SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्म जयसागर का सीताहरण ब्रह्म जयसागर के सीताहरण की एक प्रति परवार जैन मन्दिर नागपुर से उपलब्ध हुई है। इस पाण्डुलिपि के कुल पन्ने 124 हैं और प्रत्येक पन्ने के पृष्ठ में लगभग 13 पंक्तियां हैं प्रत्येक पंक्ति में लगभग 25 अक्षर हैं। जहां कहीं शीर्षक लिखने में लाल स्याही का प्रयोग किया गया है । यह पाण्डुलिपि संवत् 1835 में फाल्गुन सुदी 8 बुधवार को पं० गंगाधर द्वारा की गई। प्रतिलिपिकार ने यद्यपि यथाशक्ति उसे शुद्ध रखने का प्रयत्न किया है और फलस्वरूप मार्जिन में अशुद्ध शब्दों को शुद्ध रूप में लिख दिया गया है, फिर भी प्रतिलिपि के देखने से प्रतिलिपिकार की अनेक भाषागत गल्तियां स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। इन सबके बावजूद ब्रह्म जयसागर का यह सीताहरण भाषा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी दिखाई देता है। ब्रह्म जयसागर भट्टारक महीचन्द्र के शिष्य थे। उन्होंने न तो ग्रन्थ के प्रारम्भ भाग में और न उसके अन्त भाग में ही अपनी गुरु परम्परा के विषय में सूचित किया है। अपने गुरु महीचन्द्र के अतिरिक्त रामचन्द का ही उल्लेख किया है। ये रामचन्द उनके ज्येष्ठ गुरुभाई होनी चाहिए क्योंकि उन्होंने "नमं रामचन्द्र घेरनार" लिखकर उनके प्रति मादर व्यक्त किया है। जहां तक मेरी जानकारी में है ब्रह्म जयसागर के विषय में अभी तक पर्याप्त सामग्री उपलब्ध नहीं। उनका काल लगभग 17 वीं शती का पूर्वापं निश्चित किया जा सकता है। उनके चतुर्विंशत्ति जिनस्तवन, जिनकुशल सूरि चोपई मादि अनेक अब मिलते हैं। राजस्थान के जैन भंगरों में इनकी प्रतिमा भी उपलब्ध हैं। पर उनके प्रस्तुत 'पीताहरणं' श्रीमती पुष्पलता जैन, एम०ए० गांधी चौक, सदर, नागपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy