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संयम की राह
है अगर दया भाव दिल में हमारे. तो अपनावे उनको, जो हैं बे सहारे । क्षमाशील बनते हैं सोचें जरा हम, वृथा कोध से देह को क्यों जलाते ? ॥१॥ कर्ता स्वयं ही भर्ता स्वयं ही, स्वयं स्वयं के फल पाने वाले। नहीं है पर का जब लेना देना, बातें जगत की वृथा क्यों बनाते ? ॥२॥ कथन में क्रिया में बहुत भेद करते, अपना पराया सदा देखते हैं। कहां थे? कहां हैं ? कहा जा रहे हैं ? पतन को ही उत्थान हम कह रहे हैं ॥३॥ नहीं हमको मालूम कठिन क्या सरल क्या, करेंगे क्या चिन्तन मनन फिर बताओ। अनभ्यास से है सरल भी कठिन, कठिन भी सरल है अभ्यास से तो ॥४॥ सोचा न समझा विचारा न कुछ भी, स्वेच्छानुकूलाचरण से जिये हम । बिताया असयम में जीवन सदा ही,
सटा दी. बताओ तो संयम सा पथ कौनसा है ? ।' ५।।
-श्री कार्तिकेय कुमार जैन प्राचार्य-साहित्य एवं जन दर्शन, जयपुर सदा इन्द्रियाधीन रहकर के हमने, सुखाभास में सत् की संतुष्टि धारी। रमें पर में, भूले स्वयं को भला बताओ तो संयम का पथ कौनसा है? ॥६॥ तिमिर राह में श्रेष्ठ दीपक जलाकर आलोक से जो मंजिल बनाता । उसे भूलकर श्रेय हम चाहते हैं, बतायो तो संयम का पथ कौनसा है? ||७ । रसास्वाद हेतु स्वमर्याद तज-कर, खाते है भक्ष्य और अभक्ष्य को भी। श्र तज्ञान आलोक की राह खोकर, बतायो तो संयम का पथ कौनसा है? ।।८।। वैषम्य दृष्टि से परिपूर्ण होकर, अहं भाव की मान्यता से भरे हैं। नहीं स्वार्थवश हमने सोचा विचारा, बताओ तो संयम का पथ कौनसा है? ॥६॥ मन इन्द्रियां जिनके वश में नहीं हैं, नहीं है जरा यत्न निरोध का भी। अनातीत प्राशा से संयम को खोकर बतायो कहां फिर कल्याण पथ है ? ||१०॥
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