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ग्रन्थ की प्रभी यही एक प्रति उपलब्ध हुई है जिसे कवि ने स्वयं आख्यान कहा है । यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है । ग्रन्थ का प्रारम्भिक भाग इस प्रकार है
"सकल जिनेश्वर पद नमू
सारदा
समरू
माय ।
गरणधर गुरु गौतम नमू जे त्रिभोवन बन्दित पाय ||1| महीचन्द्र गुरु पद नमु,
घेरनार ।
रामचन्द्र
सिताहरण जहं
सांभल जो नर नार ||2|| सिता सभी को सति नहि, राम समो पुण्यवंत। कथा कहूं हं तेहन्तणी, सांभलजे करि संत ॥3॥ रामनाम जपता थका, भव भय पातिक जाए ।
हामरणो,
मुगतिगामी सो लागु तेहने सारदा सुध बुध कर जोड़ि कहें
कहूँ,
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पाय |4|
आपने,
मात ।
सरस वचन हु मागसु, जेम कथा होए विखात ||5|| विख्यात कथा श्रीराम निहति, प्रमुखेने के सकहे कवि | सिताहरण संक्षेपे कहूं, साँभलजो सज्जन तायो सहूँ ||6|| fro यह आख्यानकाव्य छह अधिकारों में विभक्त "है । प्रथम अधिकार में अन्य जैन ग्रन्थों जैसी परम्परा का निर्वाह किया गया है । वहाँ कहा गया है कि मध्यमेरु की दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र हैं। उसके प्रार्य खंड में मगध जनपद है वहाँ 'राजा श्रेणिक अपनी महिषी चेलना के साथ राज्य करते हैं । एक दिन विपुलाचल पर्वत का वन एकाएक "पुष्प मा, माली ने इसकी सूचना दी
और बताया कि महावीर भगवान का समोशरण आया है | श्रेणिक सपरिवार उनके दर्शनार्थ गये इस प्रसंग में कवि ने यहां समवशरण का सुन्दर काव्यात्मक वर्णन किया है। भगवान की स्तुति कर रामचन्द्रजी के विषय में पूछा। इसके बाद धर्म का सुन्दर वर्णन किया गया है ।
द्वितीय अधिकार में रत्नपुर नगर का वर्णन, विद्याधरों और मेघवाहन का युद्ध, युद्ध का कारण आदि के विषय में बताया। भरत क्षेत्र में सक नगर में भावन नाम का श्रेष्ठि व हरिदास नामक उसका पुत्र है । रत्नद्वीप श्रादि में श्रेष्ठि ने व्यापार आदि के माध्यम से बहुत धनोपार्जन किया, अत्याचार अनाचार किये, संसार भ्रमण करते हुए दैवयोग से वह मनुष्य हुआ । तप किया । स्वर्ग गया व विद्याधर हुआ । रत्नपुर के राजा सहस्रलोचन से उसका युद्ध पूर्वभव के बैर कारण हुआ और फलस्वरूप मेघवाहन नामक पुत्र की मृत्यु हुई। यहां विषय की कुछ विशृंखलता व्यक्त होती है। मेघवाहन को लंका का राजा उसकी मृत्यु के बाद बनाया है । कीर्तिघवल नामक विद्याधर के पास श्रीकंठ राजा गया व स्वयंवर का विचार किया । यहीं दशरथ को स्वयंवर सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया गया विषय की विशृंखलता यहां पुनः भा जाती है ! सगर राजा, नारद पर्वत शिष्यों की कथा, यस राजा का श्रख्यान जैसी परम्परागत कथाएं जोर दी गई हैं। इस अध्याय का नाम पांचचरण दिया गया है ।
तृतीय अध्याय में स्वयंवर में रामचन्द्र विजय, प्रतिनिधियों से युद्ध, नागरिक अभिनन्दन वसंत वर्णन, हिंडोल भ्रमरणं, प्रणय कोप भरतमाता द्वारा वरयाचन, भरत को राज्य प्रदान, वन गमन नारद प्रकरण आदि का वर्णन है। यहां पु अनावश्यक कथा दे दी गई हैं । देशभूष कुलभूषण मुनि के दर्शन, उनसे वार्तालाप, मुनियो पर बलि का उपसर्ग, पांच सौ मुनियों का घानी
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