मोगों ? वासि सेट्टि बलियत सोति सेट्टिभागे ?"
(जैन साहित्य और इतिहास पृ० 549) 3. 'बोम्मसेट्टि वेट्टकेरेय इट्टयंद'-यह मूल लेख बम्बई प्रहाता के पृष्ठ 241 पर मुद्रित है ।
जैन लेख संग्रह भा० 4 पृ. 148 । 4. इंडियन एण्टीक्वेरीजिल्द 7 पृ० 37-38 5. जैन लेख संग्रह भाग 2 लेख नं0 70-74 पृ० 55-60
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