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________________ 1-77 से अलग हो गये हैं, उनका तो पर से अलगाव ही रागियों के होते हैं, और शत्रु द्वेषियों के । बीतअलगाव है। रागियों का कोन मित्र और कौन शत्रु ? कोई रागी वन में जायगा तो कुटिया बनायगा, उनसे शत्रुता करो तो करो, मित्रता करो तो करो, वहां भी धर बसायगा, ग्राम और नगर बसायगा, उन पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है। भले ही उसका नाम कुछ भी हो, है तो वह घर शत्रु-मित्र के प्रति समभाव का अर्थ ही शत्र-मित्र ही। रागी वन में भी मंदिर के नाम पर महल बसा- का अभाव है। उनके लिए उनका न कोई शत्रु यगा,महलों में भी उपवन बसायगा। वह वन में था और न कोई मित्र। अन्य लोग उन्हें अपना रहकर भी महलों को छोड़ेगा नहीं, महल में रहकर शत्रु मानो तो मानो, अपना मित्र मानो तो मानो, भी वन को छोड़ेगा नहीं। अब वे किसी के कुछ भी न रह गये थे। किसी उनका चित्त जगत् के प्रति सजग न होकर का कुछ रहने में कुछ लगाव होता है, उन्हें जगत् प्रात्मनिष्ठ था। देश-काल की परिस्थितियों के से कोई लगाव ही न रहा था। कारण उन्होंने अपनी वासनाओं को दमन नहीं - एक अधट घटना महावीर के जीवन में अवश्य किया था। उन्हें दमन की आवश्यकता भी न थी घटी थी माज से 2501 वर्ष पहले दीपावली के क्योंकि वासनाएं स्वयं प्रस्त हो चुकी थीं। दिन जब वे घट (देह) से अलग हो गये अधट हो उन्होंने सर्वथा मौन धारण कर लिया था, गये थे, घट-घट के वासी होकर भी घटवासी भी बोलने का भाव भी न रहा था । वाणी न रहे थे, गृह वांसी और वनवासी तो बहुत दूर पर से जोड़ती है, उन्हें पर से जुड़ना ही न था।' की बात है। अन्तिम घट (देह) को भी त्याग वाणी विचारों की वाहक है, वह विचारों का मुक्त हो गये थे। इससे अभूतपूर्व घटना किसी के पाद न-प्रदान करने में ििमत्त है, वह समझने- जीवन में कोई अन्य नहीं हो सकती पर यह जगत समझ ने के काम आती है, उन्हें किसी से कुछ इस को घटना म ने तब है न । समभना ही न था, जो समझने योग्य था उसे वे इस प्रकार जगत् से सर्वथा अलिप्त, सम्पूर्णतः अच्छी तरह समझ चुके थे, अब तो उसमें मग्न प्रात्मनिष्ठ महावीर के जीवन को समझने के लिए थे। उन्हें किसी को समझाने का राग भी न रहा उनके अन्तर में झांकना होगा कि उनके अन्तर था, अतः वाणी का क्या प्रयोजन ? वागी उन्हें में क्या कुछ घटा । उन्हें बाहरी घटनामों से प्राप्त की, पर वाणी की उन्हें मावश्यकता ही न जापना, बाहरी घनाप्रों में बांधना संभव नहीं है। थी। जो उन्हें चाहिये ही नहीं, वह रहे तो रहे, यदि हमने उनके ऊपर प्रघट-घटनामों को थोपने उससे उन्हें क्या ? रहे तो ठीक, न रहे तो ठीक । की कोशिश की तो वास्तविक महावीर तिरोहित वे तो निरन्तर आत्म चिन्तन में ही लगे रहते थे। हो जावेंगे, वे हमारी पकड़ से बाहर हो जावेंगे __नहाना-धोना सब कुछ छूट गया था। वे स्नान ; और जो महावीर हमारे हाथ लगेंगे, वे वास्तविक और दत-धोवन के विकल्प से भी परे थे। शत्रु महावीर त होंगे, तेरी मेरी कल्पना के महावीर भोर मित्र में समभाव रखने वाले मुनिराज वर्द्ध- होगे। यदि हमें वास्तविक महावीर चाहिये । मान गिरिकन्दरामों में वास करते थे। वस्तुत: न तो उन्हें कल्पनाओं के घेरों में न घेरिये । उन्हें उनका कोई शत्र ही रहा था और न कोई मित्र। समझने का यत्न कीजिए, अपनी विकृत कल्पनामों मित्र और शत्रु राग-द्वेष की उपज हैं। जब उनके को उन पर थोपने की अनधिकार चेष्टा मत राग द्वेष ही समाप्त प्रायः थे, तब शत्रु मित्रों के कीजिए। रहने का कोई प्रश्न ही नहीं रह गया था। मित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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