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________________ 2-58 (ख) पावापुस्य बहिरुन्नत भूमि देशे, पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये । श्री वर्धमान जिनदेव इती प्रतीतो निर्वाणामाप भगवान्प्रविधूतयाप्मा ॥ इनमें भी निर्वाण स्थान के लिए कहा है कि- पावापुर में कमलों से सुशोभित अनेक सरोवरों के मध्य वृक्षों से घिरी ऊंची भूमि पर भगवान का निर्वाण हुआ । 3- हरिवंश पुराण में कहा है जिनेन्द्रवीरोपि विवोध्य सततं समन्ततोमव्यसमूह संतति । प्रपद्य पावानगरों गरीयसी मनोहरोद्यानवने नदीयके ||15| ज्वलत प्रदीपालिका प्रवृद्धया सुरासुरं दिमितया प्रदीप्तया । तदास्म पावानगरी समंततः प्रदीप्तिना काशतलापकाशते ॥ इसमें भी पावानगर के मनोहर नामक उद्यान में निर्वाण होना वर्णित है । 4- जैनों के प्राचीन ग्रंथ जय धवला में कहा है : पच्छा पावाणयरे कत्तियमासस्स विण्ह चोदसि । सदीए स्त्री एसेसरयं छेतुव्विाणो ॥ : इसमें भी निर्वाण का स्थान पावानगर कहां है ★ 5- एक स्थान पर निर्वाण पूजन में कहा है: पावापुर वरोद्याने वीरं मोक्षं गतं यजे । अर्थ है - पावापुर के उत्तम उद्यान में वीर भगवान मोक्ष गए । इन सभी उद्धरणों से साफ जाहिर होता है कि भगवान महावीर वर्धमान का निर्वाण पावानगर में ऊंची भूमि पर स्थित मनोहर नाम के उपवन में हुआ जो अनेक कमल युक्त घिरा था । सरोवरों से ये सभी लक्षण सठियावां डीह-फाजिलनगर में पाए जाते हैं । केवल पं० प्रशाधरजी ने पोखरे के मध्य भगवान का निर्धारण लिख दिया है जो प्रगट रूप से गलत है । एक तो पोखरे के मध्य यह कार्य सम्भव नहीं है । दूसरे पं० प्राशाधरजी ने अत्यन्त संक्षिप्त रूप से वर्णन किया है और शीघ्रता में अनेक पोखरों के बीच लिखने की जगह पद्य की कड़ीं बैठने के लिए ही ऐसा लिख दिया है । इसका अर्थ भी अनेक पोखरों के मध्य ही मानना चाहिए । (ख) कल्प सूत्र नामक जैन ग्रन्थ में वर्णन है: --- 1 – तण जरणवय विहारं बिहरमाण भगवं अपच्छिमं वयालीस मं चाउमा पावापुरीए हत्थिपाल एणे रज्जुगसालाए जुसाएटिए || 2 - पावाए मज्झिमाए हत्थिपालिए महाए 3 – यस्यां श्री वर्धमानो..... हस्तियालाभिध घररिण भूजोsचिष्टितः शुल्कशालाम् स्वाता पूर्व जस्थ दर्शे शिवसमसुख श्री निशान्तं निशान्ते ॥ 4 – कासी कोसलगा नवमल्लई नव लिच्छई प्रठ्ठारस गणरायाणो अमावसाए पोसधोपवास पारिता ....... ************* 5 - मज्झिमपावाए पुब्वि अपावा पुरिस्ति नाम श्रासीसक्केरा || पावापुरिति नाम कयां जेणइथ्य महावीरसामी काल गो ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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