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श्री महावीर ग्रंग्य अकादमी-छठी पुष्प
कविवर बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज.
[ १७वी-१८यों शताम्हि के छह प्रतिनिधि कवियोंदुलाखीचन, बुलाकीवास, पाण्डे हेमराज, हेमराज गोषोका, मुनि हेमराज एवं हेमराज के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ उनको महत्वपूर्ण कृतियों के मूल पाठों का संग्रह
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लेखक एवं सम्पादक डा. कस्तुरबन्द कासलीवाल
प्रकाशक
श्री महावीर ग्रंथ अकादमी, जयपुर प्रथम संस्करण : मार्च, १९८३
मूल्य : ४०.००
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श्री महावीर ग्रंथ अकादमी-प्रगति रिपोर्ट
श्री महावीर मंय अकादमी की स्थापना सन शो जग साहित्य की २० भागों में प्रकाशित करने के उद्देश्य के साथ साथ जैन साहित्य का प्रकाशन, नव माहिन्य निर्मारग एवं जैन साहित्य, कला इतिहास, पुरातत्व जैसे विषयों पर शोध करने वाले विद्यार्थियों को दिशा निर्देशन के उद्देश्य को लेकर की गई थी। इन उद्देश्यों में अकादमी निरन्तर आगे बढ़ रही है। हिन्दी गैन कवियों पर प्रकाशित होने वाले भागों में घट्टा पुष्प पाठकों एवं माननीय सदस्यों के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है। अब तक प्रस्तुत भाग सहित निम्न भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं।
१. महाकवि ब्रह्म रायमल्स एवं भट्टारक त्रिभुवनकोत्ति २. कविवर दुचराज एवं उनके समकालीन कबि ३. महाकवि ब्रह्म जिनदास -- व्यक्तित्व एवं कृतित्म ४ भट्टारक रत्नकीर्ति एवं कुमुदचन्द्र १. भाचार्य सोम कीति एवं ब्रह्म यशोधर ६. कविपर बुलाखीचन्द, बुसाकीदास एष हेमराज
प्रकादमी के सप्तम पुप की सामग्री भी संकलित की जा रही है तथा उसे अक्टूबर तक अथवा वर्ष समाप्ति के पूर्व ही प्रकाशित कर दिया जायेगा ।
जैन भत्रियों के द्वारा विशाल हिन्दी साहित्य की संरचना की गयी थी। इसलिये उनकी सम्पूर्ण कृतियों को २० भागों में प्रकाशित करना तो संभव नहीं हो सकेगा क्योंकि ब्रह्म जिनदास एवं पाण्डे हेमगन जैसे बीसों कवि हैं जिनकी कृतियों के मूल पाठ प्रकाशित करने के लिए एक नहीं भनेक भाग चाहिये 1 फिर भी यह प्रसन्नता का विषय है कि अकादमी की ओर से अब तक बूधराज, छोहल, ठक्कुरसी, गारबपास, सोमक्रीति, ब्रह्म यशोधर सांगु, गुणकोति, यशःकीर्सि जैसे कुछ कवियों की तो सम्पूर्ण रमनायें प्रकाशित की जा चुकी है तथा शेष कवियों ब्रह्म रायमन्त
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त्रिभुवनकीर्ति ब्र. जिनवास, मुलाखीचन्द्र, बुलाकीदास एवं हेमराज की रचनाओं के प्रमुख पाठों को प्रकाशित किया गया है। जिससे विद्वान गरण उनकी काव्यगत महानता की जानकारी प्राप्त कर सकें और चाहें तो उनकी रचनाओं का भो अध्ययन कर सकें ।
अकादमी द्वारा २० भाग प्रकाशित होने के पश्चात् हिन्दी जगत् में है जैन कवियों के प्रति जो उपेक्षा एवं हीन भावना व्याप्त हैं वे पूर्ण रूप से दूर होगी और उन्हें साहित्यिक जगत् में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होगा और उनका साहित्य साधारण पाठकों को स्वाध्याय के लिये उपलब्ध हो सकेगा ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है ।
सहयोग
अकादमी को समाज का जितना सहयोग अपेक्षित है यद्यपि उतना सहयोग अभी तक नहीं मिल सका है फिर भी योजना के क्रियान्वय के ये विशेष कठिनाई नहीं हो रही है लेकिन हमें भविष्य में भी अधिक होगा किसके प्रकाशन कार्य में और भी अधिक तेजी लावी जासके । मैं उन सभी महानुभावों का जिनका हमें परम संरक्षक, संरक्षक, प्रध्यक्ष, कार्याध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सम्माननीय सदस्य एवं विशिष्ट सदस्य के रूप में सहयोग मिला है हम उनके पूर्ण आभारी हैं । अकादमी के परम संरक्षक स्वास्ति श्री पंडिताचार्य भट्टारक चारुकीति जी महाराज मूडबिद्री स्वयं विद्वान है, हजारों ताम्रपश्रीय ग्रंथों के व्यवस्थापक हैं। साहित्य प्रकाशन की महत्ता से वे स्वयं परिचित हैं। हम उनके सहयोग के लिये आभारी हैं ।
नये सदस्यों का स्वागत
पञ्चम भाग के पश्चात् डा. (श्रीमती) सरयू दोशी बम्बई एवं श्रीमान् पालाल जी सेठी डीमापुरते अकादमी का संरक्षक बनना स्वीकार किया है । डा. श्रीमती दोशी जैन चित्र कला की ख्याति प्राप्त विदुषी है। मार्ग जैसी कला प्रधान पत्रिका की सम्पादिका है । सारे देश के जैन भण्डारों में उपलब्ध चित्रित पांडुलिपियों का गहरा अध्ययन किया है। Homage to Shravan b lgla जैसी पुस्तक की लेखिका है । इसी तरह माननीय श्री पन्नालाल जो सेठी डीमापुर समाज के सम्माननीय सदस्य हैं। उदार हृदय एवं सेवा भावी सज्जन हैं। साधु भक्ति में जीवन समर्पित किये हुए है तथा प्रतिवर्ष हजारों साधर्मी बन्नों को जिमा कर मानन्द का अनुभव करते हैं । हम दोनों ही महानुभावों का हार्दिक स्वागत करते हैं ।
इसी तरह निदेशक मंडल में श्रीमान् माननीय डालचन्द जो मा. सागर एवं श्रीमान् रतन चन्द जी मा. पंसारी जयपुर ने उपाध्यक्ष के रूप में अकादमी को
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सहयोग प्रदान किया है । हम दोनों ही महानुभावों का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं । श्री बालचन्द जी सा. सागर से सारा जन समाज परिचित है । अ.भा. दि. जैन परिषद के के मध्यक्ष हैं। प्रापकी लोकप्रियता एवं सेवाभावी जीवन सारे मध्यप्रदेश में प्रसिद्ध है , इसी तरह श्री पंसारी सा. रश्नों के व्यवसायी हैं तथा जयपुर जैन समाज अत्यधिक सम्माननीय सज्जन हैं।
अकादमी के सम्माननीय सदस्यों में जयपुर के डा. राजमलजी सा. कासलीवाल देहली के श्री नरेशकुमार जी मादीपुरिया, मेरठ के श्री शिखरचन्द जी जैन, सागर के श्री खेमचन्द जी मोतीलाल जी, एवं डीमापुर के श्री किशनचन्द जी से ठी एवं कटक के श्री निहालचन्द शान्ती कुमार का भी हम हार्दिक स्वागत करते हैं । सभी महानुभाव समाज के प्रतिष्ठित एवं सेवाभावी व्यक्ति है। हा. राजमलजी तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के विश्वस्त साथी रह चुके हैं। संस्थाओं द्वारा सहयोग
दिसम्बर ८२ में श्री दि. जैन सिद्ध सेक पाहार जी में प्र. भा दि. जैन विद्वत परिषद के नैमित्तिक भधिबेशन में प्रकादमी की साहित्य प्रकाशन योजना की प्रशंसा करते हुए समाज से प्रकादमी का सदस्य बनने एवं उसे पूर्ण आर्थिक सहयोग देने के लिए जो प्रस्ताव पारित किया गया उसके लिए हम विद्वत् परिषद के पूर्ण प्राभारी हैं । इसी तरह पाहारजी में ही अ भा. दि जैन महासभा के अध्यक्ष प्रादरणीय श्री निर्मल कुमार जी सा. सेयी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रकादमी के कार्यो को जिस रूप में प्रशा की तथा उसे सहयोग देने का प्राश्वासन दिया उसके लिए हम उनके भी पूर्ण प्राभारी हैं। माननीय सेठी सा. तो प्रकादमी के पहिले ही सम्माननीय संरक्षक हैं।
विद्वानों का सहयोग
प्रकादमी को हिन्दी साहित्य के मनीषियों का बराबर सहयोग मिलता रहता है। अब तक डा सत्येन्द्र जी जयपुर, छा. हीरालाल माहेश्वरी जयपुर, डा, नरेन्द्र भानावत जयपुर, डा. नेमीचन्द्र जैन हन्दौर एवं डा. महेन्द्र कुमार प्रचंडिया अलीगढ़ ने संपादकीय लिखकर एवं पं. अनूपचन्द्रजी न्यायतीर्थ, पं. मिलापचन्द जी शास्त्री, श्रीमती डा कोकिला से ठी, श्रीमती सुशीला वाकलीवाल, डा. भागचन्द भागेन्दु जैसे विद्वानों का सम्पादन में हमें सहयोग मिलता रहा है । प्रस्तुत भाग के संपादक हैं सर्द श्री रावत सारस्वत जयपुर, डा हरीन्द्र भूषण उज्जैन एवं श्रीमती शशिकला जमपुर । माननीय श्री रावत स्वारस्वत राजस्थानी भाषा के प्रमुख विद्वान है तथा
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'राजस्थानी भाषा प्रचार सभा के निदेशक है । प्रापने प्रस्तुत भाग पर जो महत्वपूर्ण संपादकीयं लिखा है वह प्रापकी गहन विद्वता का परिचायक है। डा. हरीन्द्र भूषण भी जैन साहित्य के शीर्षस्थ विद्वान् हैं तथा कितने ही पुस्तकों के लेखक है । विक्रम विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के रीडर पद से अभी अभी रिटायर हुए हैं। प्रकावमी लिये के पाप विशेष प्रेरणा स्रोत हैं 1 श्रीमती शशिकला बाकलीवाल जयपुर उदीयमान विदुषी है । हम तीनों के प्रति अत्यधिक आभारी हैं। विशेष प्रामार
वैसे तो हम पूरे समाज के प्रामारी है जिसमें मंगल प्रशीर्वाद से अकादमी अपनी साहित्यिक योजना में सस्त मागे बढ़ रही है । विशेषत: पूज्य शुस्लकरत्न श्री सिद्ध सागर जी महाराज लाउनु वाले, पं. भमूपचन्दजी न्यायतीर्थ जयपुर, ६. श्री कपिल कोसिस हिसार के भी मानारी जिनका अकादमी को पूर्ण प्रशीर्वाद एवं सहयोग मिलता रहता है । ६६७ अमृत कलश बरमत कालोनी, किसान मागं
डा. कस्तुर चन्द कासलीवाल टोंक फाटक, जयपुर-६.२०१५
निदेशक एवं प्रधान संपादक
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संरक्षक के दो शब्द
श्री महावीर प्रस्थ अकादमी के षष्टम पुष्प 'कांचवर बुलाखापद बुलाकीदास एवं हेम गम' को पाठकों को हाथों में देते हुये मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है। सम्पुर्ण हिन्दी जैन साहित्य को २० भागों में प्रकाशित करने के उद्देश्य से संस्थापित यह अकादमी निरन्तर अपने मागे बढ़ रही है । मन में 1-नों
तादि के तीन प्रमुख कवि बुलातीपद, बुलाकीदास एवं हेमराज के व्यक्तित्व एवं कृतिरक्ष पर प्रकाश डाला गया है। तीनों ही कवि प्रागरा के थे तथा अपने समय के सामर्थ कवि थे । महाकवि घनारसीदास ने आगरा में जो साहित्यिक चेतना जागृत की थी उसीके फलस्वरूप प्रागरा में एक में पीछे दूसरे कधि हो गये और देषा एवं समाज को. नयी-मपी एवं मौलिक कृतियां मेंट करते रहे। इस भाग के प्रकाशन के साथ ही 10 फासलीवालजी ऐसे २६ जन प्रमुख हिन्दी कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश हाल चुके हैं, जिनकी सभी कृतियां हिन्दी साहित्य की बेजोड़ निमिया हैं। इन कवियों में ब्रह्म रायमल्ल, धूवराज, छोहल, गारवदास, ठक्कुरसी, ब्रह्म जिनदास, भ० रनकीति, कुमुक्षचन्द्र, माचार्य सोमकीति, सांगु, ब्रह्मयशोषर, पुलाखीयाद, बुलाकीदास, हेमराज पछि एवं हेमराज गोदीका के नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। इन सभी ऋभिमों में हिन्दी साहित्य को अपनी कृतियों से गौरवान्वित किया है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत भाग में कविरस्न बुलाखीचन्द ऐसे कवि है जिनका परिप्रय साहित्यिक अगस्त को प्रथम पार प्राप्त हो रहा है। पा. कासलीवालजी की साहित्यिक खोज एवं शोध सचमुच प्रशंसनीय है, जो अकादमी के प्रत्येक पुष्प में किसी न किसी प्रचचित एवं प्राप्त कवि को साहित्यिक जगत के समक्ष प्रस्तुत करते रहते हैं । मुझे पूरा विश्वास है कि हा. साहम को लेखनी से प्रब तक उपेक्षित सैकड़ों हिन्दी मैन कमि एवं मनीपो तथा उनका विशाल साहित्य प्रकाश में पा सकेगा।
श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी की स्थापना एवं उसका संचालन डा. कासलीपाल की साहित्यिक निष्ठा का सुफल है। को वर्ष पूर्व जब मुझे मेरे घनिष्ठ मित्र
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एवं सामाजिक कार्यो में सहयोगी तथा प्रसिद्ध संगीतज्ञ श्री ताराचन्दजी प्रेमी ने प्रकादमी के सम्बन्ध में चर्चा की तथा उसका संरक्षक सदस्य बनने के लिए कहा, तो मैंने तत्काल अपनी स्वीकृति दे दी। मैं इसके लिए श्री प्रेमी जी का प्राभारी हूँ। ऐसी साहित्यिक संस्था को सहयोग देने में मुझे ही नहीं, सभी साहित्यिक प्रेमियों को प्रसन्नता होगा।
अकादमी को निरन्तर लोकप्रियता प्राप्त हो रही है, जिसकी मुझे पतीच प्रसन्नता है। इसके पंचम भाग का विमोचन बम्बई महानगरी में परम पूज्य प्राचार्यश्री थिमलसागरजी महाराज की पुण्य जम्म जयन्ती महोत्सव के अवसर उन्हीं के सानिध्य में मूभिद्री के भट्टारफ स्वस्ति श्री चारूकोतिजी महाराज ने किया था। भट्टारकजी महाराज अकादमी के परम संरक्षक भी हैं। इस अवसर पर स्वयं प्राचार्यश्री जी ने डा० कासलीवाल जी को साहित्यिक क्षेत्र में सतत् आगे बढ़ते रहने का शुभार्शीवाद दिया था। पंचम भाग के प्रकाशन के पश्चात् डा श्रीमती) सरयू दोशी बम्बई एवं श्री पन्नालाल सेठी डीमापुर ने अकादमी का संरक्षक सवस्य बनने की महसी कृपा की है। इसके लिए हम उनके भाभारी है। जा० (थीमती दोणी जैन चित्रकला की शीर्षस्थ विदुषी है, तथा अपना समस्त जीवन जैन कला के महत्व को प्रस्तुत करने में समर्पित कर रखा है । सनका Homage to shrawar. belgola अपने युग की अनूठी कृति है। इसी तरह माननीय श्री पन्नालाल बी सेठी एक प्रमुख व्यवमायी है तथा अपनी उदारता, दानशीलता एवं साधु भक्ति के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध है। हम दोनों का हार्दिक स्वागत करते हैं। उस दोनों के प्रतिरिक्त सागर के प्रसिद्ध उद्योगपति एवं लोकप्रिय समाज सेवी श्री बालचन्द जी बैन, जो वर्तमान में अखिल भारतीय दि० जैन परिषद के अध्यक्ष है, अकादमी को उपाध्यक्ष के रूप में सह्योग देकर मध्यप्रदेश में अकादमी के कार्य क्षेत्र में वृद्धि की है। इसी तरह जमपुर में रत्नों के व्यवसायी श्री रतनचन्दजी पंसारी ने भी उपाध्यक्ष सदस्य बनने की स्वीकृति प्रदान की है। श्री पंसारी जी जयपुर जैन समाज के लोकप्रिय समाज सेबी है तथा नगर की कितनी ही संस्थानों को अपना सहयोग प्रदान करते रहते हैं। हम दोनो महानुभावों का उनके सहयोग के लिये हार्दिक स्वागत
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मुझे यह भी लिखते हुये प्रसन्नता है कि प्रकादमी को साहित्यिक संस्था के रूप में सर्वथा मान्यता मिल रही है । मभी गत वर्ष दिसम्बर ५९ में श्री माहारजी सिद्ध क्षेत्र पर प्रायोजित मा भा० दि. जैन विद्वत् परिषद ने एक प्रस्ताव द्वारा श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी के कार्यों की भूरि २ प्रशसा की है तथा समाज से प्रकादमी के लिए पूर्ण सहयोग देने की अपील की है। ऐसे उपयोगी प्रस्ताव पारित करने के लिए हम विद्वत परिषद के अध्यक्ष एवं मंत्री दोनों के पूरणं प्राभारी हैं।
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अन्त में मैं समाज के सभी महानुभावों से प्रार्थना करता हूं कि वे मकाधमी के अधिक से अधिक संख्या में सदस्य बनकर जन साहित्य के प्रकाशन में अपना पूर्ण योगदान देने का कष्ट करें।
रमेशचन्द अन
७-ए, राजपुर रोड
देहली-५४
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सम्पादकीय
भारतीय भाषामों और उनके साहित्य में एतद्देशीय जैन वाङमय का बड़ा प्रशंसनीय सल्लयोग रहा है। राजस्थानी और हिन्दी के विगत प्रायः एक हजार वर्षों के इतिहास में इस सहयोग के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए जा चुके हैं। इससे पूर्व की भी, संस्कृत, अद्धमागधी, प्राकृत प्रपन प्रादि तद्दकालीन भाषामों में रचित, बहुसंख्यक जैन रचनामों के विवरण प्रकाशित हुए हैं। अंन धर्माताओं ने अपने उपदेशों को जनसाधारण के लिए बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से लोकभाषा को माध्यम बनाया। यद्यपि वे पाण्डित्य पूर्ण विशिष्ट रचनायें मान्य साहित्यिक भाषामों में करते रहे, पर लोककल्याण की भावना से प्रेरित उनका विपुल साहित्य देशभाषानों में ही रखा गया । यह प्रतिरिक्त हर्ष का विषय है जै साई कार्य को इस परोहर को यत्नपूर्वक सुरक्षित रखा है, जिसके फलस्वरूप संकड़ों वर्ष बीत जाने पर भी वे कृतियां मनुसंषित्सुमों को प्राप्य हो सकी है। श्रद्धालु जैन समाज के श्रावकों ने प्राचार्यों की इस पाती से लाभान्वित होकर स्वयं भी उनके अनुकरण पर बहुसंख्यक रचनायें की हैं। ऐसी अनेक रचनात्रों ने जैन वाङमय में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है । दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायियों में इस प्रवृत्ति का विशेष बाहुल्य रहा है। ब्रजभाषा, बुन्देली भौर पश्चिमी हिन्दी से सटे राजस्थान के पूर्वी और पूर्वी दक्षिणी अंचलों में ऐसी रचनायें अधिक रची गई ।
इस धर्म प्रधान साहित्यिक जागरण को उस अखणा ज्ञान चेतना से प्रङ्गीभूत रूप में ही देखा जा सकता है जो प्राताब्दियों से उत्तरप्रदेश, राजस्थान, पंजाब और मध्यप्रदेश के विशाल भू भागों को जैन संस्कृति की देन के रूप में मालोकित करती रही है। प्रस्तुत शोधग्नथ में जैन समाज के ऐसे ही तीन सुकरियों की रचनायें संकलित की गई हैं।
इस संकलन की विशिष्टता न केवल इन रचनाओं का पज्ञात होना है प्रपितु इनकी भाषागत एवं साहित्यिक वैशिष्ट्य की पांडित्यपूर्ण विशद विवेचना
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भी है जो मैन वाङमय के लब्धप्रतिष्ठ अधिकारी विद्वान डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल द्वारा की गई है। हा. कासलीवाल को ऐसे बीसों कवियों को प्रकाश में लाते हुए, इसी प्रकार के कई विद्वत्तापूर्ण संकलन संपादित करने का श्रेय है । ये सभी प्रय विवरसमाज में बचित और समान हुए हैं। श्री महावीर अ'छ पकादमी के छठे 'पुष्प' के रूप में प्रकासित इस संकलन की शृङ्खला को प्रागे बढ़ाने में सतप्त प्रयत्नशील, डा. कासलीवाल की यह नि.स्वार्थ सेवा सभी साहित्य प्रेमियों के द्वारा अभिनंदनीय भोर अनुकरणीय है ।
विषयवस्तु की दृष्टि से जैन रवनानों को समन भाषा-साहित्य से पृथक करके देखने की जो प्रवृत्ति कही-कहीं दिखाई देती है, उसे भाषा और साहित्य का सामान्य हित चाहने वाले लोग संकुचित मौर एकांगी ही कहेंगे। भाषा के ऐति. हासिक विकास क्रम का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने इन रचनामों की उपादेयता को स्वीकार किया है। जिस काल विशेष की अन्यान्य अजैन रचनायें दुष्णप्य हैं सके लिए तो ये ही रचनायेंहमारा एक मात्र प्राधार बनी हुई है । इन्हीं रचनाओं में प्रसंगवश समकालीन इतर साहित्यकारों के प्रकीर्णक छव भी उदपन मिलते हैं जिनमे साहित्य का इतिहास नवीन तथ्यों से समृद्ध बनता है । प्रबन्ध चिम्सामरिण, पुरातन प्रबन्ध संग्रह प्रबन्ध कोश, पुरानन पद्य प्रबन्ध प्रादि ग्रथों में संकलित उत्तर प्रपभ्र प्र कालीन प्रबंधों में दिए गए ऐसे उदाहरण देश भापामों के उद्भव को समझने में दो सहायक सिद्ध हुए हैं।
भाषा के संबंध में दूसरी विशेषता जैन कषियों द्वारा प्रयुक्त वह मनोरम शब्दावली है जो लोक में सप्तत व्यवहार के कारण बड़ी प्राई, स्निग्ध और संस्कार संपन्न हो गई है । पह शब्दावली, परिनिहित साहरिपक शब्द प्रयोगों को रूदिगन कृत्रिमता और शुष्क बाग्जान से प्राकृञ्चित न होकर, लोकमानस में प्रवहमान मानवीय भावनानों की मरसता और अपनत्व से प्रोत प्रोत है। इसमें मस्तिष्क को बोझिल भोर सारना हिणी बुद्धि को कुण्ठित करने के उपक्रम के स्थान पर सीधे हृदय से दो-दो बातें करने का अबाधित और अनायास संपक है । इस दृष्टिकोण से लोकभाषायों की स्थानीय रंगत में रंगे जैन काव्यों का अध्ययन अभीष्ट है।
जैन प्रबंध रचनामों में सांस्कृतिक मामग्री की जो विशदता, विपुलता और सर्वांगीरगता मिलती है वह संस्कृतेतर भाषामों के प्रन्यान्य साहित्य में तुलनात्मक रूप से प्रति विरल ही कहीं जाएगी 1 हमारे विस्मृत एवं लुप्तप्रायः ज्ञानकोश के पुनर्निर्माण के लिए जैन साहित्य का महत्व सर्वोपरि माना जाना चाहिए । साहित्यिक
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वनों की जो परम्परा जैन ग्रंथों में उपलब्ध है उनसे अनेक उलझे सूत्र सुलझाने में बड़ी सहायता मिली । इस वर्णक सम्मुचय को हम तत्कालीन काव्य पाठशालाओं के पाठ्यक्रम का एक अंग ही मान सकते हैं। वर्तनों को इस परिपाटी ने प्राचीन भारतीय संस्कृति को सुसंक्षत करने में बड़ा योगदान दिया है। प्रस्तुत संकलन में आई ऐसी सांस्कृतिक सामग्री पर डा. कासलीवाल ने अपनी विद्वत्तापूर्ण भूमिका में श्रद्धा प्रकाश डाला है।
जब से विद्वानों का ध्यान जैन रचनाओं की इस सांस्कृतिक समृद्धि को र गया है, अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों के सांस्कृतिक श्रव्ययत प्रस्तुत किए गए हैं। हरिवंश पुराण, कुवलयमाला, उपमितिभव प्रपंचकथा, प्रद्युम्नचरित जिनदत्तचरित निशीथ चूणि प्रभृति ग्रंथों के ऐसे अध्ययनों ने सांस्कृतिक विषयों में रुचि रखने वाले अध्येताम्रों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश प्रावि के ग्रंथों में प्राप्त प्रभूत सांस्कृतिक संदर्भों के अनुकरण पर प्राप्य भाषा काव्यों में भी ऐसी सामग्री का प्रभाव नहीं है । कविवर बनारसीदास को प्रात्मकथा 'मर्द्ध' कथानक' का ऐसा ही एक अध्ययन हाल ही में किया भी गया है । इस शैली पर, विषयों की और गहराई में उतरते हुए सांस्कृतिक शब्दों का खुलासा किया जाना अपेक्षित है । शब्दों के व्युत्पत्ति जन्य एवं पारंपरिक प्रथों की समीचीनता को उद्घाटित करने के कारण ही 'श्री श्रभिधान राजेन्द्र कोष' जेसे प्रामाणिक ग्रंथ विश्व भर में समाहत हुए हैं ।
संस्कृति के पक्ष से ही अविछिन रूप से जुड़ा हुआ राज और समाज का प्रशन भी है। ऐतिहासिक उल्लेखों की जो प्रामाणिकता जैन विद्वानों की रचनाओं से सिद्ध हुई है उसकी तुलना में हमारा दूसरा पारम्परिक साहित्य नहीं ठहरता । इसका मुख्य कारण सो पही हो सकता है, कि जैनधर्माचार्य निरन्तर बिहार करते रहने के कारण हरेक स्थान से संबंधित घटनाओं के विश्वस्त तथ्यों से परिचित हो सकते थे । इसी निजी संपर्क से लोक व्यवहार एवं सामाजिक रीति-नीति का भी निकटतम और सहज प्रध्ययन संभव था। निरन्तर जन सम्पर्क में आते रहने से लोक मानस के अन्तराल का वैज्ञानिक अध्ययन एवं मनोवृत्तियों का सम्पर्क विश्लेषण भी उनके लिए सहज बन गया या किसी भी साहित्यकार के लिए देश-देशांतर का इस प्रकार का निरीक्षण अत्यन्त श्रेयस्कर है। पर अनेक कारणों मे ऐसा करना दिले ही लोगों के बश की बात है। जैनाचायों ने चूंकि इसे जीवन का एक प्रति श्रावश्यक अंग बना लिया था. अतः उनके लिए यह साहित्यिक सामर्थ्य का एक कारण भी बन गया है। इस प्रकार के चतुर्दिक में रहने के कारण
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ही जैन रचनाओं में राज, समाज और संस्कृति की श्रमूल्य सामग्री समाहित हो सकी है।
प्रस्तुत संकलन में आए हुए कवियों की रचनाओं का सामाजिक और साँस्कृतिक अध्ययन मध्यकालीन समाज और संस्कृति के अनेक अज्ञात प्रथवा प्रज्ञात पक्षों को उजागर कर सकता है। यह हर्ष का विषय है कि डा. कासलीवाल ने इस दिशा में संकेत करते हुए अपने संपादकीय प्रालेखो में यह शुभारम्भ कर दिया है। आधुनिक विश्वविद्यालयों में शोधरत छात्रों द्वारा ऐसे लघुशोध प्रबंध तैयार करवाये जाकर इस प्रयत्न को आगे बढाया जा सकता है। कालान्तर में ऐसे ही प्रयासों से 'विशाल भारतीय संस्कृतिक्रोश' का निर्माण संभव हो सकेगा -
प्रस्तुत संकलन के संपादन व प्रकाशन के लिए श्री महावीर ग्रंथ अकादमी से संबद्ध सभी सुधीजन, विशेषतः डा. कासलीवाल, सभी साहित्य प्रेमियों के साधुबाद के पात्र हैं ।
डी २५२, मीरा मार्ग बनीपार्क, जयपुर ।
0-00
रावत सारस्वत
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लेखक की अोर से
"कविवर जुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज" पुस्तक को पाठकों के हाथों में देते हुये मुझे प्रत्यधिक प्रसन्नता है। विशाल हिन्दी जैन साहित्य के प्रमुख कवियों में उक्त तीनों ही कवियों का प्रमुख स्थान है। ये १७ वी १८ वीं सताब्दि के चमकते हुये प्रतिभा सम्पन्न चिन्होंने : महापू ति से उत्कीर माज एवं स्वाध्याय प्रेमियों को गौरवान्वित किया था। यह भी प्रसन्नता की बात है कि तीनों ही कवियों का प्रागरा से विशेष सम्बन्ध था जहां महाकवि बनारसीदास जैसे कवि उनके पूर्व हो चुके थे।
उक्त तीन कवियों में बुलाखीचन्द का नाम हिन्दी जगत के लिये एक दम अनजाना है। प्राज तक किसी भी विद्वान् ने उनके नाम का उल्लेख नहीं किया इसलिये ऐसे प्रचचित कचि को हिन्दी अगत् के सामने प्रस्तुत करने में मोर भी प्रसन्नता होती है। बुलाखीचन्द की एक मात्र कृति 'वचन कोश' की अभी तक उपलब्धि हो सकी है किन्तु यही एक मात्र कृति उनके व्यक्तित्व को जानने/परखने के लिये पर्याप्त है 1 कवि ने अपनी पद्यात्मक कृतियों में बीच २ में हिन्दी गद्य का प्रयोग करके उस समय के चर्चित गद्य का भी हमें दर्शन करा दिया है। हिन्दी गद्य साहित्य के विकास को जानने के लिये भी 'वचन कोण' एक महत्त्वपूर्ण कृति है। लगता है कवि साहित्यिक होने के साथ इतिहास प्रेमी भी थे इसलिये उन्होंने अपने इस कोश में प्रवाल जैन जाति की उत्पत्ति, काष्ठा संघ का इतिहास, जैसवाल जैन जाति की उत्पत्ति का इतिहास, भगवान महावीर के सम पसरा का जैसलमेर में प्रागमन जम्बू स्वामी का कैपल्प एवं निर्वाण जैसी ऐतिहासिक बातों का पच्छा वर्णन किया है। प्रस्तुत भाग में हम वचन कोश के पूरे पाट नहीं दे पाये हैं कुछ प्रमुख पाठ देकर ही हमें सन्तोष करना पड़ा है।
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__ (xv) ___ इस भाग के दूसरे ऋवि बुलाकीशस है जिनका पाण्डवपुरामा प्रत्यधिक लोकप्रिय ग्रंथ मामा जाता है। बुलाकीदास ने पाण्डवपुराण एवं प्रश्नोत्तरत्रावकाचार. दोनों ही ग्रन्थों का निर्माण एपनी माता मैनुल दे की प्रेरणा से किया था। सारे साहित्यिक जगत में पंडितः जल जैसी
सामापहीला महिला को मिलना कठिन है। बुलाकीदास का पाण्डवपुराण काव्य की दृष्टि से भी एक सुन्दर कृति है जिसमें महाभारत के पात्रों का बहुत ही उत्तम गति से वर्णन हुप्रा है। एक जैन कवि के द्वारा युद्ध का इतना सांगोपांग वर्णन अन्य काव्यों में मिलना कठिन हैं।
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इस भाग के तीसरे कवि है पाण्डे हेमराज । लेकिन हेमराज एक कवि ही नहीं है । एक समय में हेमराज नामके चार कवि मिलते हैं जिनमें पो तो बहुप्त उच्चयगी के कवि हैं। हेमराज पाण्डे का नाम हम सब जानते अवश्य हैं लेकिन उनके काव्यों की महत्ता एवं कला से अनभिज्ञ रहे हैं। हेभराज प्राचार्य कुम्द-कुन्द के बड़े भागे भक्त थे इसलिये उन्होंने प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय बसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्यों पर हिन्दी गद्य में टीका लिस्मी और फिर समयसार एवं प्रवचनसार को छन्दों में लिखकर हिन्दी जगत् को अध्यात्म साहित्य को स्वाध्याय के लिये सुलभ बनाया । पाण्डे हेमराज के ग्रन्थों का गद्य भाग भाषा के अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है किस प्रकार जन विद्वानों ने हिन्दी भाषा की अपूर्व सेवा की थी इस सबसे इन अन्यों के प्रध्ययन के पश्चात् अच्छी तर परिषित हो सकते हैं । यास्तव में हेमराज अपने समय के जबरदस्त विद्वान् रे तथा समाज द्वारा समाहत कांद माने जाते थे।
पाण्डे हेमराज के अतिरिक्त एक दूसरे कवि थे हेमराज गादीका । वे मूलतः सांगानेर थे लेकिन कामां जाकर रहने लगे थे। ये भी प्राध्यात्मिक कवि थे कुन्द-कुन्द के प्रवचनसार पर उनकी अगाध श्रद्धा थी । इसलिये उन्होंने भी इसे हिन्दी पद्यों में गूय दिया। उनकी दूसरी रचना उपदेश दोहा शतक है । जिसका पूरा पाठ इस भाग में दिया गया है। हेमराज गोदीका अपने समय के सम्मानित कवि थे। इसी तरह उसी शताब्दि में दो पौर हेमराज नाम के कवि हए जिन्होंने भी अपनी लघु रचनामों से हिन्दी जगत को उपकृत किया ।
प्रस्तुत भाग में बुलाखीचन्द के वचनकोश बुलाकीदास के पाण्डवपुराण, हेमराज पापड़े का प्रवचनसार (पद्य), हेमराज गोदीका के उपदेश
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(xvi)
दोहाशतक (पूरी कृति) एवं प्रवचनसार ( हिन्दी पद्य) के कुछ प्रमुख पाठों को दिया गया है । प्राशा है पाठक गए उनके अध्ययन के पश्चात् कवियों की काव्य प्रतिभा का परिचय प्राप्त कर सकेंगे ।
सम्पादक मंडल
प्रस्तुत भाग के सम्पादन में माननीय रावत सारस्वत जयपुर, हरीन्द्र भूषण जैन उज्जैन एवं श्रीमती शशिकला बाकलीवाल जयपुर का जो सहयोग मिला है। उसके लिये मैं उनका पूर्ण प्रभारी हूँ। श्री रावत सारस्वत ने जो सम्पादकीय लिखा है वह अत्यधिक महत्व से तथा हिन्दी
गिता पर विस्तृत प्रकाश डालने वाला है ।
आभार
साहि
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मैं श्री दि० जैन बडा तेरहपंथी मन्दिर जयपुर के शास्त्र भण्डार के व्यव स्थापक श्री कपूरचन्दजी रा० पापडीवाल, पाण्डे लूणकरणजी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार के व्यवस्थापक श्री मिलापचन्दजी बागायतवाले एवं दि० कौन मन्दिरजी होलियान ने व्यवस्थापक श्री नरेन्द्र मोहनजी इंडिया का आभारी हूँ जिन्होंने अपने २ शास्त्र भण्डारों में से वांछित पाण्डुलिपियां संपादन के लिये देने की कृपा की। प्राशा है भविष्य में भी आप सबका इसी प्रकार का सहयोग प्राप्त होता रहेगा ।
मैं आदरणीय श्री रमेशचन्दजी सा० जैन देहली का भी आभारी हूँ जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक के लिये दो शब्द लिखने की कृपा की है। जैन सा० का अकादमी को विशेष सहयोग मिलता रहता है ।
अन्त में मैं मनोज प्रिन्टर्स के व्यवस्थापक श्री रमेशचन्दजी जैन का भी श्राभारी हूँ जिन्होंने पुस्तक के मुद्रा में पूरी तत्परता दिखाई है तथा उसे सुन्दर बनाने में योग दिया है ।
जयपुर
१ मार्च १६८३
डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल
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१ श्री महावौर ग्रन्थ अकादमी - प्रगति रिपोर्ट
२ संरक्षक के दो शब्द
३ संपादकीय
४ लेखक को श्रोर से
५ पूर्व पीठिका
६ कविवर बुलाखीचन्द
(i) वचन कोश -
पाठ
७ कविवर बुलाकीदास
(ii) पाण्डवपुराण- मूलपाठ
-मूल
विषय-सूची
८ मुनि हेमराज
पाण्डे हेमराज
१० हेमराज गोदीका
११ हेमराज (चतुर्थ)
पृष्ठ संख्या
iil-1
vil-ix
x-xill
XIT-XT]
१-२
३-४४
४५ - ११५
११६ - १५०
१५१ - २००
२०१ - २०४
२०४ - २२४
२२४-२२६
२२६- २३२
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हतिया-(1) उपदेश दोहा सतक
२३३-२४० {ii) प्रयपानसार भाषा पर
२४१-२५४ (ALI) प्रवचनसार भावा(कवितबंध)
२५५-२६४ १२ नामानुशमणिका
२६५-से १३ कबर पुल पर चित्र -कविवर बुलाकीदास पासपुराण
की रचना करते समय अपनी माता बनुलवे को सुनाते हुए
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पूर्व पीठिका
विक्रम की १७वीं शताब्दि समाप्त होने के साथ ही देश में हिन्दी कवियों की बाढ़ सी प्रागयी। एक ही समय में बीसों कवि होने लगे। प्राकृत, संस्कृत, एवं अपभ्रंश में रचनायें करना बन्द सा हो गया । जन साधारण भी हिन्दी कृतियों को पढ़ने में सर्वाधिक रूचि दिखलाने लगा । भाषा कवियों का प्रादर बढ़ गया । कबीर, मीरा, सूरदास एवं तुलसी का नाम उत्तर भारत में श्रद्धा के साथ लिया जाने लगा एवं उनकी रचनाओं ने धार्मिक रचनाओं का स्थान से लिया । जैन कवि तो धारम्भ से ही अपभ्रंग के साथ-साथ राजस्थानी, ब्रज एवं हिन्दी में रचनायें निबद्ध करने में आगे थे । १७वीं शताब्दि के पूर्व कविवर सघारू, राजसिंह, ब्रह्मजिनदास, भ. ज्ञानभूषण, प्राचार्य सोमकीति, बूचराज, व्र. यशोधर, डीहल, ठक्कुरसी, ब्रह्म रायमल्ल, भ रत्नकीत्ति, कुमुदचन्द, बनारसीदास, रूपचन्द जैसे प्रभावी जैन कवि हो चुके थे जिन्होंने स्थानका मार्ग प्रशस्त कर दिया था तथा जन-मानस में हिन्दी रचनाओं के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न कर दी थी। पाठकों की इस श्रद्धा से हिन्दी कवियों को प्रत्यधिक बल मिला और उन्होंने विविध संज्ञा परक रचनाओं के निबद्ध करने में अपने आपको समर्पित कर दिया ।
१६वीं १७वीं एवं १८वीं शताब्दि में एक ग्रोर गुजरात एवं बागड प्रदेश हिन्दी एवं राजस्थानी कवियों का केन्द्र बना रहा तो दूसरी ओर आगरा नगर जैन कवियों के लिये तीर्थ बनने लगा। गुजरात एवं बागड प्रदेश में भट्टारकों एवं उनके शिष्य प्रशिष्यों का जोर था । वे चरित, रास, वेलि, कथा एवं भक्ति परक रचनाओंों को निबद्ध करने में लगे हुए थे तो दूसरी ओर भागरा जैसे नगर में अध्यात्मवादी कवियों का जोर या श्रौर वे समयसार नाटक एवं माध्यात्मिक कृतियों के लिखने में भूम रहे थे । श्रात्म तत्व के प्रेमी ये कवि देश में एक नयी लहर फैलाने में लगे हुए थे। इसलिये कविवर बनारसीदास एवं उनकी मंडली के कवि रूपचन्द कोरपाल जैसे कवियों ने दिन-रात एक करके पचासों प्राध्यात्मिक रचनायें लिखने में सफलता प्राप्त की जिनका देश के सभी भागों में जोर का स्वागत हुआ । बनारसी
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२
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
आदर्श बन गये । उत्तर में
दास तो उत्तरी भारत में स्वाध्याय प्रेमियों के लिये मुलतान एवं दक्षिणा में राजस्थान,
देश
आदि सभी स्वाध्याय केन्द्रों
पर समपार नाटक, बनारसी विलास जैसी कृतियों की स्वाध्याय एवं चर्चा होने
लगी ।
यहां यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश कवियों के संरक्षक विभिन्न भट्टारक थे जो अपने समय के सर्वाधिक प्रतिष्ठित जेन सन्त के रूप में समाहत थे । राजस्थान में मामेर, सांगानेर, अजमेर, नागौर जैसे नगर इनके केन्द्र थे जहाँ पचासों पंडित साहित्य सेवा में लगे रहते थे। लेकिन आगरा केन्द्र से सम्बन्धित कवि भट्टारकों के अधिक सम्पर्क में नहीं थे । बनारसीदास ऐसे कवियों के प्रादर्श थे । इसलिये संवत् १७०१ से १७५० तक के काल को बनारसीदास का उत्तरवर्ती काल के नाम से सम्बोधित किया कर सकता है। इस अवधि में भागश, कामी, सामानेर, प्रमेर, टोडारायसिंह जैसे नगर हिन्दी कवियों के प्रमुख केन्द्र थे । हमारे तीनों वित कवि बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज इसी अवधि में होने वाले कवि थे जिनका प्रस्तुत भाग में विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है। इन पचास वर्षो में मनोहरलाल, हीरानन्द, खडगसेन, प्रचलकीति, रामचन्द्र, जगतराम, जोधराज, नेमिचन्द्र भैया भगवतीवास, श्रानन्दघन जैसे पचासों कवि हुए जिन्होंने अपनी सैकड़ों रचनाओं से हिन्दी के भण्डार को समृद्ध बनाने में सफलता प्राप्त की । इन सभी कवियों का विशेष अध्ययन अकादमी के आगे के भागों में किया जायेगा ।
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कविवर बुलाखीचन्द
बुलाखीचन्द हिन्दी विद्वानों के लिये एक दम नया नाम है। क्या जैन एवं क्या जनेतर विद्वानों में से किसी ने भी कविवर दुलाखीचन्द के विषय में अभी तक नहीं लिखा है । इसलिये प्रकादमी के प्रस्तुत भाग में एक अज्ञात कवि का परिचय देते हुए हमें मी प्रत्यधिक प्रसन्नता है । इसके पूर्व भी अकादमी के दूसरे भाग में गारवदास, चतुर्थं भाग में श्राचार्य जयकीति, राघव, कल्याण सागर तथा पंचम भाग में ब्रह्म गुणकीति जैसे प्रशात कवियों का परिचय दिया जा चुका है लेकिन बुलाखीचन्द उन सबसे विशिष्ट कवि थे तथा अपने समय के प्रतिनिधि कवि थे ।
जीवन परिचय :
कविवर मुलाखीचन्द जैसवाल जाति के श्रावक थे। जैसवाल जाति की उपरोतिया एवं तिरीतिया इन दो शाखाओं में से बुलाखीचन्द तिरोतिया शाखा में उत्पन्न हुये थे । उनके पितामह का नाम पूरणमल एवं पितामह का नाम प्रसाम था। वे राजाखेड़ा के बोधरी थे तथा उनकी भागरा तक घाक् थी। प्रताप जैसवाल के पांच पुत्र थे जिनमें सबसे छोटे लालचन्द मे ।
लालचन्द के पुत्र का नाम जिमचन्द था लेकिन सभी परिवार वाले उसे बुलाखीचन्द के नाम से पुकारते थे 12 लेकिन वे कौनसे संवत में पैदा हुए, माता का नाम
१.
कारक गाम गोत परनए इहि विधि सवाल भरनए । उपशेतिया गोत छत्तीस, तिरोंतिया गनि छह चालीस ॥७४॥ तिरोंतिया तिनि में एक जानि, पूरण प्रश्न प्रताप सुद जानि ।
राजाबेरा की बजधरी, अण्गलपुर को मानु छु बरी ।। ७५ । २. साके पांच पुत्र प्रभिराम, अनुज लालचन्द तसु नांम ।
ता सुतहीये प्रीति निचन्द, सब कोऊ कहे बुलाखीचन्द ।। ७७ ।।
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Y
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
क्या था तथा उनका बचपन एवं युवावस्था किस प्रकार व्यतीत हुई इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती । लोक ना अमरप है। आगरा से विशेष सम्बन्ध होने के कारण कवि को अच्छी शिक्षा मिली होगी । प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी भाषा का उन्हें अच्छा ज्ञान था तथा काव्य रचना में उनकी कचि थी। उनका कवि हृदय था।
संवत् १७३७ के पूर्व उनके हृदय में एक ऐसे ग्रंथ निर्माण करने का भाव पाया जिसमें जिन कथा दी हुई हो । कवि के वृन्दावन एवं सागरमल ये दो मित्र थे । जब कवि को काव्य रचना की इच्छा हुई तो उसने अपने इन दोनों मित्रों से चर्चा की घोर उन दोनों की आज्ञा लेकर बरनकोश को रचना कर डाली।। दोनों मित्र जिनधर्मी एवं परम पवित्र थे । सभी उनका सम्मान करते थे। दोनों को जनधर्म का पच्छा ज्ञान था । ग्रंथ पूरा होने पर उसका नाम बचनकोश रखा गया । कवि ने लिखा है कि बचनकोश नाम ही अत्यधिक उज्वल माना गया।
रचना काल एवं रचना स्थान
बच्चनकोश की रपना संवत् १७३५ वर्ष में वैशाख सुदी अष्टमी के शुभ दिन समाप्त हुई थी । उस दिन सोमवार था । कवि ने सोमवार का 'नीम' नाम दिया है। रचना स्थान बनपुर था जो उस समय एक सुन्दर नगर था तथा वहां के निवासियों में अपनी बुद्धि पर गर्द था।
संवत सत्रहरी वरस ऊपरि सप्त धक तीस । बैशाख अंधेरी अष्टमो, बार बरनज नीम ॥ ८३ ॥ भानपुर नगरी सुभग, तहाँ मुद्धि को जोस । रच्यो बुलाली धन्द ने, भाषा वचन शुकोसा ।। ४ ।।
१. तासु हिरदे उपजी वह प्रोनि, कीजे श्यों जिन कणा बखान ।
वृन्दावन सागरमल मित्र जिमघरमी प्रक परम पवित्र ।। ७८ ।। २. तिनकी प्राशा से सिर परी, बचनकोश की रचना करो।
भाषा ग्रंथ भयो अति भलो, मचनकोश नाम जु उजलो ॥ ७९ ॥
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कविवर बुलाखीचन्द
वनपुर कौनसा नगर था तथा वर्तमान में उसका क्या नाम है यह खोज का विषय है किन्तु हमारे विचार में यह नगर मथुरा के पास होना चाहिये क्योंकि जैसवाल जैन समाज त्रिभुवनगिरी को छोड़ कर मथुरा श्रा चुका वा । यहीं पर जम्बू स्वामी को कैवल्य एवं निर्वाण की प्राप्ति हुई थी इसलिये वृन्दावन का नाम हो वर्धनपुर होना चाहिये | वृन्दावन मथुरा के समीप ही है और कभी वहाँ जैसवाल जैन समाज की अच्छी संख्या रही होगी । 1
चचनकोश का महात्म्य
+
कवि के अनुसार बचनको कोई साधारण रचना नहीं है किन्तु यह एक ऐसा ग्रंथ है जिसको पढ़ने से मिस्याज्ञान दूर हो जाता है तथा जिनवाणी के अतिरिक्त अन्य किसी की बात अच्छी नहीं लगती । स्वाध्यायान्ति होती है जो स्त्री पुरुष इसका रुचि पूर्वक श्रवन करते हैं उनके घर में लक्ष्मी का निवास हो जाता है। जो इसका मनन करते हैं उनके किसी प्रकार का भी रोग नहीं माता । बचनकोश की तो इतनी अधिक महिमा है जिसका वर्णन करना भी कवि के लिए संभव नहीं हैं। क्योंकि उसके पठन पाठन एवं श्रवण मात्र से भी बुद्धि एवं बल दोनों की वृद्धि होती है तथा उसे मान सम्मान भी मिलता है ।"
बचनकोश विलास सदृश रचना है जिसमें गद्य पद्य वाली रचनाओं का संग्रह रहता है। लेकिन बचनकोश को एक यह विशेषता है कि इसमें कवि ने कोश के
१. छांडि सिवन गिरी उठि धाइयो, जैसवाल बाल मानियो । प्रभु बरसन लइए नविहंड, दुरमति करि मारि सत खंड ॥ ७१ ॥ जम्बू स्वामि भयो निरवान पाईं पंचम गति भगवान । जैसवाल रहे तिही ठाम, मन मान्यो जु करइ कॉम ।। ७३ ।। २. विनसे साधु पठत सिक्यात सांची लये न परमत बात
क्षयोपशम को कारण यही बचनकोश प्रगट्यो यह मही ॥ ६० ॥ भवन करें कवि से मरनारि, लक्ष्मी हो सुभग निरवार । लक्ष्मी होइ, न रोग अस्कुल, या पर्व होइ पति जुमलो ।। ८१ ।। जिनवानी की करिति घनी, कहाँ लो बनि सके नहीं मनीं । सुना न पायें पार, मांनि सकति लु बुधि बलसार ।। ६२ ।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज रूप में रवाना लिखी है। उसने अपनी रचना में अपने दो मित्रों के नामों के अतिरिक्त अपने पूर्ववर्ती अथवा समकलीन कवियों का नामोल्लेख तक नहीं किया। इससे वह स्पष्ट लगता है कि कवि भन्म अवियों नाम में नहीं थे हाथा स्वयं ही मपनी ही धुन में काव्य रचना किया करते थे।
__ बधनकोश निसी सर्ग अथवा प्रध्याय में विभक्त नहीं है लेकिन जब किसी का वर्णन समाप्त होता है तो उस विषय की समाप्ति लिख दी गयी है । यही उसकी विभाजन रेखा है। वैसे कवि ने तो विषय का इस प्रकार प्रतिपादन किया है कि उससे बिना सर्य प्रथवा अध्याय के भी काम चल जाता है। बचनकोश का अध्ययन
वचनकोश का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया गया है। जिसमें पंचपरमेष्ठी रूपी समयसार के चरणों की वन्दना की गयी है । पंच परमेष्टियों में सिद्ध परमेष्ठी को देव शब्द से अभिहित किया गया है तथा प्ररहन्त, प्राचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधु को गुरु के रूप में स्मरण किया गया है । सिद्ध परमेष्ठी पंच मान के धारी हैं। वे घर्ष, गंध एवं शरीर से रहित हैं। भविनाशी है, विकार रहित हैं तथा सघु गुरण रहित हैं। महंत परमेष्टी अनन्त गुणो के धारक हैं, परम गुरु है तथा तीनों लोकों के इन्द्रों द्वारा पूजित है। इसी तरह प्राचार्य, उपाध्याय एवं साषु परमेष्टी का गुणानवाद किया है ऋषभदेव की स्तुति
पंचपरमेष्टी को नमन करने के पश्चात् कवि ने २४ तीर्य करों की स्तुति की है। प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव थे जिनके नाभिराय एवं मरुदेवी पिता एवं माता थे । उनका शरीर पोचसी योजना था। उनका देह स्वर्ण के समान पा 1 वे इश्वाकु वंश में उत्पन्न हुये थे । पत्र कृष्णा नवमी जिनकी जन्म तिथि है
१.
समय
समयसार के पय नम, एक देव गुरु च्यारि । परमेष्टि सिनिस्यों कहें, पंचमान गुरण पार ॥ १॥ वरण गंध काया महीं, अविनाशी अविकार। गुरु लघु गुण विनु देव पह, नमों सिद्ध वतार ॥ २ ।। भी जिमराज मनात गुण, बगत परम गुरु एव । प्रब कर मषि लोक के, ना करे शत सेव ।। ३ ।।
३
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कवियर बुलाखीचन्द
I
ऋषभदेव को तीर्थंकर के रूप में जन्म लेने के लिये ११ भवों तक साधना करनी पड़ी थी । चैत्र सुदी को नवमी को उन्होंने गृह त्याग किया था। साघु अवस्था में सर्व प्रथम उन्हें एक वर्ष तक निराहार रहना पड़ा और फिर हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस के यहां सर्व प्रथम इक्षु रस का आहार लिया था । वट वृक्ष के नीचे उन्होंने केश लोंच किया तथा फागुण बुदी रस के दिन प्रातः उन्हें केवल हो गया । उनका समवसरण १२] योजन विस्तार वाला था जिसकी रचना इन्हों ने की थी । ऋषभदेव के ८४ गर थे । अन्त में माघ सुदी १४ को पद्मासन से उन्हें निर्धारण की प्राप्ति हुई और सदा सदा के लिये जन्म मरण के बन्धन से मुक्ति प्राप्त की। कवि ने अन्त में यह भी कहा है कि जो व्यक्ति इस दिन का उपवास करता है उसे पुनः मनुष्य भव की प्राप्ति होकर अन्त में निर्धारण पद प्राप्त हो सकता है । क्रमदेव की पूरी स्तुति १० पचों में समाप्त होती है ।
२ अजित नाथ की स्तुति
अजितनाथ दूसरे तीर्थंकर थे जो ऋषभदेव के लाखों वर्ष पश्चात् हुए थे । अयोध्या उनका जन्म स्थान था। राजा जितरिपु उनके पिता एवं विजया उनकी माता थी । हाथी उनका लोचन था। वे भी इश्वाकु वंश में पैदा हुये थे | मात्र सुदी नवमी उनका जन्म दिन था । चैत्र शुक्ला पंचमी को उन्होंने गृह स्थान कर साधु दीक्षा ली। तीन दिन निराहार रहने के पश्चात् ब्रह्मदत्त के दुग्ध का उनका आहार हुआ। जम्बु वृक्ष के नीचे उन्होंने किया । और अन्त में मात्र शुक्ता दवानी के दिन संध्या समय । उन्होंने सम्मेदशिखर पर खड़े रहकर तपः साधना की पर्वत से पोष सुदी एकम के दिन उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया । 1
राजा के यहाँ गाय तप करना प्रारम्भ
उन्हें कंवल्य प्राप्त
और अन्त में उसी
१.
सागर लाख करोरि पचास, वीते भक्तिनाथ परगास | जितरिपु राजा विजया मात, राज लांछन हाटक समगात || १ || पुरी अजोध्या जनम कल्याण, तीनि भवांतर ते भयो जान । धनक चारिसे साठे काय, लाख बहतर पूरव श्रायु || २ || वंश इषा नवे गिनि घार, तीन दिवस मंतर माहार | धेनु खीर पीयो मुनि दे, ब्रह्मदत्त तुप वनिता गेह ||३||
पृष्ठ पर
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कविवर बुलासीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
संभवनाथ
तीसरे तीर्थकर संभवनाथ ये जो अजितनाथ के निर्वाण के लाखों वर्ष पश्चात् हुए । सावित्री नगरी के राजा जितारथ के यहाँ फागुण सुदी पूर्णिमा के दिन उनका जन्म हुमा । उनका वंश भी इश्वाकु वंश था । उनका शरीर हेम वर्ण का था जो ४०० धनुष ऊंचा या । पर्याप्त समय तक राज्य सुख भोगने के पश्चात् छत्र शुक्ला षष्टी को वैराग्य ले लिया। शाल वृक्ष के नीचे वे तपस्या करने लगे मोर पन्त में फात्तिक की पूर्णिमा को मध्याह्न में कैवल्य हो मया । कात्तिक बुदी चतुर्थी को सम्मेवाचल से निर्वाण प्राप्त किया । निर्वाण प्राप्ति के समय वे स्वगासन अवस्था में थे। संभवनाश रहा चिह्न सोड़ा है जो कदि के शब्दों में "तुरंग पवन गति ध्वज प्राकार" है। ४ मिमदन माय
अभिनन्दन नाथ चतुर्थ तीर्थकर हैं जिनका जन्म अयोध्या में इश्वाकु वंश के राजा समरराय के यहाँ हुना। उनकी देह स्वर्ण के समान थी । माघ शुक्ला द्वादशी
जंबु वृक्ष तले तप लियो, रत्नत्रय प्रत निर्मल कियो। समोसरण श्री जिनवर तनों, जोजन साठे ग्यारह मणों ।।४॥ परननि सकों अलप मोहि ज्ञान, सोझ समें भयो फेवलज्ञान । बहुविधि राज विभूति विलास, ताहि त्यागी पाई सुख राशि ।।५।।
सोरठा वाले जोगाभ्यास कियो सिद्ध सम्मेद पर । पहुचे अविचल वास सकल करम वन दहन के ।।६।।
दोहा जेष्ठ बदि मावस गरभ, जनम माष सुदि नौमि । मंत्र सुदि पांच सु तप, ध्यान अनि कम होमि ।।७।। माघ महीना शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि को ज्ञान । पूस उज्यारी प्रतिपदा, सा दिन प्रमु निर्वाण ॥
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कविवर बुलाखीचन्द
के दिन उनका कम हुमा सौर उसी ।मि और अप: पान पश्चात् कंवल्य हुप्रा । अन्त में पोष शुक्ला चतुर्दशी को सम्मेदाचल से मोक्ष प्राप्त किया । पभिनन्दन स्वामी का चिल बन्दर है । ५ सुमितनाय
कवि ने अभिनन्दन नाथ की स्तुति के पश्चात् पांचवे तीर्थकर मुमतिनाथ की स्तुति की है सुमति नाथ का प्रादुर्भान जैन सन्तों को प्रतिबोध देने के लिये हमा था । उनका जन्म कौशल देश के राजा मेघराय के यहाँ हुआ था । मंगला उनकी माता का नाम था । जिनका इश्वाकु वंग था 1 वे सुवर्ण वर्ग की देह वाले थे। वैशाल शुक्ला नवमी के दिन उनका जन्म हुपा था । चैत्र शुक्ला एकादशी को उन्होंने राजा सम्पदा परिवार स्त्री एवं पुत्र को छोड़ कर साषु दीक्षा ले ली। घोर तपः साधना एवं विहार के पश्चात् उन्हें कैवल्य हो गया । चे सर्वश बन गये । देवों ने समघसरण की रचना की जहाँ से सुमतिनाथ ने जगत् को सुख शान्ति का सन्देश दिया और अन्त में कायोत्सर्ग भवस्था में निर्वाण प्राप्त किया । ६ पदमप्रभु
___ ये षष्टे तीर्थ कर ये जो सुमति के निर्धारण के पश्चाद हुए 1 इनके पिता कोशाम्बी के राजा थे जिनका नाम घुर या । रानी सुसीमा उनकी माता थी । कमल पद्मप्रभु का निशान है । फागुमा कृष्णा चतुर्थी के दिन उनका जन्म हुमा । पदमप्रभु भी अपनी राज्य सम्पदा को छोड़ कर कात्तिक बुदी तेरस के दिन मुनि दीक्षा धारण करली । वे दिगम्बर बन गये और घोर तपस्या करने लगे 1 पद्मप्रभु ने सर्व प्रथम प्रियगु वृक्ष के नीचे तपस्पा की थी । मंगलपुर के राजा सोमदत्त के यहाँ पापका सर्व प्रथम प्रहार हुया ! बहुत वर्षों तक तप करने के पश्चात् कात्तिक सुदी तेरस के दिन ही कैवल्य हो गया । उस समय गोधूलि का सभम था। सम्मेदाचल से सगासन अवस्था में मापने निर्वाण प्राप्त किया। ७. सुपार्श्वनाथ
सुपाश्यनाथ सातवें तीर्थकर थे जिनका स्मरण मात्र ही दुःखों एवं प्रशान्ति फा विनाशक है । बाराणसी नगरी के राजा के यहाँ जन्म हुमा ! स्वस्तिक प्रापका लोछन है । प्रापकी देह नील वर्ण की घो। जन्म से ही वे तीन ज्ञान के पारी थे।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज स्वस्तिक उनका निशान है । साधु बनने के पश्चात् उन्होंने काफी समय तक तपस्या की थी श्री। अन्त में उन्हें कैवल्य हो गया। अपने समवसरण से उन्होंने शान्ति का सबको सन्देश सुनाया। फागुण बदी षष्टी के शुभ दिन सम्मेदाचल से उन्हें निर्वाण प्राप्त ! ६. चन्द्रप्रभ
पाठ तीर्थकर चन्द्रप्रभ हैं जिनकी स्तुति करते हुये कवि ने लिखा है कि चन्द्रप्रभ का जन्म पौष बदि म्यारस के दिन चन्द्रपुरी के राजा महासेन एवं रानी सछमा के यहाँ हुप्रा । उनके पिता भी इक्वाकु वंशी राजा थे । चन्द्रप्रभ को तीर्थकर प्रवस्था पूर्व के सात जन्मों की लगातार तपः साधना के पश्चात् प्राप्त हुई थी। तीर्थकर चन्नप्रभ को राज्यवैभव, परिवार एवं सम्पदा प्रच्छी नहीं लगी इसलिये फागुण बुदी सप्तमी के दिन उन्होंने वैराग्य धारण कर लिया । नाग वृक्ष के नीचे नैठकर वे ध्यान करने लगे । सर्व प्रथम चन्द्रदत के यहाँ प्राहार हुप्रा । लम्बे समय तक तपः साधना के पश्चात् उन्हें पहिले कैवल्य हा मोर फिर निर्वाश प्राप्त किया। ६. पुष्पदन्त
चन्द्रप्रभ के पश्चात् पुष्पदन्त हुये। जिनका जन्म पोप सुदी एकम को हुप्रा । उनका अन्म स्थान काकन्दी नगर था । सुग्रीव पिता एवं रामा माता का नाम था 1 उनका लांछन मगर है 1 उनके देह की आकृति चन्द्रमा के समान है । भादवा सुदी अष्टमी को पुष्पदन्त ने घर बार छोड़ कर वैराग्य धारण कर लिया तथा सर्व प्रथम गोरस का आहार लिया । तपः साधना के पश्चात् उन्हें अगहन सुदी प्रतिपदा के दिन संध्या समय कंबल्य हा 1 उनके E० गणधर थे जो उनके सन्देश की माया करते थे। उनके समोसरण की लम्बाई पाठ योजन प्रमाण थी । अन्त में सम्मेदाचत से कात्तिक सुदी द्वितीया के दिम निर्वाश प्राप्त किया । १०. शीतलनाम
दसवे तीर्थकर शीतलनाथ स्वामी थे जिनका जन्म भागलपुर के राजा हरिप के यहां हुआ था । शीतसनाय का गरीर नम्वें धनुष का था । पर्याप्त समय तक चनका मन सांसारिक कार्यों में नहीं लगा मोर आसोज सुदी अष्टमी को दिगम्बर
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कविवर बुलाखीचन्द
११
दीक्षा धारण कर ली। कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् इन्हें पोष बुढी चतुर्दशी को सम्मेदाचल से निर्वाणा की प्राप्ति हुई और सदा के लिये जन्म मरण के चक्कर से छूट गये। राज्य शासन करते हुए इन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ था । शीतलनाथ का वन ६ पद्य में समाप्त होता है ।
११. श्रेयान्स नाथ
एक लम्बे अन्तराल के पश्चात् भारत देश के मार्ग खण्ड में सिंघपुरी के राजा विभव के यहाँ श्रेयान्सनाथ का जन्म हुआ। उस दिन फागूणा बुदी एकादशी श्री । इनकी देह का रंग स्वर्ण के समान था । पहिले इन्होंने राज्य सुख भोगा और फिर श्रावण सुदी पूर्णिमा के दिन घरबार त्याग करके दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली सर्व दूषा में बैठकर ध्यानामन्न हुये और मन्त में फागुण सुदी एकादशी को प्रभात वेला मंगल वेला में सर्वज्ञता प्राप्त की । सम्मे दाखल पर ये ध्यानास्य हुये और माघ बुदी श्रमावस के दिन मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त किया ।
१२ वासुपूज्य स्वामी
वासुपूज्य स्वामी १२ चें तीर्थंकर थे। उनका जन्म चंपापुरी नगरी में हुआ था । फागुण बंदि चतुर्दशी उनकी जन्म तिथि मानी जाती है। उनकी माता का नाम जयादेवी था | पर्याप्त समय तक गृहस्थाश्रम में रहने के पश्चात् भादवा सुदी चौदश को उन्होंने गृह त्याग दिया। उसी समय केश लोंच किया मुनि दीक्षा धारण कर ली। सिद्धार्थ पुरी के राजा सुन्दर के यहाँ गाय के दूध का प्रहार किया। कोशास्त्री नगर में वासुपूज्य स्वामी को कैवल्य प्राप्त हुआ। कैवल्य के पश्चात् उनका देश के विविध भागों में विहार हुआ और अन्त में माघ सुदी पचमी को निर्वाण प्राप्त किया । वासुपूज्य तीर्थंकर का भैंसा चिह्न माना गया है ।
१३ विमलनाथ
राजा कृतवर्मा एवं रानी श्यामा माता थी। वे नाथ का शरीर स्वर्ण के समान या । विमल
कविखापुरी में जन्म लेने वाले विमलनाथ १३ में तीर्थंकर हैं । उनके पिता इश्वाकु वंशीय क्षत्रिय थे। विमल नाथ भी राज्य सुख से घृणा करने लगे और तपस्या के लिये घर बार छोड़ दिया और अंबु वृक्ष के नीचे तपः सापना
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कविवर बलासो चन्द, बलाकीदास एवं हेमराज
करने लगे । पाटन के वीर राजा के यहाँ एनका प्रथम प्रहार हुप्रा । जब उन्हें कैवल्य हुआ तो उस समय संध्या काल था। देवों द्वारा उनका समवसरण लगाया गया । अन्स में उन्होंने सम्मेदशिखर से महानिर्वासा प्राप्त किया। उस समय वे खडगासन अवस्था में तपः लीन थे । उस दिन र मुबी प्रमालाम ।
विनाश का लछिन सुभर है। १४ अनन्तनाथ
अनन्तनाथ १४ वें तीर्थकर थे जो विमल नाथ के पश्चात् माघ शुक्ला तेरस के गुभ दिन पैदा हुए थे। वे श्वाकु वंशीय क्षत्रिय थे । जन्म में ही तीन ज्ञान के पारी थे उन्हें राज्य सम्पदा अच्छी नहीं लगी इसलिये वैराग्य लेने का निश्चय किया । चैत्र बदी अमावस्या के दिन गृह त्याग कर निन्य साधु बन गये । घोर तपस्या के पश्चात् ज्येष्ठ कृष्णा एकादशी को कैवल्य हो गया । उनके गणधरों की संख्या ५४ थी। सम्मेदशिखर से उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। १५ धर्मनाथ
धर्मनाय १५वें तीर्थकर थे । रतनपुरी के राजा भानु के घर माघ शुक्ला १३ के दिन उनका जन्म हुमा । वे कुम वंशीय अत्रिम थे । जन्म में ही तीन विशिष्ट शान के धारी थे । उनके जन्म के दिन मात्र शुक्ला तेरस थी । वे भी योग धारण कर वन में घोर तपस्या करने लगे । जब उन्हें कैवल्य हुमा तो उनके गणधरों को संख्या ४० थीं । अन्त में सम्मेदशिखर से उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। १६ शान्तिनाथ
इस युग के १६ वें तीर्घकर शान्तिनाथ थे। उनका जन्म गजपुर के राजा विश्वसेन के यहाँ जेठ बुधी १४ को दृष्या । उनकी माता का नाम ऐरादेवी था। वे करवंशी क्षत्रिय थे । उनका शरीर स्वर्गा के समान चमकता था। जब वे राज्य सम्पदा से ऊब गये तो सब को छोड़ कर. दिमम्बर साधु बन गये । जेष्ठ बदी १३ के दिन उन्हें कैवल्य हो गया। वे सर्वंग बन गये । उस समय संध्या काल था। उनके गणधरों की संख्या ३६ थी । अन्त में सम्मेवाचल से ओठ बुदी १४ के दिन निर्वाण प्राप्त किया।
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कविवर बुलाखीचन्द
१७ कुयनाम
कुधनाथ १७ वें तीर्थकर थे । जिन्होंने सम्मेदावल से निर्वाण प्राप्त किया । बकरी इनका लांछन माना जाता है । १८ पर नाथ
कुथ नाथ के पश्चात् मरनाथ तीर्थकर हुए । राजा सुदर्शन इनके पिता एवं देवी इनकी माता थी । स्वस्तिक इनका लांछन है । चैत्र शुक्ला पूरिणमा को कैवल्य एवं अगहन सुदी प्रतिपदा को इन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई। १६ मल्लिनाथ
मल्लिनाथ १६ वे तीर्थ कर थे । मिथिला पुरी के राजा कुभ एवं रानी प्रभावती के पुत्र के रूप में इनका जन्म हुग्रा । इनकी काया म्वर्ण के समान निर्मल पी। कुमारफाल के पश्चात् इन्हें जाति स्मरण होने से वैराग्य हो गया । और प्रशोक वृक्ष के नीचे इन्होंने दीना धारण कर ली। ये जीवन पर्यंत अविवाहित रहे । कहापुर के राजा नन्दिसेन को मल्लिनाथ को माहार देने का सर्व प्रथम सौभाग्य प्राप्त हुमा । इनको जन्म, तप और केवल्य एक ही तिथि पौष बदी २ को प्राप्त हुमा । अन्त में फागुण मुदी पंचमी को इन्होंने सम्मेदाचल से निवारण प्राप्त किया । २० मुनिसुव्रत नाथ
___ मल्लिनाथ के पश्चात् २० ने तीर्थकर मुनि सुत्रत नाथ हुये जिनकी कवि ने वन्दना की है । राजमही नगरी के राजा सुमतिराय इनके पिता थे तथा उनकी रानी पयावती माता थी । मुनि दीक्षा लेने के पश्चात् सर्व प्रथम मिथिला के राजा विश्वसेन के यहाँ इनका माहार हुमा । वैशाख बुदी के शुभ दिन उन्हें कैवल्य हा और फागुण बदी एकादशी के दिन सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया । २१ नमिनाय
, नामिनाथ २१ में तीर्थकर हुये जिनका जन्म वाराणसी नगरी में प्राषाढ़ बदी दशमी के दिन हुआ । देवों एवं मनुष्यों तथा तिर्मम्नों ने भी इनका जन्म महोत्सव मनाया । अन्त में बैशाख बदी १४ को सम्मेदशिखर में निर्माण प्राप्त किया। इनके १३ गणधर थे।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
२२ नेमिनाथ
ये २२ वें तीर्थकर थे। द्वारावती के राजा समुद्रविजय पिता एवं रानी शिवादेवी इनकी माता थी ! जब ये विवाह पर जाने के लिये तोरण द्वार पर पहुँचे तो पघुपों की पुकार सुनकर वैराग्य हो गवा तथा मुनि दीक्षा धारण कर ली। और गिरिनार पर्वत पर जाकर तप करने लगे । कार्तिक शुक्ला ११ को इन्हें कैवल्य हो गया ! इनके १५ प्रमुख शिष्य थे जो गरगघर कहलाते थे । अन्त में गिरनार पर्वत से प्राषाढ शुक्ला प्रष्टमी को निर्वाण प्राप्त किया । २३ पाव नाथ
पार्श्वनाथ २३ वै तीर्थकर थे जिनका यशोगाम चारों पोर विद्यमान है । वाराणसी मे राजा अश्वसेन के यहां इनका जन्म हुप्रा | वामा देवी इनकी माता थी। इनकी शारीरिक ऊचाई नो हाथ की थी तथा १०० वर्ष की आयु थी। तीर्थकर पद प्राप्त करने के लिये इन्हें ११ पूर्व जन्मों से तपः साधना करनी पड़ी और पौष बुदी ११ को ये अविवाहित रहते हुए जिन दीक्षा धारण ली । मुनि बनने के पश्चात् राजा धनदत्त के यहाँ इनका प्रथम पाहार हुमा । चैत्र बुदी ४ को कैवल्य हुमा । इनके दश गणधर थे 1 अन्त में खड़मावस्था में ही श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन निर्वाण प्राप्त किया। इनका निर्वाण स्थल सम्मेदशिखर का उत्तुंग शिखर माना जाता है। २४ महावीर
महावीर इस युग के प्रन्तिम तीर्थकर ये जो पार्श्वनाथ के पश्चात् हुये थे । कुठलपुर नगरी के राजा सिद्धार्थ एवं रानी विशला के पुत्र रूप में चैत्र शुक्ला १३ को इनका जन्म हुप्रा । इनका मन राज्य कार्य में नहीं लगा । ये भी पविवाहित ही रहे । मंगसिर कृष्णा १. के दिन इन्होंने राज्य कार्य परिवार को छोड़कर बन में जाकर मुनि दीक्षा धारण कर ली। उस समय इनकी प्रायु ३० वर्ष की थी। १२ वर्ष तक घोर तपस्या के पश्चात् पैशाख शुक्ला १३ को इन्हें कैवल्य प्राप्त हो गया । वे ३० वर्ष तक लगातार विहार कर जन २ को मार्ग दर्शन देने के पश्चात् फात्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन पावापुरी से इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।
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कविवर बुलाखीचन्द
कवि ने सभी २४ तीर्धकरों की स्तुति करते हुए लिखा है जो व्यक्ति उनकी मन वचन काप से प्रातः एवं सायं स्तुति करते हैं उनके मिभ्यास्त्र रूपी अन्धकार स्वयं दूर हो जाता है ।
५ वापस जियकर, I', बोने ससुम i
जो मन बच संझा प्रात, सुमिरै फटे तिमिर मिथ्यात ।। चौबीस तीर्थकरों की स्तुति के पश्चात् कवि ने मध्यलोक एवं उखं लोक के सभी जिन चैत्यालयों की वन्दना की है जो सभी प्रकृत्रिम हैं शाश्वत हैं एवं जिनकी वदना मंगलकारी है । मंगलाचरण के अन्त में सरस्वती की वन्दना की है जो श्वेत वस्त्रधारी है । वीणा से सुशोभित है। वास्तव में तीर्थकर मुख से निकली हुई वाणी ही सरस्वती है । बद्दी कवियों की जननी है।।
मगलाचरसा के पश्चात् कवि जैसवाल जाति की उत्पत्ति का इतिहास कहना प्रारम्भ करता है और उसके प्रसंग में तीनों लोकों का वर्णन करता है । लेकिन कवि ने तीनों लोकों का बणन करने के साथ एपनी लघुता प्रकट की है साथ में यह भी कहा है कि यदि विस्तार से इनका कथन समझना चाहें तो बड़े ग्रंथों को देखना चाहिये ।
मध्य लोक में प्रसंख्यात द्वीप समुद्र है इसमें प्रढाई द्वीप में जबुटीप है जो एक लाख योजन विस्तार वाला है । उसके मध्य में सुदर्शन मेरु पर्वत है उसके उत्तर दक्षिण भाग पर भरत ऐरावत क्षेत्र है मानुषोत्तर पर्वत के वर्णन के पश्चात् असंख्यात अनन्त का गणित भेद, योजन गणित भेद, पल्यायु भेद, पल्यसागर भेद
१. श्वेत वस्त्र करि बीना लसें, सुमति रजाह कुमति सब नसें ।
मुख जिन उद्भव मंगल रूप, कवि जननी और परम अनुप ।। २. नमिता चरण सकल दुख दहौं, असवाल उतपति सब कहीं।
अधो मधि है लोकाकाश, पुरुषाकार बखाने तास ॥६।। अल्य बुद्धि सुक्षम मम ग्यान, पढाई द्वीप सनों बखान । करयो संक्षेप पन विस्तार, व्योरौ कहत ग्रंथ अधिकार ॥ बाकी सब व्यौरे की बाह, बड़े मय देखो भयमाह ।।२९।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एव हेमराज
मादि का वर्णन किया गया है । कवि ने पूरव गणित के लिये निम्न संख्या सिखी है
पत्तरि लाख करोरि मित, छप्पन महस करोरि ।
इतने वरष मिलाइय, पूरव संस्था जोरि ||१|| षटकास वर्णन
कवि ने बह काल का वर्णन किया है। ये काल हैं सुषमा सुषमा, सुषमा, मुषमा दुषमा, दुषमा सुषमा, दुखमा एवं दुषमा दुषमा । ये काल चक्र कहलाते हैं
प्रथम तीन काल मोग भूमि काल कहलाते हैं जिसमें मानव कल्पवृक्षों के भाशार पर अपना जीवन व्यतीत करता है । अपनी सम्पूर्ण आवश्यकताएं उन्हीं से पूर्ण करता है । ये कल्पवृक्ष दस प्रकार के बतलाये गये हैं।
सो तरु दश प्रकार बरनये, तिनिके नाम सुनो गुण जयो। सूरज मध्य विभूषा जानि, स्नग अरु ज्योति द्विप गुरण खानि ।
गृह भोजन भाजन पर भास, सुनि अब इनको दान प्रकाश III कल्पवृक्षों से जब इच्छानुसार वस्तुयें मिल जाती है तो जीवन सुख शान्ति से व्यतीत होता है । प्रथम सुषमा सुषमा काल में माता के युगल सन्तान पैदा होती है मौर पैदा होते ही माता पिता की प्रायु समाप्त हो जाती हैं । माता को छींक प्राप्ती है और पिता जंभाई लेता है। यह दोनों ही मृत्यु का सूचक है । पैदा होने वाले युगल प्रगूठा पौकर बन होते हैं । वे पति पत्नि के रूप में रहने लगते हैं । प्रथम काल में तीन दिन में एक बार, दूसरे सुषमा काल में दो दिन में एक बार तथा तीसरे काल में एक दिन छोड़कर आहार ग्रहण करते हैं ।
तीसरे काल का जब अष्टम अंश शेष रहता है तब कल्प वृक्ष नष्ट होने लगते हैं तब कुलकर जन्म लेते हैं जो मनु कहलाते हैं । वे कुलकर मानब समाज को प्राकृतिक विपत्तियों से सचेत करते हैं तथा मनुष्य को जीने की कला सिखलाते हैं ।।
१. लोपे होह कल्प द्रुम ज्योज्यों, कुलकर भाषे मागे त्यौं त्यौं ।
भावी काल बखान यथा, कहै सकल जीवनि सौं कथा ॥२८॥
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कविवर बुलाखीचन्द
१७
ये कुलकर चौदह होते है जो एक के बाद दूसर होते रहते है । प्रथम कुलकर का नाम प्रतिश्रत था तथा अन्तिम नाभि थे।
चतुर्थ काल कर्म भूमि काल कहलाता है जिसमें मुक्ति का मार्ग खुल जाता है तथा मानब असि मसि कृषि वाणिज्य आदि विद्यानों द्वारा अपनी प्राजीविका चलाता है । एक साथ पैदा होना एवं मरना मिट जाता है । वर्षा होती है खेली होती है लेकिन सदैव सुकाल रहता है ।
पञ्चम काल दुषमा काल का ही दूसरा नाम है जो २१ हजार वर्ष का होता है। वर्तमान में पञ्चम काल चल रहा है। इस काल में मुक्ति के द्वार बन्द हो जाते हैं । मनुष्य की प्रायु १२० वर्ष की होती है । जो जैसा कर्म करता है उसी के अनुसार प्रायु के तीसरे भाग में अगले भव का बन्ध होता है । शरीर का त्याग करते ही दूसरा शरीर मिल जाता है।
पंचम काल में कृषि के माध्यम से शरीर का पोषण होगा 1 सुकाल कम होंगे दुष्काल अधिक । मानव की एक बार के भोजन में भूख नहीं मिटेगी किन्तु दिन में वो तीन बार खाते रहेंगे । मध्यम वर्षा होगी।
षष्टम काल इससे भी भंपकर होगा । उसमें सब मर्यादाएं समाप्त हो जावेंगी । यह काल भी २१ हजार वर्ष का होगा । कृषि का विनाश हो जावेगा। एक जीव दूसरे जीव का माहार करेगा। प्रथम तीर्थकर का जन्म
उक्त वर्णन के पश्चात् कवि चौदह कुलकरों में से अन्तिम कुलकर नाभि राजा से अपना कथन प्रारम्भ करता है। नाभिराजा विशिष्ट ज्ञान के धारी थे । उनकी रानी का नाम मरुदेवी था। इन्द्र ने जब जाना कि मरुदेवी के जदर से प्रथम तीर्थंकर जन्म लेने वाले हैं तो उसने नगरी को सब तरह से सुसज्जित बनाने का मादेश दिया । मरुदेवी ने एक रात्रि को सोलह स्वप्न देखे । जब उसने नाभि राजा से उनका पूल पूछा तो यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि वह प्रथम तीर्थकर की माता बनने वाली है।
चैत्र कृष्ण नवमी के शुभ दिन आदिनाथ का जन्म हुमा । देवतानों एवं मानवों ने जिस उत्साह एवं प्रसन्नता के साथ अन्मोत्सव मनाया, कवि में उसका ४७ दोहा
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
चौपाई छन्द में बहुत ही मनोरम वर्णन किया है । ऋषभदेव धीरे धीरे बड़े इए । उनकी बाल सुलभ क्रीडा सबको प्रिय लगती थी। ऋषभदेव युवा हुये । राज्य कार्य में सबको सहयोग देने लगे । अन्त में नाभि ने ऋषभदेव को राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त किया । ऋषभदेव ने इस युग में सर्व प्रथम विवाह की प्रक्रिया प्रारम्भ की। किसीकी का लड़का एवं किसी की लड़की को लेकर दोनों का विवाह कर दिया। इस प्रकार विवाह संस्था को जन्म दिया ।' स्वयं ऋषभ का भी कच्छ महाकच्छ की पुत्रियां नन्दा यशस्वती से विवाह सम्पन्न हुप्रा । जिससे पागे संसार चलता रहे।
वह प्रभु को व्याही राय, TIME: मंगलवार रा'
भोग विलास करत संतोष, तब सर्वाभराणी को कोष ।।३६॥२०॥ ऋषभदेव के प्रशस्वती सनी से भरत प्रादि १०० पुत्र एवं ब्राह्मी पुत्री तथा नन्दा से बाहुबली पुत्र एवं सुन्दरी पुत्री हुई। भरत बड़े हुए 1 वे बड़े प्रतापी एवं योद्धा थे। जब प्रजा भूखे मरने लगी तो ऋषभदेव ने इशु उगाने की विधि बतलाई । मपने ही वंश में विवाह करने की उन्होंने मनायी की। कुछ समय पश्चात् ऋषभदेव ने भरत को राज सम्हला कर वैराग्य धारण कर लिया । स्वयम्बर की प्रथा
वाराणसी नगरी का अकंपन राजा था उसे सब सेनापति कहते थे । उसके एक लड़की सुलोचना श्री। वह भरत के पास प्राकर प्रार्थना कि उसकी लड़की विवाह योग्य हो गयी इसलिये उसके लिये कोई वर बतलाइये 1 भरत ने सोच समझ कर स्वयंबर रचने के लिये कहा।
वरमाला कन्या को देह, पुत्री निज इच्छा वर लेहु ।
ताही वरत कोऊ माम बुरो, ताको मान भंग सब करी ।।४।।२०।। इस प्रकार स्वयंवर प्रथा की नींव रखी गयी ।
१. तृप्ति नहीं मा एक देर, जेवें दुपहर सांझ सवैर ।
मध्यम बृष्टि मेघ सब करे, चर्म विछिरित तहीं परवरे ॥४७॥१४॥ २. पुत्री काहूं की प्रानिये, सुत काहूँ को तहां बुलाय ।
करें विवाह लगन शुभवार, इह विधि बढ़त चल्यो संसार ।११।१६।।
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कविवर बुलास्त्रीचन्द
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एक दिन राजसभा में ऋभदेय सिंहासन पर बैठे थे । नीलांजसा अपसरा का नृत्य हो रहा था। कवि ने उसे नटी की संज्ञा दी है तथा प्रागे पातुरी कहा है । ये तत्कालीन बन्द थे जो राज्य सभागों में नृत्य करने वाली के लिए प्रयुक्त किये जाते थे। अचानक नीलांजसा नृत्य करती हुई गिर गयी इससे प्रभु को वैराग्य हो गया थे बारह भावनात्रों के माध्यम से संसार के स्वरूप पर विचार करने लगे । कोश में इन भावनामों बहुत ही उपयोगी एवं विस्तृप्त वर्णन हमा है । जो कवि की विषय वर्णन करने की शक्ति की पोर संकेत करता है । ऋषभदेव के वैराग्य के समाचार सुनते ही स्वर्ग से लौका तिक देव तत्काल वहाँ प्रावे और उनके वैराग्य भावना की प्रशंसा करने लगे।
उसी समय ऋषभदेव ने भरत का राज्याभिषेक किया। बाहुबली को पोदनपुर का राज्य दिय. 14 :ने दूसरे मुजों को भी नुर राम गट दिया । सब भाई भरत की सेवा में रहते लगे। उस दिन चंत्र कृष्णा नवमी थी। ऋषभदेव ने एक विराट समारोह के मध्य वैराग्य धारण कर लिया । सब प्रकार के परिग्रह को त्याग कर के निर्गन्थ दिगम्बर हो गये । केश लुम्बन किया। तथा सब प्रकार के पारवारिक एवं अन्य सम्बन्धों से अपने आप को मुक्त करके पंच महावत धारण कर लिये। परम दिगम्बर ऋषभदेव को स्वयमेव पाठ प्रकार की ऋद्धियां प्राप्त हो गयी। जिनके कारण उनको अपार शक्ति मिल गयी 1 कवि ने इन ऋाड़ियों का विस्तार से वर्णन किया है । जैसे बीज बुद्धि ऋद्धि के उदय से एक पद पढ़ने से अनेक पदों का ज्ञान हो जाना तथा एक श्लोक का अर्थ जानने से पूरा ग्रंय का ज्ञान स्वयमेव हो जाना बुद्धि ऋद्धि का फल होता है
बीज बुद्धि जन उदय कराइ, पढत एक पद श्री जिनराय । पद अनेक की प्रापति होय, यह था बुद्धि तनों फल जोइ । एक प्रलोक अर्थ पद सुने, पूरण ग्रंथ प्रापत भने ।।३।।२७.
- -
१. ए शुचि बारह भावना, जिन ते मुक्तिनि वास ।
श्री जिनबर के चित्त में, तब ही भयो प्रकाश ॥६॥२६ ।। २. मंडे पंच महावत पोर, त्यागौ सकल परिग्रह जोर ||१४/१॥ २६।। ३. बुद्धि औषधी बल तप चार, रस विक्रिय क्षेत्र क्रिया सार । १८॥२६ ।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमरजा
ऋद्धि के प्रसंग में अतस्कंध व्रत दर्शन में प्राचार्य कुन्दकुन्द के पांच नामों की उत्पत्ति कथा, विदेह क्षेत्र गमन, भट्टारक पदस्थापन आदि प्रच्छा वर्णन दिया है ।
गर्व में
कवि ने सभी कल्याणकों के वर्णन का श्राधार जिनसेनाचार्य कुत श्रादिपुराण को बनाया है जिसका स्वयं कवि ने उल्लेख किया है
अल्प बुद्धि वरणों संक्षेप, आदि पुराण मिर्ट भ्रम वेषु ।
बारह विधि तपुकीनो ईश, जगत शिरोमनि श्री जगदीश ||३० / ५६
ज्ञान कल्याणक
ऋषभदेव को कैवल्य होते ही समोसरन की रचना की गयी । जिसका वर्णन कवि ने विस्तार से किया है । यद्यपि उसने अपने को थल्पवृद्धि लिखा है । लेकिन मवसरण का वर्णन उसने १७४ पथों में लिखा है । ऋषभदेव ने अपना उपदेश मागधी भाषा में दिया था । सास तत्व एवं नो पदार्थों के विस्तृत परिचय के लिये कवि ने हेमराज कृत कर्मकांड, पंचास्तिकाय ग्रंथों को देखने के लिये लिखा है। इसके पश्चात् सा तत्व एवं नय पदार्थ का विस्तृत वर्णन किया है
जीव श्रजीव और माधव संवर निर्जर बंध |
मोक्ष मिले ए जानियें, सप्त तत्व संबंध ॥१॥
पुन्य पाप हैं ए जुड़े, नव इनि मांहि मिलाइ | जिनवानी नव पद विमल, सो वरणों मुनि ताहि ||२||६३१७
जीव तत्व के वर्णन में कवि ने सात प्रकार के समुदघातों का वर्णन किया है।"ये हैं जीव वेदना समुद्घात् कषाय समुद्घात, वैक्रियक समुद्धात मरणातिक समुद घात तेजस समुद्घात, माहारक समुद्घात केबल समुद्घात, इसके पश्चात् सात प्रकार के
*.
२.
मुख्य मागधी भाषा जाति, सबके सुनत होई दुख होनि ।।६६ / ६३. जो कोई इनि सातनि को भेद, व्यौरी पाहों जो तजि खेद 1 कर्मकांड पंचसुकाम, हेमराज कृत खोजो मांहि ।। ७४ ।। ६३ ।। ३. समुदा हैं सात प्रकार तिनि के भेद सुनो तुम सार|२७|| ६६||
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कविवर बुलाखीचन्द
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संयम स्थानों का वर्णन मिलता है | दर्शन स्थान का वर्णन के पश्चात् छह लेश्यामों पर विस्तृत विचार किया गया है। कृष्ण, नील कोत, पीत पद्म मौर शुक्ल लेश्या को निम्न उदाहरण द्वारा समझाया है---
१.
सुनौ एक इतिको दृष्टांत प्रकटे विमल बोध की कांत
गए पुरुष छह वनह मझार, मान वृक्ष फल देख्यो सार ||२६|| सबन शुभंग अरु बहु फल पर्यो, जांकी छांह पथिक श्रम हो । खेवट प्राणी ता तरजाइ, फल भक्षण की ईच्छा भाई ॥१२०॥
चौदह गुणस्थानों का भी वर्शन करके कवि ने चौदह जीव समासों का वर्णन किया है । 2 ये सब दार्शनिक वन है जिसे कवि ने अपने ग्रंथ में स्थान दिया है । ऐसा लगता है कवि ने गोम्मटसार जीवकांड को अपने कथन का मुल्य भाषार बनाया है ।
पंच परावर्तन एवं जाति स्थानों के वर्शन के पश्चात् कवि चार प्रकार के ध्यानों का वर्णन प्रारम्भ करता है ।
२.
कृष्ण बनी कई जर काटिये, पीछे वांके फल वॉटिये | तब बोल्यो श्रंग जाके नील, गोदें काटत करो न ढील ||३१|| या तक की काटी सब डारि कहि कापोत घनी निर्दार । गुच्छा तोरि ले रे मीत, म भाषे जाके जर प्रीति ।। ३२ ।। चीन लेहु पके फल सबै बोल्यो पद्म घनी यह तवें । गिरि लेहु मति लाउ हाथ, कहँ सुकल वारी गाय ||३३||
परि षट लेस्यां स्वांग मनूप, नाषत फिरें जीव विद्रूप । काल अनादि गये इहि भांति, मातम धनुभो बिना नसांत || ३४ ॥ ७०
संजम और प्रसंजम जानि, छेदोपस्थापन परमनि । जयाख्यात सामायिक अंग, सूक्ष्म सांवराय गुण जंग
परिहार विशुद्धि कहीं संजमा, सांतीं स्वांग घरं श्रतिमा | १२||६६ ।।
एई चौदह जीव समास, करें श्रातमा लहां निवास
जो लौ संसारी कहणार, तोलो इनमें भ्रमन कराइ ॥ १०१ ॥ ७३ ॥
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कविवर बुलास्त्रीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज ध्यान का स्वरुप
रौद्र ध्यान वाला प्राणी हिंसा करने में धानन्दित होता है। चोरी करता है, झूठ बोल कर प्रसन्न होता है । विषयों के सेवन में अपना कल्याण मानता है। ये पारों री ध्यान के अंग है । पृथ्वी, अग्नि, वायु, जलतत्वों का भी प्रस्तुत ग्रंथ में वर्णन हुआ है।
पिउंस्थान ध्यान पदस्थ ध्यान मोक्ष मार्ग का साधक है । कवि ने पदस्थ ध्यान का वर्णन विभिन्न मंत्रों के साथ किया है। इन मंत्रों में ह्रींकार मंत्र, अपराजितमश्र, षोडशाक्षर मंथर, घडाक्षरीमंत्र, चसुवर्णमंत्र, बीजाक्षरमंत्र, धत्तारिमंगलमंत्र, त्रयोदशाक्षरमंत्र सप्ताक्षरमंत्र, पंचाक्षरमंत्र,
१. हिंसा करत चित्त प्रानंद, चोरी साधत हिए ननंद ।
बोलत झूठ स्तुशो बहु होइ, संबत विषम दुलासी जोई।
रौद्र ध्यान के चारघों अग, कर्म बंध के हेतु अभंग 11६६७६. २. एका पात पाठ वार जी जपें, प्रभुता करि सब जग में दिएँ ।
एक पास जुतो फल होइ, कर्म कालिमा हारे खोइ ।।४।।१०।। ३. अहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः
करि एकान पिस परि प्रीति, हो। उपवास तनों फस मीस ।।४।। ४. मरहूत सिद्ध इति षडाक्षरी मंत्र ५. अरहंत इति चतुर्वर्णमंत्र ६. ॐ ह्रां ह्रीं क्ल, लह्रौं लः मति पाऊसा नमः इति बीजाक्षर
मंत्र । ७. मंगल सरण लोकतम जानि, चारि भांति करि कीयो वलान ।
घ्यावे जपें चित्त की ठोर, ताको मुक्ति रमणि वरें दोरि ॥५.४११८० ८. * अरहंत सिदासयोग केवली स्वाहा । इति त्रयोदशाक्षर
मंत्र १. ॐ ह्रीं श्री प्रहन्नमः 1 इति सप्ताक्षर मंत्र । १०. नमो सिद्धाणं
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कविवर बुलाखोचन्द
चन्द्ररेखा मंत्र', श्रीमंत्र, मंत्र प्रादि का अच्छा ये ज्ञाता थे ।
कवि ने रूपस्थध्यान एवं ध्यान का वर्णन करने के संख्या का वर्णन किया है ।
१.
२.
२३
पापभक्षिी विद्या मंत्र, असि भाऊसा मंत्र सिद्ध मिलता है । जान पड़ता है कवि मंत्र शास्त्र के भी
३.
षट् ब्रव्य वर्णन
जीव तत्व पुदगल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल इस प्रकार पांच प्रकार का है। पुदगल द्रव्य मूर्तिक तथा शेष प्रसूतिक है * शब्द एक पर्याय है तथा वह प्रतिक है इसके पश्चात् कवि ने
न किया है ।
षट् द्रश्यों का वर्णन के पश्चात् श्राढ कमी को प्रकृतियों का मन किया गया
४.
रूपातील ध्यान' का भी वर्णन किया है। पश्चात् कवि ने जीव की विभिन्न जातियों की
नर पशु नारक प्रो सुरदेव, लाख चौरासी जाति कहेव । इतने रूप चिदानंद घरें, जाति स्थान नाम परिवरं ||१८/८३.
भी पुद्गल द्रव्य कर ही शेष द्रच्यों का संक्षिप्त
ॐ नमो भरहंताणं इति मंत्र :
ॐ ह्रीं श्री वर्णमंत्र :
राज रहित इंत्री रहित सफल कर्म नसाई |
जीन तनी विश्राम यह रूपातीत कहाई ॥१५८३.
इह रूपस्थ धनुष गुण जिन सम मातम ध्यान । करियोको अभ्यास मुनि, पावें पद निरमान ॥४॥ ८३
पुदगल धर्माधर्मं श्राकास, काल मिलें पांची परकार | है प्रजीव इनकी नाम, तिनि में मूरति पुदगल षांम ||४४ / ८४ ।।
५. सुनि पुदगल के सकल पर्याय, प्रथम शब्द भाष्यो जिनराज | शब्द कहे वरण वम रूप, पुदगल को पर्याय तूप ||४६ / ६४ ॥
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२४
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज है । जैन दर्शन कर्म प्रधान दर्शन है । जैसा यह जीव कम करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, भायु, नाम, गोत्र मोर अन्तराय के भेद से आठ प्रकार के एवं प्रकृतियों सहित १४ भेद है । इसके पश्चात् प्रकृतियों के गुणों का विस्तृत वर्णन मिलता है जिसमें कवि में अगाघ सैद्धान्तिक ज्ञान होने का प्रमाण मिलता है । प्रथला दर्शनावरण प्रकृति का लक्षण देखिये
प्राणी जहाँ नींद बसि भाइ, महा चंचल हाथरू पाइ । नेत्र गान सब नैक्रिय होइ, मानों भार सिर धोइ ।।७।। करें नींद जब महि विशेष, तब द्रग रेत भरे से देखि ।
मुद्रित मुकुलित प्रार्थे प्राध, प्रचला दरशनावरण अगाध ॥४/२०॥ प्रकृति गुणों के विस्तृत वर्णन के पश्चात् कवि ने चौदह गुणस्थानों की प्रकृति भेदों का वर्णन किया है।
सात सत्वों का स्वरूप
सात तत्वों में जीव, मजीव, प्रास्त्रव, बंध संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्व गिने जाते हैं । जीय, अजीव सस्य का तो पहिले विस्तृत वर्णन किया जा चुका है इसलिये कवि ने प्रास्त्रव तत्व का विभिल दृष्टियों से व्याख्या की हैं। हास्य प्रकृति माश्रव के निम्न क्रियानों के कारण होता है
धर्मी जन अरु दीन निहार, सारी दे तहां से गंवार । मदन हास्य अरु करै प्रलाप, धर्म जज लखि लोचनराय ॥२५॥ इन से हास्य प्रकृति जुबंधाइ, कही प्रगट श्री गौतमराय ।
बैठे देखे नर तिय संग, मिथ्याचार लगावे नंग ।।२६/१.७।। मनुष्य जीवन कब किसे मिलता है यह एक विचारणीय प्रश्न है जिसका कवि ने निम्न प्रकार समाधान दिया है -
स्वल्पारंभ परिग्रह जोन, भद्र प्रकृतियो चारि मानि । करुणा धनी प्रार्य परिणाम, धुलि रेख सम दीसे ताम ||४६॥ पर दोषी न कुकर्म हि करें, मधुर वचन मुख ते उचरें । कानन सून्यो होइ जो दोष, भूलनि कबहू भाषे दोष ।।४।।
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कविवर बुलाखीचन्द
देव गरुनि को पूजे सदा, निसि भोजन यांक नही कदा ।
शुभ ध्यानी लेश्या कापोत, बंध मनुष्य प्रामु को होत ॥५०/१०८॥ इस प्रकार कवि ने दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक वसान भगवान ऋषभदेव के ज्ञान कल्याणक के अन्तर्गत किया है । निर्वाण कल्याणक वर्णन में कवि ने दान की उपयोगिता पर विस्तृत प्रकाश डाला है । दान भी पात्र कुपात्र देख कर दिया जाना चाहिये । कुपात्र को दिया हुआ दान निष्फल जाता है । कवि के अनुसार साधु को दिया हुमा भोजन (माहार) उत्तम दान है । साधरी जनों को दिया हया दान मध्यम दाना है हिंसक जनों को दिया हुआ दान तो एक दम व्यर्थ है । जिस प्रकार किसान भूमि की उपज देख कर उसमें बीज डालता है उसी प्रकार दान देते समय पात्र कुपात्र का ध्यान रखा जाना चाहिौ ।
जो किसान खेती के हेत, कल्लर भूमि रही पित देत ।
दान जु पात्र तर्ने अनुसार, पात्र समान फरन है बहुसार ।। ७८ ॥ ११३ सम्राट भरत ने ब्राह्मण वर्ग की स्थापना की थी । कवि ने उनमें पाये जाने वाले ६ प्रकार के गुणों का वर्णन किया है । उनमें से पाठयां एवं नयां गुण निम्न प्रकार है
अल्पाहारी चित संतोषी, दुष्ट वचन सुनि नहि जिय रोष । प्राशीर्वाद परायन जानि, अष्टम गुण द्विज को यह जांनि ॥१३॥ शुभोपयोगी विद्यावान, प्रातम अनुभव करण प्रधान ।
परम ब्रह्म को ध्यान कराइ, ए ब्राह्मण के नव गुण कहिवाई ।।१४:११४ जब तक भरत रहे तब तक के इन गुणों से युक्त रहे लेकिन बाद में उनमें भी शिथिलता प्राती गयी ।
पत्ति के चौदह रत्न कषि ने चौदह प्रकार के रस्नों के नाम गिनाये हैं । जो निम्न प्रकार हैं
सेनापति अरु स्थपित बखान, हमंपती अरु गज अश्व प्रधान । नारी चर्म चक्र काकिनी, छत्र परोहित मनि तहां गनी ॥३॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
षडग दंड मिल चौदह भए, इनि के भेद सुनौ बजए । सेनापति श्री सो गुन लेत, नव प्रकार संन्या सज देत ||८४ / १२६|| उक्त चौदह रत्न चक्रवर्ती के ही होते हैं ग्रन्य किसी राजा को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं होता | कवि ने इन सभी का विस्तृत वर्णन किया है । भन्त में लिखा है
२६
चत्र पुण्य प्रताप बल, चौदह रत्न अनूप i
औरत का को मिलें, मिलें अनेक जग भूप ॥१७॥ १२७॥
गौतम द्वारा महावीर का अनुयायी बनाना
कवि ने चौरासी बोल, श्वेताम्बर मत उत्पत्ति वर्णन आदि पर भी विस्तृत प्रकाश डाला है। इसके पश्चात् कवि एक महावीर के सत्र में पहुँच जाता है। कैवल्य होने पर भी जब भगवान की दिव्य ध्वनि नहीं खिरती है तो इन्द्र को बड़ी चिन्ता होती है और एक वृद्ध है। ह उससे "काल्यं द्रव्य षटक" श्लोक का अर्थ समझना चाहता है लेकिन जब प्रर्थ समझ में नहीं श्राता है तो वह अपने शिष्यों के साथ महावीर के समवसरण में प्राता है । समवसरण में लगे हुए मानस्थंभ को देखते ही गौतम को वास्तविक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वह महावीर की निम्न प्रकार स्तुति करने लगता है ।
गौतम नम्मो चरन अष्टांग, लागी जिन स्तुति पढन प्रभंग । दीन दयाल कृपा निधि ईस कर पंकज नाऊं शीस || १४ / १३८ ||
गौतम को तत्काल मन:पर्यय ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। वह महावीर के शिष्य प्रमुख शिष्य हो गया 11
में
उसी समय मगध का सम्राट श्रेणिक रानी चेलना के साथ वहां आया। श्रेणिक बौद्धधर्म का अनुयायी था लेकिन चलना महावीर की परम भक्त थी। समयसरण में थाने के पश्चात् भगवान महावीर ने उसके पूर्व भवों का वृतान्त विस्तार के साथ सुनाया ।
१.
तब गौतम मुनिराज सरेष्ठ, सकल गनि मध्य भए वरेष्ठ || १६/१३८
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कविवर बुलाखीचन्द
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२७
ता परनी चेलना अनूप, जाके रत्न सम्यक्त स्वरूप ।
तब सुनि भनक नृप की कथा, श्री गुरु मुख तँ भाषी जु जथा । श्रेणिक द्वारा जैनधर्म स्वीकार करने को कथा
पूरी कथा में राजा श्रेणिक चेलना के प्राग्रह से फिस प्रकार जैनधर्म का अनुपी : न इसान रिमा लुगा है । सर्व प्रथम राजा श्रे रिशक ने बौद्धधर्म की प्रशंसा की तथा जनधर्म के प्रति अपने विचार प्रगट किये ।1 चेलना के कहने से राजा ने पहिले बौद्ध साधु को बुलाया और विभिन्न प्रकार से उसकी परीक्षा ली । फिर जैन साधु की चेतना ने परिगाहना का 1 परीक्षा में जैन साधु वास खरा उतरने पर राजा भणिक ने जैनधर्म स्वीकार कर लिया।
सुनि निक संसे उडि गई, दृढ प्रतीति जिनमत पर भई । तब रानी कियो अंगीकार, धन्य सुबुद्धि पवित्र अवतार ॥३०॥ निज पति को तिन कीनों अन, कोष तनों उर से गयो फैन । वा मत बसि गयो पहिलेक्ख कहि न सके
नहि जहाँ दुख केते समर्क ॥३१॥ १४३ ॥ राजा श्वे णिक ने भगवान महावीर से साठ हजार प्रश्न किये और उनका समाधान भी सुना । गन्स में अषाढ सुदी १४ को सभी मुनिजनों ने योग धारण किया तथा कालिक सुदी १४ तक योग धारण किये रहे । लेकिन कातिक बुदी प्रमावस्या की रात्रि को अब प्रभात काल में चार घडी रही थी सब भगवान महावीर मे निर्वाण प्राप्त किया।
कातिग यदि माषसफ रीति, चार घडी जव रह्यो प्रभात ॥५॥
१. जैन कहां जांकी जरघरे, तहाँ न कोऊ क्रिया प्राचरे ।
बोध सने गुरु दीन दयाल, जन जती निरषन के हाल ।।
पशुचि अपावन बोध विहीन, क्रौन अंग निमें परवीन । ७६ ।। १४०।। २. राजा श्रेनक चरित में, कयौ संक्षेप सुनाइ ।
पति हितकारी भाव की, परमत नहीं सहाइ ॥१।। १४३ ।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
श्री जिन महावीर तीर्थेश, पंचम गति को कीयो प्रवेश ।
मुक्ति सिद्ध सिला पर सिद्ध सरूप, परमातम भए चिदरुप ।।६।। महावीर संघ के न गणों के मस पूरा प :
इसके पश्चात् कवि ने काष्ठा संघ की उत्पत्ति की कथा लिखी है जो ४० दोहा चौपाई छन्दों में पूर्ण होती है । लोहाचार्य वर्णन
प्राचार्य गुप्ता गुप्त के मद्रबाहु शिष्य थे। उनके पट्ट शिष्य माघनन्दि मुनि थे। प्राचार्य कुन्दकुन्द उनके पट्ट शिष्य थे । तत्वार्थ सूत्र के स्थपिता उमास्वाति प्राचार्य कुन्दकुन्द के शिष्य थे । उमास्वाति के पट्ट शिष्य थे लोहाचार्य जिन्होंने काष्टासंघ की स्थापना की थी । लोहाचार्य विद्या के भण्डार एवं सरस्वती के साक्षात् अवतार थे। उनके एक बार शरीर में ऐसा रोग हो गया कि मरने की स्थिति प्रा गयी । वायु पित्त एवं कफ तीनों का जोर हो गया । तब उनके उसी भव के श्री गुरु स्नेहवा वहाँ पाये । उन्होंने उनको सन्याल (समाधि परम्प) दे दिया क्योंकि जीने की तनिक भी प्राशा नहीं रहीं थी। लेकिन शारीर की व्याधियां स्वत: ही धीरे धीरे कम होने लगी और वे स्वस्थ हो गये । भूख प्यास लगने लगी। तब उन्होंने अपने गा से विशेष माशा मांगी। श्री गुरु ने कहा कि
श्री गुरु कहें न प्राम्या पान, करि सन्यास मरण बुधियान ।
ज्यो मागे परमादी जीव, प्रतिपालें जो व्रत जोग सदीव ।।२३।। लोहाचार्य ने गुरु की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और अन्न जल ग्रहण कर लिया । गुरु ने उनको अपने गच्छ से निकाल दिया और दूसरे किसी साधु को पट्टाधीन बना दिया । लोहाचार्य ने गुरु के इस विरोध पर गम्भीरता पूर्वक चिन्तन किया और अन्त में गुरु को छोड़कर अन्यत्र बिहार कर दिया। उस समय विक्रम संवत सात सौ ७६० था ।
१. जो हो इनिसों कही प्रकार, पूरी करी जाइ चोमास ।
मति उर यो व्रत भंग जु भयो, तुम प्रमु के हित हो चित दियो ॥१३॥ २ लोहावारज सोचि विचार, गुरु तजि कीयो देश विहार ।
संवत श्रेपन सात से सात, विश्राम राय सनो विख्यात ॥ २५|१४४।।
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कविवर बुलाखीचन्द
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लोहाचार्य प्रगरोहा ग्राम भाये । जो नंदीवर गांव के नाम से विख्यात था ।
अगरोहा ग्राम में भग्रवालों की बस्ती थी। वे धनाढ्य थे तथा दूसरे धर्म को मानने वाले थे । दूसरे धर्म की परवाह नहीं करते थे। उनकी उत्पत्ति के बारे में कवि ने निम्न प्रकार महान किया है...
अग्रवाल जन जाति को उत्पत्ति
अगर नरम के ऋषि व जो तपस्वी ५ बनकासा थे तथा जिनकी माता ब्राह्मणी थी। एक दिन जब वे ध्यानस्थ थे तो किसी नारी का शब्द उनके कानों में पड़ा । नारी का सम्द सुनकर ऋषि कामातुर हो गये । शब्द बड़े मधुर एवं ललित थे तथा उसका स्वर कोकिल कंठी था। ऋषि का ध्यान छूट गया तथा वह उसका सौन्दर्य निरखने लगे। उस नारी ने कहा कि वह नाग कन्या है इसलिये यदि ऋषि को काम सता रहा है तो वह उसके पिता से बात करे । वह ऋषि का रूप देखकर कन्या दान कर देंगे । यह सुनकर ऋषि खड़े हो गये मोर नाग लोक को चले गये । नागिनी ने ऋषि तपस्वी को बहुत पादर दिया । ऋषि ने नाग कन्या के पिता से प्रार्थना की कि वह अपनी कन्या का उसके साथ विवाह कर । नाग ने ऋषि की बात मान कर अपनी कन्या जसे दे दी । ऋषि कन्या को अपने साथ ले प्राया । उससे १८ लड़के हुए जिनमें गर्ग प्रादि के नाम उल्लेखनीय है । उनकी वंश वृद्धि होती गयी
१. अगर नाम रिष हैं तप धनी, वनवासी माता वाभनि ।
एक दिवस बैठे धरि ध्यान, नारी सब्द परयो तब कोन ॥१२॥
मधुर वचन और ललित प्रपार, मानों कोकिलो कंठ उचार । छुटि गयो रिष ध्यान अनूप, लागे निरिखिन नारी रूप ॥१३॥
तब ऋषिराम प्रार्थना करी, तब कन्या हसि जिम में बरी । भव तुम दे हमें करी दान, ज्यों संतोष लहै मम प्रान ।।१७॥
नाग दई तब कन्यां वांहि, कर गहि अगर ले गए ताहि । ताके सुत अष्टादस भये, गर्ग प्रादि सुत में वरनए ।।१८।१४५।।
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३०
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज पोर उनको अगरवाल कहा जाने लगा । उनके १८ गोत्र हो गये जो ऋषि के पुत्रों के नाम से प्रसिद्ध हो गये ।।
एक बार पुरवासियों ने सुना कि कोई मुनि पाये हुये हैं और वे नगर के बाहर ही उत्तरे हुये हैं। नगरवासी उन्हें साघु जानकर भोजन हेतु प्रार्थना करने गये । मुनि ने नागरिकों से कहा कि वह तपस्वी है इसलिए यदि कोई श्रावक धर्म के पालन करने की प्रतिज्ञा लेवे तथा जिसे अन्य धर्म प्रच्छा नहीं लगता हो तो वह उन्हें प्रादरपूर्वक अपने घर ले जा सकता है । उसके घर पर वे भोजन करेंगे । भुमि के वाक्य सुनकर सभी नागरिक विस्मय करने लगे तथा प्रापस में चर्चा करने लगे कि ये कैसे मुनि हैं जो भोजन देने पर भी भोजन ग्रहण नहीं करते ।।
मुनि के प्रभाव से कुछ लोग जिनधर्मी बन गये और मुनि के चरणों में प्राकर बन्दना करने लगे । गुरु के उपदेश से धर्म का ममं समझ लिया। उसके पश्चात् मुनि ने नगर प्रवेश किया । नव दीक्षित जैनों ने मृनि को भली प्रकार प्राहार दिया और अनेक प्रकार के उत्सव करने लगे। मुनि श्री ने उनको प्रतिबोधित किया और इस प्रकार अग्रवाल जैन वने । प्रारम्भ में वे केवल ७०० घरथे । वहीं जिन मन्दिर का निर्माण कराया गया और उसमें काष्ठ की प्रतिमा विराजमान कर दी। दूसरे ही पूजा पाठ बना लिये जो गुरु विरोधी थे । यह बात पलती चलती भट्टारक उमास्वामी के पास प्रायी । बात सुनकर मुनि को खूब चिन्ता हुई कि काष्ठ की
१. तिनि को वंश बढयो प्रसराल, ते सब काहिमे अगरवाल ।
उनके सब मष्टादश गोत, भए रिषि सुत नाम के उदोत ।।१६।।
२. तिनि सुन्यो एक पायौ मुनि, पुरु के निकट उतर्यो गुनी।
भिक्षुक जांनि सकल जन नए, भोजन हेत विनवत भए ।।२०।। तब मुनि कहें सुनों घरि प्रीति, हम तपसीन की प्रसी रीति । जो कोक श्रावक घमं कराइ, मिथ्यामत जाकों न सुहाइ ॥२१॥ सो अपने घरि पादर करें, ले करि जाइ दया तव चरें। और ग्रेह नहीं प्राहार, यह हम रीति सुनी निर्धार ।२२।। १४५ ।।
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कविवर ब लाखोचन्द प्रतिमा बनाने की नयी परम्परा डाल दी । लेकिन जैन धर्म में दूसरों को दीक्षित करने की जब बात मालूम पड़ी तो उन्हें सन्तोष हुमा और वे भी वहीं मा गये जहाँ मुनि श्री लोहामार्य थे । जब उन्होंने भट्टारक उमास्वामी के आने की बात सुनी तो उन्हें वे लिखाने गये और बड़े उत्साह से उनका स्वागत किया।
लोहाचार्य ने उमास्वामी को चरण पकड़ लिये । मुनिराज ने मानन्दित होकर लोहाचार्य को उठा लिया और उनको चरणों से उठाकर अपने पास पर बिठा लिया। सभी नागरवासियों ने उमास्वामी की वन्दना की और उन्होंने सबको धर्म वृद्धि देते हुए पाशीर्वाद दिया । उनकी अगवानी करके नगर में उसी मन्दिर में लाये जिसमें काष्ठ की प्रतिमा विराजमान थी। उमास्वामी से जब नगरवासियों ने उनसे पाहार ग्रहण करने की प्रार्थना की तो वे कहने लगे कि जो उन्हें भिक्षा देना चाहेगा तो प्राचार्य श्री को उनकी बात माननी पड़ेगी। लोहाचार्य तत्काल विनय पूर्वक प्राज्ञा देने के लिये प्रार्थना करने लगे जिससे उनका जीवन धन्य हो सके ।
उमास्वामी ने कहा कि वे सब शिष्यों में सपूत हैं जो मिध्यात्म का खंडन करने वाले एवं जैनधर्म का पोषण करने वाले हैं तथा जिन्होंने जैनधर्म में वृद्धि की है। लेकिन एक शिक्षा वे उनकी भी माने और भविष्य कि काष्ठ की प्रतिमाविराजमान करना बन्द
१. चली बात चलि पाई तहां, उमास्वामी भट्टारमा जहाँ ।
मुनि जिय चिन्ता भई अगाध, करी काठ की नई उपाधि ।।२८।। प्रावत सुनि श्री निज गुरु भले, मागे होन भावारज चले । जीनै सकल नगर जन संग, वाजन प्रति बाजे मनरंग ॥२६॥
सब मुनि कहे सुनो गुन जुत, शिष्यन में तुम भये सपूत । परमत भंजन पोषन जैन, धर्म बढायो जीत्यो मेंन ॥३४॥
वही सीख हमरे करि बरो, काठ तनी प्रतिमा मति करो। ३. सबतें काष्ठ संघ परबरयो, मूलसंघ न्यारो विस्त र्यो ।
एक चना कोज्यौ हूँ दारि, त्यो ए दोऊ संघ विचार ॥३८॥
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कविवर बुलाखाचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
करें । क्योंकि काष्ठ, प्रनि, जल लेप, प्रादि से विकृत होसकती है । लोहचार्य ने अपने गुरु की बात मान ली । उन्होंने उनके हाथ से सुरही के बाल वाली पिच्छी ग्रहण की। दोनों गुरु शिष्य प्रसन्न हो उठे । उसी समय हा मंत्र फाष्ठा संघ कहलाने लगा। और वह मूलसंघ से पृथक माना जाने लगा यह कोई नया संघ नहीं है । संघ में जैनधर्म के प्रतिपादित सिद्धान्तों का पालन होता है ।
काष्ठासंध की उत्पत्ति का इतिहास कहने के पश्चात् कवि ने मक्तामरस्तोत्र एकीभावस्तोत्र, भूपालस्तोत्र, विषापहारस्तोत्र एवं कल्याणमन्दिरस्तोत्र के रचे जाने की कथा लिखी है। कवि के कथा कहने का ढंग बड़ा ही पाकर्षक है ।
जैसवाल जाति का इतिहास
कल्याणमन्दिरस्तोत्र का समाप्ति के पश्चात् कवि ने इक्ष्वाकु वंशीय जसबाल जाति का इतिहास कहने की भावना व्यक्त की है।
जैमवाल इक्ष्वाकु कुल, तिनि को सुनौ प्रबन्ध
ऋषभदेव तीर्थकर ने गृह त्याग करने से पूर्व महाराजा भरत को प्रयोध्या तथा बाहुबली को पोवनपुर का राज्य दिया तथा शेष पुत्रों को उनकी इच्छानुसार राज्य शासन सौंप दिया । उन्हीं में से एक पुत्र शक्ति कुवर जैसलमेर चल कर पाये और जैसलमेर मण्डल का शांतिपूर्वक राज्य करने लगे। उनका वंश बढ़ने लगा तथा जैन धर्म की वृद्धि होने लगी। कुछ समय पश्चात् उन्हीं के वंश में एक राजा ने बनधर्म छोड़कर अन्य मत की साधना करने लगा। शुभ कर्म घटने लगे तथा पृथ्बी पाप बढ़ने लगे । एक दिन दूसरे राजा ने राज्य पर चढ़ाई कर दी जिससे सब राज्य चला गया । लेकिन प्रजा ने उसे अपने यहां रख लिया। राज्य से वंचित होने के
१. श्री जिगवेव कषभ महाराज, अब वाटयो सब महिको राम मवधिपुरी बई भरथ नरेस, बाहुबलि पोचमपुर देश ॥१॥ मोर मुतम जो माग्यो हाम, श्री प्रभते वयो प्रभिराम । कुंबर शक्ति मिन बाट नरेस, चलि पाए नहीं जैसलमेर ।।२।। वे मंडल को साधे राज, सुख साता के सों समाज । तिमि को गंश बदयो असराल, जनधर्म पाल महिपाल ॥३॥
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कविवर बुलाखीचन्द
पश्चात् किसी ने खेती करना प्रारम्भ कर दिया तथा किसी ने चाकरी नौकरी करली। इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हो गया और वहां जैनधर्म का प्रचलन बन्द हो गया |
२४ वें तीर्थंकर महावीर को जब कैवल्य हुआ तो इन्द्र ने समवसरण की रचना की । प्रचंड पुण्य के धारी सुर असुरों ने समवसरण को श्रार्यखंड में घुमाया श्रौर एक बार भगवान महावीर का समवसरण जैसलमेर के वन में भा गया। समवसरण के प्रभाव से सब ऋतुनों में फूल खिल गये । वनमाली ने राजा के पास जाकर तीर्थंकर मानो के केका समाचार दिया । तत्काल राजा भी अत्यधिक प्रसन्नतापूर्वक महावीर की बन्दना के लिए अपने परिवार एवं नगरवासियों के साथ बल दिया
राजा ने विनयपूर्वक महावीर को वन्दना को तथा मनुष्यों के प्रकोष्ठ में जाकर बैठ गया । उराने महावीर भगवान से निवेदन किया कि " हमारे देश में एक बात प्रसिद्ध है कि "हम पर देवताओं की कृपा है तब फिर उनके हाथ से राज्य कैसे निकल गया" । इसका उत्तर महावीर के प्रमुख शिष्य ( गणधर ) गौतम स्वामी ने दिया । उन्होंने कहा कि उनके पूर्वजों ने जैनधर्म छोड़ दिया मा इसलिए यह सब कुछ हुआ । यदि फिर वे जैनधर्म स्वीकार करलें तो उनके संकट दूर हो सकते हैं । गौतम गणधर की वाणी सुनकर वहाँ उपस्थित सभी चार हजार स्त्री पुरुषों ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया सबने मिलकर नियम किया कि वे भविष्य में जैनधर्म का
१. महावीर प्रभु प्रकयौ ज्ञान, रची सभा सब अमरनि श्रान ॥७॥ सकल सुरासुर पून्य प्रचंड, ताहि ले फिरें भारज खंड
३३
खंड सकल परयाँ चौफेर चलि प्राये जहाँ अंसलमेर || 5 ||
"
२. सुनि राजा चल्यो वंदन है, मान रहित पुरलोक समेत ।
प्रथम नमें श्री जिमवर राइ, फुनि नर कोठें बैठे जाइ ॥ १० ॥ पुत श्री प्रभु को बात, ओ ए यात वंश विख्यात । रहों कृपा करि सुर महाराज, छुट्यों क्यों हमतें भुवराज ॥। ११ ॥
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३४
कविवर लाखो बन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
का श्रादर करेंगे। उन्हीं वक्तियों से अपना व्यवहार, खान पान एवं विवाह सम्बन्ध रखा जायेगा | इनको छोड़कर जो धन्मत्र जावेंगे वे सब दोष के भागी होंगे। इस प्रकार वे सभी पुनः अपने धर्म को ग्रहण करके जैसलमेर नगर में आ गये और भगवान महावीर का समवसरण भी मगध देश के राजगृही स्थित पंच पहाड़ी पर
चला गया ।
"
उसी समय से वे सब जैसवाल कहलाने लगे। उनके मन से मिध्यात्व दूर हो गया। नगर में मन्दिरों का निर्माण कराया गया और वे उत्साह पूर्वक जिन पूजन प्रावि करने लगे । चतुविध संघ को दान आदि दिया जाने लगा । प्रतिदिन पुराणों की स्वाध्याय होने लगी । जो लोग पहिले दरिद्रता से पीड़ित थे वे सब धन सम्पत्तिवान बन गये | सब के घरों में लक्ष्मी ने वास कर लिया । और वे सब भी मन्य कार्य छोड़कर व्यापार करने लगे ।
कुछ समय पश्चात् एक श्रावक की कन्या विवाह योग्य हो गयी । वह प्रत्यधिक रुपवती थी इसलिय सारे नगर में उसकी चर्चा होने लगी। सभी उसके साथ विवाह करने के लिये प्रस्ताव भेजने लगे। वहां के राजा ने भी उसके साथ विवाह करने का प्रस्ताव भेज दिया । राजा के प्रस्ताव से सभी को श्राश्चर्य हुआ । जैसवाल जैन समाज के पंचों की सभा हुई। सभा में यह निर्णय लिया गया कि वे जैनधर्मावलम्बी है इसलिये विवाह सम्बन्ध भी उसी जाति में होना चाहिये ।"
पंचों का निर्णय राजा के पास भेज दिया गया । इस पर राजा ने उन सबसे जैसलमेर छोड़ने एवं राज्य की सीमा से बाहर निकल जाने का आदेश निकाल दिया । उन्होंने भी राजा का आदेश मान लिया और बाध्य होकर जैसलमेर
१. तब बोले गौतम बलराइ, जैनधर्म त्यागे रे भाइ ।
जो वह फेरि भाव धर्म, विर नाइ तुम तें दुष्कर्म ।।१२।। १५३ ।।
२. सुगत सर्वाति के विसमय भई, कौन बुद्धि राजा यह कई ।
अब हम जैनधर्म व्रत लियो ||२०|
पंच सकल जुरि सवर जाति सौ रह्यौ न काज, खान पान अथ सगपन साज |
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कविवर बुलाखीचन्द
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म को कोया तो कई नइ को रख य ग्राम एवं नगर वाले प्राश्चर्य करते और प्रश्न करने लगते कि यह विशाल संघ कहां से प्राया है तथा किस कारण से अपना देश छोड़ कर आगे जा रहा है । वे सभी कट्टर थे लेकिन अहिंसक प्रवृत्ति के थे इसलिये शान्तिपूर्वक निम्न उत्तर दिया करते थे
कौन देश ते या संप, पौराति कड़ी कार हो । उत्तर बेई सर्वे गुणमाल, वंश इसाक और जेसवाल ॥२४॥१५३॥ जेसवाल तही ते जानि, जेसवास कहित परवान ।
जैसलमेर से चलते बलत्तै पन्त में वे त्रिभुवनगिरि-ति हुगिरी-नगरी माये । चतुर्मास प्रा गया था इसलिये उन सबको वहाँ नगरी के बाहर अन में ही ठहरना
कुछ समय पश्चात् वहाँ का राजा जब यन क्रीड़ा के लिये प्राया मोर उसने इतने बड़े संघ को देखा तो उसने अपने मंत्री को पूछने के लिये भेजा तथा वापिस माकर मंत्री ने राजा को पूरा विवरण सुना दिया । राजा ने अपने ही मंत्री से फिर कहा कि ये लोग उससे प्राकर क्यों नहीं मिलते। इस पर मंत्री ने फिर निवेदन किया कि इनको अपनी जाति पर बड़ा गई है और यही जैसलमेर से निकलने का पारण है । पूरा वृतांत जान कर राजा को भी क्रोध प्रागया तथा उसने अपनी मूछों पर हाथ फेरा और वापिस नगर में चला गया ।
राजा की मह सब क्रिया वहाँ एक बालक देख रहा था जो अपने साथियों के साथ वहीं था। वह बुद्धिमान था इसलिये वह राजा के मनोगत भावों को पहिचान कर तत्काल अपने घर पाया और राजा की बात सबको कह दी तथा कहा
१. चले चले पाए सब जहाँ, हुती तिहुगिरी नगरी जहां ।
तापुर निकट इतो वन चंग, उत्तर्यो तहां जाइ यह संग ।
पाये यह जहाँ चातुर भास, सकस संघ उहां कियो निवास ॥२६॥१५४।। २. सचिव कहें इनें गवं अपार, याही ते नृप दिए निकार ।
सुनि राजा कर भूमि पर्यो, मन में रोस संघ परिफर्यो ।३१।। मुखत कछन को उधार, प्राए महिपति नगर मझार ॥३२॥१५४
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३६
कविवर बलाखोचन्द, बुलाकोदास एवं हेमराज कि उनको राजा से मिलना चाहिये नहीं तो भान भंग हो जावेगा जो अनिष्ट कारक होगा।
बालक की बात पर विश्वास करके वे तत्काल मेंट आदि लेकर चले प्रौर जाकर राजा से मेंट की और निम्न प्रकार निवेदन करने लगे
प'चे जाइ नपति के द्वार, भंट धरि अरु कर्यो जुहार । राजा पूछ एको हेत, जिन में प्रीत तनी उदेत ॥३६।। सचिव कहें ए सब सुनौं भूपाल, हम चित नहीं सर्व को साल । सप अनीति स्यागो निज देश, चलि पाये तुव शरण नरेश ।।३७।। करी हुती जहां जिम में चित्त. बीते भावव वरस पुनीत । देखें जाइ परण प्रभू तनौं, और मनोरथ चित के भनौ ।।३।।
सबने उसी नगर में रहने के लिये राजा से एक भूमि खंड मांग लिया जिसमें सभी जैसवाल बन्धु रह सके। उन्होंने यह भी कहा कि राना के भोप के कारण ही उन्होंने उनसे निवेदन किया है। राजा को आश्चर्य हुमा कि उसके मनोगत भावों को किसने ताड लिया क्योंकि उसने किसी से भी अपने मन की बात नहीं कहीं थी। तब सबने मिलकर इस प्रकार निर्मदन किया
तब सब मिलि नप सों थिनए, जा दिन तुन प्रभू कोडा बन गए । पूछो सकल हमारी बात, सचि यही असो इह तात ।।४२। तहां एक बालक हमरो हुलौ, बुद्धिवान क्रीडा संजुती । तिमि सब बात कही समझाय, वेगि मिली तुम नप को जाई ।।४३।। कोष किये हम उपरि चित्त, मैं भाषी सबसौ सब सत्ति। या पर हम जिप मैं बहु सके, पाए मिलिन महा भय थके ।।४४।।
राजा ने जब उक्त कथन सुना तो बालक को शीघ्र बुला का आदेश दिया गया । बालक जब पाया तो उसकी सुन्दरता देखकर राजा बहुत प्रसन्न हो गया। राजा द्वारा मनोगत भावों की कहानी जानने पर बालक ने दोनों हाथ जोड़ कर निम्न प्रकार उत्तर दिया
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१. मालफ सबसों भाषी बात, नप को बेगि मिली तुम तात ।
नहीं तो मानभंग तुम होइ, सत्यवचन मानो सब कोइ ॥३४॥१५४।।
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कविवर बुलास्त्रीचन्द
मालक कहै उभय करि जोरि, जब प्रभू निज कर मंछ मरोरि । कोष बिना मछमहीं हाथि, यासे हम सके नरनाथ ॥४७॥
बालक का उत्तर सुनकर राजा ने प्रसन्न होकर उसे गले लगा लिया। इसके पश्चात राजा ने सबको सम्मान सहित विदा किया । सबको रहने के लिये नगर में स्थान दिया गया । सभी लोग सुख पूर्वक रहने लगे।
कुछ समय पश्चात् राजा ने सभी जैसवाल जैनों से कहा कि वह अपनी लड़की उस बालक को बना चाहता है । वह उसकी बराबर सेवा करती रहेगी । लेकिन राजा के प्रस्ताव का सभी ने विरोध किया और ऐसी ही बात पर जैसलमेर छोड़ने की बात का स्मरण किया । राजा ने क्रोधित होकर बालक को पकड़ कर बुला लिया तथा उसके साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया । इसमें किसी को कुछ नहीं चली। लेकिन उस बालक ने राजा को प्रनीति के मार्ग पर जाते हुए देख फर अन्न जल का त्याग कर दिया तथा कह दिया कि जब तक वह अपने माता पिता को नहीं देख लेगा तब तक उसके हृदय में शान्ति नहीं भावेगी। मही नहीं वह प्राण तब देगा। राजा उसका क्या बिगाड़ लेगा। राजा ने बालक के साथ किये गये कपट तथा बालक द्वारा किये जाने वाली अपयश पर भी विचार किया । राजा ने चालक के पूरे परिवार को गढ़ में बुला लिया । साथ ही उसके अन्य हितषियों को भी उसी के साथ बुला कर गढ में बसा दिया । इम्न प्रकार दो हजार परिवार नीचे रह गये जो जिन वचनों के अनुसार चलते रहे । उन सबने मिल कर यह निर्णय लिया कि दोनों का (गढ में रहने वालों का एवं शहर में रहने वालों का) परस्पर में मिलना कठिन है । न तो उनका कोई व्यक्ति हमारे पास आता है पौर न कोई हमारा व्यक्ति उनके पास जाता है । सन्होंने गुरु की शिक्षाभों का
१. तिन सय मिल यह ठहराव, मेंइनिसौं पत्र परम प्रभाव ।
कोऊ हमरौ उनिके नहीं जाइ, उनिको ह्यां कोऊ घर न पाइ ॥५७॥१५॥ तव नृप सहित सकल परिवार, पाए गढ़ नीचें सागार मंठे जिन मन्दिर नप माहि, सकल पंच तहां लए बुलाए ।।६।। बिनती करी जोरि के हाथ, सोई घरौ जो होइ एक साथ । बगसौं चूक जु हम मैं परी, बड़ो सोइ जो चित्त न परी ।।२।।
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कसित दलाली स्ट, अलाक दास एवं हेमराज
उलंघन किया है। बालक के जाने से क्या हुना । धर्म के बिना धन सम्पदा एवं जीवन सब व्यर्थ है । इस प्रकार बहुत सा समय व्यतीत हो गया । उल प्रघसर पर सब मंत्रियों ने मिल कर उसे राज्य भार सौंप दिया। जब वह राजा बन गया तो अपने अपने सभी सम्बन्धियों का का बुला लिया। तथा सबको गांव दे दिये तथा स्वयं त्रिभुबन नगर का राजा बन गया ! बागा कुल में से पुरोहित की स्थापना की गयी तथा उन्हें लिख कर दे दिया कि जिस घर में पुत्र का विवाह होगा तो वह पांच रुपया ब्राह्मण को देगा तथा इसमें कमी अथवा अधिकता नहीं होगी।
इसके पश्चात् सबके मन में यह बात पायी की वे सब बिछुड़ गये हैं । यदि वे सब मिल जाते हैं तो अत्यधिक प्रानन्द होगा। तब राजा सहित सभी परिवार वाले गढ़ से नीचे प्राये और जिन मन्दिर में भाकर एकत्रित हो गये । सब पंचों को बुला लिया गया । सभी ने हाथ जोड़ कर यही प्रार्थना कि ऐसा काम करो जिससे दोनों एक हो जावें ।। जो कुछ गल्ती हो गयी उसे मूल जाना चाहिये । अब पहिले की परम्परा को अपनाना चाहिये। सभी ने यह भी निर्णय लिया कि राजा का मान मंग नहीं करना चाहिये । सभी ने मिलकर राजासे मादेश देने की प्रार्थना की लेकिन परस्पर में विवाह करने की प्राशा देने पर वे सब देश को ही छोड़ देंगे यह भी निवेदन किया । राजा ने भी मन में सोचा कि हठ करने से प्रसन्नता नहीं होगी। इस प्रकार समाज की बात मान कर राजा महल में चले गये।।
इसके पश्चात जैसवाल जन समाज दो शाखाओं में विभक्त हो गया । जो समाज गढ़ में रहता था वह उपरोतिया कहलाने लगा तथा जो नीचे रहता था बह तिरोतिया नाम से प्रसिद्ध हो गया । उस समय ये दोनों नाम प्रसिद्ध हो गये और इसी नाम से ये परस्पर में व्यवहार करने लगे । उपरोतिया शास्त्रा वाले सवाल
१. विनती करी राय सौ सर्व, प्राग्या वेह अब हम तय
ध्या काज नहीं नरेश, हरु करो तो तन है नेश ॥१४॥ तब मन में सोधियों नरिक, हठ के कोए नहीं प्रानन्द । मानि यात नप गह पै गये, जसबाल दुविधि तब भए ॥६५३१५५।।
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कविवर बुलालोचन्द
काष्ठा संधी गुरुपों की सेना करने लगे तथा विशेतिया जैसवाल मूलसंधी बने रहे । दान
इस प्रकार
दाना देवान जैन समाज
धानन्द सहित रहने लगा ।
パン
लेकिन कुछ समय पश्चात् राजा का स्वर्गवास हो गया और उसके मरने के पश्चाद दूसरा ही राजा वहां का स्वामी बन गया। उसका नाम तिहिनपाल प्रसिद्ध था । वहां से जैसवाल चारों ओर निकल गये। इसी बीच प्रतिम केवली जम्बूस्वामी की मथुरा नगर के समीप स्थित न हुआ भगवान के कंवल्व को देखने के लिए सभी मथुरा के उद्यान में एकत्रित हो गये । त्रिभुवन गिरि को छोड़कर सभी जैसवाल वहाँ श्रा गए। भगवान के दर्शन कर के प्रत्यधिक प्रसन्नता हुई । उसी स्थान से जम्बू स्वामी ने निर्वाण प्राप्त कर पंचम गति प्राप्त की। उसी स्थान पर जैसवाल रहने लगे तथा भपना २ कार्य करने
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लगे । प्रषने २ गोत्रों में विवाह आदि कार्य करने लगे । इस प्रकार कवि ने जैसवाल जाति की उत्पति कथा का अत्यधिक महत्वपूर्ण वर्णन किया हैं । उपरोतिया शाखा में गोत्र एवं तिरोतिया शाखा में ४६गोत्र माने जाने लगे । 1
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कवि प्रशस्ति
यमनकोश के अन्तिम ११ पद्मों में कवि ने अपना परिचय दिया है जिसका वन प्रारम्भ में किया जा चुका है। कोश के अन्तिम पथ में कवि ने लघुता प्रगद की है
गुनी ओ प्रीतिसों, टुकहि लेइ सम्हारि ।
लघु वरिय तुक छंद कौं, क्षमियों चतुर विवारि ॥६५॥
इस प्रकार वचन कोश की रचना करके कविवर लुलाखीचन्द ने साहित्यिक
१. जम्बूस्वामि भयौ निरबान, पाई पंचम गति भगवान ।
जैसवाल रहे तिहि ठाम, मन मान्यो जु करइ कमि ॥ ७३ ॥
कारण गाम गोत परनए, इहि विषि जैसवाल बरनए । उपरोसिया गोस छत्तीस, सिर्फ तिया गनि छह चालीस ||७४ || १५६।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
जगत् को एक महत्त्वपूर्ण कृति मेंट की है । जिसमें सिद्धान्त, इतिहास, समाज एवं काध्य गरिमा के शं: होर है । कोश नाम इस प्रकार की बहुत कम कृतियो उपलब्ध होती हैं ।
अन्य एवं प्रलकार
__ वचनकोया का मुख्य छन्द चौपाई छन्द है लेकिन दोहरा एवं सोरठा छन्दों का भी प्रयोग किया गया है । १८वीं शताब्दि में दोहा एवं चौपई छन्द अधिकांश काव्यों का छन्द मा तथा पाटक गण भी इन्हीं छन्दों के काव्यों को रुचि से पढ़ते थे।
गद्य का उपयोग
कधि ने कोषा में कुछ स्थानों पर पद्य के स्थान पर गद्य का प्रयोग किया है । व्रतों के वर्णन में गद्य का प्रयोगप्रप्रमुख रुप से हुआ है । इसे हम व्रज भाषा का गन कह सकते हैं । गद्य भाग के कुछ उदाहरण निम्न प्रकार है
(१) जिनमुखावलोकन व्रत प्रासोज सुदी ४, भादवा बदि १ ते प्रारम्भ वर्ष १ ता यो फरै ताकी रीति श्री परमेश्वर जी की प्रतिमा देख्यां बिना पारणों न करे जो उदय वसि काहू दिन पहिले और कछू दिष्ट परें ता दिन उपवास करें ।
इति जिनावलोकन मुख व्रत । पृष्ठ संख्या ३६ ।
(२) मह प्रकार जब प्रात्मा बाहिर चिह्ननि करि और अंतरंग चिह्ननि करि जया जात रुप का घारतु हो हैं । ताले कुटुम्ब लोक पूछन प्रादि क्रिया तें ले करि प्रागै मुनि पद के मंग के कारण पर द्रव्यनि के संबंध है तातें पर के सम्बन्ध निषेध हैं इह कचन कर है।
पृष्ठ संख्या ४४। अन्य ग्रन्थों का उद्धरणा
कवि ने प्रत पालन के प्रसंग में नाटक समयसार, प्रवधनसार के अतिरिक्त अनेतर ग्रन्थों से भी श्लोक उद्धत किये हैं। इससे कवि की शिक्षा, दीक्षा एवं ज्ञान गम्भीरता के बारे में प्रकाश पड़ता है।
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कविवर बुलाखीचन्द
समीक्षात्मक अध्ययन -
बूलालीचन्द महाकषि बनारसीदास के उत्तरकालीन कवि थे । नागरा से उनका विशेष सम्बन्ध अ | लेकिन काव्य के अध्ययन के पश्चात् ऐसे लगने लगता है कि कबि पर बनारसीदास का कोई प्रभाव नहीं रहा । वयनकोश संग्रह ग्रंथ है । इसमें पुराण, इतिहास, कथा तथा सिद्धन्तों का मच्छा वर्णन हुअा है । कवि सीधे सादे शब्दों में अपनी गत पाटको ब चाना चाहता है इसमें उसे बार कुछ सफलता भी मिली है। लेकिन यह भी सही है कि वर्तमान शताब्दि में भी विद्वानों का ध्यान उसकी ओर नहीं गया । यद्यपि बचन कोश की चार पाण्डुलिपियों की खोज की जा चुकी है इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि ३०० वर्षों में किसी ने उसे मान्यता नहीं दी प्रा खिर मार पाण्डुलिपियां भी श्रावकों के ही प्राग्रह से लिखी गयी होंगी फिर भी कवि समाज द्वारा उपेक्षित ही बना रहा इस कथन मैं पर्याप्त सत्यता है ।
कनि स्वयमशिनिक की । यह पारी को सच खं अक्षय को समझता था इसलिये उसने अपने कोश में कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन बडी ही पतुरतः से प्रस्तुत किया है। उसने वचनकोशा का प्रारम्भ २४ तीर्थकरों के स्तवन से किया है यह स्तवन एक दो पद्यों का नहीं है किन्तु प्रत्येक तीर्थकर का उसने मंक्षिप्त एवं मधुर परिचय दिया है । जो पौगणिक के साथ २ कहीं २ ऐतिहासिक बन गया है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पांचों कल्याणकों के दर्शन के अंतर्गत उसने चारों ही अनुयोगों का वर्णन कर डाला है जिसको पढ़ने से पाठक ऊबता नहीं है किन्तु चि पूर्वक आगे बढ़ता चला जाता है । कभी वह अपने विषय को गध में प्रस्तुत करता है तो कभी पद्म में जिससे पाठक चिपूर्वक पंथ को पढ़ता चला जाये। वास्तव में दुलाखीचन्द अपने समय का अच्छा कवि था।
वचनकोश में जैमवाल जैन जाति की उत्पत्ति का इतिहास, उमी के अन्तर्गत भगवान महावीर का समबन्गा सहित जैसलमेर पाना, जम्बू स्वामी का मथुरा के उद्यान में नौवल्य एवं नियमित होना, काष्ठासंघ की उत्पत्ति, अग्रवाल जाति की उत्पत्ति के साथ अग्रवाल जैन शाति का इतिहास प्रादि कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का भी कवि ने वर्णन किया है । जिससे ज्ञात होता है कि स्वयं बुलाखीचन्द इतिहास प्रेमी था। वह जैसवाल जैन था इस लिये जैसवाल जाति का जो इतिहास लिखा है वह उस समय की मान्यता के आधार पर लिखा गया है। महावीर
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४२
कविवर बुलाखो चन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
के समवसरण का जैसलमेर में आने का उल्लेख करने वाला संभवतः एलाखी. बन्द प्रयभ विद्वान है । उमने लिखा है कि नहावीर जमलमेर भाये और जैसवालों को दिगम्बर जैन घमं में दीक्षित करने के पश्चात् पून: राजगृही चले गये । मार्ग में कहीं बिहार नहीं किया । इस घटना की सत्यता को सिद्ध करने वाले दूसरे प्रमाण नहीं मिलते और न किसी दूसरे विद्वान ने भगवान महावीर के समवसरण सहित जैसलमेर पाने का उल्लेख किया है फिर भी कधि के जो विवरण प्रस्तुत किया है: उस पर गम्भीरता पूर्वक विचार की आवश्यकता है । इतना तो इस वर्णन में सत्य प्रतीत होता है कि जैसघास जैन जाति की उत्पत्ति जैसलमेर से हुई थी।
अन्तिम केवली जम्बू स्वामी का कैवल्य एवं निर्वाण दोनों का मथुरा नगर के उद्यान में होना तो ऐतिहासिक सत्य है । यद्यपि कुछ विद्वान जम्बूस्वामी के निर्वाण स्थल में मतभेद रखते हैं लेकिन निर्वाणकांड गाथा में अतिशय क्षेत्रों के सम्बन्ध में नो महरम्य लिखा है उनमें मथुरा से ही जम्बूस्वामी का निर्वाण होना माना है। संवत १७३७ में रचित प्रस्तुत वचन कोश में इसी मत का समर्थन किया है यही नहीं मथुरा कंकाली टोले से जो जैन पुरातत्व की विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है वह भी इसी बात का द्योत्तक है कि मधुरा कभी जैन संस्कृति का महान् केन्द्र था । जम्बूस्वामी के पूर्व ही यह क्षेत्र जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र बन चुका था । अहिंसक वातावरण एवं श्रमण धर्म का केन्द्र होने के कारण जम्बूस्वामी भो स्वयं राजगृही से विहार कर मथुरा पधारे थे और यहीं उन्हें कंवल्य हुमा था। यही नहीं उस समय बिहार से राजस्थान तक का यह मार्ग जैन साधुओं के लिए सुरक्षित बन चुका था इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान महावीर का धर्म उस समय तक यहां लोकप्रिय बन चुका था पीर उनके अनुयायी पर्याप्त संख्या में मिलने लगे थे।
कोश में जैसवाल जन जाति के समान ही अग्रवाल जैन जाति की उत्पत्ति का इतिहास भी दिया हुआ है। लोहाचार्य ने अग्रोहा के निवासियों को जैनधर्म में दीक्षित किया जो बाद में अग्रवाल जैन कहलाने लगे । कवि ने इसे समंद ७६. (सन् ७०३) की घटना माना है । अप्रवाल जैन जाति का दिगम्बर जैन जातियों में अपना विशेष स्थान है । इसलिए उसका इतिहास जानना प्रावश्यक है । अग्रवाल जैन जाति के इतिहास के साथ ही काष्ठा संघ की उत्पत्ति का जो रोचक इतिहास प्रस्तुत किया है वह भी कवि की ऐतिहासिक मनोवृत्ति का ही परिणाम है।
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बधन कोश
समाज में काष्ठ की मूत्तियां बनाने का एक समय बहुत जोर हो गया था । 'काष्ठासंधी भट्टारफ इस दिशा में बहुत प्रयत्नशील रहते थे लेकिन भट्टारक उमास्वामी को काष्ठ प्रतिमा का निर्माण पता नहीं लगा इसलिये उन्होंने इसका विरोध किया और लोहाचार्य से जब भेंट हुई तब उन्होंने निम्न शब्दों में अपना मत व्यक्त किया
वही सोख हमरे करि धरो, काठ तनी प्रप्तिमा भति करो। पग्नि जरावे घन मिह दहें, अंग भंग नहि जिन गुन लहें ॥ जल गरें चंचल तमु जांन, सेप किये सदोष पह आनि ॥३॥
उमास्वामी की बात तो मान ली गयी लेकिन काष्ठा संघ ने मूल संघ से में अपना पृथक अस्तित्व बना लिया । इस प्रकार कवि ने काष्ठासंघ की उत्पत्ति का ऐतिहासिक वन दिया है लेकिन कानवले भकारक प्राचा लोभकोत्ति ने ने जो काष्ठासंप्ट की पट्टावली दी है उस से इसका मेल नहीं खाता । सोम कीति ने तो प्रथम प्राचार्य का नाम अहंदवल्लभसूरि दिया है जब बुला स्त्रीचन्द ने लोहाचार्य को काष्ठासंघ का संस्थापक माना है। लेकिन वचनकोश में भूल संघ एवं काण्डा. संघ को एक चने की दो दाल के समान माना है।'
वचन कोश में भारत में यवनोत्पत्ति का वर्णन किया है उसके अनुसार ये सब हिंसा में विश्वास करने वाले तथा शोच एवं शील के विपरीत प्राचरण करने वाले थे । मंत्र शास्त्र
घुलाखीचन्द ने कितने ही मंत्रों की साधना का भी अच्छा वर्णन दिया है। कवि के युग में अथवा प्रागरा, मादि स्थानों में मंत्रों पर अधिक विश्वास था । स्वयं कवि कभी मंत्र शास्त्र अच्छे शाता रहे होंगे ऐसा भी प्राभास होता है नहीं तो अधिकांश काम्यों में मंत्रों का उल्लेख तक नहीं होता। इसके अतिरिक्त सभी मंत्र विद्या, मादि के प्रदाता एवं कल्याणकारक मन्त्र हैं।
देखिये
पाचार्य सोमकिसि एवं ब्रह्म यशोधर-रा० कासलीवाल-पृष्ठ संख्या २४ । २. एक बना कोण्ये वारि, त्यो ए दोऊ संघ विचार ।। ३. हिंसा सनो तहां अषिकार, सौच शील महीं दीखें सार ।।७।।१४३३॥
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फदिवर नुलो चन्द बुलाकोदास एवं हेमराज मारण ताडन प्रादि क्रियाओं से कवि दूर रहा है । अधिकांश मंत्र छोटे हैं एवं नमस्कार मंत्र पर प्राधारित है । कवि ने मन्त्रों का पद्यों में महात्म्य लिखकर उनके महत्व में वृद्धि की है तथा उन्हें लोकप्रियता प्रदान की है । कवि ने मंत्रों का वर्णन पदस्थ ध्यान के अन्तर्गत किया है तथा मंत्रों को मन निरोष का उपाय बताया है ।
अष्ट सिद्धि नौ निधि सवन, मन निरोध कोगेह। वरन्यो ध्यान पदस्थ पह, घटि चित्त परण नेह ||६८11८२॥
इस प्रकार बुलाखीचन्द द्वारा निबद्ध बचनकोश हिन्दी की एक महत्त्वपूर्ण कृति है जो अभी तक साहित्यिक क्षेत्र में पूर्ण अज्ञात थी । राजस्थान के अन्य भण्डारों में इसकी निम्न पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं
१) क प्रति-पत्र संहना १५७ । लेखनकाल संवत् १८५३ चैत्र बाँद ११ मगुवार । प्राप्ति स्थान-शास्त्र भण्डार दि. जैन तेरहपंथ मन्दिर (बडा) जयपुर ग्रन्थ समाप्ति के पश्चात् निम्न पंक्ति और लिखी हुई है- "ग्रन्थ प्रतापगढ तेरापंथी पामनाय रो" । वेष्टन संख्या ।१६७० ।
(२१ ख प्रति- पत्र संख्या २५२ । भा० १५४४ इञ्च । लेखनकाल ४ | प्राप्ति स्थान-दि जैन मन्दिर श्री महावीर स्वामी बन्दी (राज.) वेष्टन संख्या १
(३) ग प्रति--- पत्र संख्या २८२ । या०६-४ इञ्च । लेखनकाल-- संवत् १८५६ । प्राप्ति स्थान–दि जैन मन्दिर कोटढियों का डूगरपुर ।
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!
अथ वचन कोश लिखते
मंगलाचरण
वचन - कोश
(बुलालोचन्यकृतं)
हा
"
समयसार के पथ नमू एकदेव गुरुच्यारि । परमेष्टि तिनियों कहें, पंच ग्यान गुणधार ॥११॥
वररण गंध काया नहीं, अविनाशी श्रविकार ।
१. श्रविनाथ स्तन
गुरु लघु गुण विनु देव यह नमीं सिद्ध प्रवतार ।।२।।
श्री जिनराज अनंत गुण, जगत परम गुरु एव । अध ऊरष मधिलोक के, इन्द्र करें शत सेव ||३| पंचाचारि पनि सहत परीसह घोर
►
श्री प्राचार्य धर्मगुरू, नमो नमो करिजोर ॥४ ध्यायक जिनवानी विमल, जगि अध्यायक नाम । ज्ञान दिवाकर परम गुरु, ताके पद परणाम ||५|| बीस प्राठ जे मूलगुण, साधे मन वच काय | सर्व साथ हैं कर्म ठाणु, वंदों शीस नवाय ॥६॥
चौपाई
पंच परम पद मुक्ति महेश ज्ञायक शुभग परम योगेश ||
तासु चरण नमि शुर्बाह वर्मों। जिन चौवीस तवें पद नमुं ॥७॥
बंदों प्रथम श्री श्रादि जिनंद नाभिराय मरुदेव्यानंद ||
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मनुष पांचसे ऊंची काय | जन्म कल्याणक बिनता थाय ॥ ८॥
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कांवकर बुलाखीचन्द, बुलाकोंदास एवं हेमराज
लांछन वृषभ तणो सोमंत । कंगन घरण गरीर दीर्पत ।। वंश इशाक प्राव परिमाण । लख चौरासी पूरक जान ॥ ग्यारह भव ते शान उचात । तब ते बंध्यो उत्तम मौत एक वरष पीछे प्रहार ! प्रासुक इक्षुदंड. रस सार ॥१०॥ नृप यांस दियो प्रम दान । हस्तमामपुर जाकी पान | बट तर लोच किया है सार । मनपर हे असी प्राचार ।।१।। समोसरण चनपति ने करो। बारह योजन को बिस्तरयो । सफ करि उपज्यो केवल मान । राजरिदि भुगतें प्रबहात ॥१२॥
बोहरा.. पचासन प्रास्त ह, जिनवर घरपोज शान ! गिरि कइलास प्राकामा यत, तहाँ भयो नियणि ॥१६॥
नौपई . बदि अषाढ़ की दुतीया जोई । प्रभु को गर्भ कल्याणक होई ।। चैत बदि नोमी के दिनो । तप और जनम महोछव घनां ॥१४॥ फागण बदि ग्यारसि तिथि जान । श्री जिनवर भयो फेवलज्ञान ।। ताको कवि कहा बरननि करें । रसना एक क्रित कर उच्च रै ॥१३॥ कृष्ण चतुर्दशी माष जु मास । भयो निर्वाण नुक्तिपद वास ।। विधानंद परमातम भए । तीनि लोक जाके पद नए ।।१६।।
बोहरा नर नारी जे भक्ति जुत, सिन दिन करे उपवास ।। फिरि पार्क भन मनुष्य को, मुक्ति होई भय नास ॥१७॥
इति वषभदेव वर्णन २. अजितनाय स्तवन
सागर लाख करोरि पचास । बीते अजितनाथ परगास ।। जित रिपु राजा विजया मास । गज लांछप हाटक सम गात ॥१॥ पुरी भोध्या जन्म कल्याण । तीनि भालर ते भयो ज्ञान ।। भनक मारिसे साढ़े काय । लाल बहतरि पूरब प्राय ।।२।।
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वचन कोश
शाक
मेनु पीर पीयतै सुनि देह ब्रह्मदत्त नृप बिनिला मेह ।। ३11 वृश्च ततपुलियो रत्नत्रय व्रत निर्मल किय समोसरस्य श्री चितचर वनों । नौजन साढ़े ग्यारह मम ॥४॥ बरननि सकों मप मोहि ज्ञांन सांझ स भयो केबलय्यांन ॥ बहुविवि राज विभृति बिलास । यहि स्वानि पाई सुख रात्रि | 12.20 सोरठा
ठाढे जोगाभ्यास, कियो सिद्ध सम्मेद 1
पहुँचे अविकल बास, सकल करम वन दद्दन के 11६11 दोहरा
जेष्ट यदि मावस गरम, जनम माघ सुदि नौमि चैत्र सुदिप जु तप, ध्यान भनि कर्म होमि ॥७ माघ महीना शुकल पक्ष तिथि को ज्ञान । स क्यारि प्रतिपदा, ता दिन प्रभु निर्वाण ॥ इति अजितनाथ बन
३. संभवनाथ स्तवन
चौप
तोस कोरि लाब निधिवार। बीते प्रभु संभव अवतार 11 पिता जितारस सेन्या माद: सावित्री नमरी के राइ ||१|| सुरंग पवन यति ध्वज श्राकार व शरीर हेम उनिहार ॥ सादि लाष पूरव तिथि जान । धनुक चारिसे काम प्रभार || २ || कुल इलाक में पूरचंद | पंचोत्तरसो बरावर वृद
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सीनि भवांतर से सुधि भई । भावरि दिवस दौड़ में गई ||३|| सूरदत्त सावित्री घनी सा घर गोपय की विधि बनी ॥ सरबर सुभग खालि जिहि नाम । तातर तपु लीयो मभिराम ॥ * ॥
धनी ॥1
प्राक केवल रिद्धि बनी | ठाडे जोग मुक्ति राजद्धिस्थायें लक्ष्य पार भयों सम्मेद गिरि जय जयकार |
*७
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YE
कविवर बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज
बोहरा
समवसरण जिनवर तणों, रच्यो देवतनि घाइ । ग्यारह जोजन को यो यघमंजन सुपदाइ ||६| फागुण सुद्दि नौमी गरभ, जनम पूर्णिमा पूल । छठि उच्चार चैत को लीयो
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सोरठा
कार्तिग पूण्यो ज्ञान, केवलरिद्धि जिनेश को 1
काती यदि निर्वाण, हूती चौथि ता दिन प्रगट !!!!
इति संभवनाथ वन
४. अभिनन्दन नाथ स्तवन
सोरठा
उदकोरि विष लाख, वीतें जग उड़ित भये ।
श्रुत सिद्धांत है सापि अभिनंदन जिन भान वत ॥१॥ चौपई
समर राय गृढ़ तिमिर तसाइ । प्राची विसा शिधारथ माइ ॥ अवधपुरी कपिल जानि । कुल इक्ष्वाक महा बलवान ॥२॥ सुवरवत देही की कांति । षोडश और शत मरणधर पांति || पूरब लाष पचास घरोग काय अहूट सत धनक मनोग ||३|| इन्द्रदत्त विनिता पुर राम । दूर्जे दिन गोक्षीर घटाइ ॥
लालरि वृक्ष सवन सोमंत । ता तर जोग धर्यो श्रहं ॥४॥ तीन जनम आर्गे सुधिवांन । सांझ समें भयो केवलज्ञान ॥ छोडत राज न कोनों मोह | दहा एहें राम श्ररु दोह ||५|| समोसरण जोजन दश श्रहं । रच्यो देव वनि सहित समद्धि ॥ ठाढे जोग मोक्ष को गए। गिरि सम्मेद तीर्थकर भए ॥६॥
दोहा
वैशाख बजेरी घटि प्रकट, तप अरु गर्भ कल्याण |
माघ उजेरी द्वादशी, ता दिन जनम अरु ज्ञान ॥ ७ ॥ t
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वचन- कोश
स शुटि चौदशि विमल, शुकूल ध्यान भयौ
घरि ईस |
कल्याणक पंचमी, सिद्ध भए जगदीश ॥ ८ ॥
इति प्रभिनन्दन बरनं
५. सुमतिनाथ स्तवन
बोहरा
लाख करोर नो,
वारधि सुमतिनाथ श्रावन भयो,
चौपाई
६. पद्मप्रभु स्तथन
तासु घटे परंजत ।
प्रतिबोधन जिन संत ।। १ ।।
मेघराय कौशल्या घनी । श्रीजिन माइ मंगला गणी ॥
वकचाकार ध्वजा फरहरें। राजनीति त्रिभुवन की घरं ॥ २ ॥ निर्मलकुल इक्षाक विचार । तीनि जनम थैं करी सम्हारि ॥ aj देह सौव भरत । भोजन दो६ दिवस परजंत || ३ ॥ पद्मदत्त विजयापुर ईश । घट्यो क्षीर भाहार जगदीश ॥ प्रियंगु वृक्ष उत्तम अवलोय । प्रभु को तहां तपोधन होइ ॥ ४ ॥ प्राव वबी पूरब लख चाल । सत्तीत्तर शत गणधर जाल ।। धनक तीन से जिन बलबीर । दिन के प्रस्त ज्ञान की भोर ।। ५ ।। समोसर जोजन दश जानि । द्वादश कोठे मध्य षषांन ॥ कायोत्सर्ग जोग घरि ध्यान | भयो सम्मेदगिरि पर निर्माण ।। ६ ।। दोहरा
ईंज अरु नोमी श्रावण दिवस, शुक्ल पक्ष वैशाष ।
गर्म जन्म प्रभु तप कहारे, श्रीजिन श्रागम भाष ॥ ७ ॥
चैत्र शुद्धी एकादशी, ता दिन तप निर्वान | भषि चैत यदि एकादशी, उपज्यो केवल ज्ञान ॥ ८ ॥ इति सुमतिनाथ वर्णनं
दोहरा
४
नव करोरि सागर
गए, उपजे पद्म जिनंद :
भविजन सब सुकृत भए कटे कर्म के फंद ।। १ ।।
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५०
कविधर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
चौपई धुर राणा नांगो तन। दिन अन तुसीमा भणों । कमलाक्षत लांघरण ध्वज चंग । गिरिहोत्तर सो गएरा धर संग ॥ २ ॥ तीन लाष पूरब की प्राव । अरुण वरण दीसे तनु भाव ।। धनक अठाईसो परयांन । काय तुरंगता शुभग वर्षान ॥ ३ ।। तीनि जन्म भै पहिल जाचि। इक्षाक वंश उप प्रमु सांप ॥ सोमदत्त मंगलपुर राय। दूजै दिन गोक्षीर घटाइ ।। ४ ।। वृक्ष प्रियंगुतरु तपन्नत लीयो । कर्मनास को उदिम ठयो ।। गोधूलक को समयो जानि । केवलरिद्धि भई भगवान ।। ५॥ समासस मोजत मय माघ । अमरान रच्यो भक्ति हित साधि ।। गिरिसम्मेद पंचम कल्याए । ठाढे जोगजु कृपानिधान ॥ ६ ॥
दोहा माध बदि छठि गर्म जिन, तप फागुण बदि चौथि । कातिग बदि तेरसि सुनौं, जनम ग्यान गुण गोथि ।। ७ ।। पूरणमासी चैत्र शुदि, कर्म सकल पग्जिारि । मुक्तिस्थल अविचल लह्यो, जिन स्वामी भवतारि ॥ ८ ॥
इति पमप्रभु वर्णन ७. सुपार्श्वनाथ स्तमन
दोहा नौ करोरि सागर गए, प्रभु सुपार्श्व प्रवतारि । जो जन ध्यावे भाव घरि, ते पावै भय पारि ॥ १ ।।
चौपई सुप्रतिष्ठित नृप वानारसी। मात महिसेना पुत ससी ॥ लाछण स्वस्तिक के प्राकार । नील वर्ण तन झलक अपार ॥ २ ॥ बीस लाख पूरब को भाव । द से धनुक काय को भाव ।। गणघर नवें पांच सुग्यान । इक्ष्वाक बंश मैं पर परयांन ।। ३ ।। तीन जनम थे स्वपर विचार । जुग बासर गोक्षीर पाहार ॥ महेन्द्रदत्त राजा थियो वान 1 पाटनपुर नगरी शुभयान ।। ४ ॥
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वचन - कोश
वृक्ष अनूप प्रति श्रीखंड | तहां तपु ले दियो इन्द्रित दंग ।। दिन समस्त गत समय भयो । राजनीति तजि केवल यो ॥ ५ ॥ की रहन्पो ॥ गिरिसम्मेद चढि त्रिपुर गए। ठाढे जोग जिनेश्वर लये ।। ६ ।।
दोहा
भादों सुदि ऋद्धि गर्म दिन, जनम जेठ शुदि बार
तप फागुरा बदि सप्तमी, को पंथ निरधार ॥ ७ ॥ ज्ञान जेठ यदि द्वंीज को, समासरण मंडान | फागुण बदि षष्टी कमी, श्री जिनवर निर्वाण ।। ८ ।। इति पश्वंजिन वर्णनं
८. चन्द्रप्रभ स्तवन
सोरठा
सागर मोसे कोटि, जब संपूरण
गए ।
शिवत माभा कोटि, चन्द्रप्रभ जिन जनमियों ॥। १॥
५.१
I
चौपई चन्द्रपुरी राजा महासेनि । लक्षमा राणी तागृह चैनि चन्द्र चिह्न दुतीया को भांति । हिमकर बरत देही की शांति ॥ २ ॥ दश लाख पूरख श्राव गनंत घनक देवसे काय दिपन्त | तिमिर नसायों कुल इशाक | सात भवांतरस्यों नेराग ॥ ३ ॥ नवं तीनि संग गणधार | दूजे दिन लियो दूध आहार | पद्मखंड नगरी को ईश चन्द्रदत दियो दान अधीश ॥ ४॥ तरबर नाग नाम सोमंत । तालर तप लियो प्ररहंत ॥ तीन लोक को साध्यौ राज । कियो निज श्रातम काज ॥ ५ ॥ दिन की श्रादि पंचमग्यांन। गिरिसमेद धानक निर्याण 11 समोसर जोजन बसु श्राध । कायोत्सर्ग जोग प्रभु सा
।। ६ ॥
दोहा
गर्म चैत्र बदि पंचमी, जनम पोष नदि ग्यारसि । फागुण बदि तिथि सप्तमी, तप निर्वाण इलास ॥ ७ ॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकोदास एवं हेमराज पूस बदी एकादशी, केवल ज्ञान उद्यीत । सुरगी सब मिलि पद नमै, बिमल प्रातमा ज्योति ।। ८ ॥
इतिचन्नप्रभ वर्णन ६. पुष्पदन्त स्तवन
सोरठा सलितापति सब कोरि, अनुकम्में जब खिरि गए । भए प्रतापी जोर, पुष्पदन्त पुहमी प्रकट ।। १ ।।
चौपई काकंदी जनम जिनराय । सुग्रीव पिता श्री रामा माइ ।। लांछण मगर करें पदसेव । चन्द्राकृत निम्मल वपु देव ।। २ ॥ ' लख पूरब वरणी प्राव । धनक एक सो पुदगल भाव।। बड़ो वंश मुमि पर इशाक । नोन भातरि प्रभु नाक : सूरमित्र चित्र हर राइ। प्रमुकौं गोरस चरी पाहार ॥ वें दिन बीत पायो पाहार । तप लीयो जहाँ मल्लिका झार ॥ ४ ॥ षड भसी गणधर मंडली। झेलें विश्व धुनि उछली ।। नप पदवी को साघि विचारि । केवल प्रगयो सांझी बार ॥ ५ ॥ समोसरण वसु जोजन जानि । रत्नजटित अरु कंचन खानि ।। पुरुषाकार जोग अभ्यास । गिरि सम्मेदपर मोक्ष प्रवास ।। ६ ।।
दोहा फागुण यदि नौमी गरभ, जनम पूस सुदि एक । तप भादी सुदी अष्टमी, इह जिन वचन विवेक ।। ७ ।। प्रापहन सुदि परिवा दिवस, भई शान की रिद्धि । कातिग सुदि तिथि दंज कौं, भए जिनेश्वर सिद्ध ।। ८ ॥
इति पुष्पदन्त वर्णन
१०. शीतलनाथ स्तबन .
दोहा नौ करोरि सागर गए, मिटे दुरति भाताप । शीतल पदवी को धरै, शीतलनाथ प्रताप ॥१॥
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सविधर बुलाखीचन्द
चौपई भागलपुर हरष नप तात। मंदाराणी श्रीजिनमात । माछरप श्रीवृष्य हिमवंत देह । कुल इक्षाक सों कीनो नेह ॥ २॥ प्राव एक लाख पुरष को मणी । न पनुक काय प्रमु तनी । इक्कासी गणभर धुण कहै । तीनि जनम थे प्रमु शुधि लहै ।। ३ ।। चीत जब निस वासर । नय? र " पुग्न बस्सु राजा सिवपुरी ग्राम ! दान अधीम भयो अभिराम ॥४॥ वृष्य पलास मुभता शुचि देषि । तातर धर्मो दिगम्बर भेष । राज करत समकित उद्दीत । शति रिपु अंत ज्ञान को ज्योति ॥ ५ ॥ समोसरा देवनि करि बन्यो । जोजन सप्त अद्ध को गन्यौ । भोग पर्यो प्रभु कामोरसम 1 गिरि सम्मेदि में गए शिवमाग ॥ ६ ॥
योहा चैत बदी शिथि अष्टमी, गर्ने महोत्सव माघ । माष बदि तिथि द्वादशी, जनम शान कल्यारम ॥ ७ ॥ स्वार शुदि की अष्टमी, पर्यो दिगम्बर भेष । पूस बदि मौदशि विनां, मुक्ति मिला पर रेषि ।। ८ ।। एक लाष घट लाष सत, सागर अंतर जानि । या मै मछुक पदाइयें तब पूरी परमान ।। ॥
इति शीतलनाथ वर्णन
११. श्रेयान्सनाथ स्तवन
चौपई लष निनान न बीस हजार । इतने वरष दीजिये डारि ।। इतनी काल उल्लिघि जब गयो । तब थे यांस को प्रावन भयो । सिंधपुरी रागा विमल । बिमला राणी बहु गुरु प्रमल ॥ लांदन मैडो कंचन घररए । गणभर सत्तोसर सो सरण ।।२।। लाष पूरब को .......... | प्राव थी जिनवर की नानि । पसी धनुक की कैची काइ । तीनि जनमथै घरम सुहाए ।।३।। इक्षाफ वंस कुल दीपक भयो । यो दुष दिन परि लयो ।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
रिपुरी नर नाह नरिब । ता पर लयो प्रहार जिनंद ॥४॥ तेंदू वृक्ष सघन बडभाग तप घरि तहाँ भए वैराग ॥ अरुण उदय बेला निर्मली। तहाँ भए प्रभुजी केवली ||५|| छिणक छंड बसुषा को राज गिरि सम्मेद पर मोक्ष समाज ॥ समोसरण जोजन गरि सात ठाऊं जोग कियो कर्मघात | ६ || बोहा
षष्टी स्याम जु जेठ की, भए गर्भ कल्याण । फागुण यदि एकादशी, जनम ज्ञान गुण बांनि ॥७॥ न्यो सावन सुतिनी, तज्यो गेह जगदीस |
रविवार दिना, मुक्ति रमनि के ईश ||८| इति यांस नं
१२. वासुपूज्य स्तवन
दोहा
एक पौन सागर गए, चंपापुरी मारि ।
वासुपूज्य प्रभु धोतरे, त्रिभुवन तारण हार मा
चौपई
सुपूज्य है तात को नाम । जयदेवी माता श्रभिराम ॥
महिष जु सांधण चरननि दिये । सतरि धनक काय जिनमये ॥२शा
बरण बहतरि लाब प्रमान भाव श्री जिनवर की जाति ॥ अरुन वरुण दीस तनुसार । इक्षाक वंश छाछठि गणधार ||३|| सीनि भवांतर तँ प्रभु जानि । घर्यो कुमार काल वंराम ॥ सुंदर नृपति सिद्धारथ पुरी । ताके घर कीनि प्रभु चरी ||४|| दूर्जे दोनो गो क्षीर माहार पाटलतर भए मगन शरीर ॥ निस प्रवेश को समय जानि । प्रभु को भयो केवलज्ञान ||५|| समोसरण को सुनि विस्तार । साढे छह जोजन को सार || प्रासन पद्म पर शुभ ध्यान चंपापुर से मुक्ति मिलान ॥६॥
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पचन कोश
दोहा
पाषाढ बदि वडि के दिन, धर्म घरयो जिनमान । फागुण बदि बौदभि गनौ, जनम ओर प्रवदात्त ।।७।। भादब सौदनि अबरि, लोंच लियो जिनराज । गाध उजेरि द्वज को, पंरपनि माद !!!
इति वासुपूज्य वर्णन
१३. विमलनाथ स्तवन
सोरठा सागर नी तीस परजंत, कंपिलापुर नयरी जनम । विमलनाथ मरहत, स्थामा राणी जाइयो ॥१॥
चौपई पिता जिनेश बानि कृत वर्म । शबर लांछण देषत मर्म " साठि धनक दीर्घता जानि । उत्त ने लाष बरपति तिथि पानि ॥२॥ कनकवणं अरु इक्ष्वाकुल । पोषतीन जनमर्थ भयो संतोल ।। राजरिवि साभी सब देव । छप्पन गराधर करत जु सेव शा जंबू वृष्य सघन सुविसाल । तीनौ तपु तहाँ दीनदयाल ॥ दूजे दूषु लीयो गोक्षीर । नंदराव दाता बरवीर ॥४॥ महापुरुष पाटन नप जानि । सांझ समै भगो केवलज्ञान ॥ राजनीति सन तजी निदान । समोसरण छह जोजन जानि ।।।। उभे जोग गिषर सम्मेद । जाने मोक्षपुरी के भेद ।। जेठ वधि दशमी के दिना । माता गर्भ धर्यो जिन तना ॥६॥ इति विमलनाथ वर्णन
१४. अनन्तनाथ स्तमन .
वोहरा सागर नो पूर भए, ता पीछे जु अनंतु । जिन- जग उहित भयो, पोदशि त सु महंतु ।।१।।
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५६
कविवर बलाखीचन्द, बुलाबोदास एवं हेमराज
ស៊ី
पूरी राजा श्रीसेन । सुरजा देवी माता जैन सेही लक्षण है पद चंद । धनुक पचास शरीर उतंग ॥१॥ धाव घरी लाष तीस बरष । कुल इक्ष्वाक जनमते हरष ।। कनकवशं चौवन गणवार तीन जन्म तं भई सम्हारि ॥२६ राज विभूति त तप घर्यो । लोक विरष पीवर तह कियो | विशापभूति धर्मयुर राय । दूष तीन दिन थाहार घटाइ ॥३॥ केवलज्ञान सांझ धनुस । सभसरण धनपति विस्त पंचम जोजन के मान । अंतरीक्ष गति ताक़ी जान ||४|| उ जोग महाबल वीर। गिरिसम्मेद में पी कात्तिक बदि परिवार के दिनां । माता गर्भ वर प्रभुतां ॥ ॥ बोहरा जेठ स्याम चौदशि जनम, मरु बारमि क ग्यांन ।
चैत्र यदि मास विमल, तर दिन तक निर्वामि ॥६॥ इत्पनन्त व
१५. धर्मनाथ स्तवन
सोरठा
उता महि, पीन पत्नि घट जानिये । जब इतनें बीताहि धर्मनाथ जिन भवतरे ॥१॥
चौपई
राणी सुव्रतति जिनचंद ||
रतनपुरी श्री मानु नरंदे बरच लाष दश हीरा रेष । कुरुवंशी कंचन सम देव ॥२॥ पैंतालीस धनुक वपुसार । द्वं' चालीस संग गणधार ॥ भव तीसरे कर्म थ्र्य भए । राजत्यागि तपकी पराये || ३|| दषि परनो को रूप अनूप । तस्तर प्रभु जु नगन सरूप गोक्षीर दूरी दिन जानि । वट्टमानपुर नगर बषांन ॥४॥ दानपति राजा घरसेन । सांझ समें भयो केवलचन ॥ समोर जिनको जानिये । जोजन पाँच तन मानिये ॥५॥
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वचन कोश
ठाके जोग जिनेश्वर भए । गिरि सम्मेद पंचम गति गए ॥ शुदि पांच वैशाष जुमास । श्री जिनवर जू गर्म निवास ॥ ६ ॥ गाव सुदि तेरसि जब यई । जनम अनंद ज्ञान रिद्धि भई ॥ जेठ उज्यारी बोधि वषांन । भए तपोषन श्रीभगवान ॥७ पूस सुदि पून्यम के दिना । मुक्ति महोच्छच श्रानंद घन । अंतर पावपल्लि उनमानि । सहस करोरि वरष घटि जांनि ||८| इति धर्मनाथ वरमं
१६. शांतिनाथ स्तवन
वोहरा
इतनी काल गएं भयो, पुन्यतनी बलसार । षोडशमों जिनराज गरिण, शांतिनाथ अवतार ||
प
गजपूर विश्वसेन महिईश। ऐरादेवी माता जगदीस ||
मृग लांधण लब वरण प्रमान । कनकबर कुरुवंशी जान ||२|| षट और तीस जु गएर संग ||
काय घनक चालीस उत्तंग द्वादश भवतें समिकत वांन राज विभूति तजी छिरामांन ॥ १३ ॥ त्रिक रूक्षत तप जोइ । बीर गह्यौ बीतें दिन दोइ ॥ सुमनसपुर राजा प्रिय मित्र भयो दानपति परम पवित्र || १४ | केवल भयो सांझ के समें। गिंर सम्मेद ठाउँ शिव र । समोखरण ले प्राये देव । जोजन चारि श्रम करि से
I
||१५||
दोहा
मादव बंदि जु सप्तमी, लमो गर्भ अवतार | कारी चौदशि जेठ की, जनम तपोधन धार ||६|| जेठ यदि तेरसि दिवश, केवल ज्ञान कल्याण ॥ पूस उजेरी दर्शाम को, पायो पद निर्वाण ॥७॥ इति शान्तिदाथ वनं
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भविघर गुमासी नन्द, ताकीदास एवं हेमराज
१७. कुयनाथ स्तवन
सोरठा सहस कोरि गए वर्ष, रत्न बृष्टि गजपुर भई । कुंथुनाथ परतष्य, सूरराय के गृहभए ॥१॥
चौपई श्री सरणी माता जिन जानि । मजारुप लांछण पहिचानि ।। सहस पच्यानवे वर्ष की प्राव । धनक तीस करि काय उन्नाव ॥२॥ हेमवरण कुरुवंश प्रधान । गणधर पांच तीस जुस जान ।। तीनि भवांतर ते हिम चेत । राज रमाग कियो तप सों हेत ॥३॥ उत्सम तरूवर तिलक बषांन । तातर प्रमु कियो लौंच विधान || मंदिरपुर वरदत्त नरेश । ताके शीर घट्यो जु जिनेश ।।४।। केवल लखौ समें दिन अंत । ठाढे जोग भए प्ररहत ।। समोसरण है जोजन पारि । गिरि सम्मेद तें मुक्ति पार ||१॥
सावन वदि दधामी प्रकट, गर्भवास प्रभुलीन । बैशाष सुधि दसमी जनम, जानो भव्य प्रवीन ।।६।। सुदि वैशाख की प्रतिपदा, तप अरू ज्ञान समाज । तीज उजेरि चैत की, शिव पहुंचे जिनराय ॥७॥
इति कुपनाय वर्णन
१६. परनाथ स्तवन
सोरठा वरष हजार करोरि, अनुकर्म जब घिर गए । पर जु नाथ अवतारि, गजपुर नयर सनाय किए ॥१॥
घोपई पिता सुदर्शन देवी माय । लांछाप नंदावती दिवाइ । सहस चउरासी वृष जीवंत । कुरूक्षी हाउ' सब कैत ।।२।। धनक तीस उत्तंग शरीर । तीनि तीस गणधर बलवीर ।। तीन जनम ते मापा सध्यो । राज समाज सकल तही नष्यो ॥३॥
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वचन कोश
वृछ प्रांव को उत्तम जोह । तातर तपु लीयो चम षोइ ॥ अपराजित गजपुर भूपाल । ता घर घटयो क्षीर किरपाल ।।४॥ केवल उपज्यो सांड प्रवीन । समोसरण जोजन प्रर्द्ध तीन । गिरि सम्मेद ते उम जोग । मुक्ति बधू स्यो भयो संजोग ||५| तीज उजेरा फागुण मास । ता दिन कियौ गर्म निवास ॥ अघहन मुदि परिवा शुभ कम्मं । इद्रनि फियो महोछव जाम ॥६॥
दोहा चंत उज्यारी पूरिंगमा, तप लीनो भगवान । माघहन सुदि चतुर्दशी, पंचम शान विधान ॥७॥
इत्परनाथ वर्णन
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५
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१६. मल्लिनाथ स्तवन
सोन्ठा अंतर को विधार, पोषन लाष शु वरष करें । मल्लिनाथ अवतार, मिथिला नयरी जानिये ।।१।।
चौपई पिता कुभ हरिवंशी गोत । प्रभावती का कौंष उतोत ॥ लांछन कलस वर्ण तनु हेम । बीस पाठ गणधर सौं प्रेम असा पचवन सहस वर्ष की प्राव । धनक पजीस सराहे काय ।। जाती समरण तीनि भव सनी । कुमार काल दीया पद गनौं ॥३॥ प्रशोक वृष्य तल कीनी शोर । दूजे दिन पीयौ धीरन मोर ॥ नंदिसेन ने दोनों दान । बहकहर पुर को राजा जान ।। फेवत रिद्धि निसाको प्रादि । जोजन तीस सभा मरजाद ॥ पुरुषाकार जोग की रीति । गिरि सम्मेद थें कम बितीत ॥५॥
वोहा चत उज्यारि प्रतिपक्ष, गर्भवास प्रानंद । पापहन एकादशी, जनमरु तप जिनचंद ॥६॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बाकीदास एवं हेमराज
ज्ञान पूस बदि तुज की, प्रफट भयो संसार ॥ फागुण सुदि की पंचमी, लयो मुक्ति पद पार ।।७।।
इति मल्सिनाय वर्णन
२०. मुनि सुनतनाव स्तवन
दोहा
बरष लाष षठ बीत त, मुनिसुयत परगास । सुमतिराय पदमावती, राजाही में वास ॥१॥
चौपई
करम चिल दीप निसान । तीस हजार वरष लौ जान ।। श्रीस मार जिन रा. हरि कहेव ।।२।। तीन जनम ते संसय गई । चंपक तरुवर धीष्या लई ॥ विश्वसेन मिथिलापुर घनी । दान थियो करि विनती घनी ॥३॥ दूज दिन स्वामी बलवीर । सब तजि लीनों उत्तम पोर ।। राजरिदि तजि रवि के अंत । भए केवली श्री प्ररहंत ॥४॥ मष्टावश गणधर मंडली । द्वादश सभा मधि कर रली ।। समोसरण धनपति तम रच्यो । म जुगम जोजन को पचौ ॥१॥ विनु बैठे कियौ प्रातमकाष । गिरि सम्मेद पर मुक्ति समाज ।। सावन बदि दुतिया गुण सनी । गर्भ कल्यानक रचना बनी ।।६॥
दोहा बशाय बदि दशमी विमल, अनमा तप परषान ।।
शाख बदि नौमी कहीं उपज्यो केवलशान || फागुण बदि की द्वादशी पंचम गति के ईश। करे महोछर भगति वर, नर तिरयंच सुरीस ॥८॥ इसि मुनिसुव्रत वर्णन
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HAM
बचन कोश
२१. नमिनाय स्तवन
सोरठा वरष पंचलाष जानइनिहू को जब होह गये 11 उपजे ममि भयवान, मिथिलानगरी विजय पर ॥१॥
चौपई घीरा राणी जननी जैन । नीलोपल लांछण पद पैन ।। पंद्रह बनुक अरु कंचन रंग । दश हजार यरष ली संग ।।२।। तीनि जनम थे छाडची कोह । फौनी हरिवंशनि स्यों मोह | परिग्रह स्परग योन को पार ! बकुल सिगिने कीनो मन ॥३॥ नेमिदस संयोगी राय । दूजे दिन गोक्षीर घटाइ ।। केवल उपज्यो निस की प्रापि समोसरण हूँ की मरजाद ॥॥ पांनी मलें दम मरु तीनि । गएषर सभा चतुर परवीन ।। जिन सूठाडे भिवपुर गए । गिरि सम्मेद कल्याणक ठए ॥५॥
चोहा पवार मधेरि द्वज को, गर्भ कल्यारमक होइ। यदि प्राषाढ़ दशमी दिना, जनम महोछव सोइ ॥६॥ परिवा स्याम प्राषाढ की, दीक्षा लई जिनेश्च । पापहन सुदि एकादशी, उपग्यो शान महेश ।।७।। बदि बौदशा बैशाष की, ममए कियो शिव मोर । कर्म रूप रिमदि में, भए प्रतापी दोर ।।
इति नमि वर्णन
२२. नेमिनाथ स्तवन
सोरठा मसी तीन हजार, प्रद' सात वरष में। अकुल तारणहार, नेमिनाथ द्वारावती ।।१।।
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६२
कविवर जुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
चपई
शिवा देवी राणी जिनमात । समुद्र विजय राजा गणितात " लांग संघ सहस वर्ष श्राव । स्याम वरा दश धनुक उचाव म ग्यारह गणधर सेवा रहें । समकित जनम दशक तं कहें ॥ विवाह समय छोड़ थी संसार मोडासिंगी तरु ढलें तप घार ||३|० वीरपुरी राजा नरवत दई बरी गोक्षीर पति ॥
केवल अरुन उद संचरौ । जोजन देढ़ समा थल कधी ॥४॥ पद्मासन प्रभु जोग विचार मुक्ति को गिरनार ॥ छठि उच्चारी कालिंग मास । जिनवर भयो गर्भ निवास ॥* बोहा
सुकल पक्ष सावनी, तिथि षष्ठी शुभवार |
जन्म कल्याणक और तथ, इन्द्रनि कीय विचार ||९॥
कासी सुदि एकादशी, प्रगटधी ज्ञान महंत ।
सुदिप्राषाढ़ की अष्टमी मुक्ति गए भरत ॥१७॥ इति मेमिनाथ वर्णनं
२३. पार्श्वनाथ स्तवन
दोहा
वरष पांच गत गये, जगमें कियो प्रकाश /
नागराव भासन दिमें, पायहरण जिनपासि ॥ ११३ चौपई
प्रश्नसैन वानारसी गांम । वामा जिनमाता को नाम ॥
नो हाथ करि काय विशेष । एक शत वरष भावको लैश ||२|| उग्रवंश तनु दुति है नोल ग्यारह भवतें साध्यो शील ॥ घरची कुमारें दीक्षा रुप तरबर तक परम अनूप ॥१३॥ दाषपुर घनदस नरेश । घोर खरी दोन्ही परमेश ॥
निश के समें पंचम ग्यानं । समोझरण सदर जोजन मौन ||४|
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रचन कोश
दश गणधर जानी राजैत । जिन प्रतिबोघे जीव महंत ।। ठादे जोग भयो निर्धारण । मिरि सम्मेद शिखर शुभ यांना
बोहा कृष्ण द्वेज बैशाख की, गर्भवास अवतार । पूस बदि एकादशी, जनमरु तप अधिकार ॥६॥ चौथि जुकारी पत की, प्रगट्यौ पंधम शान । सावन सुदि सात दिना, मिनजू को निर्वान ॥७:।
इति पाश्वनाम चरनं
२७. महावीर स्तवन
योहा वर्षे मठासो के गए, महावीर जिनराय । कुडलपर मरी जनम. म जुमिस्ता ||
चौपई पिता सिधारथ लॉछण सिंध । साय हाथ की काय उतंग ॥ प्रभु की प्राव बहसरि वर्ष । गणधर ग्यारं हैं परतव्य ॥२॥ उग्रवंश देही बुति हेम । तेतीस जनम 2 बज्यो येम ।। योग घरची तक राजकुमार । सघन वृष्म शालिर को सार || कुमार से कुलपुर धनी । दूपपरी साके पर बनी ।। केवल उपज्यो सझिी बेर । समोसपण जोजन के फेर ॥४॥ पावापुरी घरचौ दिन ध्यान 1 ठाडे जोग भए निमि ॥ भाषा सुदि छठि गर्भ निवास । जनम चंस सुदि सरस तास ||५|| अगहन चदि प्यारसि तप गानि । बंशाख अदि दशमी को मान ।। कातिग बदि मावस पुनीत । सिर भए सब कम्म मितीत ॥६॥
इति श्री पर्वमान पर्सन सरस्वती वन्दना
धौपाई तिन सुमिर पारें पर बसें । सारद तनी नमति मनुसरों ।।
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कविवर बुलासीचन्द, बलाकीदास एवं हेमराज
भने पर करनी पर्ने । सुमित माह कुमति सब नसें ॥१॥ मुष जिन उद्भव मंगल रुप । कवि जननी और परम अनूप । करि भंजुली कर शीशु नवाइ । करों बुद्धि को मोहि पसाइ ।।२।। जनम जरा मरण विहंउ । सोभित छह दर्धान तुड।। रुनु मुरण पग नेवर मरणकार । अविरल शब्द तनी दातार ।।३।।
इति भंगलापरणं
मानुषोत्तर वर्णन
नमिता चरण सकल दुष दहाँ । जे मथाल उतपति सब कहाँ । प्रषो मषि है लोकाकाश । पुस्ताकार बघाने तास ।।१।। लोकमध्य है उभी वश नालि । चौदह राजू उचित विसाल ॥ चरण स्थल जुग बनें निगोद । निस्य इतर जिन वन विनोद ॥२॥ अनंतानंत जीव की पोनि । कबहूँ ताकी होइ न हानि ।। सहा भावतमी न मरजाद। पंच जीव यह रीति प्रमादि ।।३।। जितने जीव मुक्ति नित जाहि। तितने इयति निषरांहि ॥ घटे नहीं निगोद की राशि ! बन सिद्ध अनंत बिलास ॥ मधोलोक तनौं परमान । कटिं प्रदेश तें नीयो बानि ।। ऊपर ऊदर लिलाट परनंत । ऊवं लोक की हद्द गणंत 10 मध्यलोक पद-स्थल गनी। दीप समुद्र संख्या बिनु भणों। पडयो क्षेत्र नाभि के ठाम ! मानुषोत्र हैं ताको नाम ।।६।। मानुषोत्र मरजादा जामि । द्वीप अढाई सागर मानि ।। पहिस्सै जंबूदीप विचार । जोजन साख एक विस्तार ||७| तीनि लाष हैं बलयाकार । मध्य सुदर्शस मेरु पहार।। जोजन लाख तुग है सोइ । जोजन सहस भूमि में होइ ॥८॥ ताके पूरब पश्चिम भागणों । क्षेत्र तीस हूँ अविचल भणों ।। भरत ऐरावत हूँ ए जानि । उत्तर दक्षिण परे बखान ।। ए सब मिलि भए तीस रु चारि ! तहाँ हूँ शशि हूँ रवि को उजियार ।। द्वीप समूह पर मार्गे जानि । दुगुण दुगुण इनको परमान ॥१०॥
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वचन कोश
नाम और जु परबत पड़े । पदम बह ऊपरि तिनि पडे । श्री घृत प्रादि जुदं न्यारारि । तिनको तहाँ सदध निवास ।।११।। तिनत नदी पतुईन चली । अविचल तहा समुद्र हे मिली ॥ गंगा सिंधु रोहिता नाम । दोहित भी हरिता अभिराम ।।१२।। हरिकासा सीता ए दोड । सीतोदा नारी प्रवसोइ ॥ नरकांता प्रो सुधर नामनी । रुप्यकुला रक्ता फुनि सुनि ।।१।। रक्तोदा चौदह ए नाम । स्वच्छोदक सिनमें अभिराम ।। महापालि साधि धीर । जोजन प्लस हूँ बहन गंभीर ।।१४।। वारी जलनिधि बहू जंतुनि भर्यो 1 ठोर और बड़चानल घर्यो ।। मिष्टोदक पीवै सब सोइ । सदघि मघि नहि रंच समोइ ।। १५॥ द्वीप पातुकी ताचोफेरि । जोजन लाल चारि में मेर ।। विजयाचल जानों गिरि नाम । गिरि प्रक्ति भई ऐरावत ठाम ||१६|| सलिता गिरि प्रति दस अरु चारि । पूर्व रीति है लेहु विचारि ।। ता चा फेर समुद्र को नाम । कालोदधि मीठो जल ठाम ।।१६।। पाठ लाष जोजन विस्तार । वेठमी वन बेदि अपार ।। ता पाषल पुष्कर पर दीप । जोजन सोलह लान समीप ।।१८।। जोजन आठ लास्त्र विस्तार । पुष्कराद्ध ता माहि विचार ।। पूरब पश्चिम गिरि अभिराम । मंदर विद्युत माली नाम ।।१६।। मेरु संबंध हूँ जे गणों । भरथ ऐरावत चारिजु भणों ।। पूर्व विदेह साठि भरु च्यारि । तिनकौं प्रलय न कहूं लगार ।।२०।। नदी चतुईश गिरि प्रति जांनि । सत्तरि पोर एक सो मानि ॥ इहां लों मानुषोत्तर पिहचानि । देब बिनां को प्रागें न जानि ।।२१।।
यह पनादि की तिथि कहवाइ ...... ... .... । अब सब क्षेत्रनि क्रौं परमांन । सत्तरि और एक सौ जांनि ॥ तामें दश ऐरावत भरण । सौ पौर साठि विदेह समर्थ ।।१२।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
विरहमान वरते जिन बीस । सदा साश्वते प्रमु जगदीस 11 एक तनो जब होइ निर्वान । दुजे को होइ गर्भ कल्यान ।।२३।। क्षेत्र सदा अविनाशी जोइ । सदाकाल चौधई तहां होइ ।। विनाशीक तिनि मैं अब लही। भरत ऐरावत दश जे कहीं ।।२४।। कट्सन अविघल दीसें तहां । छहों काल वरते हैं जहां ॥ सुनि सो साठ क्षेत्र को हास 1 तहां सदा चतुधंम काल ॥२५॥ मुक्तिपंच सम्यक परिकार । तहां तें चलतु रुकन समार ।। जब दशमें पंचम परवरें। कोऊण मुक्ति पंथु पगु धरें ।।२६।। जो कोई जीव सम्यक्ती होइ । बारह अनुव्रत पाले सोइ ।। ताके फल थिदेह अवतार 1 घेतनि ह जु करें सम्हालि ११२७।। सुन सों मुक्ति रमरिण को वरें। कर्म उपद्रव सो निजेरें ।। अल्प बुञ्चि गक्षम मम ज्ञान , अढाई दीप तनों बखान ।।८।। कर्यो संक्षेप पर्ने विस्तार । गौरी कहल ग्रन्ध अधिकार ॥ जा कौं सब ब्योरे की चाह । बड़े अन्य देखों प्रवगाह ॥२६॥
इति मानुषोत्तर वर्णन प्रसंख्यात अनंत गणित भेद वणन
या त द्वीप समुद्र जे प्रौर । दुगुणा दुगुण मणि तिनि की दोर ।। असे करि भाष प्रसंष्यात । स्वयंभू रमन प्रत विष्यात ॥१॥ लेपो प्रसंप्यात को गुगौं । जिनवाणी जैसो कछु सुनौं ।।२।। तव पहीले में सरसों भरें। सो सरसों सुर निज करि घरें ॥ द्वीप एक प्रति समुद्र जु एक । सारत जाईय है जु विवेक ।।३।। जांसु द्वीप मैं खूट सोइ । फिरि गरता वाही सम जोइ ।। पूरे होत एक हर करें । सो पहिल गरता में ले भरें ।।४।। अवगरता जो द्वीप समान । जहां सरसौं छूटी ही जान ।। ताकी सरसो लेइ उबाह । एक एक फिरि डारतु जाय ||५||
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बचन कोश
एक रहे जब' पाछै फिर । ताहि प्रथम गरताले भरें ।। फिरि पूट ता टीप समान । गरता एक पर्ने घरि ज्यान 11६||
। र सो कार उभा लोप समुद्र एक हारतु जाय ।। एक रहे फिर ताह लाइ । पहिले गरता मध्य भराइ ||७|| जब वह भरे करत इह रीति । लै उगइ सुनौ रे मीत ।। एक दुतीय गरता कर सोइ । पहिले कल्पित गरत समोइ ।।८।। करि एकत्र जु डारतु जाइ । नापत नाषत एक रहा ।। करि गरता गिरि ताहि समान । एक बचे पहिले धरि पान ||६|| अनुक्रम फिरि गरता यह भरे । सब ले एक दुजे में करै ।। सो सब ले कल्पित सों भेल । द्वीप समुद्र प्राप्त दाने लेल ।।१०।। फिरि पहिले के भरतो जाइ । पूरा भए तो उनकाय ।। एक एक दूजे में चलें। तब वह रीति दूसरो सले ।।११।। एक तीसरे सर्व जु गोद ! कल्पित ले फिरि करें विनोद ।। बह सब घटि जन एक रहत । फिरि दूनो गरता भेलंत ।।१२।। पूर्व गीति जब जब वह भरै । तब तब एक तीसरी करें ।। बह विधि भर तीसरी जब । चोयो एक जु डार तब ।।१३।। पौर सकल कर ले पुचकाय । कल्पित गर तासौं जुर लाइ ।। करतु चल पहिली की रीति । एक रहैं ताजै भरि मीत ।।१४11 जब जब तीजो भरतो जाइ । एक एक सोथो जु भराइ ।। अंसी रीति चतुर्धम भरे 1 पूर्ग भए सकल उद्धरे ।।१५।। जब जब जहां छेहली सरसो नाइ । स्वयंभू रमण समुद्र कहाइ 11 असंख्यात याही को नाम । मेरु त अर्द्ध रजू सो ठाम ।।१६।। मध्य लोक को अंतर जोइ । बात वलय वेश्यों अब सोय ।। पात भसंध्या प्रौर मसंध्यात । नाम अनंत ही विख्यात ॥१७॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
बोहरा
जिनबर मुष उदभव प्रगट, श्रुत प्रगाध सिद्धांत || तिनसुनि बरनई, गण संत असंख्य अनंत ||१५||
इति असंख्यात अनंत रित भेद वर्णनं
योजन गरिणत भेद वरांन
चौपई
अब सुनि प्रालिका कथा | जिनवानी भाषी है जथा || राई ग्राठ तनों तिल एक। एक जत्र बसु तिल यह विवेक || १||
जब वसु उदरे उदर मिलाइ। सो तो श्रांगुल एक कहाई ॥ द्वादश आंगुल मामें कोइ । एक विलादि कहावे सो ||२|| जग्म विलादि जहाँ लौं दोर । कहिये हाथ एक सा ठोर ।। लहाण मारि को
ई हजार जब गनता जाइ। सो तो एक कौश ठहराइ || ३॥ चारि कोश जब एकतकरें। लाको लघु जोजन उच्चरें ||
जब गरि जोजन सो पंच जोजन महा एक गरिए संच ॥४॥
इति जोजन गणित मेव
पल्या भेद वर्णन
चौप
पलि आवकी गरिये जदा । पनि गरता लघु जोजन तदा । थाडो ठाडो जोजन एक गहरी तितनों है विवेक ||१|| भोग भूमि मेंढा के बाल । जो दिन सात ना होइ बाल । साइ षंडु अभागी करे। रौंदि शविता कूपहि भरें ||२|| चीरथ सुर गंगापूर | करि पास ताक चकचूर || एक सप्त वर्ष वौति जब जाइ । तहां तें एक खंड तिसराइ ॥३॥
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मनन कोश
अनुक्रम कूप रिक्त वह होइ । पाव पनि कहाच सोइ ।। जोतिस भीतर प्राच प्रमाण । इनहीं पलि नस्यो तु जानि ||४||
इति पल्पापु भेद
पल्पसागर भेव वर्णन
चौपई
प्रब सुनि सागर भाव प्रमान । ज्यों श्री जिनघर फरयो बखान १ कूप महा जोजन को मंड । तब अन भागी प्राव पंड ॥१॥ ज्ञान शक्ति सौ सत पंड पार । सांसु वा गरताले भरै ।। बीते एक शत घर्ष विकार | एक केश करि यह निर ।।।। खाली हाइ कूप पर जनौं । सागर पस्य कहानने तगै ।। पनि जहाँ दश कोराकोरि 1 तब इक सागर संध्या जोरि ।।
इति पक्ष्यसागर भेव वर्णन
राजु गणित भेद वर्णन
चौपई अब सुनि रज्जू गणित को भेद । जसो जिनवर भाष्यो वेद ।। महालाष जोजन को फूप । पहिलो ऊडी पूरव कूप ।।शा सागर पल्य कुवा को चार । एक षंड है लीया विचार ॥ साको षंड तब एक सौ करै । जान शक्ति सौं कूप भरै ।।२।। एक षंड सस व्ही से कढे । मेरु सुदर्शन माथै महे ।। जोजन लान तनी परिमान । एक पंड परि यो फिरि आनि ।। छह विधि परतु जिनि कटे सोइ । रज्जू पल्य तब ही अवलोह ।। कोराकोरी दश पल्य नरें । सागर एफ कहावं सगे ।।४।। जब सागर दश कोराकोरि । सूचि एक तहाँ तू जोरि ।। सूचि जाइ दश कोराकोरि । धनरो वचन सुनि मारि ॥शा
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१
॥
कवियर बृलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
दश कोराकोरि धनरोय । ताकी हो एक पदरोय ।। बै दमा कोराकोरी जब वहैं । तब जग सेरि नाम जिन कहे ।।३।। ता जग सिद्ध को सहम भाग । गणत एक रज्जू यह लाग ।। अंसे चौदह रज्जु प्रमान । उचे तीन लोक को जान ||७|| रज्जू तीन से तेतालीस । घनाकार वर.ण्यों जगदीस ।। प्रब सुनि पूरब की मरजाद । जामैं लहिय असा प्रादि ।। : ।
इति रज्जू गणित
दोहा सत्तरि लाख करोरि मित, अप्पन सहस करोरि ।। इतने वरण मिनटगे, पुरल गंगा नोरि !!१!!
इति पूरब गणित षट्काल वर्णन
चौपई मध्यलोक सब रज्जु प्रमान । भूत सिद्धान्त करै वर्षान || अब सुनि छहौं काल व्यौहार । बितक जीव कैसो विस्तार ।।१।। प्रतकाल मासे दश पैत । भरत ऐरावत भूमि समेत ।। छहों काय प्राणी नहीं दीस ! तब एक जुक्ति कर जसईस ।।२।। जुगल बहत्तरि ले उछंग । विजयाग्ध घर लेउ अभंग ।। तब फिर दशों घेत्र निमये । जैसे के तैसे वेदिये ।।३।।
सुषमा सुषमा काल दरगन
चौपई
सुषमा सुषमा प्रथम जो काल | अायु प्रवर्तते तहां विसाल ।। जन उनि जुगलनि इन्द्र विचार । दश त्रिनि मैं करे संचार ||४|| प्रब सुनि काल रीति क कछु कह्यो । जितिक प्रमाण व्यवस्थिति लहौँ ।। सागर कोराकोरी नारि । प्रथम काल मर्याद विचार ।।५।। जुगल मीच वरत सहि काल । सुदर कोमल अति सुकमाल ।। मति श्रति प्रधि जु तीनों ज्ञान । उपज तहां थे साथ बखान ||
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बचन कौश
तीन पल्य की पूरी प्राय छह हजार धनक की काय || बेर प्रमाण आहार जु करें। सोल तीनि दिवस में लड़ें ॥७॥ पूरे देश विधि उत्तम दान । कल्पवृष्य सब के गृह जान ॥
सो तरु दश प्रकार वरनये । तिनि के नाम सुनी गुण जये || ५ ||
कल्प वृक्षों के नाम
चौपाई
तूरज मध्य विभूषा जानि । स्रग अरु ज्योति द्वीप गुण खांनि ॥ गृह भोजन भाजत अरु भास | सुनि अब इनको दान प्रकास ॥६॥ मध वृष्यमादिक दातार । तु देय वामित्र विचार || श्राभरण देइ विभूषा रूप सूर्य समान हरै तम जाल
स्रुग तरु देइ पुण्य विनु दूष ||१०|| । ज्योति वृष्य में सो गुणमाल ॥ दादीप तें जानि गृह् दाता गृह रुप बषांन ।।११।।
भोजन तरुवर भोजन त्यागि । भाजन पातर वृष्य सौलागि ३ | चसन सकल देइ वस्त्र उदार | करूपम ए दशा परकार ।।१२।। हि विधि सुष सौं काल बिताइ । श्राव जहाँ नो मास रहाई || नारी गर्न होइ तिहि सबै 1 पूरी होइ जुगल सह जनै ॥ १३॥ माता छींक पिता जंभाद । ततषिणवे बदल परजाइ || सकल शरीर जाइ पिरि ऐसें । हमें तें कपूर उड जैसे ॥ कर्म वेदनी को नहीं पीर प्रगती दाह नहीं करें शरीर || १४ | घे दोऊ मरि स्वर्ग प्रवतरे। जिनवाणी प्रकाश यों करें दीक शिशु अंगुठा रस पीय दिन उचास तरुण वपु की ||१५|| जनमत भया वह नव षांन | तरुण भये पति नारी जांन ॥
सर्ने सने बहु चीते काल । परिवसों दूजौ गुणमाल ||१६|| सुषमा काल वर्णन
प
सुषमा नाम ताको स्तुत हैं । जुगल जीव तामें हू रहें || कोराकोरी सागर तीनि । काल मर्यादा कही नवीन ||१७||
७१
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
दोइ पल्य भायु उत किष्ट । घनसहस काय वरिष्ठ || लेह प्रहार गरी दिन दोइ । परमित तसु वहेश जोड़ ||१८|| कल्पवृष्य करें मध्यम दोन महिमा काल सनि यह जांनि । इह विधि काल दूसरी जाय । काल तीसरी तब सरसाइ ||१६|| सुषमा दुधमा काल वन
सुषम दुषम है ताको नाम । जीव जुगल ताके श्रभिराम ॥ कोरा कोरी सागर दोइ । काल तनी मर्यादा होइ ||२०||
।
क सहस दोइ की काय । एक पल्य की भाव विहाय ॥ लेख प्राहार एकांतर जीव | कलौ पावले भरि जु दीव ॥२॥ यान जघन्य करुप तर देहि जीव सकस भारति से लेहि ।। भ्रष्टमस पहिल की कमी तृतीय काल में बाकी रह्यो ||२२|| गुप्त भए कल्पष्ट म घोर । जुगल धर्म तब लइ मरोर ॥ चौदह कुलकर
भया चतुद्दश मनु श्रतार चंद्र सूर उगे तिरवार | २३ ||
पहलो कुलकर प्रतियत जान । जो सनमति सुभग वपांनि ॥३ क्षेमंकर तीजे को नाम । क्षेमंधर चौथो प्रभिराम ||
श्रीमंकर पंचम मनुराय । सीमंधर षष्टम वरनाय || विमलवान सप्तम बर्नयो चक्षुष्मान तहां अष्टम भयो ।|२५|| प्रसेनजित नोमी जानियें । अभिचन्द्र दशम मानिये ।। चन्द्रप्रभ ग्यारह बषांत हेमदेव द्वादशमों जान ||२६|| प्रश्नजीत तेरमी मनुवन्द 1 चोंदहों कुलकर नाभिनंद ॥ परम विशुद्ध सकल ग्रालीन । सब जीवन में महाप्रवीन ||२७|| लोप होंइ कल्पद्र ुप ज्यों ज्यौं । कुलकर मार्गे आगे त्यों त्यों ।। भावी काल बनाने यथा । कहैं सकल जीवन सौं कथा ||२८|
दोहा
इह विधि चौदह ए भए, कछु कछु अन्तरकाल ।
तीन ज्ञान संजुगल सब मति श्रुती अवधि विसाल ॥२६॥
अब सुनि चोथे काल की महिमा अधिक अनूप |
प्रगर्दै चउबीसी जहाँ, भवद्दर मुक्ति स्वरुप ||३०||
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वचन कोश
तहाँ मुक्ति को मारग खुले
सागर कोराकोरी जाति
इह
चोपड़
। तजि मिथ्या सब उद्दिम रूसें ॥1 सड्स बगालीम बहती यानि ॥३१॥
चतुर्भाग ।
ভীষি पूरव विसाल
अनुक्रम घटत जाइ जो सही ||३२||
धनुक पांच काय जु कही । जुगल धम्मं मियो तिद्दिकाल । प्रकटे सकल जीव गुरणमाल ।
असि मसि कृषि वाणिज्य उपजाई | गये कल्पतरु यह अधिकाइ ||३३||
मेघ पटल जुरि वर्षा करें। तिनको दृष्टि कृषि बहु करें । बादल सुवि तें जोजन चारि । ऊँचे रहें थर्व जलधारि ||३४|| सबको बेल प्रमाण आहार । निति प्रति त होइ फरार | हैं सुकाल सदा तिहि काल | परे न कबहूं नहीं अकाल ||३५|| प्रसुनि पंचम दुष विचार रहें वर्ष इकईस हजार मुक्ति पंथ को भयो निरोध
रहे न तत्त्व पदारथ घोष ||३६||
सी और बीस वर्ष की आयु
।
मली त्रिभंगी होइ बायु ॥
|
अल्प भाव धरि दुबी भ्रपार ||३७||
अशुभ त्रिमंत्री साधन हार कहीं त्रिभंगी को सुनि भेद । जैसी जिनवर भाष्यो वेद ||
बाल संरुण बिरधा पे चार । त्रिभंगी प्रथम याहि विचार ॥३८॥
तिनि के उद मध्य अरु अस्तु । दुतीय त्रिसंगी भेद प्रधास्त ॥
निर्धन धन वालरहि तसु जांन । तृतीय त्रिभंगी साहि बखान ॥ ३६६॥ बीज सबनि क मन बचकाय । इनि श्रिमंगनि को परम सहाय ॥ इनि समयनि मेभाव जु होइ । शुभ भरु अशुभ बंधता हो६ ॥ ४० ॥ तासु प्रताप को बंध | पाप पुण्य से घटि बधि बंध ३ जितक प्रायु घारी जाइ परो । ताकी लेहु भाग तीसरी ।।४१|| वांमे बंत्रे प्रागिली आयु । श्री जिनमार्ग यह ठहराय ||
तहां न होइ जो बंष विचार | भाग करो यह विधि नव बार ||४२ ॥
नवम भाग तीजो वर जानि । आयु समो प्रन्तमों सो जान ||
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कविवर बुलाखीदास, बलाकीचन्द एवं हेमराज
होइ अब संबंध तहाँ जो सही । ऐसी जिनवानी तें लहो । एक समें गति बांधे जीव । चार्यों गति में फिर सदीव || जीव देह को त्यागे जन । मानपूरची प्रावं तबै ।। बंधी होइ जोग तिहकाल । ले पहुँचा तहाँ सम्हालि ।।४।। तासौं मूत कहे जमराज । जीव निकास करि दुख काज ।। साढे तीन हाथ की काम । जीव अनेक कहैं मुनि राय ॥४५॥ कृषि ते पोणे जीव मारीर । प्रलप सुकाल काल बलवीर ॥ सबकी सूष तनों सुनिमान । फल कुष्मांड आनि परमान ।।४६।। तृप्ति नहीं भने एक बेर 1 जेबें वुपहर सांझ सबेर । मध्यम वृष्टि मेघ सब करें । धर्म विक्षिप्ति तहों पर बरें ।।४।। ता पीछे होइ छठम काल । दुषमा दुषम महा विकराल ॥ मिथ्या दृष्टि सब जीवनि तनी। धम्म वासना रंच न मनी ॥४८॥ बेटी बहिन न माने कोइ । सवें कुशील नारी नर बोह ।। काल मर्यादा कही श्रुत ज्ञान । बरस हार बीस एक जानि ||Yell हाथ जुगल देही उत्तंग । बीस वरष लों प्राव प्रसंग । जब सहस वर्ष गत होइ । षोडपा बरष प्राद' अवलोइ ।।५।। कृषि विनाष होइ सब ठोर । जीवें जीव माहार अवलोह ।। जलचर नभचर जोवन षाइ । तृप्ति बिना सब क्षुधित फिराई ॥५१|| संजम तप नहीं दीसे रच । पाप अधम्म सनों तहां संच ।। अनुक्रम होइ काल को पन्त । रवि शशि निकट उदत करत ।।५२।। तिहि के तेज सकल को नाम । वृष्याधिक जे सुष निवास । प्रलय समीर बहै परचंड । विनासीक सब कह विहंड ।।५३|| जीव सकल सिथि ऐसी करें । जाइ पतुर्गति में प्रयतरें। अवसपिणि यह काल कहावे । फिरि उप्तसपिणी कास प्रभावे ॥५४॥ ज्यों ज्यों अनुक्रम प्रोरें गिलें । त्यों त्यो उतपिणी उगिलें ॥ छको पांचमों पहिलो जोइ चौयो तीजे के सम होइ ॥५५॥ सीजे में चउबीसी कही । पाप निवार जग निवारण सही ।। ऐसें फिरित रहैं छहकाल 1 है अनादि की प्रसो ख्याल |॥५६॥
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वचन कोश
७५
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मनन्तानन्त घोबीसी जानि । या लेणे परतक्ष प्रमाण ।। केवल बिना न जानी जाई । यात अनंतानंत कहाई॥५०॥
दोहा
जब जब होइ चतुर्थ में, सतज़ुग मठतालीस । गए पोमोसी सु होइ, सहा हुडामप्पिनि इस ।।५८ ऊण शलाका पुरुष, जहां दपं रूप पांखड । होई उपसर्ग जिनंद व... सीमाच विज :.' छहौं काल फिरिते रहें. ज्यौं अग्छ को हार । भरथ ऐरावत क्षेत्र में, जे घरनै दश सार ॥६॥
इति षटकाल वर्णनं ऋषभदेव गर्भ कल्याणक वर्णन
__ चौपई
प्रब सुनि तू फिरि उत्तपत्ति सिष्ट । उ था जुति जो कही वरिष्ट ।। तीजे काल अन्त मनु बृन्द । बौदही कुलकर नाभि नरिद 11211 मरदेव्या राणी को नाम । शीलवंत सब गुण अभिराम ।। पायु क्रोडी पूरब की दीस । काय धनक शत पंच पचीस ।।२।। प्रायुभूमि को साधे राज । सुख साता के सर्वे समाज । तीन ग्यांन संयुक्त नरिंद । सब जीव को मेटें बंद ॥३॥ निसि दिन धर्म नीति सौं काम । दुस्खी न दीसे काउ तिहि ठाम ।। ऐसी भांति काल बहु गयो । अवधि सुरपात चितितु भयो ।।४।। धनपति को लियौ तब बुलाइ । जिन प्रागमन कल्लो समझाइ ।। सो आयो चल पायं मझार । नगरी रचना रपी सवार ॥५॥ नब जोजन चतुरी निरमई । बारह जोजन लांबी ठई ।। सब के कनक मई प्रावास | रत्नजड़ित बहु यिधि परकाश ॥६॥ वन उपवन तहाँ रचे अनूप । घर घर कामिनि परम स्वरुप ।। पापी कुप सहाग अनंत । निर्मल अब कमल विकसंत ॥७॥
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कविवर बनातीनार, बुलाकीदाम एवं हेमराज तब धन पनि प्राग नवमाम । घर घर बरपाई नग रासि ।। प्राई पाठ जु देवी तछ । प्राषुक उमष लाई सबै ||| अनमी की सेवा प्राचरै । देाष गर्म षोषना करें 11 देह जनित के जिते विकार । पूरी किय नहीं रहे महार ॥६॥ जिन माता सोवत सुख चैन । सुपने देने पश्चिम रैनि ।। गज देध्यो सुर गज सम तोलि । धवल धुरधर रूप प्रमोल ।।१०।। केशरी सिंघ महा बलवान । कमला रूप मनोहर जान ।। सुन्दर - वि कशि करास बंगनीन सुभम पल आंत रंग ।।११॥ पूरण सजल व हाटक रूप । कमल कुलित सर सुभग अनूप ।। सिंहासन अमुपम अविकार । देखें जानी स्वपन विचार ॥ प्रमर विमान महा रमनीक । फणिपति सुभग रु सुन्दर नीक ।। विमल प्रचुर रत्न की रासि । जरत अग्नि उत्तम परगास ॥ ए षोडश सुपर्ने प्रवलाइ । दर वेदन भव जाग्रत दोइ ।।१४॥ जिनमाता पोरष देषई । पकी की द्वादश पेषई ।। नारायण की देधै पाठ । बैदराम की इह श्रत पाठ ।।१५।। उत्तम जलसे मुख प्रछाल । पहिरे नौतन बसन रसाल ॥ मय सत साज सिंगार अनूप । चलि माई जहां बैठे भूप ।।१६।। भक्ति जुक्ति सौ सीसू नवाई । राजा की दिग बैठी जाइ ।। स्वपन वृत्तांत सकल उच्चर्यो । फल सुनवे को चित्त मनुसर्यो ।।१७।। सुनत सुप हिय अधिक हलास । प्रवधि ग्यान बल फल परगास ॥ माभिराय फल कयो विचारि ।तुम सुत लं हों त्रिभूवन तार ।।१८।। प्रथम तीर्थकर जनम मही । तुम्हरी क्ष जानियो सही ।। प्रथक प्रथक स्वपने गुणमाल । वनि सुनाऊ सुनी उहो नारि ।।१६।। पहली वेयौ गज मय मंत । तुम सुत हं हैं श्री अरहंत ॥ वीर्य बलादिक ग्यान अनंत । वंदे देवी देव अन्नत ॥२०॥ धवल रूप को सुनि फल' सार । जग जेष्टी जग गुरु सिरदार ।। इन्द्र नरेन्द्र खगेसर देव । ज्योतिक भ्यंतर करें पद सेव ॥२॥ सिंह प्रताप महा बलबीर । भयो न ह हैं कोऊ न धीर ।। अनन्त मर्यादा को बल तास । अनन्त ज्ञान में कर विलास ॥२२॥
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धवन कोश
सुनि लक्ष्मी दरशन को भाव । बहुत सी कर सहान ।। जनमतें इन्तु मेरु ले जात । कर कल्याणक पन विपराय ||२३|| पुहप दाम को फल जु अनूप । कीरति उज्वल काम सरूप ॥ जस चल्ली पसरी त्रियलोक । हरै सफल प्राणी का शोक ॥२४॥ हिमकर देषण को परताप । तू सब मेटें जम माताप ।। सूरज फल प्रतापी जोर । मेटें पाप तिमिर को सोर ॥२५॥ क्रीड़ा करत जु देखें मीन । तू बसतु सुषगर परबीन ।। पूरण घट को यह विचार । बिना पढ़ें विद्या सु भण्डार ॥२६॥ सरवर कुलित तनों फल एह । शुभ लक्षण सब सुत की देह ।। संख्या सहस पाठ की सुनों । तिने सुमिरै सब पापनि हनों ॥२७॥ देष्यौ सागर उठत तरंग । केवलज्ञानी पुत्र प्रमंग ।। लोकालोक तनों विस्तार 1 यथा जुगति प्रकटे संसार ॥२८॥ सिंघासन फल एसो जानि । लछिन अनेक मुक्त निर्वान || सुर विमान ते राज समाज । रूप सोमाग बहुत गजराज ॥२९॥ नागरूप जनमत त्रिय ज्ञान । तीन लोक के नाथ बलांन । रलरासि फल उत्तम जोइ 1 सुत श्रुत गुरण के सागर होछ ।॥३०॥ प्रनु जित अग्नितने परभाव । ध्यान प्रमनि बसु कर्म प्रभाव । कलुष दुष्ट संपूरण जारि । तू बसे मुक्ति रमणी भरतार ।। ३१६॥ फल सुनि परम आनंदित मई । धम्मं बुद्धि अभिक ईसई ।। सघासिद्धि से चले जगदीस । भुक्ति प्राव सागर तेतीस ॥३२॥ • कारी द्वेज माषाव की मास । मरुदे गर्म कियो जु निवास ।। गर्भ कल्याण पूजो देव । इन्द्राविक सब करइ सेव ॥३३॥ कर कुमारी चप्पल सेव । सकल दुहिले पूरहूँ हेव ।। है अनादि की ऐसी रीति । सेवा करें सबें घर प्रीति ॥३४॥ निसवासर सब सुख सों जाइ। नव महीने जब पूरे पाय ।। जलनी हदय परम मानन्द । कब ब हैं सुत त्रिभुवन पन्द । ३५॥
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७८
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
दोहरा
महिमा गर्भ कल्याणक की, सुनो भव्य घरि हेत । मपहारी सुख करणहें , पहुंचायें शिवखेत ॥३६।।
इति श्री गर्भकल्याणक वर्णन मन्म कल्याणक वर्णन
चौपई अब सुनि जनम कल्याणक रीति । करें इन्द्र सम्म मन धरि प्रीति ।। मंत्र मुवी नौमी के दिना । उत्तराषाढ़ जनम भागिना ।।१।। भुवि अवतरे जगत के नाय । मत्ति अति अवधि विराजे साथ । कङ्ग कष्ट महि मासे होश । सुष साता सौं प्रसव सोइ ॥२॥ तब इन्द्रनि जान्यौ बल शान | पहमि प्रौतरे श्री भगवान ।। हर्षित लोक तिनि सुनिए लोक । दूरि बहाये संसय सोक ॥३॥ कल्पबासी घंटा ध्वनि करै । और अनाहद रव ऊचरै ।। ज्योतिकी संषनाद पूरियो । करि उछाह अशुभ बूरियो ।।४।। भवनवा सि गृह मयो भानंद । सिंघ रूप गजै सुर वृन्द ।। परह बजायो व्यंतर देव । पहुलास करि हैं प्रभु सेव III भवनवासि चालीस अनूप । व्यंतर दोइतीस शूचि रूप 11 कल्पवासी चौबीस महंत । मावे पूजन श्री भगवंत ॥६॥ रवि शशि नर तिरघंघ जु चारि । ए सब मिले शप्त इन्द्र विचार ॥ जान्यौ जनम लीयो जिनराज । गज ऐरावत लाए साज ||७|| पब वरणों वा गज शृंगार | जो गुरु कही जिनागम सार ॥ एक लाख जोजन गज सोइ । ताके मुख इफशत अवलोय ।।८।। बदन बदन पर पाठ जु दत्त । रदन रदन इकसर ठाठ ।। सर प्रति कमलनि सो पच्चीस । एक लाख कमलनि सब दीस III
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वचन कोश
राजहि कमलनि प्रति पनवीस । फमल भए सब साख पचीस ।। मनल कमल प्रति दल सो पाठ । दल दल एक मपचरा ठाठ ॥१०॥ नसं करें बहु आनंद भरी । हाव भाव नॅनवि भावरी ।। सब मिलि कोटि सताईस नारि । करें नर्त गज मुष पर सार ॥११॥ कनककिकिरणी प्रौ धनघट । ऐसे ऐरापति के कंठ ।। चमर पताका धुजा विशाल । त्रिभुवन को मनमोहन जाल ॥१२॥ ता हाथी पर है प्रसवार । प्रायो इन्द्र सहित परिवार ।। सब मिलि पुर प्रदक्षण करें। मुष ते जय जय रव सच्चरें॥१३॥ गई मुरत इन्द्र की सची। जिन अननी को निद्रा रची॥ मागा मई राख्यो शिशु अंग | श्री जिनविब लयो उचंग ।।१४|| निरषत रूप विपत नहि होइ । परम हुलास हृदय नहि सोइ ।। असो पे बारंवार । मेरै लोचन होह हजार ॥१५॥ निरषौं नयननि रूप अथाह । होहू पुनीत परम पद पाइ ।। भानंद भरि ले पाई तहाँ । हरषत वदन इंद्र' सब जहां ।।१६।। प्रथम इंद्र करि लेइ उठाइ । प्रभु चरननि को शीसु नवाई ।। गज मारूद भए भगवान । छत्र लिये सौधर्म ईशान ॥१७॥ सनतकुमार देव जो दोइ । द्वारें चमर अनुपम सोई ।। शेष शक जय जय उच्चरें । देव चतुर्विध इपित फिरें ।।१।। ले गए गगन उलंध्य अपार जोजन नन्यानवें हजार ।। मेह बिखर राबै वन चारि । सघन सजल कबहून पतझार ॥१६॥ सुमन पडिक नंदन वन्न । भद्रशालि लषि चित प्रसन्न । कल्पांत वात नही परसें कदा । फूलें फसे छहों ऋतु सदा ।।२०।। चारयो दिसा मेरु की लस । पहिले भद्रशाल वन बसें । सा ऊपर नंदन वन संच । उँचो है जोजन सत पंच १२९॥ तितनी ही जानी विस्तार । नंदनवन को गिरदाकार || सा ऊँचे सुमनस बन होइ । मेरु पापली सोमें सोद ।।२२॥ तास फेर की गणती कहाँ । सहस्त्र साठि वं लों लहों ।। मधिक पाच सें.मोजन जानि । तापर पांडुक वन शुभयान ।।२३।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
सुमनस वन तें दीसें चंग ॥
वन विराजत बलयकार ।।२४।। जनम कल्याणक महोदव तहां ॥ पूरब दिसा प्रादि दे भेव ||२५|| और ग्रन्थ से सुनियो जांन ॥
जोजन सहन छत्तीस उत्तंग चोराण अधिक सो वारि चारि सिला पांडुक है जहां वन वन प्रति चैत्यालय देव कचे चोरे को परवान मंदिर प्रति प्रतिमा जिन तनी । अट्ठोत्तर सो संख्या गली १२६॥ सत्रह प्रविशति सदा । बने प्रकृत्रिम नास न कदा |
धनक पांच से बिच उत्तंग । तीन काल बंद मनरंग || २७ ॥ सकले पुरंदर हरषित भए । पांशुक वन विचित्र ले गये ।। तहां बिराज पांडुक शिला । जानौं श्रद्धचन्द्र की कला ||२८|| चोरी हैं जोजन पंचास । सो जोजन लांबो परगास
वसु जोजन की ऊंची गती । ललित मनोहर सोभा सनी ॥२६॥ तही मंत्र नभई तातिघासन छबि दई । भरी ताल कसाल जु छ । दप्परों चमर कलस ध्वज पत्र ॥३०॥ प्रथम घरें हैं मंगल अष्ट । रचे कलस तहां महा वरिष्ट ॥ वदन उदर श्री गहि परिणाम | एक च्यारि वसु जोजन जांन ॥ ३१४ तापर पराए जिनईश । पूरब मुष कमलासन ईस ॥
पूजा पाठ पढें सब इन्द्र । द्रव्य आठ साजें प्रति इन्द्र ||३२|| जलगंधाक्षतपुष्प अनूप | नेवज प्रचुर दीप परु धूप ॥
फल जुत माठ द्रव्य परकार 1 पूजा करें भक्ति उरधार ॥३३॥ करें भारती पढ जयमाल | गावें मंगल विविध रसाल ॥ बाजे ताल मृदंग जु बीन । दुदुभि प्रमुख घुरि ध्वति छीन ॥ ३४ ॥ ॥ नति सुर गंध की नारि । हावभाव विभ्रम रस भारि ॥ सची सकल मनोहर नैंन । चन्द्रवदन विस्रत सुख छैन ||३५|| भंग मोरि भवरी जब लेहि । देसी विषँ परम सुष देहि || धिर्गादि विगदि तत थेई ताल | भिमक भिमक झालरी कमाल ||३६|| श्रिगदि थिगदि मुष की यथकार | दिगदि दिगदि संगीत सुतार ॥
कि द्रमकि बाजें दुरमुरी । घुमिकि घुमिकि करि लिंकन करी ।। ३७।०
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वधम कोश
ठनन ठनन घंटा टनराम । मनन मनन भेरं मन नाइ ।। तरता तासाथ ताता) ताल । तल पशु लय गावे सुर ताल ।।३८॥ बीना बंधा मुरज झनकार । तंत वितंत घने सुषकार ।। नूपुर ध्वनि यकित सुवंश । जिन गण ककृत मनो कलहंस ।।३।। मंगल नाद करें सब कोई । सुर नर सब यह कौतिक जोह ॥ सुरभरि कलस लेहि एक साथि । क्षीर समुद्र तें हाथि हि हाथि ॥४०॥ नब सुरेश सौधर्म ईशान । प्रभु की करें अभियोक विधान || दही घीय मिष्टादिक जानि | प्रबहोरत रस संकल्पित मान ॥४॥ ज्यों पंचामृत परमत कहैं । ताही समेंलो गनिए गहैं । इंद्रनि कोनी इनकी धार । बिना क्षीर प्रभु के सिरमाल ॥४२॥ का मम बचन न माने कोइ । देषा प्रादि पुराण में जोइ । सहस प्रष्टोत्तर कलस विचित्र । ढाले जिनवर सीस पवित्र ॥४३॥ और प्रमुख शृ'मार माचार । इन्द्रनि कियो सकल निरि।। भए जग ज्येष्ठ बरिष्ठ अभिराम । ऋषवदेव राष्यो प्रमुनाम ॥४॥ फिरि जलाह सहित ३ फिरे । प्राय प्रजोध्या में अनुसरे ।। तहां कियो बहु विधि प्रानंद । माता को सौप्यो जिनचन्द ॥४५॥ धनपति को प्रभु सेवा राषि । इन्द्र सकल निज गृह प्राए भाषि ।। याही ते धनपति घनराय । प्रभु की सेव कर चितु लाइ ॥४६।।
वोहरा इह महिमा जिन जनम की, पहंत सुनत मघ मास । निज स्वरूप अनुभव करै, बहु विन गर्म निवास ॥४७
इति को जम्म कल्याणक वर्णन
ऋषभदेव जीवन
चौपई माभिराय मरदेव्या माझ् । धानंद बड्यो न प्रग समाइ । गुरुजन पुरुजन सघ गृह धाम । मंगल करें सकल नर वाम ॥१॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
पंच शब्द बाजे मनवार । मोसिन झूल बंदनबार ।। रलरि सों चोक पुराइ । फिरि जिनको अभिषेक कराइ ।।२।। जग ब्योहार करण विस्तार । फेरि किए सब प्रमुखाचार ॥ बंदी जन बहु दीने दान । तिनही को नहीं सकौं बखान ।।३।। जुग की मादि भयौ भवतार । मादिनाथ पर्यो नाम विचार ॥ श्रमजल सब मल रहित सदीय । रुधिर वरण जैसो मौवीर ||४|| प्रथमसार संघनन स्वरूप । सहज सुगंध सुलक्ष अनूप ।। मधुर वचन बल अतुल न मान । मात्र विचित्री सब सों जानि ।।५।। ए दश प्रतिशय सहजोत्पन्न । तीर्थकर विन होइ न भन्न ॥ अमर पाइ बैंक्रिय बस फोर । कोऊ मराल ह्व कोकिल मोर ।।६।। विविध रूप ह प्रभु सों । बल विनोष करत दिन गर्भ ॥ देव पुनीत सकल गिर | गुर दियाई नि। २ ।। पहिरा प्रभु को परि हेत । निरषत तात मात सुष लेत॥ भौर मनूपम भोग विलास । भौगै प्रभु जून सुखरासि ।।८।। बीस लाष पूरब लौं जानि । कुमार काल मुक्त्यो भगवानि ।। पा दीयो नृप पद भार । नाभि नरेन्द्र परम उदार ।।६।। बैठे सिंघासन श्रीजगदीस । युगल धम्म निवारयो ईस ।। खेती बिनज लिखन चाकरी । परजा पालन को बिस्तरी ॥१०॥ पुत्री काई की मानिये । सुत काहू को तहा जानिये ।। कर विवाह लगन शुभ बार । इहि विधि बढ़त चल्यो संसार ॥११॥ सो मोपें वरण्यो क्यों जाई । हो मतिहीन वियनके माइ ।। भए प्रसन्न कल्पतरु भूमि । क्षुधा तृषा की बाढ़ी धूम ।।१२।। परजा सब दुख पीडित भई । नाभिराय के प्रागें गई । जो कुछ कहो सु कीजे नाथ । क्षुषा तृषा करि भए प्रनाथ ॥१३॥ पुद्गल जर्जरी भूत प्रतक्ष । बिनु पाहार न कोइ रक्ष ।।। नाभि नरेश सुनि यह बात । चिंता उपजी उर न समात ॥१४॥ चलि माए जहाँ त्रिमुक्न राय । दुख परजा को को सुनाय ।। श्री भगवंत विचारचौ ग्यांन । मृत भविष्यति भो वितमान ।।१५॥
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वचन कोश
ऐसी ही अनादि की रीति । सबको समझाई परि प्रीति ॥
पृहमि करष उपजाउ जाह । ता फल भषि पोषों निज काय ।। १६ ।। जो लो कृषि फल उपने मही । सोलों एक करो तुम सही || ए अनादि के इक्षुपु दंड ले भावी इनि करो जुषं ॥ १७॥ पेलि पेलि रस काढतु जाव | काया पोषोया कर भाव || सब परमा ग्रानंदित भई । क्षुधा पोर तें वन महि गई ।। १६ ।। लीये इक्ष दंड सब तोरि । रस काढधो तिनको करि मोरि ॥ भक्षित भागी भूख पियास । घर घर भ्रानंद परम हुलास ||१९|| सब जुरि आए देन भसीस 1 तुम इक्ष्वाकु वंश जगदीश || तब तें : 5 होरेरा इलाक तब जान्यो प्रभु यह निज वंश । थाप्यों और तीन श्रवतंस || कुरु रुद्र नाथ ए तीनि । प्रभु ने नाम प्रतिष्ठा दीन ॥ २१ ॥ करे परसपर व्याह विषनि । तजि विश्ववंश सगारथ जोन || प्रभु के राजदृषी नहि कोइ । घरि घरि जैन धर्म लो ||२२|| तिहि पुर मद गयंद सौं रहें । मदिरा नाम और न कहें
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मा सो जो बल बुधि होइ । पुष्प पत्र लें बाधे सोइ ||२३|| दंड सोइ जो जोगी लेइ । भौरख दंड न कोऊ देइ ।। चंचल चोर कटाक्ष तिया के | जो निस चोरें चित्त पिया के ॥ २४ ॥
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चाक बिनु कोइ न प्रान । निशि के समें विरह दुख सांनि ॥ बिरहाकुल पिक बिना न कोइ । बिरहाकुल पिय मिव रट सोइ ।। २५ ।।
दोहा
दीपदु बधिक बसे तहां, ज्यों निस बधे पतंग |
प्रवधपुरी ऐसो चलन, रच्यो ईस मन रंग ॥ २६॥
चौपई
सब होइ चतुर्विध दोन जिनपूज और गुण सनमान ॥ धम्मं राज बरतें संसार । पाप न दीसे कहूं लगार ||२७||
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
नाभिराय तब हुलस्यो चित्त | तरुण भए प्रभु परम पवित्र ॥ की व्याह सकल सुखरासि बंदी जन की पूर्व प्रास ॥ २८ ॥ से जगत जीव यह रीत | करें सफल हिरवे परि प्रीत || इह प्रकार विरध संसार होइ प्रवत्त लोकाचार ||२६||
तब प्रमुस्यो विनच मनुराम । तुमतो जगत पिता जिनराय || मादि पन्त विनु वरतो सदा । जनम मरण को दुख न कदा ॥३०॥ ओ मोहि दियो पिता पव ईस तो मम वचन सुनो जगदीस || पाणिमत करो भरि प्रीति । जगमें जो यह वादें रीति ||३१|| लोक बढत ने धर्म अधिकार यह प्रभु जू की है उपगार ॥
जो मम बच्चन न करि ह्रों कांन । पिता वचन की निश्चय हानि ||३२|| पुत्र सपूत कहावें तब पिता बच्चन प्रतिपाले जब ॥
तब प्रभु होनहार सब जान । वें कियो फिर बहु सनमान ||३३|| नाभि नरेन्द्र फूल बहु भई सकल नृपति के घर सुधि लई ।। कच्छ महाकच्छ ॐ भूप । तिनिके दुहिता जु अनूप ||३४|| कच्छ तनी नंदा पनि बाल । नमि कुमार बेटो गुणमाल ॥t जस्ववती महाछ की सुता । विनमि पुत्र सब गुण संजुता ||३५| वँ हैं प्रभु को ब्याही राय । प्रानंद मंगलाचार कराय || भोग विलास करत संतोष । तब सब भिराणी को कोष ||३६|| भरथराय प्रादि सो पूत । उपजे सुन्दर सुभग सपूत ॥ ब्राह्मी सुता पवित्र अवतार । पूर्व पुन्य लीयो जु विचार ।। ३७ ।। अब सुनि दुतिय रागनी बात । नंदाराणी परम विख्यात !! पुत्र जन्यों बाहुबलि नाम सुता सुन्दरी गुण अभिराम ॥ ३८ ॥ यह विधि बढ्यो परिग्रह घोर । एक तें एक प्रतापी जोर ।। खानारसि नगररी को भूप । नाम अंकपत्र कांम स्वरूप ॥२६॥ सेनापति बडो सब कहैं । लाम नाथ वंश वेदता बहें || प्रभु के भाइ चरण सिर नई द लहें मानंद अधिकाई ॥ ४० ॥ विनती करी जुगल करि जोरि । मसरा सरा नाथ हों मोरि ||
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वचन-कोश
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तनुषा मम गृह भई अभिराम । सुलोचना ताको है नाम ॥४॥ भई बर जोग सुता वह ईश । देउ काहि भाषौ जनीश !i सब प्रभु भावो काल विचार । भाष्यो चर्स जयत यौहार ।।४२॥
या माई हो । एकीला की लेह ॥ जो चक्री सब परनतु जाइती कसे संसार घटाइ ॥४३॥
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स्वयम्बर वर्णन
मात पिता इच्छा गुण पोर । सबल मिबल परिकरि है शोर ।। ताते रच्यो स्वयम्बर जाइ। तहां सकल नप लेह बुलाय ||४४।। घरमाला कन्या को देउ ! पुत्री निज इन्छा बा लेह ॥ ताहि बरन कोऊ मानें बुरो । नाको मान मंग सब करो ॥४॥ इन मुनि भर परम गानंद । सापनीति भाषी बिनचन्द ।। सुनि राजा अपने घर गयो । प्रमु भाषी सो करती लयो ॥४६॥ देश देश के चाले राय । सुता स्यम्बर को ठहराय ।। प्रक्क प्रादि भरथ सुत चले । कंदर्प रूप विराचे भले ॥४॥ पौर सफल प्राये महिपाल । जिनदेखत नासे उरसाल ।। रचि विभूति अपनी सब तहां । प्राए सफल स्वयम्बर बहाँ ।।४।। कन्या के कर माला धई । माइ स्वयम्बर ठाड़ी भई ।। कन्या के संग दासी दीन । सबके गुण जानत परवीन ||४|| एक और तै बरनती चली । नाम राजजु स्तुत करि भली ।। भावी के बस पहुंची तहाँ । गजपुर पनौ विराबैं जहाँ ।।५०॥ भरथ सनो सेनापति सार । नाम तास है जयकुमार ।। रतिपति देषत रूप लजाइ । बल उनमान करो नहिं जाई ।।११।। कुरुवंशनि को नाथ प्रवीन । जाके राज न कोऊ दीन ।। सुलोचना देख्यो वह रूप । कंठ करि वरमास मनूप ॥५२।।
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कविवर बुलाखीचन्द बुलाकादास एक हेमराज
अपयकार शाययो । कार उत्सम र लया ।। सकल नरेश चले निज मेह । उपज्यो कोह प्रक्र्क के देव ।।५.३१५ प्रभु देषित क्यों सेवा करें। दीठ पनौं क्यों देषी परें । दयो निसान जुद्ध के काज । मेज खुद भमे तर आज ॥५४॥ तब मंत्रिनि मिसि यह बुधि दीन । पहले पटऊ दूत पान ।। मांगे देह जुद्ध भक्ति करी । नहिं तो मनचाछित पादरी ॥५५॥ पठयो दूत ततक्षिण तहो । जम कुमार बैठो महा।। दूप्त वचन सुनि वह परजरथी । मानो प्रगनि में पूलो परयो ।।५।। सुन रे दूत मूढ़ मति मंद । प्रविवेकी भयो प्रभु को नन्द । यह मरजाद पितामह तनी । तोरपी वाहत धरि सिरमनी ||५७॥ भरथ सुन दुर पावें धनौं । क्यों निज प्रमुता चाहै हन्यो। हम सेवा तोहि लो करें । जी लो नीति पंथ पग धरै ।।५।। लोप्यो चाहै जो इह रीति । तो मौसों महि सकि है वीति ।। वह नहि जानत हे बलवंत । पानें भरथ राय गुणवंत ॥५६॥ पर्वत मुफा फोरि मैं दर । भव छह खंड तनी जय मई ।। काहे हो राणों मग्यान । क्यों मिसि हैं नु वरी बलवान ॥६॥ दूत गयो फिर जहां कुमार । सुनि ता बचन भयो प्रसवार । योनि जुद्ध कीनो परचंड । जयकुमार तब दीनी दंग ।।६२॥ अर्ककुमार बघि ले गयो । करि विवाह निजु घर से गयो । ह्वां ते कुवर दो तब छोरि । भादर सों दयो सन्छ करोति ॥६६॥ भरथ निरघि मृत कीयो पिकार । करै सु पावें यह निार । जयकुमार को किसे पसाव 1 घ्य गम देशा बहुत सिर पाव ।।६।। राजनीति तुम कोन्ही सही । नतर कुवात विचरती मही ।। सेवक मृत सम जो जानि । जो प्रभु की भेट नहि प्रानि ।।६४॥ तक तें यह जग बरसी रीति । करें स्यम्बर नृप धरि प्रीति ।। नाहि वर सोही ले जाइ । फिरि न ताहि कोड सके सताइ ॥६५॥
इति स्यम्बर नोति वर्णन
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वचन कोश
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पूर्व लाब सठि लौं जानि । करौ राज श्री कृपानिधान ॥ या नंतर इक दिन जिन राज | बैठे हुते सभा सुख साथ ||१|| नीलंजना नदी को नाम । नृति कर भाई वह ठाम || बीत उपंग यांसुरी वार्ज
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ढोडी यंत्र अमृती राजे ||२||
सुर मंडल बाजे जन तनी । सारंगी पिनाक बहु भनी ||
वति थी।
मृतकुंभ
ए बाजे सब बाजन लाभ । तब मिलि जु प्रलापहिराब ॥
प्रथम सप्त स्वर साधि जु लीन । पुनि मिलि सकल सुर एक कीन ॥ ४ ॥ रंगभूमि पातुर पग धरौ । रव संगति बदन उचरयां ||
सुरसुर कुमकुम धमपि बोलें। बार बार संग लागें ढोलें ||५|| तत भेई ततई तब करें। ततकि तलकि पुष उच्च ॥
अंग मोरि भंवरी जब लई । परि घरिवि मृतक ह्न गई ॥६॥
परमहंस दूजी यति गयो। देखत सवनि प्रभो भो ॥
प्रभु वा मरणा विचारथो चित्त । उर उपज्यो वैराग्य पवित || :
बारह भावना वर्णन
दोहरा
मध्व प्रसरण जग भ्रमण, एक अनंत अशुद्ध । श्राश्रव संवर निर्जरा, लौक धर्म दुर्ल में ||
व वस्तु निश्चल सदा, अधू भाव पजाब | स्कंध रूप जो देखिये, पुद्गल तन विभाव ॥१६॥
चौपई
जिते पदार बल्लभ जनि । गमन नमर सम यस्तो समान ||
अन जीवन जल पटल जु होत । सजन नारि सुत तदित उदोत ||१ जल बुद्द बुद जो बरतें सदा 1 विनासीक थिर नाहीं कश ।। इस जहाँ न उपज्यो मोह | कहें मावना अधिर सोइ ||११|
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
बोहरा मसरण वस्तु जु परिणमन, सरण सहाई न कोइ। मपनी अपनी सक्ति के, सबै विलासी जोइ ॥१२॥
प्रोपई मरण समें कासगी ।म के गानगी । पुष्पनाल कुम्हलाई देव । करितु फिर सबही के सेव ।।१३॥ राखि सके नहीं कोक साहिं । सरणक नोहें वपु माहिं ।। ताके सरगत के मुनिराक । इह प्रसरण भावना कहावं ॥१॥ परहंतो मसलीमत्वो तारण लोया। इदीह संसारे ममगई। देसाई कुसुलाइ, जे तरंति तेम मालमाई ॥१५॥
दोहा संसार रूप कोक नहीं, भेद भाव भरयान ।। स्यांन दृष्टि करि देखिये, सब मिय सिद्ध समान ॥१६॥
चौपई परग्रहण जहां प्रीति बहु होइ । भांति भाति के दुख सुख जोइ ।। भारौं गति में हिंस्तु फिरें । स्वांग लाख चौरासी घरै ।।१७॥ को स्वछन्द वरते त्रय काल । ता स्वभाव दीजें हग चाल । गरि द सब पुदमल रीति । तब संसार मावना प्रीति ॥१८॥
वोहा एक दिसा मानिजु देखि के, मापा लेहु पिछान ।। नाना रूप विकसपना, सोतो परकी जोनि । १६॥ गोलत डोलत सोक्सा, थिर माने जग भांति ।। पाप स्वभाव पाप मुनि, जिस सित भनु पनाति ॥२०॥
चौपई फरि जन्म घरची मरहे कौंन । दिन में बिनसि जाइ ज्यों लौन ।। स्वर्ग नरक दुख सुख को सहें । मुक्ति सिसा पर जाइ जु रहे ॥२१॥
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वचन कोश
ए सब जीव द्रव्य के खेल
पुदगल सों नहीं दीसं मेल ॥
वल बीरजु सुख ज्ञान महंत
सहजानंद स्वभाव अनंत ||२२|| धरो ध्यान जोऊं ता रूप | सदा मकेलो विमल स्वरूप ॥
जहां डू जाकी होइ प्रभाव । एकतानु भावना कहा ||२३||
वोहा
अन्न अन्न सत्ता घरें, श्रन्न प्रन्न पर देश ||
अन्न अन्न तिथि मांडला, अन्न अन्न पर देश || २४||
चौपई
नित अन्य जीव सब काल । पुदगल अन्य परिग्रह बाल || संपे पुत्र कलित्र शरीर । कोइ न तेरो सुनि यस वीर ॥ २५ ॥ या दिन हंस यानी करें। संगी हूँ कोऊ न संग घरे ॥
जह सेवग साहिब नहीं मान । अनंतात भावना कहांन ॥ २६ ॥
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बोहा निर्मल मति जो जीव की, विमल रूप त्रियकाल 1
शुषि श्रंग जो देखियें, पुंज वरगना जाल ॥२७॥ चीपई
शुचि खानि कहियें यह देह । सासों जीव कहां तोहि नेह || रक्त पीरु मूत पुरीख । इनि सों भरी सदाई दीख ||२६|| हाड नाम केशनि के झुंड । यारों ने नर्क को कुंड ॥ या सों जीव रचे नहीं जहां | अशुचि मंग बखाने तहां ॥२६॥
बोहा
ज्यों सर्वाष नौका विषै, पावे चउदिशि नीर ॥
त्यो सत्तावन द्वार हूँ, होइ जु मानव भीर ||३०||
चौपई
जो परद्रव्य तनो है सार | राग द्वेषरू करण स्वभाव ||
बसु
मद औ संकल्प विकल्प | सकल कषाय ग्यान गुण भल्म ||३१||
८६
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कविवर बलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
उपजै इनके कर्म अनेक । सो सब पुदगल ननौ विवेक ।। इ छोडि बिन प्रापा गर्ने । श्राश्रय भाव सकल तब बमैं ।। ३२ ।।
दोहा
छिद्र मूदिए नाव के, बहुरि न जल परवेश |
सन्चो सूची काल बल, संवर को यह भेष ।। ३३ ।।
इह जिय संवर प्रापनो, झापा आप मुनेय ।
तो संब
चौपई
मावत देखें जन्त ही अपार । तब जिय ऐसी बुद्धि विचार || मूदे सकल नाम के छिद्र । राग दोष जल करें न षद्र ।। ३५ ।। करण विर्ष मद आठ प्रकार । इति तजि अपनी करे सम्हारि 11 फिरिया तब पेंचं नाव | सुंदर तनी कहावें भाव || ३६॥८
दोहा वियोगी अपने वियोग सौं, न्यारो जानत जोग ।
या देख न सकति हैं, वा गुण धारण जोग ||३७||
इह योगी की रीति है, मिलि करें संजोग ||
तासों निर्जर कहते हैं, विद्युरण होइ वियोग ॥३८॥
चौपई
जनम जनम जे जोरे कर्म । अब जानों इनको गुण मर्म ॥ तानासन को उद्दिम रच्यो । चारित बल रीति तब पच्यो ॥३६॥ उष्ण काल गिरि पर्वत बास । सीत समें जल तट हि निवास | वर्षा ऋतु तरुवर के तले सधैँ परीसह नेकु न ह ॥४॥ मन चंचल को धोने घोर । इन्द्रो दंड देइ प्रति जोर || पूरब कृत थिति पूरी होइ । श्रार्गे बहुरि बर्च को || ४१||
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म
वचन कोश
यह पुदगल निज्जर की रीति । निश्चय नय जब आतम प्रीति ।। तजें जीव परबुद्धि प्रसंग । यह निज़र भावना सुरंग ।।४।।
दोहा सफल द्रव्य सिम लोक में, मुनि के पटतर दीन । लोग जुग सि सौं थापना, निश्चय भाव धरीन ।।४।।
चापाई पीर को सब पुकार साबित विचार जुर.पद ए निगोद हैं दोइ । पिंडरी नर्फ सात अवलोइ ||४|| छम्मा वंसा मेघा आंनि । अंजन परिठा मध्य हैं ठाम ।। मधवा सप्सम नकर्ष विचार । प्राय तानि तीस निषिधार ॥४५।। जंघस्थान परे थल चारि दीप नाग मो असुर कुमार ।। बसे भवनवासी तिहि ठोर । ऊपरि मध्य लोक की दोर ।।४।। उदर समान कह्यो भूचि लोक । अगनित द्वीप समुद्र को थीक ।। ज्यौं पंजरहें लंगराकार । यौही सो रहे सुरग विचार ।।४७।। प्रथम सौधर्म ईशान जु दोइ । सनतकुमार माहेन्द्र है जोइ ।। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर दो अभिसम | लात्तव और कापिष्ट सु नाम ॥४८॥ शुक महाशुफ सर गेह । सतार महासतार गनेह ।। पानत प्रारणत ए सुरधाम । पारण अच्युत पोहस नाम ।।४६।। धक्ष स्थान है ग्रोचक तीन । प्रद्यो मध्य ऊरध परवीन । नदनकोत्तर कंठ स्थान । एक भनातरी तहां जान ।।५।। तापर पंचानोत्तर नाम । प्रहिमिंद्रनि के पांच विमान ।। सो कहियें सरवारथ सिद्धि । बबन ठोर जानियो प्रसिद्ध । मुक्ति स्थल ससाप्ट पर गनौं । लोकायाशा यहि तुम भणौं ।।१।। त्रिय वलेन घेवची केम । छालि लपेटयो तर वर जेम ।। घनाकार है सासु विसाल । रज्जू तीनसे पोर तेतास ॥५२॥
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कविवर बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज
छही द्रब्य करि मो भरि रह्यो । ज्यों घृत परि पुरण घट घरयो ।। पातें अपर प्रलोकामास । वहा सदा ही सुन्नि निवास ।।५३॥ यह अनादि की थिति : करना । पुन को रि ।। निवमे सिद्धि पता मीम : जीन व ३ पाप गरीस ।। ५४॥ तजो अजोग ठौर जिय जाँन । तब खोकानुभावना बरखांन ॥ भरयू छांडि जो चिर में अंत | तो न बने लोकातु मंतु ।।५५।।
दोहा धर्म करावें पौर करें, क्रिया धर्म नहीं और । धर्म जु जानु जु बस्तु हैं, मान दृष्टि परि सोइ ।।६।। करन करावन झान नहि, पढन अर्थ इह भौर । जान दृष्टि बिनु ऊपज, मोप तरनी जु झकोर ।। ५७।।
सोरठा घमं न किये स्नान, धर्म न काया तप तपै । धर्म न दीये दान, धर्म न पूजा अप जपें ॥५८ः।
बोहरा दान करो पूजा करो, जप तप दिन करि राति ।। जानन वस्तु न वौसरों, यह करणी बड़ यात ॥५६।। धर्म जो वस्तु स्वभाव है, यह जानी जो कोइ । साहि और क्यों बुए, सहज ही उपज सोइ ॥६॥
चौपई द्धिमा प्रादि जो दश विध धर्म । षोडशकारण शिव पद मर्म ॥ दान बिना पूजदिक माव ! नव्यौहार धर्म जु कहाच ।।६।। जो लौहें सराम चारित्र । तो लो इन गुण महा पवित्र ।। चीतराग परित्र जब होइ । प्रापुर्को पाप मुनै सब कोह ॥२॥ यह घमं भावना विचार । करते भवधि पावं पार ।। इह मनादि को व्यापक प्रय । कोऊ तो मति धर्म प्रसंग ॥६३।।
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वचन कोश
सोरठा
दुर्लभ पर को भात्र, जाकी प्रापति नहीं ।
जो आपनो स्वभाव, सो क्यों दुर्लभ जानिये ॥६४॥
चौपई
जब जिय चरतें मध्य निगोव । दुर्लभ सप्तम नरक विनोद || जब प्रायें सातों पाथरे । एकेन्द्री दुर्लभ मन घरें ।। ६५|| एकेन्द्री यह करें सदीय । पानी तेज बाय के जीव । सात सात लाख परजाय । वनस्पति दश लाब गनाइ ।। ६६ ।। प्रथ्वी काइ सात लख जानि । चौदह लाख निगोद बखांन ॥ तामें इस निगोदी सात । उनिके दुषन की प्रगति बात || ६७ || ज्यों लुहार को सहसो माहि । कबहूं भगति कबहूं जल मोहि || सेव सात सय इतर निगोद । प्रव सुनि उनके दुष विनोद ||६|| सास उस्वास एक में सार । जामन मराठारह बार ॥ वायु तनी संख्या नहीं तास । एकेन्द्रो शरीर दुब रासि ।।६६॥ सब मिलि एकेन्द्री की जाति । थावर पंच प्रकार विख्यात || तामें मुब जल हरित जु तीन | कहैं प्रनंत काय परवीन ॥७०॥ मसूरी दारि तनें परमान रहे जीव तिनिके सुख मानि ।। * जो जीव होइ मरि कोक । तौ भरि उपलटें तीनों लोक ॥७१॥
सति इन्द्री दुर्लभ होइ । द्वे लख जाति तासु की जोइ ।। यो घास खुलासा पत्र डारि । लाट गडोई की उनिहारि ।। ७२ ।। रसना कोई इन्द्री गनी । श्री जिन धागें ऐसी मनी ॥
यातें इन्द्री दुर्लभ सीनि लख जाति ठीकतादीन ॥७३॥१ जोक मांकड बी आदि। देह नाक रसना की स्वाद ।। या चौइन्द्री गति दूरि लख जाति रही भरिपुर ।।७४ || बर डांस माखी रु और कांग । भृंगी भवरी कोट पतंग ||
रसना नाक प्राखि भदेह | चौइन्द्री को विवरण एहू || ७५ ||
६३
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कांवेवर बुलाखोचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
1
जे सब मिलि मट्ठावन लाख 1 लाख छबीस पंचेंद्री भाषि ।। स चारि बिनु हाड न होइ । बेइन्द्री लों जानें सोइ ||७६ || साहू में सम्मूर्छन गनो यौं कहि गए सकल गुनि गना ॥ तामें चौदस लख नर जाति । चारि लाख तिरयंच विख्यात ॥७७॥ साहू में करें परवीन । जलचर नभचर थलचर तीन || नमचर सब पनि पहिचानि । जलश्वर मीनादीक बर्षाांनि ॥७८॥ सर्प चतुष्पद पशु श्रोतार । ए सब थलचर नाम विख्यात ।। लाख चारि गति देवनि सनी । सोऊ चारि भेद करि सुनी ॥७६॥ भवनवासी कल्प जु दोइ । ज्योतिग व्यंतर सु होइ ॥ कल्पवासी स्वर्गति में रहें। सुखसों सकल श्रापदा है ||८|| दशविधि भवनवासी सुर जानि । पृथक पृथक गुण कहीं बखानि ३॥ पहलें असुरकुमार हें जोइ । दंड देहें नरकनि कों सोए ॥५१॥ नागकुमार दूसरे रहें । तिनिस भ्रष्ट कुली जग कहें । विद्युत बीजो नाम कहते । चपला दामिनि जो चमकत ॥ ८२ ॥ सुपर चौथो नाम बखान । अगनिकोल पंचम सुर जांनि ॥ षष्टम बात बखानी सही । जातें अधिक प्रबल बल मही २८३ ।। सप्तम संतति देव विचार । जो नम मंडल गर्जय सार | अष्टम श्रावध नाम जु धरी । जासों हैं बच्च भुवि पर्यो ।॥ ६४ ॥ नव दिव्य ध्वनि श्रदेव । दक्ष में दश दिगपाल गनेव
ज्योसिंग देव तनो परिवार रवि शशि आदि पंच प्रकार ८५ ग्रह नक्षत्र तारांगन सुनो। ऊँचे वहीं ताहि अब भणों ॥ पृथ्वी ते जोबन से तात । और नहीं ऊंची अधिकात ॥१८६॥ रतन जटित ज्योतिगी विमान । तिनिकी ज्योति चमक परवान ॥ शशि विमान अंजन मनि ल । ताऽतिबिंब चन्द्रवपु ग्रहों ||७|| यह स्यामता निरष मति मंद । थाप्यो जगत कलंकी चंद || पंथ चलित श्राप पर घ । तिनि अर्गानि कोल मुद बिषै ॥ मरौ देव कुमति यों कहैं। और टरची तारी सब कहें ॥ राहु केतु ई ग्रह ए स्याम । निकट न हों रवि शशि के धाम || ८६ ॥
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रवि शशि इनि ऊपर मलें । जोजन एक प्रघो ए चलें ॥ राशि अरु के दो एक जोट । दयो वलें छाया की प्रोट ॥६॥ ज्यों ज्यों छाया टति जार। त्यों त्यों चन्द्र विमल प्रगटाई 1 पूत्वों के दिन केतुम श्रंग सोहत पूरण कहा मयंक ११६१।। यहां काहू जिय संशय भई श्री गुरू सीं उन निती ठई 11
1
सुनियो जो पून्यों को नाथ
केतु तजे हिमकर 1 को साथ ||१२||
सौ का
तै
1
कबहुँ कब स्याम सरूप ।।
तब गुरु कहूँ सुनो बुद्धिवंत । कहीं प्रगट जो कही सिद्धन्त ॥ ६३ ॥ ता दिन दबै राहू की छांह गहन कहूँ प्रवनी सब मांहि ॥ ताको भेद को निरधार । ज्योतिग प्रत्यनि के अनुसारि ॥ ६४ ॥
फिरि परिवा तें दावें केसु । छाया तरउ पति को लेत ||
मावस के दिन सुनौं प्रवीन । दीसें हिमस्करि कला विहीन ||५||
दोहरा
रवि शशि सूरह सत्तर्मो, होइराम एकंत । चन्द्रग्रहण तब होइसी, वादहि वरीय संत ॥६६॥
जासु नहि रवि बसें, तासु अमावसु होइ ॥
राह सूर सो जब मिलें, सूर ग्रहण तब होई ॥६७॥
चोई
I
अब सुनि व्यन्तर देव विचार । कहिये सकल अष्ट परकार !! किनर भी पुरुष बिराम गंधर्व और महोरग नाम ॥८॥ राक्षस अक्ष पिशाब रु भूत । इहि विधि देव कहें गुण जूत ॥ तारक गति लाख जु चारि । लाख चौरासी सब मिलि सार ॥६६॥ निकसि पायरिनि बाहिर परे । तिर्यग मुख दुर्लभ धनुसरे || तिरंग को दुर्लभ नर देह । तिनिकों दुर्लभ खग सुर गेह् ॥ १०० ॥ ॥ ए दुर्लभ सहि भटक्यों सदा । श्रावक कुल उप नहि कदा || कबहू घरपरे नपुंसक रूप । तातें दुर्लभ नारि स्त्ररूप ।। १०१ ।।
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कविवर बुलाखीदास, बुलाकीचन्द एवं हेमराज
नारी भएं अधिक दुख खांनि ! दुर्लभ पुरुष वेद प्रधान ॥ कर्म शभाशुभ उदै प्रमाण । पायो नर शरीर शुभयान ॥१०२।। सत गुरु मुख सुनियो उपदेश । जान्यो निज स्वरूपको भेस ।। .... .... .... ....रस विक्रिय क्षेत्र क्रिया सार ॥१०॥ तामें प्रथम बुद्धि रिति कहो । भेद प्रारह नामें लहौं । केवल प्रवधि जानियो दोइ । मनपरजय तीजी भवलोय ।।१०४॥ प्रब दुर्लभ शिव सरवर तीर । जामें विर्षे रहित शुचि नीर || प्रय बह नीर हियो जिय जाइ । कर्म भाताप सकल बुझि जाइ । लेन न जाउ कहूँ तुम दूरि । प्रातम ताल रही भरपूरि ।।१०५।। तू जिय निर्मल हंस सुजांन । और न कोळ ताहि समान ।। पवर लहै मुक्ति को यह सुलभ भावना झकार ॥१०६।।
बोहा ए शुचि बारह भावना, जिनतें मुक्ति निवास । श्री जिनवर के पित्त में, तबही भयो प्रकाश ॥१०७।।
इति मारह भावना
ऋषम देव गृह त्याग वर्णन
चौपई तब माए लोकांतिक देव । कुसुमोजलि दे कौनी सेव ।। पंचम सुरग है सु विशाल । यह नियोग प्राव ति हिफाल ॥१॥ गग प्रनित्य ताकी सब रीति । वरन सुनाऊ महा पुनीत ।। तुम प्रमु हों जिमुवन के ईवा । शक दिवाकर हो रजनीश ।।२।। प्राणनाथ अविचल गुणवृन्द । अनमो ईस्ति मोल पमंद ।। अगम अघट प्रध्यातम रुप । गिरातीत श्री प्रलस भनूप ।।३।। केवल रूपी करूणाकार । नित्यानंद रहित अविकार ॥ घहि विधि बहु स्तत परकार । श्री जिन माम बरनी सार ॥४॥ जो वह बुद्धि म प्रभु को होइ । जगत बीव निस्तरेइ न कोइ । प्रभु समुझाई गए निज शाम । जब बिनराज महाबक साम |
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वचन कोश
भरत राय को लियो बुलाइ सोध्यौ राज भार समुझाइ ।। सकल देश बांटस तब भए । बाहुबलि पोदनपुर गए || ६ | और सूतनि जो जो चाह्यौं ठोर । बाटि दीयों स्वामी सिरमोर || इतनें अंतर धौर जु देश । चायें प्रभुनें अपर नरेश ||८|| भरय तनी सेवा मनि परे । अशा मंगन कोऊ करी ॥
प्रथम ही चक्रवत भरतेश । सा
बंड छहूनि के देश || ६ || इहि विधि सबकी करि सनमान जोगारूढ होत भगवान || सविकार चित्र विचित्र मानियो । चैत यदि नौमी को जानियों ॥ १० ॥
तामें बैठा श्री जिनचंद | नाभि नरेश घरे निजु कंद ॥
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सात पेंड लौं वे बले । भाव सहित मन श्रति उजले ||११|| सुन सकल अभिरमि से गए नंदन वन प्रभिराम ॥ इंद्रनि कयौ प्रति उद्यव सबै जय जयकार उच्चरे जब || १२०० बट तरवर यहां परम पुनीत । तातरि रिद्धि तजि भए प्रतीत || नमः सिद्धमुख लें उच्चरयो । पंचमुष्ठि लोंच तब करी ।।१३।। मंडे पंच महावत घोर । स्थागी सक्ल परिग्रह जोर ।। मणिमय भाजन में भरि केस 1 क्षीर समुद्र में कार भयौ ।।१४।। पुष्करार्द्ध पर पहुँच्यो जब मोहर गए करते कच सबै ।। भाव द्रव्य ले मघवा गर्यो । पीर समुद्र में डारत भयो ।।१५।। नाषि चिहुरसो तिन पद जाय । संजम वल प्रभु अधिकाय || संजम तें मनपर्यय ज्ञान । प्रभु के हृदय भयौ सुख वांनि ।। १६ ।। मन सहित लघु करत दयाल | तहां वीथी तब किंचित काल ।। प्रगट भई भाप बसु रिद्धि । श्री जिनवर की परम प्रसिद्धि ||१७| अब सुनि पृथक पृथक गुण तास होइ सफल मिष्यामत नास ॥ बुद्धि प्रौषधी बल तप चार रस विक्रिय क्षेत्र किया सार ||१८|| बद्धि प्रौषधी बल ऋद्धि
वामें प्रथम बुद्धि ही रिद्धि । श्रटारह नामें लहों प्रसिद्ध ॥ केवल अवधि जानियो दोय । मनपरजय तीजी मलोय ॥१६॥
बीज चतुर्थम पंचम गोष्ठ । षष्टम संभिन्न श्रोष्टता सोष्ट ॥ सप्तम पादार सारिणी बुद्धि । दूरस परसन अष्टम शुद्ध ||२०||
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
द्वरा रसन नवम बुद्धि जांन । दूरा प्राण दशम वनांन ॥ चतुर्दश पूरब तेरम गती । प्रत्येक बुद्ध चौदह भनी || निर्मित पनि पन्द्रही अनुप । चाद बुद्धि पोज में स्वरूप ||२२|| प्रग्या हेतु सत्रही विचित्र । दश पूर्वा भ्रष्टा पद पवित्र || अदर सबके गुण जुदे । जाके सुनत हो मन मुद्रे ||२३|| केवल रिद्धि कहावै सोइ । जहाँ सर्व दृष्टि जिन होय || तीन लोक प्रतिभासे जेम जल की बूंद हस्त पर एम ॥ २४ ॥ अधि बुद्धि को कारण यहे । गत श्रागत भत्र सात जु क है | बिनि पूछें नहीं अवदास | कहें जब कोऊ पूछे बात । २५।। सोइ अवधि तीन परकार देश परम गरनाभिश देश एक की मानें बात । सो देशावधि नाम विख्यात || २६॥ मानुषोत्र लौं बरने भेद । परमावधि जानें जिषवेद || तीन लोक संबंधी कहै। सर्वावधि ऐसो गुण लहै ||२७|| मनपरजय जब उपज मेद । मन विकार तजि निर्मल शुद्धि || सबके मनकी जानें जीय । जैसी जाके बरसे हीम ||२८|| वाह में दो भेद बखांन । रिजु विपुल भाखें भगवान ॥ सबके मन को सरल स्वभाव । रिजुमति बारे को जु लखाब ||२६| सूषी टेढ़ी सब जानई । विपुलमति ताको मानई ।
बीज बुद्धि जब उदय कराई । पते एक पद श्री जिनराय ॥ पद अनेक की प्रापति होइ । यह वा बुद्धि तनो फल जोइ ॥ एक श्लोक अर्थ पद सुनें । पूरण ग्रन्थ प्रापतें भनें ||३१|| रह्यो न भेद छिपकछु तहां नव जोजन की है विस्तार
कोष्ठ बुद्धि प्रगटत है जहां || बारह जोजन लामो सार ||३२|| वत्ति दल जितक प्रमाण देश देश के नर तहां जान एक ही बेर जो बोलें सबै । पहिचान सब के बच ताँ ।। ३३ ।। संणि श्रष्टता बुद्धि विशेष प्रतक्ष प्रगटैं ऐसे गुण दोषि ।। आदि को एक प्रन्त को एक । पढ ग्रन्थ पद सुर्ती विवेक ||३४||
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वनकोश
हो समस्त भयं को ज्ञान । कंठ पाठ सब ग्रन्थ बखान ॥ एह पादुनासारिता बुद्धि | जिननानी तें पाई सुद्धि ||३५|| गुरु लघु रूक्ष उष्ण जो सीत । ति कटुक चिक्कन रस रीति ॥ माठ प्रकार जिनेश्वर कहें। सपरसन रस इन तें गुप लई || ३६ ॥ द्वीप ढाई से जु अभंग । पर से रिद्ध पनि के प्रांग ॥
इह मरजादा पर उतकिष्ट । जोजन नो तैं गणो कनिष्ट || ३७॥ दूरी परसन बुद्धि प्रतक्ष ॥ चिकनी श्रीर कसेली घरे || ३८
सब गुण जुदे कहन को इच्छ मीठो करुबी भी चरपरी
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रसन भेद ए वर पांच दीप जुगल अर्थ तेलहि सांच ॥ जी कोऊ सब खोलइ तहां । खाद बखाने रिद्धि बल इहां ||३६||
द्वरा रसन बुद्धि बलवंत । जिन श्रागम भाषित धरत ॥ दुर्गंधा अरु परम सुवास । ए नाता के परम विलास ॥। ४० ।। पृथ्वरीति जानें रिद्धिवान यह कहिये बुद्धि द्वरा धाए ॥ रिसभ निषाद गंधार बखांन षडज श्री मध्य धवत जान ॥ ४१ ॥
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पंचम सकल मिले सुर सात सुनि इनके प्रगटन की जात ॥ पुरुष नाभिख रिव भगवान । सुर निषाद नभ गरज प्रमान || ४२ ||
पंचम कंट कोकिला जेम । सप्तम सुर जु उचारे एम ||
कहां कहां प्रगटै सुर सात पत्र शब्द कहिये विख्यात ||४३|| प्रथम शब्द जो चर्म बजंत । दूजा फूंक तीसरी तन्त ॥ चौथी भांझि मजीरा ताल । पंचम जल तरंग को ख्याल । ४४ ।। पूर्व रीति तें दो लखाव । दूरा श्रवन बुद्धि परभाव || श्वेतपीत श्ररु रक्त सुरंग । हरित कृष्ण गुरु चक्षु अंग ||४५ || वाहा भांति दूर ग्यान रिद्धि दुराव भवलोकन जांन ॥ दश पूरव प्ररु ग्यारह भंग । विनुम सकति विध्वाजा भांग || ४६ ॥ रोहिणी आदि पंचसो जांनि । शुलक यादि सातों मांनि ।। ए देवी सब ता हिंग प्राय करें कटाक्ष हाव प्रभाव ||४७|| तिनिको चलचित्त कदा करत भायें न होइ थिर सदा || भयं सकल मुख कहीं विचार । दमपूर्व बुद्धि के अनुसार ||४८ ||
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
जहाँ चतुईया पूरब पढे । ग्यारह अग बिना श्रम बढ़े ॥ बुद्धि चतुर्दश पूरब एह । सोहैं रिर्वत की देह ||४|| संजम भी चरित्र विधान । बिनु उपदेशनि दुनि के पांम ।। दया दमन इन्द्री तप घोर । इह प्रस्मेक बुद्धि को जोर ।।५।। इन्द्र प्रादि को विद्यावान । प्राव बाद करण धरि मान ।। उत्तर प्रथम रहैं सब मनी । इह बल बादि बुद्धि के धनी ॥५१॥ तस्त्व पदारथ संजम संतु । तिनिके सूक्ष्म भेद अनन्त ।। द्वादशांग बानी विनु कहै । प्रग्या बुद्धि होइ गुण लहै ।।२।।
वोहरा
अन्तरीक्ष भीमंग सुर व्यंजन लछिन छिन्न । स्वपन मिलें जब देखिये, माट निमत्तम अन्न |॥५३॥
चौपई
शूर सोम ग्रह नक्षत्र प्रशस्त । तिनिको ग्रहन प्रम न उदय स ।। शुभ प्ररु अशुभ जानत फल तास । प्रतीत अनागत सकल प्रकास ।।४।। वर्तमान जैसो कछु होय । अन्तरीक्ष को वर्णन सोइ ।। निमिस मग पहिलो यह भन्नौ । अन्तरिक्ष कहिये मिर्मलो ॥५५॥ छिपी वस्तु जो भूमि मझार । द्रव्य प्र.दि नाना परकार ।। जथा जुगति सौं देय बताइ । स्वयं बुद्धि पर कौन सहाय ॥५६।। भूमिका फल बरतें जेम । सब विधि वरण सुनावं तेम ।। भूमि भेद कछु गोप्य न रहैं । भूमि ऐसी गुण कहैं ॥५७।। नर सिरपंच अंग प्रत्यंग । तिनिके दरसय परस प्रभंग ।। दुख सुख सब ककन जानह । वैद्यक सामुद्रिक मानइ ॥५॥ करुणाजुत भाष उपचार । सब जग पर उनिको उपगार ॥ लक्षण प्रगट कोप ग्यान । प्रग नाम ऐसो मुरूम जान ।।५।।
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वचन कोश
खग चौपड़ की भाषा जेती । प्रगटे अनि हृदय सौ तेती ॥ तिनितें जो कछु भावी काल । प्रगट बहान्यो दीन दयाल ।। ६१ । सुख दुख को श्रागम यही अब जग सगुण कहा सही || वह निमित्त को चौथो भेद । सुर कहि नाम बनें वेद । १६२ || निलम से श्री लसन है आदि । सामुद्रिक से जुड़े प्रनादि || तिनिके फल को पूरा ज्ञान । व्यंजन अंग तनों गुण जांनि ॥ ६३॥ श्रीवच्छादि लांछण लीक | अष्टोत्तर सो तिनिकों ठीक |
कर पतरत शुभा शुभ जेम लक्षा केवल भाखें तेम ॥ ६४ ॥ वस्त्र शस्त्र उमापति छत्र । श्रासन सेनादिक भरू वस्त्र ॥
राक्षस सुर नर अन्स मंकार ! मूषक कंटक शस्त्र पहार || ६५ ॥ गोमय अर्गानि विनासी होइ । शुभ मी अशुभ तास फल जोइ || प्रगट शंसेनहिन अधिकारी के माहि ।। ६६ ।। सकल पदारथ जो जग रचे । जब वे भाइ स्थपन में पचे ||
तिनिमें प्रगट सुख श्री ताप वरणि सुनायें स्वपन प्रताप ॥६७॥ इह विधि जे श्रष्टांग निमित्त । बरण सुनावें तहां पवित्त ॥
सबकी संसे खायें घोर बुद्धि निमित्त प्रतिग्या जोर ।। ६८ ।।
दोपरा
इह श्रष्टादश गजुल, । बुद्धि रिद्धि गुरण गेह
विमल रूप प्रगटें सदा, भाई तपोधन देह ॥६६॥
इति बुद्धिवर्णनं
प्रथमोषधी रिद्धि वर्णनं
चौपर्ड
अब सुनि रिद्धि प्रौषधी भेद । प्रष्ट प्रकार बसांनी बेद || विदुमल श्रामज्वल शूल मंग | सर्व दृष्टि विष महा प्रभंग ||१||
१०१
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
तिनिकी विष्टा ले गात । सफल रोग को होई निपात ।।२।। निर्मल ममल निरोग पारीर । विट प्रताप यह परम गंभीर ।। दति कान नासा को मैन । देखत रोग सबै महे गैल ।।३।। सकल धातु को होइ कल्याण । मल प्रताप यह ररम गंभीर ।। रोग समावि नम्बा । दाबहार चिता करि सुन्यो ।।४।। हाथ छुवत लावासब छोर । ग्राम पंग की झालीदौर ।। श्रमजल में रख जागे अग । सुख साता दुखहरण प्रभग ।।५।। टलें मसाता लागत देह । जल प्रग है सब सुख गेह ।। लार षषार थू कि ते जानि । व्याधिहरण प्रो धातु कल्यान ।। ६ पूरण कर मना रथ महा । यूल मंग गुण उत्तम काहा ।। परसें मग तो आव ठा। जिनको लग परम सुखदा ।।७॥ हरें प्रताप करें अघ नास । सर्व मग को इह परमास ।। काध्यौ होइ सर्प नै कोई । के काडू विष पीयौ होई ।।८11 दृष्टि पर प्रतापन रहै । दृष्टि मंग ऐसो गुण लहै ।। जो कोऊ नै विधु देव । ध्यान नहीं परम सुख लेइ ॥४।। बचन योग सबको बिस हरै। मंग असन विषं यह गुणधरं ।। सप्पादिक नहि उनिकी याम । करें नहीं मुनि निकट निवास ॥१०॥
दोहरा यह विधि पाठ प्रकार जू, रिद्धि औषधी सार । प्रगट श्री मुनिराज को, तप बल यह निरधार ॥११॥
इप्ति औषध रिद्धि वर्णन
बल ऋद्धि वर्णन
चौपई भव तुम सुनौ रिद्धि बल सार । मन वच काय त्रिविध परकार ।। भिन्न भिन्न गुण तिनि के गहों । ऐसो गुण मागम में लहों ।।१।।
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वचनकोश
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श्रुत मावरमपी कर्म प्रधान । ताफे छय उपशम तें जानि ।। अन्तर महू रत विष समयं । द्वादशांग बानी को अर्थ ।।२।। तिनके मतमें करें विलास । यह कहिये मन बल परकास ॥ द्वादशांग वानी अध्ययन । करत महासुख उपज चैन ।।३।। तिनको कष्ट न होइ लगार । मंग वाक्य बल के अनुसार ।। बानी पठत देह बम नाहीं । पढा मंत्र महरत माहीं ।।४॥ काय प्रखंडित बल की करें। प्रग काम बल यह गुण धरै ॥ प्रतुल प्रखंड बली बलवीर । सौहै जिनको सुभग शरीर ||५|
बोहरा यह बल रिद्धि गंभीर गुरण, प्रगट बस्तांनी देव ! उदय होइ तप जोग तें, यह जिनयानी भेव ॥६॥
अति बल ऋधि वर्णन
सप ऋद्धि वर्णन
चौपई सुनो भव्य प्रब तप ऋद्धि सार । तामें सात अंग निरधार ।। घोर महत औ उग्र बनंत । दीप्त गुण घोर भनत ॥१॥ सागसम ब्रह्मा घोर बलांन । प्रअ तिनके गुण सुनी सुजान ।। महानसान भूति पनि होइ । जोग घर पचि सौं मुनि जोह ।।२।। सबै उपसर्ग धुरघर घोर । याही सें कहिये तप पोर ।। सिंधनि क्रीडित प्रादि उपवास । तिनको करैं सदा अभ्यास ॥३॥ मौन अन्तराय सौ यह पाल । इह कहिये ताप मतिरमाल || बेद काय बसु द्वादश मास । इत्यादिक जे प्रो उपवास ॥४॥ करें निर्वाह योग प्रारूढ । यह तप उम्र तनो गुण मूत ।। करत उपवास घोर बहु भांति । पटै नही देही की कान्ति ॥५॥
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कच्चिर कुलीनन्द व्यास एवं हेमरज
यह कहयें तप दीप्त गंभीर ॥
उपज नहीं दुर्गन्ध शरीर तप्त लोह गोला पर नीर परत ही सू सह नहीं पीर || ६ || लिये प्राहार निहारन जहां । तप्त अंग तप जानों तहां ||
सोचार बिनु सुनि अभिराम । घोर गुण तप माको नाम ॥७३॥ दुषमादिक होइ न तास घोर ब्रह्मचर्यं गुरण भास 11 व्रत शत और पाठ निरवार । तितिके मुनिवर साधन हार ||
बोहरा
तप ऋद्धि के सात गुण मभ्यासे मुनिराज | अनुक्रम तातें जानिये, केवल ज्ञान समाज ॥६॥
X... X.... X X X
pyaa
काष्ठा संघ उत्पत्ति बन
1.14
X............X.... X .... X .... X .... X ..... X ......
X
समोसरण श्री सनमति राय, श्राजखंड परधी सुखदाइ । श्रन्ति समे पायापुर मांनि, पुन्य प्रकृति की गई हानि ॥ १ ॥ सुधि आषाढ़ चौदस के दिनां । थाप्यो जोग सकल मुनि जना ।। पुर को सोम नखें नहि कोई पार न जाइ नदी ज्यों होई ॥१२॥ कालिंग सुदि चोद छात्र ता दिन मुनि चौदिसि धावई || च्यारि भास पूरो भयो योग । देव ठान भाखें सब लोग || ६ || गौतम आदि सकल मुनि चंग । ता तल भयो जोग प्रभु संग ॥ हृतो तडाग तहां शुचि रूप एक कूट ता मध्य अनूष ||४|| तापर निबसे श्री भगवान । हिरदे तुरीय पद सुकल जुध्यांन ॥ कासिम बदि मावस की रीति । चारि घडी जब रह्यो प्रभात ॥१५॥ श्री जिन महावीर तीर्थेश पंचम गति को कियो प्रवेश ।। मुक्ति सिलावर सिद्ध सरूप परमातमा भए चिरूप ||६|| जो नि देखें नेन निहार । कूट नहीं प्रभु प्रतिमा सार ।।
उनि समान सुनि सुधि द्वारि । प्रभु ने किल कियो बिहार ||७||
भटकत डोलें चउदिसि मुनी । गौतम ज्ञान रिद्धि तब सुनी ॥ श्री गौतन मुख वानी खिरी। सब के जिय को संजय हरी ||५||
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वचन कोश
भाए इन्द्र सकल जूरि तहाँ । प्रभु निर्वान ज्ञान मूर्ति जहो ।। feat महीश्री पूरब रीति । मृनि सों कहें इन्द्र घरि प्रीति ||६|| काहे को मुनि जन श्रम करभो । जोग दिसा क्यों सुधि विसरो ।। सिद्ध सिला निवसें भगवान । काहे को तुम चित्त मलान ॥१०॥ जोग दिसा तजि दो रे जती ।। करें कहा प्रव भाष्यो भंग ॥। ११॥३
।
तब मुनि कहें सुनौ सुरपती
माग्या मिटी भयो व्रत भंग
तब सुरपति जिय सोच अपार । प्रावतु है पंचम अनवार ॥ धर्म रहित परमादी जीव बरसेंगे ता काल सदीव ||१२||
I
जो हो इनिसों को प्रकार । पूरी करो जाइ चौमास ||
मति डरयो व्रत मंग जु भयो। तुम प्रभु के हित हो चित्त दय ॥ १३॥ सो पंचम परमादी लोग । संख्या तोरि करेंगे जोग ||
ता ते आज भलो दिन जांनि । श्री गौतम भयो केवल ज्ञांन ।।१४।।
उ करि सब करो बिहार । ज्यों प्रखण्ड व्रत की नहि हार ।। तबसें आहूंठ मास को जोग । पंचम काल घरें मुनि लोग ।।१५।।
बोहरा
वाही निशि भी और को पूर्ज पद निर्वान 1
कथा काष्ट जु संघ की, मार्गे करो बखांन ॥१६॥
इति चतुर्मास भेद लोग वर्णनं
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चौपई
गुप्ता गुप्त माचारज रिष्य 1 भद्रबाहु मुनि तिनि के शिष्य || तिति के पट्ट जु माघनंदि मुनि । ज्यां चरननि में जाइ गुनी ||१७||
उनके पट्टाधीश बखांनि । श्री कुन्दकुन्द श्राचारज जॉन ।। तिनिके पट्ट जु उमास्वाति । जिसतें तत्त्वारथ विख्यात ||१८|| तिनिके पट्ट लोहाचारज भए । जिन काष्ठासंघ निरमये ॥ आचारज विद्या भण्डार । साक्षात खारद श्रवतार ॥१६॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एव हेमराज
तिनके तन क्य उपज्यो रोग । प्राय बन्यो भरवाको जोग 11 वाय पित्त कफ घेरी देह । भव श्रीगुरु धरि नेह ||२०|| ह्रदयाल दीनों संन्यास । जन जीवन की रही न स ।। पुन्य प्रभाव बेदनी घटी । व्याश्री सकल मुनिवर से हटी ||२१|| क्षुधा पिपासाश्यापी भंग । विनती जु गुरु सो चंग ॥
टली साता श्रायु प्रताप । श्रव कीजें जो प्राज्ञा भाव ||१२|| श्रीगुरु कहें तब भाग्या आन । करि संन्यास मरण बुद्धिमान || ज्यों श्रागे परमादी जीव । प्रतिपालें जो व्रत जोग मदी ।। २३ ।। लोहाचारज घरी न कोन कियो बाहार प्रश्न रुपांन ॥
निवास और अनुसरे ॥ २४|| सोहाचारज सोच बिचार | गुरु तत्रि कीयो देश बिहार ।। संवत पन सात से सात विक्रमराय तनौ विख्यात ॥ ६५०० आए चले नंदीवर ग्राम जाकतें है अगरोहा नाम ॥
वापुर अगरवाल सव बसें । धनकरि सब लोकनि को हमें || २६ ॥ परमत की जिनकें अधिकार और धर्म को ग न सार ॥
अब उनिकि उतपत्ति सांभलें । मत मिथ्यात सकल दल भली ॥२७॥ अगर नाम रिय हैं तप धनी । वनवासी माता वा मनि ॥ एक दिवस बैठें घरि ध्यान । नारी शब्द परयो तब कांन ||२८|| मधुर वचन और ललित यपार | मानों कोकिला कंठ उचार || छूट गमौ रिष ध्यान अनूप | लागे निरिखन नारी रूप ॥२९॥ व्याप्यो काम धीर नहीं घरें । त्रिय प्रति तब बोलन अनुसरं ॥ तब बोली नारी वह जान । नाग तनी मोहि कन्या जान ||३०॥ जो तुम काम सताये देव । जाच्यो मम पिता को करि सेव || निरख वरन न धरि है मांन तुरत करेंगो कन्या दान ||३१|| सुनत वचन उठि ठाडे भए । तत्क्षन नाग लोक को गए || नाम निरित्र तपस्वी भवतार कोनों श्रादर भाव प्रपार ||३२|| तब ऋषिराय प्रार्थना करी । तत्र कन्या हमि जिय में बरी || अब तुम हमें करि दांग ज्यों संतोषु लर्हे मम प्रांत ॥३३॥
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वचन-कोश
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माग दई तब कन्यां बांहि । कर गहि प्रगर ले गए ताहि ।। साके मृत अष्टादश भए । गर्ग प्रादि सुतमें वरनए ।।३४।। तिनिको बंश बघौ घसराल । ते सब कहिये अगरवाल ।। उनि के सब अष्टादश गोत । भए रिषि सुत नाम के उदोत 1॥३५ तिनिके सुन्यों एक प्रायो भुनी ! पुरु के निकट वह उतरनो गुनी ॥ भिक्षुक जांनि सकल जन नाए । भोजन हेत धिन यवत भए ॥३६।। तव मुनि कहं सुनी धरि प्रीश। हन तारमीन कोरीति ।। जो कोऊ श्रावक घमं कराइ । मिश्यामत जाकौं न सुहाइ ।।३७।। सो पपने घरि आदर करें । ले करि जाय दशा तब घरै ।।
और नेह नहीं प्राहार । यह हम रीति सुनी निर्धार ॥३८।। तब पुर जन जिय विसभय भई । यह करा। मुनि यायो दई ।। जो न देइ हम जाहिं पाहार । तो प्रावै हमरे पन हार ।।६।। कछुक लांग तब जैनी भए । श्री मुनिराज चरन प्राट् नए || धर्म समझि लेहि गुरु उपदेश । तब गुरु जुः क्रियो नगर प्रवेश ॥४०॥ दयौ भली विधि मुनि थाहार । ग्रानंद उछव करें अपार ।। यह चिन्नि प्रतिनीधे विरूपात । श्री मुनी अगरवाल सौ सात ।।४१॥ तब जिन भवन रच्या बहु चंग । रची काष्ट प्रतिमा मन रंग ।। पूजा पाठ बनाए और । गुरु विरोधि हित कीनि दोर ॥४२।। चली बात चलि पाई तहां । उमा स्वामि भट्टारक जहाँ । मुनि जिम चिन्ता भई अगाध । करी काठ की नई उपाधि ।।४३६५ भली भई परमत किये जैन । सुनत बात उपज्यो उर चैन ।। चलि पाये तहां श्री मुनिराइ । नंदीपुर बर जैनसमाइ ॥४४॥ प्रावत सुनी श्री निज गुफ भले । प्राय हों न प्राचारज चले ॥ जीने सकल नबर जन संग । वाजत अनि बाजे मन रंग ।।४।। निरिखि मुनी तब पकरे पाह । ग्रानंद बढयो म अंग समाइ १३ तब मुनिराज दई प्रासीस । लयो उटाइ चरन ते सीस ॥४६॥ तब पुरजन सब बंदन करें । उमास्वामि घमं वृद्धि उच्चरें ।। भगोनी करि लाए गांम । राजतु हैं जहाँ जिनवर धाम ।।४।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
जो है हम गुरु को सीख तो हम लेही या पुर चरी ।
भोजन हित विनती सब करें। तब श्री गुरु मुख तें उचरें ।। और प्राचारज मानं सीख ||४८ || तब भाचारज बिनती करां ।।
भाग्या होड़ करौ सोह नाथ । भयो हमारो जनम सनाथ ॥४६॥
मुनि
नियत में गए म सपूत ॥
परमत मंजन पोखन जैन
I
धर्म बढायो जीलो मैन ||३०|
वही सीख हमरे करि घरयो । काल न्नी प्रति इति करो!"
भंग भंग नहि जिन गुन लहें ॥ ५१ ॥ लेख किये सदोष यह नांनि ॥
भाषें गुरु सौं वचन निदांन ॥ ५२ ॥
अग्नि जरावे धन जिह दहें जल ढारें चंचल तसु छांन । तब प्राचारण करी प्रमान पाठन फेरो दीन दयाल 1 कर पीछी सुरही के बाल ।। गुरु मानी वाढघो प्रतिरंग | जेड न उठें शिष्य गुरु संग || ५३ || तब तँ काष्ठासंघ परवरची । मूलसंघ न्यारो विस्तरयाँ ||
एक चना की है दारि त्यों ए दोऊ संघ विचार || १४ ||
जैन बहिर्मुख फोक नाहि । नाम भेद श्रीसें गुरु माहि ॥ तातें भव्य आन्ति जिय तज । मन वच तन म्रालम हैं भजो ३५
दोहरा
को काष्ठासंध को भेद सकल निरधार ।
गुरु प्रसाद प्रागे फहों, पंच स्तवन विचार ।। ५६ ।। इति काष्ठा संघ उतपत्ति वन
सवाल जाति उपसि इतिहास
चोपई
श्री जिनदेव ऋषभ महाराज | 'जब बांटघरै सब महि को राज | अवधपुरी दई मरथ नरेश | बाहुबलि पोदनपुर देश ॥३१ ।। दीपो अभिराम ॥
और सुनत मांग्यो ठमि । श्रीप्रभु कुंवर फिजित बाट नरेश चलि प्राए जहाँ जैसलमेर ||२||
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वचन कोश
वें मण्डल को साधें राज 1 सुख साता में सबै समाज ॥ तिनको बंश पो खसराल । जैन धर्म पाले महिपाल ||३|| उनके बंध नृपति एक जान तिनि कीयो परमत सो प्रनि ॥ जनमत की छोटी सब रीति । कल्पित मत सो बाधी प्रीति ॥ शुभ कर्म घंटे घटि गयो प्रताप । श्रवनीमंद फले सब पाप ।। और इकदिन चढ़ाई कौन | गयो देश या में ते क्षीन ।। पर जाकर गखें........ ठौर भ्रष्ट भए देश सिरमौर 11 राज भृष्ट कृषि भादरी । कोल वनिज को चाकरि ||६|| इहि विधि रहित गयो बहुकाल । छूटि गयी जिनमत की चाल ।। महावीर प्रभु प्रकटय ज्ञान । रची सभा श्रमांन॥७॥ सकल सुरासुर पुन्न प्रचण्ड । ताहि ले फिरें धारणा खंड ॥ खंड सकल परस्पोंचो फेर चलि प्राए जहाँ जैबलमेर प्रायो समोसरण दन मांहि । सम ऋतु वृष्य सफलाई ॥ बनमाली राजा में पाय प्रभु आगमन को समुझाय ॥१॥ सुनि राजा चल्दो चन्दन हेतु मान रहित पुर लोक समेत 1 प्रथम नमें श्री जिनवर राय । फिर नर कोठे बैठे जाइ ॥११०॥ पूछत भए श्री प्रभु को बात । जे ए बात वंश त्रिख्यात ।। रहों कृपा करि सुर महाराज । पट्यो क्यों हमतें मुविराज ॥ तब बोले गौतम बल राइ | जैन त्यागो रे भाइ ॥
दुख कर्म ।। १२ ।।
जो वह फेरि मादरो धर्म । बिहर जाइ तुम तत्र करि और जथारथ सार । धर्मं लयो जन वारि हजार || बाचा बंध सबनि मिलि गरयो । जिनथर जैन धर्म प्रादरची ॥१३॥ तिनही सों भ्रपतो व्योहार खोम पनि अरु सगपन सार ।। इनि तजि औरजु को मादरें । तर्जे ताहि दोष सिर परें || १४ || यह ठहराव धर्म ले फिरि । सब भए पुर जैसलमेप ।
I
समोर भयो पंच महार । मगध देश राज गृह सार ॥ वें सब बेसबाल प्रतिपाल । खोयी जर मिष्य साल ॥
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रौ नगर जिन द्यालय चंग। जिन पूजन तहा करें अभंग ||१६||
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज.
देई पतुर्विध संघहिं दान । निसि दिन शनि गों में पुरान 11 पालिद गेह हुते जे लोग । तिनिके नाना विध के भोग ।।१७।। सब के अटल नजि घर भई । सकल त्याग बनिज बुधि राई ।। या अन्तर एक प्रांवक धान । कन्वा रूप भई अभिराम ॥१८॥ तास रूप की सब पुर दास नप जिम उपजी व्यानि बात ॥ पठयी दूत कायो हम देहु । कन्यां दान तनो फल एऊ ।।१६।। सुनत सबनि के विसमय भई । कौन बुद्धि राजा यह गई। पंच सकल जुर करि पाइयो । अब हम जन धर्म प्रत लयौ ॥२०॥ प्रपर जाति सो रह्यो न काज । खान पान अक्ष सगफन साज ।। दूत कहो राजा सों बाइ । हठ किए बिसमय अधिकाई ।। सुनि राजा कहि पय्यो फेरि । तो तुम त्यागो जैसलमेर ।। जहां लहों न लगी मेरी प्रांन । रजा ऐसी कही निदान ।।२२।। तब वे सकल चले तजि ठाम । जैन मती जिन से अभिराम ॥ जिहिं पुर पाइ संथ यह परें निरिनि सबै कोज पूछन करें ।।२३।। कौन देश ते आयौ संघ । कौन जाति फही कारण चंग ॥ उत्तर देई सबै गुणमाल । बंधा इक्ष्वाक जेसवाल ।।२४॥ जेसवाल तब ही त जान । जेसवाल काहित परवान ।। चले चले आये सब जहाँ । हुती तिह गिरी नगरी जहाँ ।।२५।। ता पुर हुतो निकट यन चंग । उत्तरयो तहाँ जाइ वह संघ ।। पायें यह जहाँ चासुरमास । सफल संघ कहा कियो निवास ॥२६।। बीते रहाइ दिन जबे । वन त्रीड़ा नप निकस्यो तबै ।। कटक दृष्टि नप के जब परयो । सबनि कों पूछन्न अनुसऱ्या ॥२७॥ का को कटक कौन पाइयो । प्रा वन तू पूछाइयो ।। कहें मन्त्री ए जेसवाल । सनि लियो मत जैन रसाल ।।२६।। नप कन्यां न :ई याह । दई नहीं रूस्यो नर माह ।। निज पुर ते ए दये निकार । चलि पाये या देश मझारि ।।२६।। चातुर्मास प्राबड़ो पाइयो । नाद बहि तन छाइयो || राजा कहें सुमो परान । क्यों न मिलि हैं हम को मान ॥३०॥
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बचन कोश
सचिव कहें हमें गर्व अपार । याही त नप ए दीए निकार ॥ सुनि राजा कर भूगि धर्यो । मन में रोस संघ पर कर्यो ।।३।। मुख ते कळू न पारी उचार । प्राए महीपति नगर मभार ।। माप तने कछु बालक वंग । क्रीडित हुते तहां मनि रंग ।।३२।। निनि में हुतो एक बुधियान । नप चरिन सब वह पहिचान ।।
लि अायो मिस मंग मझार । बैठो जहाँ सकल परिवार ।।३।। बालक भवनों भाषी बात । नप की बेगि मिलो तुम तात ।। नहीं तो मान भंग तुम होय । सत्य घचन मांनी सब कोई ॥३४॥ सब सब बहकर उठे अकुलाइ । चलो जाइ देखें पुर राइ॥ मनि मानिक मुक्ता फल भले । राजा भेट काज ले चले ॥३५।। पहुँचे जाइ नपति के द्वार । भेट घरी अरु करयो जुहार ।। राजा पुबै ए को हैत । जिनि में प्रौल तनो उद्दत ॥३६।। सचिव कहें ए सब सुना भूपाल । हम चित नही सर्व को साल ।।
प प्रनीत त्यागे निज देश । चलि पाए तुव धारण नरेश |1३७|| करी हुती जहाँ जिय में चिंत । बीतें भादव वरत पुनीत ।। देखें जाइ चरण प्रमु तनौं । प्रौर मनोरथ चित के भनौ ।।३।। मांगि लेक कछु भूमि विसाल । तहाँ बसें हम अंसवाल !! अब जब सुनि राय रीस धरी । तब हम प्राइभेट अब करी ॥३६॥ तब तुप निय विसमय अधिकाइ । मैं निज रीस काहू न जताइ ।। तुम क्यों जान्यो मेरो क्रोध । मिनु भा किहि विधि भयो बोष ॥४०॥ तब सब मिलि नृप सों विनए । जा दिन तुम प्रमु क्रीडा बन गए। पूछी सकल हमारी बात | सचिव कही जैसी इह तातं ।।४१॥ तहां एक बालक हमरो हुतौ । बुधियान क्रीडा संजुतो ॥ तिनि सब बात कही समझाम । बेगि मिली तुम नृप को जाइ ।।४।। क्रोध किये हम ऊपरि चित्त । मैं भाषी सब सों सब सत्ति ।। पा पर हम जिम में बहु सके । आप मिलिम महा भय थके ।।४३॥ सुनि करि तब बोस्यो क्षिति पाल । वेगि बुलायो अपनो बाल ।। जिनि मम जिय को पाई बात । पूलों बोघ तनो अवदात ॥४४॥
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कविवर बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज
तब उन वालक दयो बुलाब । रूप निरिख नृप मानन्द पाय || पूर्व महिपति सुनि रे बाल । ते क्यों जानों मम उरसाल ||४५ ।। बालक कहें उभय करि जोरि । अब प्रभु निज कर मूंछ मरोरि | कोष विना मूंछ नहीं हाथि । यायें हम जान सके नरनाथ ।। ४६ । । सुनि राजा परिफुल्लित भयो । कर गहि कंट लागि शिशु लयो || भादर सहित दिवाए खान । बिदा दई राख्यो बहु मान ॥ १४७॥ ॥ रहिने को दयौ पुर में ठांम । मन्दिर तहाँ सुभग प्रभिराम ॥ बसे प्रानि जब वीत्यो जोग । करें तहां बहु विधि के भोग ४८|| नृप पठयो एक दूत सुजान । जेसवाल सुतौ बुधिवान || मम जियम ऐसी बालकको भन
तकों देकं सुता मम तनी सेवा करों बहु तुम तनी ॥
सुनस बात बोले सब लोग
जो हम ऐसो करते काज
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यह तो छोइ न कोई जोग ||५०१ जैसलमेर न तजसे श्राज ॥
बात सुनत नृप रिस हो । पकरि मगायो बालक सोइ ॥ ५१ ॥ fra कन्या दीनी परनाइ । क न काहू तो न बसाइ ॥
बालक नूप प्रनीति पहिचानि । छोड़ि दियो भोजन ग्रह पानी ॥५२॥ मात पिला देखों जब नैन | तब ही मो जिय उपजै चैन ॥
नहीं तो प्रश्न तर्जी निसन्देह | कोंन काज मेरो नृप गेह ||५३|| सब नृप जिय सोच अपार । बाल करें प्रपजस सिर नाइ || तब बालक को सब परिवार । गढ़ लाए वाही परकार ||४४ और हितू जे हे उनि तने । तेऊ जाइ बसे गढ़ घने || वर हजार द्व नीचे रहें। जिन गुरु वचन प्रेम सों गर्हे ॥५५॥१
तिनि सब मिलि यह ठहराव में
कोक हमरी उनिकें नहीं जा
गुरु वचननि की छाँडी टेक धनु मरु जीवन सब निजी तातें अब हम सों नहि खेल । गुरु वचननि कोए सीसु खेल |
इह विधि स्यों गयो काल वितीत राज काल कियो अनचित || १८ |
विसों अब परम प्रभाव ।।
।
उनिको ह्यां कोऊ धरे ने पाइ ॥१६॥ कहा भयो बालक गर्यो एक ॥।
धर्म तनौ मलि होइ प्रभाव ||१७||
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वचन कोश
यह मन्त्रिनि मिलिकीयो काज थाप्पी जन पद सिर राज || जब वह भयो पहुमि को राइ । निजनि कु सब लियोबुलाइ ॥५६॥ वकोश देश बांधि के दयो । प्राप तिहून नगर राजा भयो । वामन कुल मोहित पापियो । तो में पत्र तिर्ने लखि दयो । ६० ॥ कोई बाभन को सोइ ॥
रूपे के रूपया सो पचि । एक अधिक नहीं तामें बांच ॥ ६१ ॥ तब इनमें ग्राी बात । बिद्धुरि कछु हमतें जात || एकाकी जिए साहि मनाइ । जाति मिलें आनन्द अधिका६ ||६२ । । आए गढ़ नीचें सागार || सकल पंच तहा लए बुलाइ ||६३|| सोई करो जो हो इक साथ ॥
बस चूक जु हम में परी
I
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बडो सोइ जो चित्त न धरी || ६४ || दुविधा मनतें करो विलीन ||
अब सब बरतो पूरब रीति ।
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तब सब पंचनि कियो विचार कीजे नहि नृप मान प्रहार ||६५ ॥ विनती करी राय सों सवें । श्राग्वा देहु अब हम तबै ॥ व्याहु काज नहीं नरेश 1 हट करो तो तज है देा ॥ १६६ ।। तब मन में सौचियो नरेन्द्र । हठ के किये नहीं प्रानन्द || मानि बात नूर गढ़ में गये। जैसवान दो विधि सब भये ॥६७॥ उपरोतिया जु गढ़ पर रहें। तिरोतिया जे नीचे कहें ॥
तब नृप सहित सकल परिवार बैठे जिनमन्दिर नृप आह्नि विनती करी जोरि के हाथ
काज समें उपज्यों यह नाम : बोलि पठाचे इहि विधि घांम ॥ ६८ ।। उपरोंतिया थये गुरु देव । काष्ठा संध करें तसु सेव || मूल संघ गुरु परम पुनीत । तरोंतिया उर तिनिकी प्रीति ।। ६६|| हि विधि बीत गयो कबु काल । राजा परचो जाइ जम जाल | राजधनी भयो पोरें भाथ | तिहिनपाल नाम कवाइ ॥७०॥ तिनि सब जैसावाल सु वंश । तहाते काटि दिए प्रवतंस || या अन्तर उपजी एक भली । जम्बू स्वामि अन्त केवली || ७१ ॥ मथुरा नगर निकट उद्यान । तहाँ प्रगटच प्रभु केवल शान ॥ तावत सबर्कों खग लो । जुरि श्राये मथुरा यन सोइ ||७२ || छोटि तिहुवन गिरि उठि घाइयो । जेसवाल बाल मानियो । प्रभु दरसन लइए नवि दंड । दुरमति करि मारि लत खण्ड || ७३||
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज जम्बू स्वामी भयो निरपान । पाई पंचमगति भगवान ॥ जेसका रो-हिर गयो :म | कारज गाम गोत परनए । इह विधि ओसाल बरनए ।। उपरोतिया गोत छतीस । तिरोंतिया गनि छह चालीस ॥७५।।
दोहरा जसवाल कुल बरनयो, जिहि विधि उतपति तास ॥ अब कवि अपने नाम को, कर बिवर परगास ।।७।।
कषि प्रशस्ति
चौपई समिः लिनि में एक नाति । गमन सुन्न जानि ।। रामाखेरा को चउघरी । अर्गलपु : की प्रानु जु बरी १७६॥ ताके पांच पुत्र मभिराम । अनुज लालमब तसु नाम ।। ता सुत हीय प्रीति जिनचन्द । सब कोऊ कहै बुलाखीचन्द ७७।। तासु हिरदे उपजी यह प्रांनि । कीजे क्यों जिन कथा बखान ।। वृन्दावन सागरमल मित्र । जिनधर्मी ग्रह परम पवित्र ७८|| तिनिकी की प्राज्ञा ले सिर धरी । बचनकोग की रचना करी ।। भाषा ग्रन्थ भयो प्रति मलो। वचनकोश नाम जु उजलो ।।७।। बिमस तासु पढ़त मिथ्यात । सांची लगे न परमत बात ।। क्षयोपशम को कारण यही । वचन कोस प्रगटयो यह महीं ।।८।। श्रवन करें रूचिसो नर नारि । लक्ष्मी होइ सुभग निरधार ॥ लक्ष्मी होइन राम पाकुली । याकै पहें होह मति भलो ॥५॥ जिनवानी की कीरति घनी । कहाँ लौ वरनि सके नहीं मुनि ॥ सुनें तासु न पावें पार : मॉनि सकति जु बुधि बल सार ।।२।।
बोहरा संवत सत्रह से बरस, ऊपरि सप्त रु तीस । गंगास अंधेरी मष्टमी, बार वरनक नीस ||३||
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वचनकोश
वर्तमानपुर नगरी सुभग, तहां बुद्धि को जोस । रकयो बुसाखीचन्द ने, भाषा वचन जु कोश ।।४।। मुनी पढे जो प्रीति सों, मूकाह लेइ सम्हारि । लघु दीरप तुक छन्द को, छमियो चतुर विचारि ।।८।।
इति वमन कोष भाषा खुलाखीचन्द ओसवाल त निरी सम्पूर्ण समाप्तं ।। अम्बर १८५२ मा नेत्र हो ।
भृगु कापावे।
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कविवर बुलाकीदास
कविवर मुलाकीदास इस भाग के दूसरे कवि हैं जिनका यहाँ परिचय दिया जा रहा है । वे अपने समय के ऐसे कवि थे जिनकी कृतियां समाज में अत्यधिक लोकप्रिय बनी रही। राजस्थान के जैन ग्रन्यालयों में उनके पाण्डवपुराण की पचासों पांडु लिपियां संग्रहीत हैं कान्य सर्जना की प्रेरणा उन्हें अपनी नाता से प्राप्त हुई थी। से कवि का पूरा परिवार ही साहित्मिक रुचि वाला था 1 बुलाकीदास के समय में प्रागरा नगर कवियों का केन्द्र था। समाज द्वारा उस समय काव्य रचना करने बालों का खूब सम्मान किया जाता था। लाखोचन्द, हेमराज एवं स्वयं बुलाकोवास सभी के लिए पागरा नगर साहित्यिक केन्द्र था।
बुलाकीवास गोयल गोत्रीय अग्रवाल जैन थे । कसावर उनका बैंक था। उनका मूल स्थान बयाना था । सर्वत् १७४.५ में रचित अपनी प्रथम कृति प्रश्नो. तर श्रावकाचार में कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है
दोहरा अगरवाल सुभ ज्ञात है, श्रावक कुल उत्पत्ति । पेमचन्द नामी भलो, देहि दान बहुनित्त ।।१३।। धार व्योंक कसावरी, दया धर्म की खांनि ।। जैन वचन हिरदै धरै, पेमचन्द्र सुरभान ॥१४।। प्रगंज ताको कंज छवि, अवनदास परवीन । ताक पुत्त सपुत्र है, नन्दलाल सुखलीन ॥१५॥ नन्दलाल सुभ ललित तन, सेवत निज गुरुदेव ।। सकल ऋद्धि ताके निकट, भावत है स्वयमेव ।।१६।।
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कविवर बुलाकीदास
मन्दलाल गृह मेहिनी, जैनुलवे समनाम् । ते दोक सुखस्यौ रमै, ज्यौं रुकमनि अरु स्याम ॥१॥ धर्मपत्र तिनके भयो मूलचन सुभ नाम । तिहि जनुलदे यो चहै, ज्यो प्रानी उरप्रान ।
लेकिन इसी परिचय को प्रश्नोसर श्रावकाचार के सात वर्ष पश्चात् निबद्ध पाण्डव पुराण में निम्न प्रकार दिया है
नगर बानबरनम, मध्य देपा विज्यान ! बारु चरन जह् प्राचर च्यारि वर्ण बहूं भांति ॥२४।। जहां न कोऊ दालदी, सब दीसे धनवान । जप तप पूजा दान विधि, मानहिं जिनवर प्रान ।।२।। वैश्य वंश पुरुदेव नै, जो थाप्यौ अभिराम । तिसही वंस तहां अवतरची, साहु अमरसी नाम ॥२६॥ अगरवाल सुभ जाति है, श्रावक कुल परवान ।। गोयल गोत सिरोमनी, न्योक कसावर जान ॥२७॥ धर्भ रसीसी अमरसी, लछिमी को प्रावास ।। नपगम जाको प्रादरे, श्रीजिनन्द को दास ॥२८॥ पेमचन्य ताको तनुज, सकल धर्म को धाम ।। ताको पुत्र सपुष है, श्रवनवास अभिराम ।।२६।। उतन सयानी छोडि सो, नगर प्रागरे माय । प्रन्न पान संयोगत, निदस्यौ सदन रचाय ।।३।। बुधि निवास सो जानिए, अवन चरन को दास । सत्य वचन के जोग सौं, वरने नो निधि तास ।।३।। गनिए सरिता सील की, वनिता ताके गेह । नाम अनम्धी तास को, मानौं रति की देह ॥३२॥ उपज्यौ ताके उदर त, नन्दलाल गुन वृन्द । दिन दिन तन पातुर्यता, बदै दोज ज्यों चन्द ॥३३॥ मात पिता सो पढन को, भेज दिधो चटसाल । सब विद्या सिन सीखि के, धारी उर गुनमाल ।।३४।।
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हेमराज पंडित यसै, तिसी आगरे ठाइ ।
गरस गोत गुन भागली, सब पूजे तिस पाइ ॥३५॥
जिन भागम अनुसार तँ भाषा प्रवचनसार ।
पंच अस्तिकाया अपर, कीर्ने सुगम विश्वार ||३६||
कविवर बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज
पार्क
ल रूप दोनी विद्या जनक ने कीनी प्रति विपन्न | पंडित जाये सीखिलं, घरनी तल मैं धन्न ॥ ३८॥ सर्वया सुगुन की खानि कि सुत की यांनि,
सुभ कीरति की दांनि अपकीरति कृपान है । स्वारथ विधनि परमारब की राजधानी,
रमा की रानी कियो अनि जिनवानी है ।
|
आगलो, श्रीति नीति की पांति ||३७||
घरम घरनि भव भरम हरिनि किधौ,
हेम सौ उपनि सील सागर
असरनि सर्शन कि जननि जहांन है । रसनि
अनि दुरित दरनि सुर सरिता समान है ||३६||
पूरन पुण्य फल भोगवे मल्पबुबि तिनक भयो; तहि जैनुल दे यो चहे अन्नोदक सम्बन्ध तं भात पुत्र तिष्टे सही,
दोहरा हेमराज ताहां जानि के, नन्दलाल गुल खांनि । वय समान वर देखि ही, पनिग्रहस्य विषि यानि ॥ ४० ॥ तब सासू ने प्रीति सो मोतिन चौक पुराय ॥ लीनी गृह सुभ नाम घरि, जैनुलदे इंहि भाइ ॥ १४१ ॥ नारि पुरुष सुख सौ रमैं, घारे अन्दर प्रेम |
जय सलोचनां जेम ||४२|| बूलचन्द सुख खानि । ज्यों प्रानी निज प्रान ॥ ४३ ॥ भाइ इन्द्रपथ यानि । भर्न सुने जिनवानि ॥४४॥
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P
कविवर बुलाकीदास
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इस प्रकार कवि ने अपना वंश परिचय बहुत ही उसम शब्दों में दिया है । पाण्डव पुराण में कवि ने अपना वंश परिचय साहु समरसी के नाम से प्रारम्भ किया है जबकि प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में साहु अमरसी के पुत्र पेमचन्द से प्रारम्भ किया है । दोनों ग्रन्थों के आधार पर कवि का निम्न प्रकार वंश वृक्ष ठहरता है
( १ ) प्रश्नोतर श्रावकाचार
पेमचन्द
।
श्रवनदाम
1
नन्दलाल - परिन जैनुलदे
'
मूलचन्द प्रपर नाम बुलाकीदास
(२) पाण्डवपुराण
साहु ममरसी
1
पेमचन्द
F
भवनदास - प्रनन्दी पनि
I
नन्दलाल जैनी पनि
T
बूलचन्द मपर नाम बुलाकीदास
इस प्रकार दोनों कृतियों में से पाण्डवपुराण में कवि ने अपने पूर्वजों में साहु समरसी का नाम एवं बुलाकीदास के पितामह भवनवास की परिन का नाम का विशेष उल्लेख किया हैं । शेष नाम समान हैं ।
बुलाकीदास के पूर्वज साहू अमरसी नयाना में रहते थे। उस समय माना प्रदेश का था। वहाँ चारों ही वर्णं वाले रहते थे सभी सम्पन्न दिखायी देते
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
पे । उनमें से दरिद्री कोई नहीं था । जैन परिवार पच्छी संख्या में ये जो जप, तप पूजा एवं दान मारों ही क्रियायें करने वाले थे। इन्ही जनों में साहु अमरसी ये यो वैश्य वंश में उत्पन्न हुए थे जिसे प्रथम तीर्थकर पुरुदेव ने स्थापित किया था । वे अग्रवाल थे गोयल का गोत्र था । तया कसावर' उनका न्यौंक था। अमरसो धर्मात्मा थे तथा जिनके घर में लक्ष्मी का वास था । तत्कालीन राजा महाराजा भी साह अमरसी का सम्मान करते थे । विशाल वैभव सम्पन्न होते हुए भी जिनेन्द्र भगवान के वे दृढ़ भक्त थे ।
साह अमरको के पुत्र का नाम पेमचन्द था। वह सुपुत्र था तथा अनेक गुणों की खान था। उसका जीवन पूर्णत: धार्मिक था । पेमचन्च के पुत्र श्रवनदास थे । भवनदास अपने पूर्वजों का नगर बयाना छोड़कर भागरा प्राकर रहने लगे। अपनी जन्मभूमि छोड़ने का मुख्य कारण प्राजीविका उपाजन था इसलिए बुलाकीदास मे "अन्नपान संयोग है" निसागरबसने के साथ ही उन्होंने यहां अपना मकान ( सदन ) भी बना लिया था। श्रवमनास बुद्धिमान थे तथा भगवान जिनेन्द्र देव के भक्त थे । वे पूर्णतः रात्य भाषी थे इसलिए सभी ऋद्धियां उनके घर में व्याप्त थी । उनकी पत्नि जिभका नाम प्रनन्दी या प्रत्याधिक मुन्दर तो थी ही साथ में शील की खान ची। उन दोनों के पुत्र का नाम मरवलाल था जो गुगों का मानों समह ही था । कुछ बडा होने पर माता पिता ने उसे पढ़ने चटसाल भेज दिया । वहां उसने सभी विद्याए पढ ली ।
उसी अागरा नगर में पंडित हेमगज रहते थे। वे गर्ग गोत्रीय अग्रवाल जन थे। सारा नगर उनके चरणों का दास था । हेमराज ने उस समय तक 'प्रवचनसार एवं "पंचास्तिकाय' जैसे कठिन ग्रन्थों का हिन्दी भाषानुवाद कर दिया था । उसके घर में एक पुत्री सैनी ने जन्म लिया जो रूप एवं झील की खान भी । जनी को उसके पिता हेमराज ने खुब पळाया और प्रत्यधिक व्युत्पन्न कर दिया। हेमराज ने नन्दलाल को उचित वर जान कर उसके साथ अपनी पुत्री जैनी का विवाह कर दिया । दोनों समान वय के थे । फिर क्या था चारों और प्रसन्नता छा गयी और जब जैनी ने वधू के रूप में अपने श्वसुर धवनदास के घर में प्रवेश किया तो उसकी परिन (सास) ने मोतियों का चौक पूरा। गृहप्रवेश के अवसर पर उसका नाम जैनुलदे रखा गया ।
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कविवर बुलाकीदास
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नन्दलाल एवं जैनुलदे पति पत्नि के रूप में सुख से रहने लगे। दोनों में प्रत्यधिक प्रेम था तथा वे जयकुमार सुलोचना के रूप में सर्वथा विस्यात थे । प्रश्नोसर श्रावकाचार में इन्हें रुकमरिण और श्याम के रूप में लिखा है। उन्हीं के पुत्र के रूप में बुलचन्द ने जन्म लिया जो अपनी माता के लिए प्राणों से भी प्यारा था । कविवर बुलाकीदास का बचपन में बूलचन्द ही नाम था ।
बूलचन्द बड़े हुए । प्राजीविका के लिए भागरा से इन्द्रप्रस्थ (देहली) आ गये मौर जहानाबाद रहने लगे । उनकी माता जैनुल भी अपने पुत्र के साथ ही देहली पाकर रहने लगी। वहां माता ६, पुत्र दोनों ही रहने लगे। ऐसा लगता है कवि के पिता का जल्दी ही स्वर्गवास हो गया था । पपने पुत्र के साथ जैनी का प्रकला पाने का मर्थ भी यही लगता है । वहीं पं० अरुणरत्न रहते थे जो सभी शास्त्रों में प्रवीण में । संस्कृत प्राकृत के दे अच्छे विद्वान थे । वे ग्वालियर ( गोपाचन ) के रहने वाले के | बुलाकीदास ने देहली में उन्हीं के पास अन्पों का विशेष ज्ञान प्राप्त किया था।
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बुलाकीदास संस्कृत के अध्ये ज्ञाता थे। उन्होंने विवाह किया अथवा नहीं। इसके बारे में दोनों ही कृतियां मौन हैं । क्योंकि यदि उनका विवाह होता तो पलि का परिचय भी अवश्य दिया जाता। वे सम्भवतः पविवाहित हो रहे होंगे। प्रथम रचना
खुलाकीदास ने सर्व प्रथम 'प्रश्नोत्तर श्रावकाचार' का हिन्दी में पद्यानुवाद किया । प्रश्नोत्तर श्रावकाचार मूल संस्कृत भाषा में निबद्ध है जो भट्टारक सकलकीति की रचना है पद्यानुवाद करने के लिए कवि की माता जैनुलदै ने इच्छा व्यक्त की थी।
सब सुख देके यों कही, सुनो पुत्र सुभ बात । प्रश्नोत्तर सुभ पन्ध की, भाषा करह विख्यात ।।२२।।
१. बहु हेत करि सम ने यो जाम को मेव । तब सुबुद्धि घर में गगी करि कुधितिम च ।।२।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
जासों थावक भव्य सब, लहइ अरथ तत्काल । धारे ते चित भाव धरि श्रावक धर्म विसाल ॥२३।। जननी के ए वचन सुनि, लीने सोश पढाइ । रचिव को उद्दिम कीयो, धरि के मन वच काइ ॥२४॥
ग्रन्थ की रचना होने के पश्चात् जैनुलदे ने उसे पूर्ण रूप से सुना तथा अपने पुत्र को खूब मांशीर्वाद दिया। उसे मानक जीवन को सार्थक करने वाला कार्य बतलामा । कवि ने यद्यपि मूलग्रन्थ का पद्यानुवाद किया है लेकिन व्रत विधान वर्णन अपनी बुद्धि के अनुसार किया है :
प्रश्नोसरावकाचार का रचनाकाल संवत् १७४७ बैशाख सुदी द्वितीया बुधवार है । कवि ने ग्रन्थ के तीन भाग जहानाबाद दिल्ली में तथा एक भाग पानीपत जलपथ ) में पूर्ण किया था।
सत्रह संताल में दूज सुदी वैशाख । खुपवार भेरोहिनी, भयो समापत भाष ।। १०४।। तीनि हिसे या अन्य के, भए जहानाबाद ।
चौथाई जलपन विष, वीतराग परसाद ।।१०।। नितीय रचना-पाण्डवपुराण
पानीपत में कवि कितने समय तक रहे इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता लेकिन कुछ वर्षों पश्चात् वे वापिस अपनी माता के साथ इन्द्रप्रस्थ वेहली मागये पौर घहीं रहने लगे। वहीं मावा एवं पुत्र का जीवन सुख एवं शान्तिपूर्वक चलता
१. अंसी विधि यह ग्रन्थ सुभ, रच्यो बुलाकोबास ।
सौ सब मैंनुलवे सुम्पो, धारयो परम उल्हास ॥८॥ बहु असोस सुत को बई, बायौ धरम सनेह । धन्य पुत्र तुव अगम को, रथ्यौ ग्रन्थ सुभ एह || बत विधान बरने विविध प्रपनो मति अनुसार। बरमत भूलि परि जहाँ, कविकुल लेहु संबार १०
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कविवर बुलाकीदास
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रहा । प्रतिदिन शास्त्र स्वाध्याय एवं शास्त्र प्रवचन सुनने में समय व्यतीत होने लगा । उस समय माता ने अपने पुत्र के समक्ष पाण्डवपुराण की भाषा करने का निम्न शब्दों में प्रस्ताव रखा
सब सुख व तिन यो कही सुनी पुत्र मो बात ।
सुभ कारज ते जग विधं सुजय होय विख्यात ॥४७॥ महापुरष गुन गाइए, ताही पहांनि । दो लोक सुखदा है, सुमति सुकरिति यांन ॥४८ सुनि सुभचन्द्रप्रतीत है, कति पथं गम्भीर | जो पुराण पाण्डव या सीर ४३
वाको पर विचारि के, भारथ भाषा नांम |
कथा पांडु सुत पंचमी, कीज्यों बहु अभिराम ।। ५० ।। सुगम भयं श्रावक सर्व, भने भनावं जाहि ।
सौ रचि के प्रथम ही, मोहि सुनावी ताहि ॥ ५१ ॥
बुलाकीदास की मात्रा स्वयं विदुषी बी इसलिए उसने अपने पुत्र से भट्टारक शुभचन्द्र प्रणीत पाण्डवपुराण का हिन्दी में सुगम मर्थं लिखकर सर्वप्रथम उसे सुनाने के लिए कहा जिससे भविष्य में उसकी निरन्तर स्वाध्याय हो सके। बुलाकीदास की माता के प्रति प्रसार भक्ति थी इसलिए उसने तत्काल साहस बटोर करके लेखन कार्य प्रारम्भ कर दिया। जितने अंश को वह भाषा लिखता उतना ही अंश बह अपनी माता को सुना देता ।
इहि विधि भाषा भारती सुनीं जिनुलदे माइ ।
धन्य धन्य सुत सौ कहीं, धर्म सनेह बढाइ ||५॥
अन्त में ग्रन्थ समाप्ति की शुभ घड़ी भागयो धौर वह भी सवंत् १७५४ भाषा सुदी द्वितीय गुरुवार को पुष्य नक्षत्र की घड़ी । इस प्रकार प्रथम ग्रन्थ के ७ वर्ष पचात् कवि अपनी दूसरी कृति साहित्यक जगत् को भेट करने में सफल रहे । पाण्डवपुराण को कवि ने महाभारत नाम से सम्बोधित किया है । कवि की यह कृति जैन समाज में अत्यधिक लोकप्रिय बनी रही। इसकी पचासों पाण्डुलिपियो प्राण भी राजस्थान एवं अन्य प्रदेशों के प्रन्थागारों में संग्रहीत है ।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकोदास एवं हेमराज
लघु कृतियां
बुलाकीदास की दो प्रमुख कृतियो के अतिरिक्त निम्न कृतियों के नाम और मिलते हैं
प्रश्नोत्तरररनमाला २. वार्ता ३. पौवीसी
१. प्रथनोसर रलमाला-पो पत्रों में निबद्ध यह कृति संस्कृत भाषा की है तथा जिसको एक मात्र पाण्डुलिपि दि जैन पार्श्वनाथ मन्दिर वृन्दी के शास्त्र भण्डार में वेष्ठन संख्या ११० में संग्रहीत है । मह प्रति सुभाषित के रूप में है।
२. वाता- प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में से संग्रहीत वार्ता के रूप में यह दिन जैन मन्दिर कोट्यों नेएषा के प्रास्त्र भण्डार के एक गुटके में उपलब्ध होती है । गुटका सम्बत् १८१४ का लिखा हुआ है 12
इसका उल्लेख काशी नगरी की प्रचारणिी पत्रिका में हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों के पन्द्रहवें वार्षिक विवरण में हुआ है। पत्रिका के सम्पादकों को इसकी प्रति 'मॉगरोव गुमर' के रहने वाले श्री दुर्गासिंह राजावत के पास प्राप्त हुई थी। मांगरोष का डाकखाना हनकता तहसील किरावली जिला सागरा है । इसमें १६६ मनुष्टुप छन्द हैं । भगवान आदिनाथ की बन्दना में एक छन्द इस प्रकार है
बन्दो प्रथम जिनेश को, दोष भठारह चुरी। वेद नक्षत्र गृह औरष, गुन अनन्त भरी पुरी । नमो करि फेरि सिद्धि को, भष्ट करम कीए छार । सहत पाठ गुन सो भई, कर भगत उधार ।
१. राजस्थान ने जन पास्त्र भण्डारों की अन्य सूची पन्चम भाग -पृष्ठ
संख्या ६८८ २. वहीं पृष्ठ संख्या १०२२ ३. देखिये भक्त काव्य पौर फषि,-डा. प्रेमयागा थष्ठ संख्या २६२-६३
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कविवर बुलाकीदास
पाचारज के पद णमो दूरी अन्तर गति भाउ । पंच अचरजा सिद्धि ते, भार जगत के राज ।
कविवर बुलाकीदास ने इन रचनाओं के प्रतिरिक्त, अन्य कितनी रचनायें निबद्ध की थी । इस सम्बन्ध में निश्चित जानकारी देना कठिन है । लेकिन सम्भव है प्रागरा, मैनपुरी, राजाखेड़ा एवं इनके प्रासपास के नगरों में स्थित शास्त्र भण्डारों की पूरी छानबीन एवं खोज में बुलाकीदास की पौर भी रचनायें मिल जावें।
वैसे मिश्रबन्धु विनोद में कवि की एक मात्र कृति पाण्डवपुराण का उल्लेख किया हया है। डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने भी "तीर्थंकर महावीर एवं उनकी आचार्य परम्परा" में बुलाकीदास के परिचय में केवल पाण्डव पुराण का ही उल्लेख किया है।140 परमानन्द जी ने "अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान" लेख में मुलाकीदास को दो प्रमुख रचनामों प्रश्नोत्तरभावकाचार एवं पाण्डवपुराण का उल्लेख किया है । शेव जीवन
बुलाकीदास की जन्म तिथि के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता । लेकिन उनका बाल्यकाल पागरा में ही व्यतीत हुप्रा । शिक्षा भी यहीं हुई। पं० प्रका रत्न जो देहली के पण्डित थे, इनके पास बुलाकीदास ने संस्कृत भाषा का प्रध्ययन किया तथा साथ ही में अपनी माता जैनुलदे से विशेष शिक्षा प्राप्त की थी । जैनधर्म एवं साहित्य की शिक्षा उनको पैतृक रूप में प्राप्त हुई। संवत् १७४५ से १७५४ का दश वर्ष का जीवन उनका साहित्यक जीवन रहा जिसमें वे 'प्रश्नोत्तरश्नावकाचार एवं 'पाण्डवपुराण' जैसे ग्रन्थों की रचना करने में सफल हुये। इसके पश्चात् वे कितने वर्षों तक जीवित रहे इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं मिलती। फिर भी बुलाकीदास का समय संवत् १७०० से १७६० तक माना जा सकता है।
१. मित्र बन्धु विनोद-पृष्ठ संख्या ३४० २. तीर्थंकर महावीर एवं उनकी प्राचार्य परम्परा-चतुर्थ भाग-पृष्ठ २६३ ३. देखिये अनेकान्त वर्ष २० किरण--४ पृष्ठ १८३-१४
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कविवर बुलाखीचन्द, ब्लाकीदास एवं हेमराज बलाकीदास के दो प्रमुख ग्रन्थों का अध्ययन १. प्रश्नोसर आवकासार
जैनधर्म में एकदेशधर्म एवं सर्वदेशधर्म नामसे धर्म पालन की दो प्रक्रियायें बतलायी गयी है । इनमें एकदेशधर्म श्रावकों के लिये एवं सर्वदेसधर्म का पालन साधुषों के लिए कहा गया है
प्रथम धर्म श्रावक करै कही जु एको देस । द्वितीय धर्म मुनिराज को, भाषित सदिस ॥४६। सुगम धर्म श्रावक कर, धौ जु गृह को भार ।। कठिन धर्म मुनिराज को, सहै परीसह सार ।।५०॥
बारह भंगो के प्रन्यों में सातवां अंग उपासकाध्ययमांग है जो वृषम गण घर द्वारा कहा गया है । ये पादिनाथ स्वामी के गणधर थे । अजितनाथ ने भी श्रावकक्रिया का पूर्ण रूप से बखान किया । अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर एवं उनके पश्चात् होने वाले गौतम, सुधर्मा एवं जम्बुस्वामी ने श्रावक धर्म का विस्तार से वर्णन किया। इसके पश्चात् विष्णुकमार मुनि ने द्वादशांग वाणी का कयन किया । लेकिन धीरे धीरे भायु और बुद्धि दोनों में कमी माती गयो । भाचार्य कुन्दकुन्द ने श्रावकधर्म का प्रतिपादन किया। उनके पश्चात् जिस रूप में श्रावक धर्म चलता रहा तथा श्रुत शान प्राप्त किया उसी रूप में प्राचार्य सकसकीति ने धावक धर्म का वर्णन किया । भट्टारक सकलकीत्ति द्वारा प्रतिपादित श्रावक धर्म का वर्णन संस्कृत में था वह सामान्य बुद्धि वालों के लिए भी कठिन रहता था इसलिये उसे ही बुलबन्द अर्थात दुलाकीदास ने हिन्दी में छन्दोबद्ध किया ।
१ घडी मायु पर मेषा अंग, घट्यो धर्म कारन तिहि संग ।
कुनकुन्द पाचारण कयौ तासौ ज्ञान सरावा लहौ ।।६४॥ कम सो चल्यो जसोई धर्म, सशक जाधौ यसको मर्म । सकलकीति प्राचारण कयो, पायक धर्म सुभासौं सझौ ॥६॥ सकसकीति सुभ संस्कृत कयौ, कठिन भयं पंडित हो लछौ । नियो यु सई भरप विकार, इलसम्म मति बोरी सार ।।६।।
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कविवर बुलाकीदास
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सर्व प्रथम कवि : लघुता प्रकको कई की महिमा का पर्शन करता है -
मेघ बिना नहि पावर होहि, होइ मेघ तब स्पज सोइ । धर्म बिना त्यों सुख भी नाहि, सुख निवास क धर्म जुआहि ॥४॥
दोहा जैसे प्रजगर मुख विर्थ नाही सुधा निवास । पाप कर्म के करन स्यौं, लहै न सुख की वास ।।५।।
प्रथम प्रभाव में ८४ पद्य हैं। दूसरा प्रभाव पजितनाप के स्तवन से प्रारम्भ किया गया हैं । इसके पश्चात् श्रावक निम्न प्रकार प्रश्न करता है--
सहा प्रश्न श्रावक करै, कहै ज स्वामी अनूप ।
कैसे दरसन पाइये, कहींमत फोन सरूप ।।५।। इस प्रश्न का उत्तर निम्न प्रकार है
सप्त तत्व को सहन, कालो जु दरसन एट्छ ।
भभ्य जीव तातै प्रथम, तत्व ठीकता लेहु ॥६॥ इसके पश्चात् जीव प्रजीव प्रादि सात तत्वों में से जीव तस्व का म्यष हार एवं निश्चय की दृष्टि से कषन किया गया है। प्रजीव द्रव्य के कथन में पुदगल धर्म, अधर्म माकाश पोर काल मुख्य का सामान्य लक्षण कहने के पश्चात् मानव व्य का वर्णन किया है। पुण्य पाप का लक्षण जोड़ कर नो पदार्थों का वर्णन हो हो जाता है । पुण्य का कवि ने निम्न प्रकार कथन किया है--
पुन्य पदारथ सोह, सुख दाइक संसार में। पर ऊरध गति होइ, जो निर्मल भाव निबंध ॥१०४॥
बुलाकीदास ने प्रभाव (अध्याय ) समाप्ति पर निम्न प्रकार अपना परिचय दिया है-इति श्रीमन्महाशीलाभरण भूषित जैनी सुनु लाल बुलाकीवास विरचितायां प्रश्नोत्तरपासकाचार भाषायां सप्त-तत्व नव-पदार्थ प्रपणो नाम द्वितीयः प्रभाव: 1
तीसरे प्रभाव में सम्यग्दर्शन के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है जिसका एफ पर निम्न प्रकार है
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज वीतराग जो देव है, धर्म अहिंसा रूप,
गुरु निग्रन्थ जु मानिए, यह सम्यक्त्व सस्प ॥३॥ परहन्त के ४६ गुणों का विस्तृत वर्णन करने के पूर्व केवली के माहार का निषेष किया गया है । कवि ने अपने जलचन्द के नाम का भी प्रयोग किया है ।
छयालीस गुन ए कहै. पढी भष्य सुभ लीन ।
बूलचन्द यौं बीन, राखो कंठ सदीव ।।१६।१२।। इस प्रकार तीसरे प्रभाव में वेव, धर्म एवं गुरु के स्वरूप पर अच्छा प्रकाश गाला है जो १०२ पदों में समाया होता है।
चतुर्थ प्रभाव में भष्टांग सम्यगदर्शन का ५६ पत्रों में वर्णन किया है। पञ्चम प्रभाव सुमति बिन की स्तुति से प्रारम्भ होता है। इसके पश्चात् सम्यगदर्शन के पाठ अंगो की कहानी को निम्न प्रकार विभाजित किया है - पञ्चम प्रभाव- निशंकित्त अंग-भजन तस्कर कथा- १४० पद्य षष्टम प्रभाव- निःकांक्षित अंग-अनन्तमतीकथा--
पय ६४ सप्तमप्रभाव- गिविचिकित्सा एवं
प्रभूड दृष्टि अंग -उद्दापन राजा रेवती रानी कथा-पद्य ७३ प्रष्टम - उपगूहन एवं स्थिति
करण मंग- जिनेन्द्र भक्त श्रेष्टि
एवं वारिषेण मुनि- ७० नयम -
वात्सल्य मग- विष्णुकुमार मुनि- ७० पर पशम , - प्रभामा अंग- वजकुमार मुनि- ६४ एमपन,- सम्यक्व महात्म्य- मष्ट मदों का
वर्णन - ५३ पथ द्वादश ,- प्रष्ट मूलगुण, सप्तम्यसन माहिसा अणुप्रत घम्न
-- १०० पद्य प्रष्ट मूलगुणों को एक सर्वया छन्द में निम्न प्रकार गिनाए हैं
मदिरा अमिष मधु वट फल पीपल जु ऊवर कंवर प्रौ पिलुवन जानिये। इन को खाइ नर सोइ महापाप घर सुमति को नास फर कुमति अमानिये ।
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कविवर बुलाकीदास
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तरी कोर: । प्राचिनीषकुल उतपाल
प्रथया नरक गति तिरजंच ठानिय । इनको जु त्यागी नर सोइ मूल गुन
वाही को मुकति यर प्रागम बस्खानिये । इसी प्रभाव में यमपाल पांडाल एवं धनश्री की कथा भी दी हुई है। त्रयोदश प्रभाव सरयाणुक्त एवं धनदेव सत्यघोष की कथा - ७४ चतुर्दश प्रभाव प्रदत्तादान विरतिव्रत एवं महाराज कुमार श्री वारिषेण तापस कथा
- ६१ पद्य पञ्चदश प्रभाव स्थूल ब्रह्मचर्याणुव्रत नीरुमा रक्षक कथा – ७० पद्य षोडशम प्रभाव परिग्रह परिमाणवत जयकुमार कथा – ७७ पद्म सत्रहवां प्रभाव तीन गुणवतों का वर्णन
___--- ६५ पछ अठारहवां प्रभाव पार शिकायतों में है शावकाशिक एवं सामाइक व्रत का वर्णन
--- १२० पध उगनीसवां प्रभाव प्रोषधोपचास नस वर्णन
– ३२ पद्य बीसवां प्रभाव पतुविधदान वर्णन ( वाप्यवृत्त ) - १४७ पद्य इक्कीसवा प्रभाव पतुर्विषदान कथा, जिन पूजा कथा थी । षेण, वृषभसेन मादि कथा
- ३६५ पद्य इस प्रभाव में पूजा पाठ भी दिया हुप्रा है । बाईसवां प्रभाव सल्लेखना, म्हारह प्रतिमा वर्णन में से
सामायिक प्रतिमा तक वर्णन -९६ पञ्च तेईसा प्रभाव ब्रह्मचर्य प्रतिमा तक वर्णन
-- ८४ पद्य चौबीसा प्रभाय शेष दो प्रतिमामों का वर्णन एवं ग्रन्थकार प्रशस्ति
-१०५ पद्य ग्यारह प्रतिमामों का वर्णन बुलाकीदाप्त ने माचार्य समन्तभद्र के रत्नकाण्ड श्रावकाचार के अनुसार लिखा है ऐसा उसने संकेत किया है
रतनकरंडक ग्रन्थ सो, देखि सिखो यह बात । वचन समन्त जु भद्र के, जानौं सत्य विख्यात ॥१॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
ग्रन्थ के अन्त में कवि ने अपने गुरु अरुणरतन, तत्कालीन बादशाह औरंगजेब तथा अपनी माता जैनुलदें के प्रति प्राभार व्यक्त किया है जिनके कारण वह ग्रन्ध रचना में सफल हो सका।
नगर जहानांबाब मैं, साहिब मोरंगपाहि । विधिना तिस छत्तर दियो, रहे प्रजा सुख मांहि ।।४।। ताके राज सुचन मैं, वन्यो ग्रन्थ यह सार । ईति भीति व्या नहीं, यह उनको उपचार ।।६।। घन्य जु माला जेनुलदे, जिन बनवायो ग्रन्थ । जाके सुभ सहाइ त, सुगम भयो सिच पण 11६६।। मरुन रतन गुरु धन्य है, जिनके वचन प्रभाव । कठिन अर्थ भाषा लाग्यो, लायो सब्द प्ररथान ||७||
___ गोयल गोत सिरोमनी, नन्दलाल अमलान ।
जस प्रताप प्रगटौ सदा, जब लग सनि भरु भान ।।१०३।। पाण्डव पुराण
मुलाकीदास की यह सबसे बची विशालकाय कृति है । पाण्डवपुराण की मूल कृति भट्टारक शुभचन्द्र द्वारा संस्कृत में संवत् १६०८ में निबद्ध की गयी थी उसी के माधार पर पाण्डव पुराण की हिन्दी पद्य कृति बुलाकीदास द्वारा निबद्ध की गयी पाण्डवपुराण को प्रत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है इसलिये राजस्थान के कितने ही शास्त्र भण्डारों में इसक्री पाण्डुलिपियां संग्रहीत है ।
पाण्डवपुराण का प्रारम्भ सर्वज्ञ नमस्कार से किया है । अंतिम त केवली भद्रबाहु का स्मरण करते हुए भाचार्य कुन्दकुन्द का निम्न शब्दों में गुणगान किया गया है
१. प्रश्नोतर श्रावकाचार भाषा -- पद्य संख्या ११० - प्राकार १०+ ५ इन्च । ग्रन्थानन्य शलोक संख्या २५७२ - लेखन काल - स. १८०७ वर्ष श्रावण बदि ६ लिखंत सुधाराय ब्राह्मण । लिखायतं खुशालचन्द्र छाबड़ा पठनाएं हेतवे । शास्त्र भण्डार दि० जैन बडा तेरापंथी मन्दिर जयपुर ।
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कविवर बुलाकीदास
ब्राह्मी जिम पाषान की, उज्जयन्त गिरसीस
या कलि में वादित करी, कुन्दकुन्द मुनि ईस ॥१६॥
इसके पश्चात् श्राचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक स्वामी, भाचार्य जिनसेन गुणभद्र एवं अपने गुरु अरुणरतन का गुणानुवाद एवं उनके कम्मों का स्मरण किया गया है । वन श्रा एवं ऐतिहासिक प्रतीत होता है इसलिए उसे अविकल रूप से यहां दिया जा रहा है
२
येथागम जिन स्तवन सौं प्रगट सुरागम कौन । समंतभद्र भद्रार्थमय, गुन ग्याक गुन लीन ॥ १७ ॥१ जिन वारधि व्याकरन को, लह्यों पार मृतिराय 1 पूज्यपाद निति पूज्य पर पूजो मन वचकाय ॥१६॥ निःकलंक प्रकलंक जस, सकल श्वास्त्र विद जेन । मायादेवी साडिता, कुम्भविता पादेन ।।१६।। चिरजीव जिनसेन जति, जाको जस जग मांहि । जिन पुरान पुरदेव कौ, वरन्यों बन्दी ताहि ||२०|| पुरणाद्रि परकासको सूर्यापित है जोइ ।
प्रभवंत गुणभद्र गुरु भूतल भूषन सोइ ||२१||
चरण रतन गुरु चरन जुग, सरन गहीं कर जीर ।
बरन ज्ञान के करन की तरुण फिरणि जिम भोर || २२|
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इसके पश्चात् कवि ने अपने वंश का परिचय दिया है जिसको पूर्व में उच्छूत किया जा चुका है । कवि की माता द्वारा पाण्डवपुराण भाषा सिखने, कवि द्वारा अपनी लघुता प्रदर्शित करके । वक्ता एवं श्रोता एवं कथा के लक्षण का वर्णन किया गया है । कथा का लक्षण निम्न प्रकार कहा गया है
कथन रूप कहिए कया, सो है दो प्रकार
सुकथा जो जिन कही, विकथा और प्रसार ॥ ६४ ॥ धरम सरीरी जे महा, तिनके चरित विचित्र । पुण्यहेत जहा वर्गीये, सो है कथा पवित्र ||६५॥
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कविवर बुलाखीचन्द बुलाकोदास एवं हेमराज
पुन्यपाप फल वरिगये, वरने व्रत तप दान | द्रव्य क्षेत्र फुनि तीर्थं सुभ, अरु संवेग बखान जो स्वतत्व को आप कं, दूरि करें परतत्व | ग्यानकथा सो जानिये, जहां वरनं एकत्व ॥ ८७॥
जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र और उसमें प्रायं खण्ड, वहां के राजा सिद्धार्थ एवं रानी त्रिशला के यहां वर्धमान तीर्थंकर का जन्म हुआ । वर्धमान ने साधु दीक्षा लेने पश्चात् केवल प्राप्त किया और गौतम गणधर के साथ जब उनका समयस मगध की राजधानी में प्राया | तब राजा शिक प्रभु की शरण में गया और देश के
सुनाराम
उनकी अमृतवर्षायुक्त दिव्य विभिन्न भागों में गया कवि ने उनके नाम निम्न प्रकार गिनाए हैं
अंग बंग कुरुजंगल ठए, कोमल और कलिंगे गए । महाराठ सोरठ कसमीर, पराभीर कौकरण गंम्भीर ।। १८ ।। मेदपाट भोटक करनाट, कर्ण कोस मालवं वैराठ |
इन आदिक जे भारज देश, सहां जिननाथ कोयो परवेश ||३१|
भगवान महावीर का जब समसरण राजगृही नगरी के वैभारगिर पर आया महाराजा श्ररिक ने महारानी चेलना सहित उनको वन्दना की और अपने स्थान पर बैठने के पश्चात् भगवान से निम्न प्रकार निवेदन किया
एक विनती तुम सा कहूं. पाण्डव चरित सुन्यो में चहु ं । पांडव पांच जगत विख्यात, कौन वंश उपजे सिंह भांति ||१२|| कुरु प्रन्वय किस जुग मैं भया, के के नर तिस बंसहि ठए । कौन कौन तीर्थंकर भए कौन कौन सुभचकी ठए ।
कुरवंसहि वरती हि भाय, ज्यौं मेरो संसय सब जाय || १४ || उक्त कथा जानने के प्रतिरिक्त श्रखिक ने और भी अनेक प्रश्न पूछे जिनका सम्बन्ध पाण्डव कथा से ही था । कवि ने उन सबका विस्तृत वर्णन किया है ।
कवि ने भोग भूमि के पश्चात् अन्तिम कुलकर नाभि से वन प्रारम्भ किया है । चतुर्थकाल के पूर्व का जीवन, नाभिराजा के प्रथम पुत्र तीर्थंकर ऋषभदेव के गृहत्याग एवं जयकुमार द्वारा सम्राट भरत के सेनापति का पद ग्रहण तक वर्णन किया गया है। इस प्रभाव में १४६ प हैं ।
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कविवर बुलाकीदास
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तृतिय प्रभाव में सुलोचना उत्पत्ति, स्वयंबर रचना, जयकुमार के गले में माला डालना, सम्राट भरत के पुत्र प्रकीत्ति द्वारा विरोध एवं जय कुमार के साय युद्ध का अच्छा वर्णन किया गया है ।
धनुष कान लगि खैचि सुधारे तीरही,
तिनके प्रानन तीक्षन प्ररि तन चीरही । वार पार सर निकस उर की भेदि के,
केइक मारहिं दंड सुदंडहि छेदि के ॥११।। केइक खरगहि खरग झराझर वीतहीं,
परहि मुड कर धरनि इहर नरीतिही। कवच टूटि जब जांहि कचाकच ह्व पर,
सूरन के कर शास्त्र सु लरि लरियों मरे ॥१२।। युद्ध में किसी की भी विनय नहीं होने, अर्ककीत्ति के समझाने पर युद्ध की समाप्ति, जयकुमार मुलोचना विवाह एवं भगवान ऋषभदेव के कलाश से निर्वाण होने का वर्णन मिलता है ।
चतुर्थ प्रभाव में कुरुवंश की उत्पत्ति एवं उस वंश में होने वाले राजानों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है । अनन्तवीर्य राजा के कुरु पुत्र से कुरुवंश की उत्पत्ति मानी गयी है
अब भनेत वीरज नपति, राज करघो बहु काल । तिनहीं के सुत कुरु भए, सोभित उर गुनमाल ।।३।। भए चंद कुरु वंस नभ, फुनि उपजे फुरुचंद !
तिनके तनम सुभकरो, नृप गन मैं अरविंद ॥४। इस ही वंश में १६ वे तीर्थकर शांतिनाथ हुए । जो चक्रवत्ति भी थे। उन्हीं का ६ पूर्व भवों का वर्णन इस प्रभाव में किया गया है ।
तिन पीछे तहां नप भए, विश्वसेन विख्यात ।
तार्क सुत जिन सांति को, वरनी चरित सुभाति ।।१२।। इसी वर्णन में कन्या का विवाह कैसे घर के साथ करना चाहिये इसका निम्न प्रकार कथन किया है--
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
जाति भरोगी क्य समान, सील श्रुती बधु जोम |
लछि पछाम परवारए, नव गुरण वरहि बखान ।।२६।। पञ्चम प्रभाष
एक बार ईसान स्वर्ग की इन्द्र सभा में वसायुध राजा की प्रशंसा होने लगी । वहां कहा जाने लगा कि उसके समान इस समय कोई सम्यक्त्वी नहीं हैं। इसी बात को चित्रचूल देवता ने सुन लिया। वह बघायुष की प्रशंसा को सहन नहीं कर सका और उससे वाद करने लिए वहां प्रा गया।
चित्रचूल एकति नय, अनेकांत नर राक्ष ।
इनको वाद बखानिये, वात रूप वनाइ ।।२१।। इसके पश्चाद् कवि ने अनेकांत एवं एकांत चर्या को गद्य में लिखा है । इसका एक उदाहरण निम्न प्रकार है
प्रथम हो सुर थाल्यो - हे राजन् जावादिक सप्त तत्व नव पवाथं के विचार विर्ष तुम पंडित हो । तात तुम कहो । पर्याय पर्याइ विर्ष भेद है कि नाहीं । जो तुम कहोगे की पर्यायी ते पर्याय भिन्न है तो वस्तु को प्रभाव होइगौ।
राजा वायुष ने एकान्तवाद कि विरोष में अपना पक्ष बहुत ही सुन्दर शाग्दों में रखा । कषि ने पञ्चास्तिकाप में से कुछ गाथामो को उबत किया है राजा वज्रायुध की बातों से अन्त में वह देव अत्यधिक प्रभावित हुया और निम्न प्रकार अपनी बात कहकर स्वर्ग चला गया -
जैसा स्वर्ग लोक विष इन्द्र महाराज्य न कहा था त सही है। यामैं संदेह नाही । प्रैस निसंदेह सुर भया । कहा की वच्चायुध तुम धन्य हो शुद्ध सम्यगदृष्टी
क्षेमंकर अपने पुत्र वायुध को राज्य सौंपकर स्वयं दीक्षित हो गया। वायुध चक्रवत्ति राजा था । वायुष के पश्चात् सहस्रायुध राजा बना । इसके पश्चात् एक के पीछे दूसरे राजा बनते गये । अन्त में हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन हुए उनकी रानी ऐरावती थी। उसी के गर्भ से १६ वें तीर्थकर शांतिनाथ का जन्म हा। जब वे युवा हुए तो विश्वसेन ने उनको राज्यभार सौंप कर स्वयं वैराग्य धारण कर लिया । ये चक्रवत्ति सम्राट् थे । दीर्घकाल तक राज्य सम्पदा भोगने के
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कविवर बुलाकीदास
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पश्चात् अपने ही दो रूप दिखने के कारण वैराग्म हो गया और अन्त में सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त किया ।
षष्ट प्रभाव में १७ व तीर्थकर कुंथुनाथ एवं सप्तम प्रभाव में प्ररनाथ तीर्थकर का जीवन चरित वणित है । दोनों ही प्रभाव छोटे छोटे हैं।
अष्टम प्रभाव में तीर्थंकर 'परनाथ' के चार पुत्रों से कथा प्रारम्भ होती
इसी बीच ऊर्जायनी के राजा श्री वर्मा, उसके चार मन्त्रियों एवं प्रक. पनाचार्य संघ की कहानी प्रारम्भ होती है । मुनिसंघ के एक मुनि श्रत सागर द्वारा वादविवाद में जीतकर माने के साथ कथा में मोड़ प्राता है।
__सातसौ मुनियों पर उपसर्ग, उपसर्ग निवारण हेतु विष्णुकुमार मुनि द्वारा बलि राजा से तीन कदम भूमि मांगना, प्रौर प्रकपनाचार्य आदि ७०० मुनियों पर से उपसर्ग दूर होने की कथा चलती है । जैनधर्म में रक्षाबंधन पर्व का इसीलिए महत्व है कि इस दिन ७०० मुनियों की विष्णुकुमार मुनि द्वारा जीवन रक्षा हुई थी।
इसी प्रभाव में गंगासुत गंगेय द्वारा अपने पिता की इच्छा पूर्ति के लिए पीवर कन्या गुगवति को लाया जाता है। राजपुर के राजा व्यास के तीन पुत्र घृतराष्ट्र, पांडु, एवं विदुर होते हैं । इसके पश्चात् हरिवंश की कथा प्रारम्भ होती है। घृतराष्ट्र के भाई पांशु द्वारा कुन्ती से समागम के प्रस्ताव का कवि ने अच्छा वर्णन किया है । कुन्ती कुवारी थी पांडु द्वारा प्रेमपाश में फंसने के कारण वह गर्भवती हो गयी । जब माता पिता को मालूम पड़ा तो वे बहुत कुपित हुए । कुन्ती के पुत्र हुमा । इसका नाम कर्णं रखा गया लेकिन लोक लज्जा से भयभीत होकर वे उस बालक को मन्जूसा में रखकर नदी में बहा दिया । वह बहता हुमा चम्पापुर के तट पर पहुंच गया जहां के रामा द्वारा पुष के रूप में पाला गया ।
१. पर सुत श्री अरविंद नप, ताके पुत्र सुचार ।
उपो दर सुचाते, साकं भूप सुसार ।।२।।
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कविवर बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज
नवम प्रभाव प्रारम्भ में कवि ने कर्ण की उत्पत्ति पर एक यंग कहा है
सुनिसि , महा मूढ हैं लोग । असे करर्णकुमार को, कर्णध कहत अजोग ।।२।। कर्ण कर्ण बात चली, जनम समै पुर ग्राम । तातै अन्धक वृष्टि नप, करणं धरयौ तिस नाम ।।३।। खाज उठी राधा श्रमन, बालक लेती वार । तात राजा भानु नै. भाष्यो कर्णकुमार ||४|| कर्ण भवो ओ कर्ण ते, तो यह सारि सिष्टि । म्यो नहि उपजे कर्ण ले. जात हद प्रनिट कर्ण नासिका नर भए, देखे सुने न कोछ ।
तातें उतपति कर्ण की, कर्ण विष किम होइ ॥६॥ इसके पश्चात् पाण्ड एवं कुन्ती के साथ विवाहू का कधि मे बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। बरात का घढना, बरतियों द्वारा नाचगान, नगर की सुन्दरियों द्वारा पान्डु को देखने की इच्छा, प्रादि का मच्छा वर्णन किया है । पाण्डु का कुन्ती के साथ विवाह संपन्न हो गया । पाण्डु की दूसरी पलि का नाम मद्री था । कुन्ती से युधिष्ठर, भीम एवं अर्जुन तथा मद्री से नकुल एवं सहदेव पुत्र हुए । धृतराष्ट्र की पत्ति का नाम गंधारी था। जब वह सर्वप्रथम गर्भवती हुई तो उसे सौ पुत्रों की माता होने का भाशीर्वाद प्राप्त हुभा।
पूरन मास वितीते जब, सुख सौ सनुज जन्यो तिन तब । तब बढ़दारनि नाइन घाइ, ताहि असीस दई हि भाइ ॥२०॥ सत सुत जनियौ सुख खानि, चिरंजीयो गंधारि रानि ।।
जिहिं संग जुद्ध सु दुखते होइ, तातै भनि दूर जेधन सोह ॥२।। पांचों पांडवों एवं १०० कौरवों को द्रोणाचार्य ने धनुविधा सिखलायी। दशम प्रभाव
एक समय पाडु एवं मद्री मन भ्रमण को गये। वन की सुन्दरता, एकाकीपन एवं प्राकृतिक छटा को देखकर वह कामातुर हो गया और मद्री को लेकर भुरमुट की पौर चला । यहां उसने एक मृग एवं मृगी को काम वासना युक्त देख
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कविवर बुलाकीदास
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कर मकारण उसे अपने ही बाण से मार गिराया । अकारण ही मारने से पाकाश से प्राकाश वाणी हुई जिसमें उसे भला पुरा कहा और इस कार्य को निन्दनीय ठहराया । यहीं पर विहार करते हुए एक निर्ग्रन्थ मुनि भाये उन्होंने भी पार एवं मद्री को संसार की प्रसारता एवं भोगों की निस्सारता पर प्रवचन दिया ।
इंहि विधि मुनि के वचन सुनि, पांडु भयो भयवंत । जीवन संयम तडित सम, जानि छिनक छय संत ।।७।। तम चित मैं थिरता घरी, वन्दे मुनिवर पाए ।
अधिक भगति फरि थुति करत, चल्यो नगर को राइ पांडु राजा नगर में गये । अपने पूरे परिवार को एकत्रित किया और सबको काम विषयों की एवं जगत की मसारता तथा मृत्यु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला । अपने भाई धृतराष्ट्र को बुलाकर अपने पांचों पुत्रों को सौंप दिया पौर अपने पुत्रों के समान उनसे व्यवहार करने की । प्रार्थना की कुन्ती से पूत्रों को सम्हालने के लिए कहा । राज्य पाट त्याग कर गंगा नदी के किनारे जाकर जिन दीक्षा धारण करती और यावत् जीवन माहार न लेने की प्रतिज्ञा ले ली, मद्री रानी ने भी वैसा ही किया और दोनों ने मरकर प्रयम स्वर्ग में प्राप्त किया।
एक दिन महाराण धृतराष्ट्र राज्य करते हुए बन भ्रमण को घले । वहाँ की एक गिला पर विपुलमती मुनि ध्यानस्थ थे। राजा को मुनि ने उपदेशामृत पान कराया। इसके पश्चात् धृतराष्ट्र ने मुनि से निम्न प्रकार प्रश्न किये
अंसी सुनि श्री राइ, हे स्वामी कहीए समझाइ । मेरे सुत प्रति पाइव साज, इनमें कौन लहेगी रान ॥५७।।
x .... x .... ४ .... x .... x पांडव पंप महाबल घनी, ह है कैसी थिति उन तनी ॥६१।। ए मेरे सुत पृथिवी माहि, छत्रपति ह है प्रकि नाहि । मगध देस फुनि सोभित महा, राजगृही पुरि तामै ।
जरासंध नप तामैं महा, प्रप्ति केशय सों मन्तिम कहा । उक्त प्रश्नों के अतिरिक्त धृतराष्ट्र ने और भी प्रश्न पूछे । मुनिराज ने तराष्ट्र के प्रधनों का निम्न प्रकार उसर दिया
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कवित्रा खुलाशी ८, जुनामीकार एवं हेमराज
भैसी सुनि मुनि गोले सड़ी. हे राजा अब सुनीये यही । पांडव पर दुरजोपन प्रादि, इनमें 8 है प्रति हि विवाद ।
बोहा एक राम के कारने हं है इनहि विरुद्ध । तेरे सुत कुरुक्षेत में, मरि हैं करि के जुद्ध ।।६।। दुहूं उरके सुभट जहां, मरहि परस्पर धाइ।
से रण में पांडवा, जीति लहैगे राइ ।। ६६।। हृति के तेरे सुतन को, गहिं गजपुर राज । पूरव पुन्य प्रताप तै, लहि हे सब सुख साज ।।७।। जरासंध की बात तुम, जो पूछी यह और ।
सी नारहन हाथ से, ममि है ताही ठोर ॥७१।। ग्यारहवां प्रभाव
मुनि की बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र भी जमल से उदासीन हो गये । मोर युधिष्ठर को राजा बना कर स्वयं ने जिनदीक्षा धारण कर ली । द्रोणाचार्य में पांच पाण्डवों एवं कौरवों ने धनुविद्या सिखी । लेकिन इस विद्या में पाण्डव प्रवीण थे। पांडवों एवं कौरवों में धीरे धीरे बिरोध बढ़ने लगा | इस विरोध को शान्त करने के लिए युधिष्ठर ने माधा प्राघा राज्य बांट दिया । लेकिन इसमें भी शान्ति नहीं मिली । जब भी कोई प्रसंग माता कौरव उपद्रव किये बिना नहीं मानते । फिर भी वे भीम एवं अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकते थे । एक बार भीम को का जहर खिला दिया लेकिन भीम अपने पुण्योदय से बच गया । एक बार धनुविद्या की परिक्षा में अर्जुन ने पक्षी के प्रांखों पर तीर चलाकर अपनी विद्या की प्रशंसा प्राप्त की। शब्दवेधी बाण चलाने में भी मर्जुन सबसे प्रागे रहे। मारहवां प्रमाव
इसके पश्चात् राजा श्रोणिक द्वारा यादकों की कथा कहने की प्रार्थना करने के कारण कवि ने इस प्रभाव में यादव कथा कही है । यादव वंश में वसुदेव शिरोमणी थे । वसुदेव के बलभद्र पैदा हुए । एक बार जरासंध ने घोषणा की जो सिंहस्थ को बांधकर ले प्रावेगा उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह करेगा । वसुदेव सेना लेकर
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कविवर बुलाकीदास
पागे गया और सिंघरथ को बांधकर ले माया । इससे जरासंध बहुत प्रसन्न हुआ। तीर्थकर नेमिनाथ के मागमन को जानकर कुबेर ने इन्द्र की प्राशा से द्वारावती नगरी को बसाया वहां का राजा समुद्रविजय था । उसकी रानी का नाम शिचादेवी था। वह अत्यधिक सुन्दर एवं रूपवती थी। उसने सोलह स्वप्न देखें जिनके फल पूछने वह शीन ही तीर्थकर की माता बनने वाली है ऐसा बतलाया । माता की श्री ह्री वृत्ति मावि सोलह देवियां सेवा करने लगी तथा विभिन्न प्रकार से माता को प्रसन्न रखने लगी। सावन सुदी षष्टी के दिन नेमिनाथ का जन्म झुप्रा । स्वर्ग से इन्द्र ने पाकर तीर्थकर का जन्माभिषेक मनाया । सारे लोक में मानन्द छा गया । तेरहवा प्रमाण
इस प्रभाव में श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मणि हरण एवं विवाह, शिशुपाल वध, प्रद्युम्न जम्म एवं हरण प्रादि की संक्षिप्त कथा के पश्चात फिर कौरव पांडवों की कथा भागे चलती है। दुविर' द्वार भाषा सलामी के. ॥२ रघ सन्तुष्ट नहीं हुये और उन्होंने पूरे राथ्य के १०५ टुकड़े करने पर जोर दिया । इस प्रस्ताव का पाण्डवों ने घोर विरोध किया। कौरबों ने पान्मयों को मारने के लिए सामान बनाया लेकिन उनको कुछ भी सफलता नहीं मिली । सभी पांडवपुत्र पूर्व निर्मित गुप्त मार्ग से निकल गये । पांचों पाण्डव भाव में बैठकर गंगा पार करने लगे । लेकिन बीच में नाव रुक गयी । धीवर में कहा कि गंगा में रहने वाली तुजी देवी नर बलि चाहती है । सब फिर विपत्ति में फंस गये । युधिष्ठर ने अपना बलिवान देना चाहा लेकिन भीम गंगा में कूद पड़ा और तुडी को मार कर उसे अपने वश में कर लिया । मौर अन्त में सभी सकुशल गंगा पार उतर गये । कवि द्वारा पूरा प्रभाव ही रोमाञ्चक ढंग से निबद्ध किया गया है। चौवां प्रभाग
सभी पाण्डव प्रश्चिन्त कैश में कोशिकपुर पहुँचे । वहां से विगपत्तन पहुंचे। वहां के राजा के १. कन्यायें थीं। तथा एक कन्या नगर सेठ के थी, एक निमित्त शानी के अनुसार सभी का विवाह पाण्डवपुत्रों के साथ होना था । इसलिए जब पांडव वहां पहुंचे तो चारों और प्रसन्नता छा गयी एवं सभी ग्यारह कन्यापी का विवाह युधिष्ठर के साथ हो गया।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
पन्द्रह प्रभाष
सभी पांचों पांचव अपनी माता कुन्ती के साथ प्राने बढ़ते गये । मार्ग में जब भीम जल लेने गया तो उसे वहां खगपति मिला। इसके साथ एक कन्या थी जो हिडम्बी की पुत्री थी। एक भयानक बन में भीम ने एक राक्षस पर विजय प्राप्त की। वहीं पर एक वणिक था । संध्या होने पर वह रोने लगा। पूछने पर मालूम हमा की बक राजा के भक्षरण के लिए माज उसके बालक का नम्बरहै । यह सुन कर भीम को दया भायी और उसने बालक के स्थान पर अपने आप का बलिदान देने की तैयारी की भीम ने नक राजा को लड़ाई में हराकर उसे भविष्य में किसी जीव की हिंसा न करने की प्रतिज्ञा करवायी। पांचों पाण्डव मागे गये मार्ग में माने वाले सभी जिन चैत्यालयों की वन्दना करते गये। फिर वे पलकर चम्पापुरी पलचे । कर्ण वहां को राजा था । पांडव गण वहाँ काफी समय तक रहे । वहीं पर भीम ने एक मतवाले हाथी को वश में किया । फिर वे ब्राह्मण के वेश में आगे बढ़ते गये । एक दिन जब भीम बाहरण देश में भिक्षा मांगने राजा के यहां गया तो राजा ने भिक्षा में उसे अपनी कन्या दे दी । सोसहबां प्रमाण
पांचों पांडवों ने दक्षिण में भी खूब भ्रमण किया । इसके पश्चात् वे पुनः गजपुर को भागये । वे सभी विष वेश में घूमते थे। बहो के राजा द्रुपद थे तथा उसकी पुत्री का नाम द्रोपदी पा । जिसकी सुन्दरता का वर्णन करना सहज नहीं था । उसके विवाह के लिए स्वयंवर रचा गया जिसमें राजा महाराजा सभी एकत्रित हुए। गांडीव धनुष को चढाने में सफल होने वाले राजकुमार को द्रोपदी को देने की घोषणा की गयी । धारों प्रौर के मनेक राजा एकत्रित हुए।
तो लौ नप सब पाए वहीं, दुर्योधन करणं प्रादिक सहो । जालंधर मस जादव ईस, सलपति फुनि मबधी बीस ।।१०11 क्रांतिधान बहु सोभित रूप, बैठे मंडप मांहि अनूप ।
पांडव पांचौ दुजि के भेष, माप पक्षाचे सोभा देखि ॥५२।। सभी राजामों ने धनुष को जाकर देखा । राजानी का परिचय करवाया गया । किसी राजा ने भी धनुष चढाने में अपना बल नहीं दिखा सके । मन्न' में अर्जुन ने विप्र के देश में ही अनुष चढा दिया । द्वोपदी ने उसके गले में माल बाल
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कविवर बुलाकीदास
दी। दुर्योधन पादि राजामों ने अपना दूस भेजकर इसका विरोध किया । लेकिन राजा द्रुपद ने स्वयंवर के निर्णय को न्याय संगत बतलाया । दुर्योधन प्रादि राजानों ने युद्ध की घोषणा कर दी। चारों और युद्ध की तैयारी होने लगी । द्रोपदी यह देखकर हर गयी । परस्पर में खूब सुद्ध हुमा । अर्जुन एवं भीम ने अपने पराक्रम से सबको अमित कर दिया । जब द्रोण ने अर्जुन को ललकारा तो पर्जुन अपने गुरु के विरुद्ध बाण चलाने के बजाय बाण द्वारा अपना परिचय दिया । पांडवों को जीवित जानकर सभी प्रसन्न हो गये लेकिन कौरव मन ही मन जलने लगे। इसके पश्चात् पाण्डव हस्तिनापुर चले गये । सत्रहवां प्रभाष
पाण्डवों एवं कौरबों ने अपना राज्य प्राधा बांट लिया । तथा सुख पूर्वक रहने लगे। युधिष्ठर ने इन्द्रप्रस्थपुर, भीम ने तिलपथ, अर्जुन ने स्वर्णप्रस्थ, नकुल ने जलपथ एवं सहदेव ने वणिकपथ नामक नगर बसाकर राज्य करने लगे । कुछ समय पश्चाद अर्जुन ने सुभद्रा का हरण कर लिया। दोनों का धूम धाम से विवाह हो गया । मजुम को कितने ही दैविक विद्याएं प्राप्त हुई । एक दिन दुर्योधन ने पाण्डबों को पास बुलाया तथा प्रेम से द्यूत खेलने को राजी कर लिया। धूत में पांडव सभी कुछ हार बैठे।
छल करि जीते कौरव कंस, धरम तनुज हारे सरवंस । हारे हार रतन केयर, कटक सुसीस प्रकट द्युति पूर ॥७०।। दरघि धेश हारे बहुभंत, हारे हय गय रष संजूत ।
मन कमक भाजन मंडार, हारी जो छेत भ्रातासार ॥१॥
धूत क्रीडा में हार के कारण पांडव सम्पूर्ण राज्य हार गये तथा बारह वर्ष तक वनवास में रहने का निर्णय लिया । वे नगर को छोड़ कर कालिजर वन में रहने लगे। पठारहवा प्रमाव
बन में जाने पर पांडवों को मुनि के दर्शन हुए । मुनि श्री ने प्रशुभ कर्मों का फल बतला कर सब को शुभ भविष्य के लिए प्राशान्वित किया । उसी वन में एक खेघर मिला । उसने पारय नप को रथनुपुर में रहने का आग्रह किया । अपने भाइयों के साथ वे पांच वर्ष तक बहा रहे । कौरव राज दुर्योधन ने पांडवों को मारने के
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज भनेक उपाय किये । पहले चित्रांगद को भेजा लेकिन यह भी बुरी तरह हार गया । फिर कनकध्वज राजा ने पांडवों को सात दिन में मारने की प्रतिज्ञा की । भिल्ल के भेष में वह वन में माया और उमसे झगड़ा करने लगा। उसने द्रोपदी का हरण कर लिया । मापस में खूब विग्रह हुश्रा । लेकिन भील राजा द्वारा उसे मार दिया गया । इसके पश्चात् के गुप्त : भेष में विराट राजा के यहां पहुंचे और विभिन्न नामों से काम करने लगे । कीचक जैसे राक्षस को यहां भीम ने मारा । इसके पश्चात् धौर भी उपाय किये लेकिन, पाक की मिति साहस एवं शोय के कारण कुछ भी नहीं हो सका।
उनीसवां प्रभाव
दुर्योधन पांडवों को मारने के अनेक उपाय ढूढने लगा। उसने विराट राजा की गायों को चुरा लिया। गायों को छुड़ाने लिए अच्छा युद्ध हुमा । उसमें कौरवों के फितने ही वीर मारे गये । पांडव गावों को छुड़ाने में सफल हुए। पांडवों ने कौरवों के साथ युद्ध भी प्रज्ञात भेष में ही किया । जब विराट राजा को वास्तविकता का मालम हुमा तब वह कहने लगे--
मैं नहीं जाने कबली देव, धरमपुत्र तुम छमियो एवं । प्रय तें तुम ही स्वामी इष्ट, हम किंकर तुम पालक शिष्ट ॥शा याही पुर में बंधव संग, कीजे राज सदा निरभंग ।
बहुत विनय पौं असे भाषि, गोष्टी मैं संघ गोधन राखि ॥६॥ विराट राजा ने अपनी पुत्री का विवाह अभिमन्यु से कर दिया । विवाह में श्रीकृष्ण, बलराम, दुर्योधन प्रादि सभी राजा महाराजा एकत्रित हुए । विराट राजा ने सब की स्तू ब मात्र भगत की ।
राजा श्रीणिक ने जब एक प्रक्षौहिणी सेना का संस्था बल जानना चाहा । इसका समाधान निम्न प्रकार किया गयासहसइकीस सतक वसु लहै,
___ सत्तर फुनि गज संख्या लहै ।। से . तेही रथ गनीये तहीं, . .
हय संख्या प्रच सुनीयेसही ।। १ ।।
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कविवर बुलाकीदास
पैंसठ सहस सतक पट जानि
दस ऊपर हम संख्या ठानि । (६५६१०) एक लख्य नी सहसे मित्त,
तिनि सतक पंचासह पति ||१०९३५०।१८।
इतनी सैना इकठी हो,
एक छोहिनी गनीये सोइ ||
·
कुन्ती ने द्वारका में जाकर श्रीकृष्ण जी से दुर्योधन के सभी कुक्कूश्यों को बतलाया और पाण्डवों पर किये जाने वाले व्यवहार के बारे में बतलाया । इस पर श्रीकृष्ण जी ने दुर्योधन के पास अपना एक दूत भेजा धीर पाण्डवों को भाषा राज्य से को सलाह मानने वाला था वह सो उल्टा क्रोषित हो गया !
ले
श्रीसवां प्रभाव
पांडव कौरव युद्ध के बादल मंडराने लगे । दुर्योधन को वहुत समझाया गया कि वह श्राधा राज्य पांडवों को दे दे। ऐसा नहीं करने पर जिनेन्द्र भगवान ने जी बात कही थी वही होगी। जब श्रीकृष्ण जी के दूत ने आकर उनसे सारी बात बतलाई । श्रीकृष्ण जी युद्ध के लिए अपनी तैयारी करली। पांचजन्य शंख को पूर दिया। शंख की आवाज सुनते ही कुरुक्षेत्र मैदान में सेनायें एकत्रित होते. लगी । कवि ने इस में चतुरंगिनी सेना का विस्तृत वन किया है। इसके पश्चात् कुरुक्षेत्र में खड़ी सेना कहां कहां खड़ी है, कितना संख्या बल है आदि सभी का दन किया है। कौरव पांडवों में घनघोर लड़ाई होने लगी। एक दूसरे को ललकार कर युद्ध के लिए मह्वान किया जाने लगा तथा एक दूसरे के पौरुष की हंसी उडायी जाने लगी । भीष्मपितामह युद्ध में जर्जरित हो गये कंठगत प्रारण आ गये तब उन्होंने युद्ध भूमि में सन्यास ले लिया व्रत धारण कर लिया । उनका अन्तिम सन्देश निम्न प्रकार बा---
और जब उनके तथा सल्लेना
T
करौ परस्पर मित्रता तख सत्रुता चित्त ।
अब लौं क्या से भये, तुम निश्चै नहि किति ॥ ६५ ॥
जे केई रन में मरे गए निंद गति सोइ 1
सातै कीजे धम्मं अब, दस लक्षण प्रक्लोई ॥ ६६ ॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बलाकीदास एवं हेमराज
शुभ भाव से मरने के कारण भीष्म पितामह पांच स्वर्ग में जाकर देव
एक बीसी प्रभाव
दूसरे दिन फिर पुद्ध प्रारम्भ हुमा । अभिमन्यु ने भीषण युद्ध किया । इसी समय दुर्योधन का पुत्र प्रचंड गति से बाण छोड़ने लगा । लेकिन यह अभिमन्यु के वारा मारा गया। इससे दुर्योधन ने योडाभों को अभिमन्यु को मारने के प्रोत्साहित किया । द्रोण, कर्ण कलिंगराजा सभी अभिमन्यु को मारने दोड़े। लेकिन कोई उपाय नहीं चला। भाखिर सबने मिलकर उसे घेर लिया। दुर्भाग्य से जयद्रथ मा गया और उसके हाथ से अभिमन्यु को प्राणघासक बाण लगा | अभिमन्यु ने उसी समय सभी कषायों से विरक्ति ले कर शान्त मित्त से भगवान को स्मरण करते हुये मृत्यु को वरण किया। अभिमन्यु के मरने से कौरवों में प्रसन्नता छा गयी जब कि पांडवों में शोक संतप्त छा गया। जयद्रथ की रक्षा के लिये द्रोण ने पूरे उपाय किये । लेकिम अर्जुन ने जयद्रथ का उसी दिन वष करने की प्रतिज्ञा की । भयानक युद्ध के मध्य अर्बुन ने जयद्रथ को मार भी डाला और उसके सिर को पिता की गोद में डाल दिया। इसके पश्चात् अश्वस्थामा मारा गया। मन कौरवों की हार पर हार होने लगी तो उन्होंने युद्ध के सारे नियमों का उल्लंघन कर रात्रि को सोते हुये पांडवों पर धावा बोल दिया। हजारों निहत्थे पांडव सेना मारी गगी फिर द्रोणाचार्य भी मारे गये । कर्ण व अर्जुन में परस्पर में घोर युद्ध हुआ और कर्ण भी प्रन के तीर से मारा गया । उधर भीम ने दुर्योधन के सभी भाइयों को एक एक करके मार डाला । इस पर भी दुर्योधन के हृदय की प्राग ठंडी नहीं हुई।
मेंस कहि कौरव पति, चले जुद्ध को धाई।
पांडव सेना सनमुखें, क्रोष प्रचंड बडाइ ।।४।। दुर्योधन भोर पांडवों के बीच भीषण युद्ध हुभा : लेकिन दुर्योधन बच नहीं सका पौर वह भी मारा गया । इसके पश्चात् शेष कौरव सेनापति भी मारे गये । पन्त में जरासन्ध भी कौरवों की पोर से लड़ने के लिए माया । जरासन्ध के साथ भीषण युद्ध हुमा । अन्त में जब जरान्सध ने चक्र चलाया तो वह भी श्रीकृष्ण जी के हाथ में पा गया। प्रौर कृष्णाजी ने चक्र चलाया तो उसने तत्काल जरासन्ध का शिर काट दिया। इस प्रकार १८ दिन तक भीषण लहाई होने के पश्चात् कौरव पांडव युद्ध की समाप्ति हुई पोर पर्याप्त समय तक पांडवों ने देश पर शासन किया।
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कविवर बुलाकीदास
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वाबीसवां प्रभाष
बहुत सयम व्यतीत होने पर एक बार धिष्ठर की राजसमा में नारद ऋषि का प्राना हया । महलों में द्रोपदी द्वारा नारद का लचिल सम्मान नहीं मिलने के कारण वह कुपित होकर यह उसके हरण का उपाय सोचने लगे। अन्त में घातकीखंड के सुरपुरि के पपनाभ राजा के पास गये और उन्हें द्रोपदी का पट चित्राम दिखलाया । पद्मनाभ चित्र देखकर उस सुन्दरी को पाने की अभिलाषा करने लगा मोर नारद से उसका पूरा पतान्त पूछ लिया। नारद द्वारा पूरा परिचय प्राप्त करने के पश्चात् वह यहाँ पाया और सोती हुई द्रोपदी का हरण करके अपने यहाँ ले माया । प्रातः होने पर जब द्रोपदी की नींद खुली तब उसने पारों मोर घेखा । पद्मनाभ राजा ने अपना सारा मृप्तान्त कहा और उसके सामने रानी बनने का प्रस्ताव रखा। द्रोपदी ने राजा पद्मनाभ को पांडवों का परिचय दिया । द्रोपदी के पुरा से हस्तिनापुर सीवादार भाष गय: । ा सुसज्जित कर दी गयी । पारों पोर तलाश होने लगी, इतने में वहाँ नारदमुनि पाये पौर कहने लगे कि धातकीखंड की सुनकापुरी के राजा पपनाम के यहाँ उसे प्रश्र वदना द्रोपदी देखी है । इस पर पाण्डव यहां अपनी सेना सहित पहुंचे । पपनाभ सेना देखकर घबरा गया और द्रोपदी से क्षमा मांगने लगा। प्राखिर उन्हें द्रोपदी मिल गई। सबने इस उपलक्ष में जिन पूषा कोनी। तेवीसा प्रभाव
सभी पाडय श्रीकृष्ण के साथ वापिस पा गये । पात्र अपने राज्य का समस्त भार अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को देकर मथुरा आ गये । इधर २२वें तीर्थकर नेमिनाथ ने गृह त्यागकर दीक्षा ग्रहण की मोर घोर तपस्या के पश्चात् कवल्य हो गया। भगवान का समवासरण रचा गया। कुछ समय पश्चात नेमिनाथ का समावसरण कयंत गिरि पर पाया । सभी पाण्डव उनके दर्शनार्थ गये। उन्होंने हरि राज्य एवं द्वारावती कब तक रहेगी यह प्रपन किया । इस पर नेमिनाथ ने कहा कि दीपायन ऋषि के शाप से वारिफा जलेगी तषा जरतकुमार के बाण से श्रीकृष्ण जी की मृत्यु होगी । जब जरत्कुमार ने श्रीकृष्ण की मृत्यु के समाचार पाण्डवों को जा कर कहे तो सभी पाण्डवगण रोने लगे। कुन्ती बहुत रोयी । अरकुमार को साथ लेकर वहीं गये जहाँ वलदेव हरि के मृतक शरीर को लिए हुए थे। पाण्डवों ने जब दाह क्रिया करने के लिए कहा तो बलराम बहुत क्रोधित हुए। कुछ समय पश्चात सर्वार्थसिद्धि से देव ने पाकर वसराम को सम्बोधित किया । प्रात में तुगी गिरि पर पाण्डवों ने मिलकर उनका दाह संस्कार किया । पिहिताबद मुनि के पास स्वयं बलराम ने भी जिन दीक्षा ले ली।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराजं
चौबीसवां प्रभाव -
पाण्डव वहाँ से द्वारिका भाये। लेकिन द्वारिका जल समान वह नगरी पब राख का कर थी। कवि ने द्वारिका की किया है
चुकी थी स्वर्गपुरी के दशा का अच्छा वर्णन
होते नित जिन श्रानन्द oraft चार्दिक रानी यह, नित करती हास विलास, बिनसि गई ज्यों नौरव रात्रि ।
ने सन विनसे तिनकें सदने
कुवर बुन् । भए दहं वह
यही सुजन की संगति रमया, खिनक छई है सरिता समा ॥
जगत की असारता जान कर पांचों पाण्डव नेमिनाथ के पास पहुंचे और उनकी स्तुति करने लगे। भगवान नेमिनाथ ने पाण्डवों को उपदेशामृत का पान कराया। इस रूप में कवि ने जिन धर्म के मूल तत्वों पर अच्छी तरह प्रकाश डाला है । पाण्डवों ने तीर्थंकर नेमिनाथ से अपने २ पर्वभवों को सुना ।
प्रभाव
इस प्रभाव में भी पाण्डवों एवं प्रोपदी के पूर्वभवों का वर्णन किया हुआ है।
छब्बीसवां प्रभाव
अपने पूर्व भवों को सुनने के पश्चात् पाण्डवों को भी जगत् से वैराग्य हो मय और सभी पांचों भाइयो ने जिन दीक्षा ले ली । कुन्ती द्रोपदी, सुभद्रा भादि रानियों ने भी प्रार्थिका राजमती के पास जाकर संयम धारण कर लिया । तथा सब्वी दीक्षा अंगीकार कर ली। वे घोर तपस्या करने लगे। एक बार उनको तपस्या करते देख दुर्योधन के भानजा को प्रत्यषिक कोष पाया और उसके हृदय में प्रतिशोध की अग्नि जलने लगी । उसने सोलह भूषण मग्नि में लाल करके उनको पहिना दिये। लेकिन के सभी बाहर भावना मात्रे लगे । अन्त में अपने आप पर पूर्ण विजय प्राप्त कर युधिष्ठर मीम एवं अर्जुन ने निर्वाण प्राप्त किया तथा नकुल एवं सहदेव ने सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की। वे दोनों मोक्ष प्राप्त करेंगे। महा भायिका राजमती द्रोपदी, कुम्ली स्वर्गं प्राप्त किया। भगवान नेमिनाथ को भी गिरिनार पर्वत से निर्वाण प्राप्त
पुनः तर भव धारण करके
एवं सुभद्रा ने सोलहवा
हुमा भन्त में कवि ने बहुत ही विनय के साथ ग्रंथ समाप्त किया है ।
कवि बुलाकीदास ने तत्कालीन वादशाहं को निम्नं सवैयां छन्द में उसमे किया है
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कविवर बलालीदास
मंस मुगलाने माहि दिल्लीपति पातसाहि
तिमिरलिंग सुत बाबर सु भयौ है । ताको है हिमांक सुत ताहि ते अकबर है
जहांगीर ताक पीर साहिहां व्यरे है । ताजमहल मंगना भगज उतंग महावली
मकरंग साहि साहिन में बयो है । दाकी छत्र छोह पार सुमति के उ भाई
भारत रपाइ भाषा जैनों अस लयो है ।।९।। पाण्डवपुराण में कौन-२ से छन्दों का किस प्रकार प्रयोग हुमा है उसका कवि ने निम्न प्रकार वर्णन किया है
छप्पे एक गाणे महार हाती ये भीग जास्ती
सएक सोरहेई परमानिये । छयालीस तेसो पारही पचीसीगनिलही
मुजंग नंद छंद जैनी जग जानिये। तीनस तिरासी डिस्ल नौ सौ तीस दोहा भनि
ढाईसौ सतान सुघोपई बखानिए । सारे इक चोर करि मानीये बुलाकीदास
एकादश पंचस हजार चार मानिये । कवि ने श्लोक संख्या निम्न प्रकार बतलायी है -
संख्या अलोक मनुष्टमी, गनीये ग्रंए लखाइ ।
सपा महल षट हदक पुनि पृषपत्त अधिक मिलाइ ।।१०।। - इस प्रकार पूरा पाणवपुराण ७५५५ श्लोक प्रमाण है । पापमपुराण की विशेषताए
पाहपुराण पयपि भट्टारक शुभद्र के संस्कृत पाण्डपुरण का पयानुवाद है लेकिन कविवर गुलाकीदास की काश्य प्रतिमा के कारण यह एक स्वतन्त्र काव्य ग्रन्थ के समान बन पा है। पुराण २६ पात्रों में विभक्त है जो सर्ग प्रथया अध्याय के रूप में हैं। पुराण कथा प्रधान है । पाण्डवों के जीवन वृत्तको कहने
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कविवर बुलालोचन्द, बुलाकोदास एवं हेमराज
का काव्य का प्रमुख उद्देश्य है लेकिन कवि ने पुराण के प्रारम्भ एवं अन्त में जो प्रभाव जोड़े है उससे काव्य का रूप पौर भी निखर गया है। पुराण के प्रथम प्रभाव में मंगल पाठ एवं श्रेणिक द्वारा वंदना वा भएन किया गया है। इसके पश्चात् प्रथम तीर्थ कर ऋषभदेव से ही पुराण प्रारम्भ होता है और संक्षिप्त रूप से काव्य रूप में कथा प्रस्तुत की जाती है। इसके पश्चात् शांतिनाथ कुथुनाथ एवं मरनाथ तीर्थंकरों का जीवन वृत्त दिया गया है ये तीनों ही तीर्थ कर थे साथ में चक्रवर्ती भी थे। ये सव वन पाण्डाबों के पूर्व भवों का सम्बन्ध जोड़ने के लिए ही किया गया है। इसी तरह कौरव पाणव महायुद्ध समाप्त होने के पश्चात् भी भगवान नेमिनाथ के जीवन एवं उनके उपदेशों का संक्षिप्त वर्णन, भगवान श्रीकृष्ण जी की मृत्यु, द्वारिका पहन, पाण्डवों द्वारा गृह त्याग एवं उनका प्रन्तिम मरण का वर्णन करके पाठकों को पाण्डवो के जीवन का पूरा वृतान्त बतलाया गया है।
पाण्डवपुराण का नाम दूसरा नाम भारत भाषा भी दिया गया है। शुभचन्द्र के पान्हवपुराण के अर्थ को समझकर उसके वर्णन को भारत भाषा कहा है।
मुनि शुभचन्द्र प्रनीत है कठिन प्रर्थं गम्भीर । जो पुरान पांडव महा, प्रगटै पंडित पीर ||४|| ताको पर्थ विवारि कै, भारथ भाषा नाम ।
कया पांडु सुत पंचमी, कोज्यो बहु अभिराम ॥५०॥
इसलिए पाण्डवपुराण को जन महाभारत भी कहा जाता है। वास्तव में यह पूरा महाभारत है जिसमें न केवल महाभारत का ही वर्णन है किन्तु युग के प्रारम्भ से लेकर जीवन के मन्तिम क्षण तक वर्णन किया गया है।
__ पाण्डव पुराण चीर रस प्रधान है जिसमें युद्धों का एक से अधिक बार वर्णन हुमा है । यद्यपि पुराण पान्त रस पर्यवशायी है, तीर्थकरों के उपदेशों का वर्शन हुना है लेकिन उसमें प्रमुख पात्रों की बीरता सहज ही देखने योग्य है । वे अकारण किसी से घबराते नहीं है, लेकिन अन्याय के सामने शिर भी नहीं झुकाते । पाण्डवों का जीवन प्रारम्भ से ही अच्छा रहता है। उनका. कौरवों के प्रति अच्छा ग्यवहार रहता है । कौरवों की सुख शान्ति के लिए वे अपने राज्य को प्राधा पाषा बांट कर भी सुख से रहना चाहते हैं। द्यूत कीड़ा में हारने के पश्चात् १२ वर्ष तक मज्ञातवास रहते हैं तथा अनेक कष्टों को भोगते हैं लेकिन अपने बचनों पर हत रहते है । युव तब होता है जम दुर्योधन १२ वर्ष पश्चात् भी उन्हें कुछ भी देने को तैयार नहीं होता। यही नहीं युद्ध में भी वे प्राय युद्ध के नियमों का पालन करते है
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कविवर बुलाकीवास
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जबकि दुर्योधन रात्रि को सोते हुए पाण्डवों पर एवं उनकी सेना पर धोने से प्राक्रमण कर देता है । पाण्डवों का पूरा जीवन जैन धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार रहता है।
1
भाषा
पाण्डव पुराण के कवि मागरा निवासी थे इसलिये पुराण की भाषा पर ब्रज भाषा का सामान्य प्रभाव दिखलायी देता है। पुराण की भाषा सरल किन्तु ललित एवं मधुर है । कवि ने पुराण अपनी माता जैनुलदे के पहनायें लिखा था तथा उसे सामने बैठाकर इसकी रचना की थी इसलिये क्लिष्ट भाषा के प्रयोग का तो कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता फिर भी कवि ने अपनी पूरी कृति के कथा भाग को प्रत्यधिक सरस एवं मधुर बनाने का प्रयास किया है। प्रस्तुत पाण्डव पुराण हिन्दी की प्रथम कृति है इसके पूर्व सभी रचनायें प्रपत्र श एवं संस्कृत भाषा में निवस थी । इसलिये कविवर बुलाकीदास ने अपनी माता के प्राग्रह पर पाण्डव पुराण की हिन्दी में रचना करके साहित्य में एक नया अध्याय जोड़ा था ।
बुलाकील भुगल गावे शासन काल में हुए थे । उस समय फारसी एवं अरबी का पूरा प्रभाव था लेकिन कवि इन भाषाओंों के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त है । कवि ने सुर नृप संवाद में गद्य का भी प्रयोग किया है। यद्यपि संवाद पूरा सैद्धान्तिक है लेकिन कवि ने इसे अत्यधिक सरस बनाने का प्रयास किया है । गद्य का एक उदाहरण देखिये
भो मित्र तुम सुनों यह बात ऐसी नाही जैसे तुम कहो हो । ता तुम सुनौ याको उत्तर । जिनमत के धनुस्वार से कहीं हो। सो तुम सावधान होइ के सुनौं । जो तुम क्षणिक अथवा सुभ्यमान हुगे । एकांत नय कर के तो द्रव्य सधने का नांही ॥ (पृष्ठ संख्या ६३)
गद्य को भाषा पर बस का स्पष्ट प्रभाव दिखलायी देता है ।
छन्व
कवि का दोहा एवं चोपई छन्द प्रत्यधिक प्रिय छन्द हैं। उस समय येही छन्द सर्वाधिक लोकप्रिय छन्द थे। पाण्डव पुराण इन्हीं दो छन्दों में निबद्ध है । लेकिन सर्वेया तेईसर, इकतीसा छप्पय, सोरठा, पडिल्ल, पाडी, छवों में भी पुराण निबद्ध किया गया है । प्रत्येक प्रभाव का प्रथम पद्य सर्वया छन्द में लिखा गया है। जो क्रमशः एक-एक तीर्थंकर से स्तवन के रूप में है ।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज इसके पतिरिक्त पाण्डव पुराण में तत्कालीन सामाणिक एवं सांस्कृतिक पम्पयन के लिये भी अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है । पाण्डव पुराण हिन्दी भाषा में निबद्ध किया जाने वाला प्रथम पाण्डव पुराण है । इसकी लोकप्रियता इसीसे पानी जा सकती है कि राजस्थान के विभिन्न प्रभ्यागारों में प्रब तक इसकी ३० से पषिक पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हो है चुकी । सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि संघर १७५३ पासोज पक्षी ६ को लिपिबद दिन पंचायती मन्दिर मरतपुर में संग्रहीत है।
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पाण्डव पुराण
(मुलाकीदास) रचना संवत् १७५४ (1697 A. D.)
प्रथ पाण्डव पुराण माचा लिरूपते
प्रथम सर्वज्ञ नमस्कार छप्पय छंद
सैवत सत सुरं राय स्वयं सिद्ध सिंथ सिरि मयं । सिरिष सरस नेय प्रमाणे सैसिधि अयं ।। करम कदन करतार करन रन कारन घरन । मसरन सरन प्रधार मदन दहन साधन संवन ।। बह विधि भनेक मुन गन सहित बंग भूषन दूषत रहित । तिहि नंदलाल नंदन नमत सिदि हेत सरयंश नित ।।१।।
बोहा वृष नाइक वृष वाद है वृष मंक दृष भैसें । सृष्टिं विधाता बृह्ममय बंदी पादि जिनेंस ॥ २ ॥ चंद्रालत मंद्र ति, चन्द्रप्रभू भगवान । चार चरन चरपी सदा, बितं चकोर सम ठान ।। ३ ।। पाति रूप सिर्व मर्य सही, सकल सत्वं सुखदाय । शांति सरम सुमिरी सदा, सरसं सिंधि सहाये ।। ४ ।। नगन भंग मनगहा, निपल सम नग इसे । मेमि धर्मरण हैति जिन, नमी न्याय निजसीस ।।३ वर्तमान विभु वीर्य क्ल, पर विधान पयत । विविध विधाता वोष मय, बिरको बुधि विकसंत ।।६।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
गणनायक गणधर गनी, गणपति गोतम नाम । अगति गहन को प्रगति गति, गाऊं तसु गुन ग्राम ।। ७ ।। जोब जुगति जस जननको, जननी जगत विख्यात । जैनी यांनी जिन तनी जभौ जोगी जती मारथी, जनम इस जुधि रीति । थिर थानक बिर हैं यप्यो सुधिर जुभि स्थिरमीत ।। ६ ।। भीम भयानक भव विष, भ्रमत भयो भयवंत ।
यथावत जात ।। ८ ।।
भरम भाव भारत रच्यो, मलख भगोवर प्रातनां अरजुन भाये प्राप मैं, निकुल करे कूल करम के कलायान वाले कवि कुल कहते हैं, नकुल नाम निरबिधू ।। १२ ।। सुगुतसतसम, देव करें जिस सेव ।
कविलक्षू ।
भीम नाम इहि मंत्र || १० || प्रनभ इ जु प्रचूकि । पाराची मह
मूकि ॥। ११ ॥
सुर सुभट सुभ साहसी, सत्य एवं सहदेव ।। १३ ।। पाई जिन या कालम, श्रुत सागर
भद्रबाहु
विश्रुत सूरि पुरखं मन उर्जयंत गिरि सोस ।
कुंदकुंद मुनि ईस ।। १६ ।।
या पुराण में कीजिये, जाकी साख सुविश्व मैं ताक सुमिरत उर विषै प्राह जिन पाषान की या फल मैं वादिन करी, देवागम जिन स्तवन सौं, प्रगट सुरागम कीन । समंतभद्र भदार्थ मय गुन ग्यामक गुन लीन ।। १७ ।। ज़िन वारिधि व्याकरन को लक्ष्मी पार मुनिराय । पूज्यपाद नित पूज्य पद पूज्ये मनवच काय ॥ १८ ॥ निःकलंक मकलंक जस, सकल शास्त्रविद जेन । माया देवी ताहिर, कुं भविता
पदेन ॥। १६ ।।
की चाह ।
निस्वाह ।। १४ ।।
विसाल । अभिलाष ।। १५ ।।
चिरंजीव जिन सेन जति, जाको जस जग मोहि । जिन पुरान पुरुदेव करें, वरस्यों चाहे साहि ॥ २० ॥
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पाण्डवपुराण
पुराणाद्रि परकाश क,
प्रभवंत
सूर्यापित है
भूषन
भूतल गुणभद्र गुरु,
मदन रतन गुरु चरन जुग, सरन गहो कर जोर । वरत के बाकी तरण
सोरठा
अपनो दंस बखान, नमस्कार करि अब सकल सुनो दं कान, वतन गोत कुल
अथ कवि स वर्णन
दोहा
नगर वयानो बहु वसे चार चरन जचारिव
जोइ ।
सोइ ॥ २१ ॥
मध्यदेश
कहीं ।
वर्णवं ।। २३ ।।
विख्यात ।
१२ ।।
१५३
।। २४ ।।
दीसँ
यहाँ न कोउ दालिदी, सब
धनवान |
जप तप पूजा दान विधि, मानहि जिनवर प्रान ।। २५ ।।
चाप्यो
अभिराम |
को
दास ११ २८ ।।
वैश्य वंस पुरुषेव नैं, जो तिसी ही वंस तज्ञां श्रवत, साहू अमरसी नाम ॥ २६ ॥ अगरवाल सुभ जाति है, श्रावक कुल परवान । गोयल गोत सिरोमनी, क्योंक कसाबर जान ॥ २७ ॥ धर्मरसी सो अमरसो, ललिमी को श्रावास | नृपगन जाको प्राद, श्री जिनंद पेमचन्द ताकी तनुज, सकल धर्म साकी पुत्र सपुत्र है। श्रवनदास Fतन बयानों छोडि सो, नगर संजोगर्त, निवस्यौ सदन भन्न पान वृधि निवास सो जानियें, श्रवन चरन कौ दास | सत्य वचन के जोग सौ वरतं नौ निधि तास ॥ ३१ ॥
को
गनियें सरिता सील की, बनिला ताके गेह । मानों रति की देह ।। ३२ ।।
नाम प्रनंदी तास कौ
आगरं प्राय |
धाम ।
अभिराम ।। २६ ॥
रघाय ॥ ३० ॥
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१५४
कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
उपज्यो ताके उदर है
मंगलाल गुन हृद |
दिन दिन सन मात पिता सो
चातुर्यता, व दोज क्यों चंद ।। ३३ ।। पढन को भेज दियो बटसाल |
सीखि के धारी
उर गुन माल ॥ ३४ ॥
सब विद्या तिन हेमराज पंडित
वसं
तिसी
मागरे ठाइ |
प्रवचनसार ।
गरम गोत गुन भागलो, सब पूजे जिस पाय ।। ३५ ।। जिन ग्रागम अनुसार तं, भाषा पंच अस्ति काया अपर, कोनें सुगम उपजी तार्क बेहजा, जैनी नाम सील रूप गुनी दीनो विद्या जनक में कोनी श्रति पंडित जाये सीख लें, घरनी
तल
सर्वच्या
सुगुन की खानि किषों सुकृत की सुभ कीरति की दानि अप स्वारथ विधानि परमारथ की राजधानि । रमाहू की रानी किषो जंनी घरम परिनि भव नरम हरनि ।
विचार ।। ३६ ।।
विख्यात |
हेम लौं उपनि सील सागर रसनि । अनि दुरित दर्शन सुर सरिता
दोहा
मैं
पाति ॥ ३७ ॥
वितपन्न |
वानि |
कीरति कृपान है ।
सुलोचना
धन्न ॥ ३८ ॥
जिनवान हैं ।
किथौ असरन सरनि कि जन निज हान है ।
समान है ।। ३६ ।
हेमराज तहां जानि के, नंदलाल गुन खानि ।
वय समान वर देखि दी, पानिग्रहह्न विधि ठानि ॥ ४० ॥
चौक
पुराय ।
इहि माय ।। ४१ ।।
तव सासू ने प्रीति सौं मोती लीनी गृह सूत्र नाम घरि, जंनुलवे नारि पुरुष सौ सौ रमे, घारै पूरव पुन्य फल भोग के जैय
अन्तर पेम |
जैम ।। ४२ ।।
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पाथरवपुराण
अल्प बुदि तिनकै भयो, वूलचंद सुख सानि । तहि अनुतबे यो पहे, ज्यों प्रानी निज प्रान ।। ४३ ।। मन्नोदक संबंध से, प्राइ इन्द्रपथ थांन । मात पुष तिष्ठे सही, भने सुनै जिन बांनि ।। ४४ ।। महम रतन पंडित सहा, शास्त्र कना परबीन । सूलचंद सिस हेस सौं, ज्ञान अंस का लीन ।। ४५ ।। कल्पलता माता सही, मल करमा गर । दुख हरता सौ यो महा ज्यो तम सविता प्रसु ।। ४६ ।। सब सुख दै तिन यों कही, सुनो पुत्र मो वात । सुभ कारज सं जग विष, सुजस होइ विख्यात ।। ४७ ।। महापुरिष गुन गाइये, ताही तं यह जानि । दोइ लोक सुखदाय है, सुमति सुकीरति यान || ४८ ।। मुनि तुम्वन् प्रनील है, कॉन अभं गंभीर । जो पुरान पांडव महा, प्रगट पंडित धीर : ४६ || ता को अरष बिचारि के, भारत भाषा नाम । कथा पाण्टु सुत पंच की, कोज्यो बहू मभिराम ।। ५० ।। सुगम अर्थ धावक सबै, भने भनावं जाहि । ऐसो रश्चिक प्रथम ही, मोहि सुनावी ताहि ।। ५१ ।। जननी के ए वचन सुनि, लीने सीस चढाइ । रचिवे को उद्दिम कोयी, धरि के मन वष काई ।। ५२ ।। यह पुरान सागर कहा, मै बालक मति भाय । तरिवे को साहस धरौ, सो सब हासमहाय ॥ ५३ ।।
चौपई जे कवीस मह जिनसेनादि, घंटे पर तिनके हम प्रादि । लह्मो पुन्य तहां तासो कथा, रचि हौं जिनवर भाषित मथा ।। ५४ ।। ज्यौं नर मूको वोल्यो चहै, सव जन ताकी हासी बहैं। स्यों यह ग्रंथ करत परवान, भाजन मोहि हसन को जान ।। ५५ ।। चढ्यो मेरु पं पंगुल बहे सब जग में वह हासी सहै। यह पुरान प्रारंभत प्रवे, तसे मोहि हसगे स॥ ५६ ।।
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कविवर बुलाको चन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज सकति हीन में ऐसी महा. तो भी शास्त्र करन कौं गहा । छीन घेनु म माया हेतमा न ई हिल सौं देन ।। ५.१॥ रवि समान जे पूरव सूरि, तिन हो द्रव्य प्रकासे भूरि । तिन कौं दीपक सकति समान, क्यो न प्रकास ज्योति प्रमान ।। ५८ ।। वर वाक की जे कवि भने, तर पलास बत जग मैं धने । पान वृक्ष थोरे वन माहि, स्यौं कवि उत्तिम जग बहुनाहि ॥ ५६ ।। दोष कवित्त को नास जेस, बिरले साधु जगत में तेछ । उज्जल कनक प्रगनि ते यथा, निरमल कवित करे ते तथा ।। ६० ॥ जे असंत हैं सहज सुभाइ, ते पर अर्थ हि दूखं घाइ। ज्यो दिन अंध लगावस घोष, देखन रवि को धारत रोष ।। ६१ ॥ ज्यों मदमत धरै बहुखेद, हेमाहेय न जान भेद । त्यौं जग मैं नर स्खल जो होर, सब ही कौं खल भारो सोइ ।। ६२ ॥ जलधर महिमा जग मैं कही, अंबुदान दै पोषत मही। त्यों सब जनों सज्जन लोग, देहि सदा सुभ सिया जोग ।। ६३ ।। संतासंत सुखासुल कर, सोम सपं सम उपमा घरै। कोविद जन सब आनत एम, ता वीचार सो हम को केम ।। ६४ ।। षट् प्रकार कहिये व्याख्यान, तिन मैं मंगल प्रादिहि जान । पौर निमित्त जु कर कारन ठान, कर्ता फुनि प्रभिधान जुमान ॥५५॥ प्रथम ही मंगल मा मैं कहा, जो जिनेन्द्र गुन गाए महा । जाक हेत जु करी ए ग्रंथ, सो निमित्त भव हरन सुभ पंथ ॥ ६६ ॥ भव्य वृन्द कारन जग लीन, ज्यों या मैं थेनिक परबीन । कर्ता मूल जिनेसुर मुनी, उत्तर कर्ता गौतम गुनी ॥ ६७ ।। तात उत्तर प्रौर जु भये, विष्णुनंदि अपराजित ठये। भगवाहु गोवद्धन और, इन प्रादिक कर्ता सिर मोर ॥ ६८ ।। भरथ विचार घर जो नाम, सोई नाम कहो अभिराम । ज्यौं पुरान यह पाडव सही, पुरु पुरुषन की महिमा कहीं ॥ ६६ ॥ मान भेद अब सुनीये सही, अर्थ गनत की संख्या नहीं। पद अक्षर की संख्या नाही, मोन भेद तुम जानौं यही ।। ७० ।। घट प्रकार यह भेद विचार, सुभ बलान करिए बुधि धार । पंच भेद वरने फुनि प्रौर, द्रव्य खेत्र प्रादिक तिहिं ठौर ।। ७१ ।।
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पाण्डपुराण
१५७
इहिं विधि सबै बिचारि के, बरन मुनी पुरान । वक्ता श्रोता मर कथा, सुभ लक्षण पहिचानि ।। ७२ ।।
प्रथम वक्ता वरणम
दोहा भब्य छमी सुबर गुनी, सुमि रुचित प्रथीन । न्यायवान नैयायिकी सीलयोन सुकुलीन ।। ७३ ॥ वतधारक वत्सल महा, भरु पंडित बहु होइ । लछिपीवंत सुमंत चिस, उत्तिम वक्ता सोच ।। ७४ ।। उक्तश्रावगामार भाषायां
सर्वस्या ३१ विद्वत सुव्रत्तवान सुन्दर सुबनवान
चारत प्रगल्भता जु इंगितग्य जानीये। प्रश्न मैं न योभ कर लोक को पिशान घरै
स्यास पूजा मोहि निर इछक बखानिये । भाष मित मभिधान दया ही की होइ सानि
अल्पश्रुत उद्धतानसु पुषता ठानीये ! बर्णत परुन सिष्य चाहिये सुवर्ण सुद्ध एसे मुन मागम से वक्तरि प्रमानीये ।। ७५ ।।
अप धोता वर्णन
दोहा
सीलबंत सुभ दर्शनी सुभ लक्षण श्रीमान । सदाचार चर चक महा, चतुर भतुर गुनखान ॥ ७९ ॥ व्रती सुदाला भोगता पक्ष सुपूरन प्रा । हेयाहेय विचार कर थिर थाप जिन पक्ष ।। ७७ ।। प्रतिपालक गुरु वचन को, सावधान प्रधान । क्रियावंत घरमातमा, मानिनीक विद्वान ।। ७८ ।। सुनि अवधारे ग्रह रहे विमल चित्त विनयश ! स्थागी हास कषाय की सौ श्रोता सुभ प्तग्य ।। ७६ || कहे सुभासुभ भेद करि, श्रोता बहुत प्रकार । हंस चेनु ए श्रेष्ठ है, मध्यम माटी सार ।। १० ।।
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कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
उक्त च श्राधमाचार भाषायां
सवैग्या ३१ मृतिका महिष हेस स चालिनी मसक कंक ___ मारजार सूवा मज सर्प सिला पसु है । जलका सछिद्र कुभ इम के सुभाव ही तें
सुभा सुभ श्रोता जानि कहे पारिदसु है । सम्यक विचारि इहे सुरस्वाभाव धारै उदरु
भावर विशेष करि छिमा सौं सरसु है। भक्त गुरु भीरु भव जैन वैन पारन को । पारायन श्रोता गुन मृत्ति पसू हेसु है ।। ८१ ।।
बोहा दार्थ जो उपदेस सुभ, ल इन बाता मुग्ध । ज्यो कच्च फूट पड़े, रहे न राख्यौ दुग्ध ।।२।। सब श्रोता हिरदै घरं, गुरु उपदेस जोछ । कोयो बीज सुभूमि ज्यो. भूरि गुनों फस होइ ।।३।।
भय कथा लक्षणं
दोहा कयन रूप कहीए कथा, सो है दोइ प्रकार । सुकथा जो जिन कही, विकथा और भसार ।।४।। चरम सरीरी जे महा, तिनके परित विपित्त । पुन्य हेत जहाँ वर्णीये, सो है कथा पवित्र ।।८५॥ पुन्य पाप फल बणीये, वरने त तप दान । द्रव्य क्षेत्र फुनि तीर्थ सुभ, अरु संवेग बखान ।।६।। जो स्व तत्व की पापि के, दूरि कर पर सत्व । शान कथा सो जानिये, जहां वरनै एकत्व ।।७।। गुन पूरन सभ्यक्त, सुभ बोष वृत्त संयुक्त । नाना विधि सो बीये, यह जिन भाषित उक्त ।।८।।
उक्त घ श्रावकाचार भाषायां
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पाण्डवपुराण
१५६
सर्वया ३१ जीवा जीव प्रादि तत्व सम्यक निरूप अर्थ
देह भव भोगन मांहि वर्ण निरवेद कौं । दान पूजा सील तप देस विसतार करि
बंध मोख हेतु फल भिन्न भने भेद कौ । स्थात प्रस्ति मादि नय सात जे विख्यात
मरु भास्न प्रान दया हित हिंसा के उच्छंद को। अंगी सरवंग संग त्यागै होइ सिद्ध अंग
सत्य कथा कथा एई नास भव खेद कौं ॥८६।।
रोहा
रिषि वशिष्ट सुक व्यास भरु, दीपायन इन मावि । तिन करिभाषित कथन जो, सो विकथा बकवादि | द्रव्य क्षेत्र रु तीर्थ मृभ. कान भास फल भोर : प्रकृत सप्त ए अंग हैं, मुख्य कथा की ठौर ।।९ ऐसी विधि यह बरन के, कहियत है अब सोछ । जो पुरान पावन पुरुष, भारत नामा जोइ ॥२॥ महावीर भगवान का जीवन
चौपाई जंबूद्वीप अनूपम लसे, पंडित जन बह जाम बस । भरत खेत प्रति सोभित मही, प्रारम खंड सुमंसिप्त यही ॥३॥ देस विदेह विराज जहां, सुर सम नर बहु उपजै तहाँ । सिद्धारथ नामा तहाँ भूप, नाथ वंस अवतार अनूप ||६|| सरच अयं की जा सिद्धि, बरत नौ निधि पाठौ रिधि । त्रिसला रानी ताके गेह. रूपसील बहु सुन्दर देह ।।१५।। चेटक भूधर गिरि सम जान, तहाँ उपजी सुरसरित समान । सौ सिद्धारथ सागर मिली, प्रीति कारिनी गुन सौं रली ।।६।। प्रथमाहि जाके तट छह मास, सेव करी सुर कन्या तास । रतन वृष्टि जाकै घर भई, पनद देव ने पापुन ठई ॥६॥
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कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
रैन पाछिली सोवत सही, सोलह सुपन देखे नहीं । गज गो हरि श्री माला दोइ, चंद सूर झष जुग प्रय लोह ।।६८! फूभ जुगम सरवर सुभ जानि, सागर प्रक सिंघासन मानि । व्योम जान ग्रह पृथिवी तना, मणि रासागनि घूमें बिना IIREL ए सुपने सुभ देखत भई, जागि उठी तब प्रमु पै गई । हाथ जोरि फल पूछयौ जब, उत्तर सब नृप भाल्यो तवं ॥१०॥ पुष्पोत्तर ते रह के देव, ताक गर्भजु तिष्ठयो एव । सुदि प्रसाळ छठि गज नछत्र, कीनी गर्म कल्यानक तत्र ॥१०१।। बत त्रयोदसिसुदि के दिना, जनम कल्यानक सुरपति ठना । वर्तमान यह प्रगटयो नाम, न्याप्त जाकै जग मैं धाम ।।१०२!! तीस बरष के भये कुमार, सुभ तरुनापी घारौ सार । किंचित कारन तब ही पाय, चित वराग धर्यो प्रषिकाय ॥१३॥ सब कुटंग ** पो नाही, पो. हिनश्वर सही। लोकातिक सुर तो लों नये, थुति करि के सुलोंकहिं गये ।।१०४॥ तब सुरपति सुरगन सह भाइ, जिन पद वंदे मस्तक नाइ । पुनि न्हयाय भूषन पहिराय, मुरगन भगति करी अधिकाय ॥१०५।। चंदप्रभा सिरिका सु भनूप. चित्र विचित्रित नाना रूप । साप पढि पुर बाहिर गये, परिगह त्यागि दिगंबर भये ।।१०६|| हस्तरिक्ष मृगसिर यदि दसैं, साझ समैं जिन दीक्षा लस । पष्टम थाप्पी मन को सोध, मनपर्यय तब उपज्यो बोध ॥१०७॥ पारन पाइ फिरे भू माहि, मौंन रहे जिन मोले नाहि । बारह बरष बितीते सर्व, जूभक ग्राम पहुँचे तबै ॥१०८।। तहाँ रजूकूला सरिता तीर, साल वृछ तल वैठे धीर । श्रेणी क्षपक चढ़े जिनराय, घाति करम घासे प्रधिकाय ।।१०६।। तन ही केवल उपज्योंतास, सकल लोक प्रति भासत जास । सोभित समोवसरन जिन राय, गिरि वैभार पहुंचे प्राय ।।११०॥ तरु पसोक पुनि दिव्य वखान, छत्र सिंघासन चामर जान । पुहप वृष्टि भामंडल सज, घन सम पोर सुदुंदुभि बम ॥११॥ सुरपति प्रापुन ल्याये जिस, गौतमादि ते गनधर लसै । मगध देस तहां सोभावंत, निवस सुरसम नर जहाँ संत ।।११२।।
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पाण्डवपुराण
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राण सदन पुर असिम नही, सवै नगर में राआ वहीं । मृतम अषन मानी महै, बहु मंदिर करि सोभा सहै ।। ११३।।
राजा श्रेणिक वर्णन श्रेनिक भूपति है तो और, नप गम मैं पनिये सिरमौर । सम्यक दृष्टि चित्र गम्भीर, परम प्रतापी धीर सुबीर 11११४।। प्रिय पेलिनी माफ गेह, माये जिन तिन जान्यो एह । पादिनाथ प्रबोध्यापुरि ठये, भरत भादि ज्यौं बंदन गये ।।११।। त्यौंहा श्रानक भूपते पल्या, दल भतरंग सुसाथे रल्यो । हिन हिनाट हय करते चले, गय मयमत्त सुगरजत भले ।।११।। नाना भाति प्ररथ सों भरे, ऐसे रथ सारथि अनुसरे । भटगन निरतत प्रति ही चले, बाजे बजहि मधुर धुनि रल ।।११७।। गावें जस बहु पारन भाट, ता श्रेनिक की पलते वाट । पलत राय सो पहुंचे तहाँ, समवसरन सुर राजै जहां ॥११८।। गज ऊपर उतरे तवें, घमर छत्र तजि दीने सवै । सिंघपीठ परि जिनि थिति फर, छत्र तीनि सिर सोभा घरै ।।११।। चार पतुर मुख च्यारौं दिसा, रवि सम ते जिनवर ते तिसा | सुर नर लग पति जाकौं नमै, तीनों मुवन पसंसा पमैं ।।१२।। पाठों मंग मही सौं साइ, नमन कोयौ परि मन बच काई । पूजा करि श्रुति कर अनूप, सब विधि पूरन थेनिक भूप ॥१२१।। श्रेणिक द्वारा महावीर की स्तुति
वोहा स्तुति जानिस्तोतारस्तुति, स्तुति फल फुनि प्रवलौह । पुति मारंभी वीर की, मन पत्र काम संजोइ ।।१२२।।
चौपाई सुम भगत भुवन पति सही, तुम थुति को सम कोउ नहीं । सुरपति सम भी असम भये, तुम गुन अंत म काहू लये ११२३॥
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१६२
कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
चित रहित चिनमष चिद्रूप, इन्द्रिय बर्जित निर्मल रूप । गंध विवजित ग्यायक गंध, वेत्ता रूप अनूप मबंध ।। १२४ ॥ नीरस अद्भुत रस उन्यो, तुम तहनायें रति पनि त्यो । बालक क्रीड़ा कीनी जहां, देव नाग श्राये तहां ।। १२५ ।। तिनक जीति प्रति अभिराम, बीरनाथ यह पायो नाम । वाल खेल तुम करते नहीं, मुनि जुग नभते भाये सही ।। १२६ ।। तुम देखत तिन संसद, सनमति नाम तुम्हारी ब ग्यानादिक गुण बढ़ते रहे, वर्द्धमान तुम ताते कहे ।। १२७||
महावीर को विश्वनि
ऐसे श्रुति करि बैंठौ राय, सभा मोहि नर को ठाय । तोलों बानी जिनवर तनी, होन लभी बहुगुन सौं सनी ॥१२८ ।। लालु घर गल हालै नांहि और अनछर गुन जिस मांहि ।
धर्म विषै मति घारी भूप, द्वं विधि सो करता रस कूप ।। १२६ ।। तजि गोचर प्रय श्रावक सना, आदि धर्म निरगंये ठंमा | स्थान गुन जप तप की थोन, ऐसो पद निरग्रंथ जानि १४१३० ।। गृह गोचर सुनि जो धर्म, दान सील तप सार्धं कर्म । नाक तनं सुख सोई नई सील सहित बावक बल गर्दै ।।१३१। श्राहारादि चतुविध वान, विविध सुपतहि देहि सुजान । भोगभूमि फल यास वहै, फुनि जिन भावस भावन रहे ।। १३२|| निज स्वरूप विद्रूप विचार, हृदय शुद्ध करि भावें बार यही भावना जान सही, जति श्रावक दोनों को कही ।। १३३ ।।
दोहा
ऐसी विधि सौ धर्म सब सुनिक मेनिक राय ।
गमन कीमो निज सदन को, बंदे जिनवर पाय ॥ १३४ ॥
चीपई
नृप न करि सो सेवित महा, पहुंचयों पुर भूप मंदिर जहां
महि सुरानी लिन संग ज्यो रति साथ रमत क ॥१३५ ।।
2
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पाण्डवपुराण
१६३
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चार चित करि पितत रहै, जिन बच भावन हिरदै लहै। निरषन जन की दनि सुदेत, सिद्धि प्ररथ सुभ माता हेत ||१३६।। वीर माथ धुनि दिध्य पखान, देत बले भविजन को दान । करयो सुस्वामी देर विहार जातो गुरपन देकर :: ::!
विभिन्न प्रदेशों में महावीर का बिहार भंग बैग कुर जंगल ठए, कॉसल और कलिंगे गये । महाराठ सोरठ कसमीर, पग भीर कोकरण गंभीर ।।१३।। मेवपाट भोटक करनाट, कर्ण कोस मालव वैराट । इन प्रादिक से प्रारज देस, तहां जिन नाथ कीयो परवेस ॥१३६ ।। भष्प रासि संबोधत बीर, देस मगध फुनि प्राये धीर । गिरि भार विभूषित भयो, मानौ रवि उदयाचन्न ठयो । १४ ।।
__ भगव नरेश द्वारा महावीर बग्वना जिन विभूत लखि भकथ अपार, विसमयवंत भयो बन पार । नृप मंदिर सोबत ही जा, जहाँ सिंघासन बैठे राइ ।।१४।। स्वेस छत्र छवि रवि माताथ, दूरि करें सब टारे पाप । मुकट मयूस ममस्तल गई, इन्द्र धनुष रचि सोभा ठई ॥१४२।। सूर चंद सम कुंडल वर्ण, रतन अडित प्रति सोभित वर्ण । हार मनोहर गल में लसें, फिरनों करि उडगन को इसे ।।१४३।। दोरष दिनु भुज बाजुबंध, पर करकट कहर तम खंध । भेट अनेक जु प्राय लेइ, तिन पै हित सौ लोचन देह ।।१४४।। दंस मरीचि अधिक ही धरै, तिन कर भूतल उजल करें। मागम गुन गावं संगीत, तिन को सुनि करि धारै प्रीति ।।१४।। नृप कुलीन बहु थुति कौं फर, वर कृपान कर सोभा धरै । जान दीपो दरवानी जवं, ऐसो भूपति देख्यो तवं ॥१४६।। नमस्कार करि तहां वन पाल, कोनी विनती सुनि बाल । नाथ पंस म उपजे जोह, वीर नाथ जिन प्रायै सोह ।।१४७।। गिरि भार विभूषित कीयो, फुनि भूमंडल मचिरज सीयौ। महावाघनी कहना ठानि, मो मुत छीन निज सुत जानि ॥१४॥
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१६४
कविवर बुलाकीचन्द बलाकीदास एवं हेमराज
मारणार मर मूषक रम, नागन कुल इक जारी परें । गज परि शावक अरु मृगराइ, खेलै मापस में अधिकाइ ।।१४।। सूके सर बह जल सौं भरे, कोक मराल सबद तहाँ करे । शुराम या
मिन, सौ नि मन मानो पूमि ॥१५॥ सिस प्रभाव वन मचिरज पर्यों, सब रितु के फल फूलों भरयो। यह अचिरज मैं देख्यो राय, तिनकी भेट करी मैं माय ।।१५।।
दोहा वचन सुनें वनपास के, हरयो रित पति भूप । सृषावंत ज्यौं नर लहै, ललि के ममृत रूप ॥१५२६६ .
सार वित्त वा पानहिं राजा पाए । सात पंडि उठि प्रणम्यौं जिन दिस काइ के। जा प्रसाद चित परमानन्द भनंदिए । ऐसे परन कमल जुग जिन के बंदिए ॥१५|| बमान गुन सोन गुनी गुनपाल है। धर्मवंत प्रत बंत सुसंत दयाल है। सुजस सवा जग राइ बई जिन बंदए । नमस्कार · कर जोरि जिनुलदे वंदए ॥१४॥
इति श्रीमन्महाशीलाभरणभूषित जैनी नामांकितयां लाला धुलाकीदास विरचितायो भारत भाषायां में रिणक जिन बंदनोत्साह वर्णनो नाम प्रथमः प्रभवः ।
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बोसको प्रभाव
प्रथ अनंत जिन स्तुति
दोहा
भव अनंत यह जलनिधी, ताको है वर सेतु । जिन अनंत गुण अंत नहिं, बंदी पिशव सुख हेतु ॥१॥ एक समय बिरकत बिदूर, भये विषय सुख माहि । छिन मंगुर संसार में, जान्यो थिर कछु नाहि ।।२।। विदुर चतुर चितवत, (चित) पिग संपय धिग राज । घिग प्रभुता सिंग भोगए, सब अनर्थ के काज ॥३॥ जाक कारन जनक को, हत पुत्र धरि क्रोष । कईक सुत की मारई, पिता पाह दुरबोध ॥४॥ हनत मित्र को मित्र ही, बंधु बंधु को मारि । भव सुख कारन जीवए, करत काज मविचार ।।५।। ए कौरव प्रति दुरमती, महा करम चंडाल । इन को मरते रण विष, लख्यो न चाहूं हाल ॥६॥ यों विद्यारि कौरवन सौ, कहि करि वन मैं जाइ। विश्वकीति को नमन फरि, सुनत धर्म परि भाइ ॥७॥ भए दिगम्बर संजमी, अंबर तन ते स्यागि। मायाम्यंतर तप चरम, परम तत्व चित लागि ।।८। एक समै कोइक महा, सार्यवाह परवीन । राजमही पुरि ईसकी, भेदि रतन बहु कीन ॥६
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कविवर बुलास्त्रीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज पूछी ताहि नरिंद नैं, कहा ते भायो भाइ । कहो कि द्वारा नगर, तै तुम देखन को राइ | १०|| पुनि पूछा ा म , होल नाम है भूप । तिन भारुपी बैंकुठ बल, नेमि नृपति जिन भूप ॥११॥ जादव निवसे सुनत ही, जरासंघ हूं ऋद । जलघि हल्यो मनु प्रलय को, चस्पी करन को जुस ।।१२॥ शुद्ध वहत दिन हेतु ही, ऐसे नारद पाइ । जरासंध को छोम सब, हरि सी को बनाइ ।।१३।। नेमि निकट फिरि जाइ के, प्रागै ठाड़ी हो । पूर्थी परि सौं जीति हो, सत्य कहो तुम सोइ ।।१४।।
भनाय अकाइ के, गिरयों हरि की पौ । सब अपनी जय जांनि के, विष्णु पदयो दल जोर ।।१५।। बल हरि के संग नुप चठे, समुदविन बसुदेव । मनावृष्टि परु धर्मसुत, भीम सु पणुन एव ।।१६।। घृष्टद्युम्न प्रचम्न जय, सत्यकिसारण संछ । भूरिश्रया सहदेव घर, भोज स्वर्ण गर्भवु ।।१७।। द्रुपद बध प्रक्षोभ विदु, सिंधीपसी पोंबरीक । नागद नकुल सुक्रपिल कुरु, खेम धूर्त बाल्हीक ।।१८।। महानेमि दुर्मुख निषष, विजय पारय भानु । चार कृष्णा उन्मुख जयन, फुनि कृतबर्मा जान ।।१६।। नृप शिखंड बैराट नृपति, सोमक्षप्त इन मादि । जादव पछी नृप महो, प शुद्ध कौं सादि ॥२०॥ जरासंघ को द्रुत सब, दूरभोषन तट जाइ। नमसकार करि बीनयो, सुनौ चकि बचराइ ।।२१।। दुदर मार्यो कंस जिनं, पक्रिसूता पति भूर । मुष्टि घात से चूरियौ, मल्ल बली चानूर ॥२२॥ करिहिं धर्मो गोबर्ट' गिरि, पहि मर्दक गोपाल । प्रगट भयो सो भूविष, भारत मद सविक्षास्त्र ||२६॥
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पाण्डवपुराण
जे जादव रण ते टरें, ते अब सुनीयें जीव तें
जरे प्रगिन में घाइ । बसे जलधि महि जाइ ||२४||
रतन भेट करि वैश्यमै, कह्यौ चक्रि प्रति एम ।
राज महा जावध करत, द्वारिकपुर मय हेम ||२५|| द्वारिका, बसत सुनें चक्रीस नृपन पै पठए दूत भभीस ॥ २६ ॥
जादव पांडव
महाक्रुद्र है
पुष
एक बरस में भूप सब मिले सही गुन रास ॥२७॥ ॥ तात हे कौरवपती, सो तट पठयो मोहि चक्रवत्ति प्रति प्रति तँ अबहिं बुलावत तोहि ॥ २८ ॥ सारी साजि सुक्छ । प्राबहू मो तर छ । २६ ।।
विविधि बाहिनी अपनी तुम प्रति चत्री यौं कह्यो,
सोरठा
सुनत भयो रोमांच, मागथ को प्रवेस यह । वसना भूषण दतं ॥ ३० ॥
पूज्य दूत सु संच, जो मो मन यो इष्ट, सोई पत्री भब ठनी ।
ह्वं सबहि विसिष्टि, निज चित यो चिरचितयों ॥ ३१ ॥
REE
सवैया २३
सुरन में वर सूर दुर्बोधन, ताहि स रा रि दिवाई । जाकी महा घूनि व्याप्त भू, नम छोभ भयो चहुँ सागर ताई । धीरन के तन रोम जगाइ, सुजुझन कौं चित पौंप लगाई। कार कंपत काइ महा, भय खाइ सुन के कौन घसाई ||३२||
सज्जि चली चतुरंग चमू चय, मत्त मतं सागर से नहि मद्धि से रथ, चंचल चाल चल चल चामर, समुन के प्रसने की सुदौहि
महा निकसेई । ममी नक सेई ||
सारथि सों चारु तुरी सुन जीत कसेई । सुरपयादल की नक सेई ।। ३३ । ।
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१६८
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
पोहरा
रजाइ ||३६||
कौरव दल दलमलि घरनि, छाई रेनू प्रकास । दुख कहिये को भूमि मनु चली इन्द्र के पान || ३४ | क्रम तैं कौरव बाहिनी, मिली पनि दल संग | सब ते अधिक समुद्र को, भाइ रली मनु गंग ॥ ३५ ॥ दुरजोधन को मान बहु राख्यो मागध राह कर मिल्यो यो कोरवाह, ज्यों रवि किरण तब पठयो चक्रीस नै, दूत यादवनि तुरित जाइ सों बीनयो, सब सो बचन भो जाधव सुम प करत, श्राज्ञा यह जा बसे किम जलधि तुम, तजि के समुदबिज बसुदेव ए. हम प्रीतम हैं पादि । वांचि प्रापको किहि लये, गए सुछिपि के बादि ||३१|| चरन जुगल चक्रीस के सोवोह यब तनि गवं । जा प्रसाद तें तुम लहो, राज पाट ऐसी सुनि केवल बली बोल्यो कोषित होइ । हरि को सजिया मू विषे चक्री घोर न कोइ ॥ ४१|| ऐसी सुनि फरकत पर दूत भनेँ जातें तुम सागर विष, जाय छिपे तिस पद पंकज सेव तँ, कहीयत कौन सुदोष । भावत हैं तुम पे चढ्यो मगध राइ धरि शेष ||४३|| भुकट-बद्ध नृप संग । करें छिनक में मंग ॥ ४४ ॥
सुख सर्व ॥ ४० ॥
ग्यारह छोहिनि दल सहित मावतं ही तुम गर्व को,
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बच कठौर सुनि दूत के मन इंछत मुख बकत है,
यो सुनि निकस्य दूत तब
·
उन्नतता शादवनि की
पासि |
प्रकासि ॥ ३७॥
चक्रेषा ।
अपनों देश || ३६ ||
हि भाइ । भय खाइ ||४२ ||
बोले पांडव साहि मारि निकासी याहि ॥४५॥
भायो ची तीर । बरनी अधिकहि धीर । ४६ ।।
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पाण्डवपुराण
सोरठा महो देवते जादया, महा गर्न ग्रह ग्रस्त । तुम को रंचन मानई, ज्यों मदिरा मद मस्त ।।४।। असे बधन सुमि सकपर, रश दुभ अंजाम । पलिने की सदित भये, मंग लए सब राइ ॥४८|| दीपतिवंत बिमान बद्ध, बैठि चले खग भूप । रवि पंकत्ति मनु गगन में, घाई उमडि अनूप ।।४६।। बहु नरिव भूचर महा, भूमि चले मनु चंद । उडगन सम हुति बैत अति, संग सजे भट वृद ।।५।। द्रोण भीष्म जयद्रथ रुकम, अश्वथाम फुनि कर्ण । सल्य चित्र वृषसेन नृप, कृष्णवर्म सुन वणं ॥५॥ इन्द्रसेन मरु रुधिर भी, द धन दुःसास । दुर्मष दुद्धर्ष इन प्रभृत, चली नृपन की रासि ।।५।। पगते भूकंपन करत, पाए सब कुरु खेत । तजिक ममता जीव की, फरर्यो मरनसौं हेत ॥५३।। केईक नृप सुनि बात यह, जजत भये जिनदेव । केईक गुरु तट जाइ फं, लए अनुक्त एव ।। ५४।। के इक नरपति यो कहत, तजीए गृह सूत धार । कर मैं लोजे तीन प्रसि, कीज परि संघार ||५५।। केदक निज निग भृत्य प्रति, कहत भये नर राइ। चापहे पनिच चढ़ाईये, गण गन सजीह बनाई ॥५६॥ जीन सजी बाजीनि मैं, मुबी भोजन मिष्ट । प्रश्व रथन सौं जूजीये, दीजे वित्त विशिष्ट ॥५॥ इह बिधि भाषत सन मैं, गजि गज के राइ । निध निज प्रायुद्ध कर लीये, घमकावत अधिकाइ ।।५८। केई फिरावत कुत कर, गदा उछारत उचि । कोई तीर चलाव ही, रंचि निशाना संचि ॥५६।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज केईक सुरसभा विष, सरन मरन की बात । अपने ही मुख मान सौं, भाषण हैं बहु भौति ।।६।। तो लो हरि को दूत तहाँ, गयौँ फरन के तीर । नति करि भगतिहि वीनयो, मो बच सुनिये धीर ।।६१॥ जुगति होई सौ कीजिए, सुनौं सत्ति प्रवनीस । जिन भाषति नहिं अन्यथा, के है हरि चक्रीस ।।१२।। कुरु मांगल सुभ देश को, सकल राजा तुम लेहु । पांडु पुत्र कुन्ता जनित, मानहुं मौ बक एह ।।३।। भ्रति पञ्च पडिव जहाँ, तहाँ पायो तुम पीर ।। बचत दूत के मुनत इम, बोल्यो कणं सुधीर ॥६॥ प्रब' हम मावन जुगत महिं, न्याय उलंघहि केम । राजा रन के सनमुखें, नीति न त्यागत एव ।।६।। सेबित नृप को रन विर्ष, मत्यन मुन्नै कोइ । जो मुछ तो प्रध लहै, अपषस जग में हो ॥६६॥ निहर्च सेतै गर पर्छ, पाण्डव राज छिनाइ । दै हो नए पद कौरवहि, यही कहीं तुम जाइ ।।६७॥ यो सुनि निकस्यो दूत तब, गयो तहाँ सुविचार जहाँ चक्रो फौरव सहित, बैठे सभा मझार ॥६॥ नति करिक यो बीनयो, सुनौं चक्रि तुम बात । सधि करौ जावन सौं, और भौति नहि सोति ।।६।। सांचि सहित सुनि जिन उकति, केशव ते तुम मति । गंगा सुत को नाश है, नृप सिखंडित सति ।।७।। पृष्टार्जुन के हाथ त, मरण द्रोण की जान । परम पुत्र ते मृत्यु है, सल्य तनी परवान ।।७।। दुरजोधन को पञ्चता, भीमसेन तं गन्य । जयद्रथ पारथ हाथ से, कारन सुत पभिमन्यु ॥७२।। कुरु पुषन को मृत कही, चानडे माग राइ ।। निहरे ते यह जिन कथिस, हम जानत है भाइ ॥७३॥
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१७१
पाण्डवपुराण
यौं कहि निकस्यों दूत सो, द्वारापुर में पाइ। नमस्कार फरि हरि प्रतें, कयों कि सुनिये राह ।।७४।।
आई तिनको बाहनी, कुरु स्खेतहि है देव । जुस विष संकट भये, कणं न प्रावत एव ।।७।। तुम फु प्रमु गंतव्य है, तुरितहि मब कुरु खेत । सत्रन सौं जोषष्य है, जुछ विष जय हेत ॥७६॥
सोरठा ऐसी सुनि हरि पूर रण को उदित चित्त भये । पाच जन्य को पूरि ५ अम्बर धुनित सुन्यों ॥७७।। सुनत समस की गाजि सैना केसव की चली। कुरक्षेत्राहि ग्न कान्द्र, राजन इन्द्र नम मनो '.७८।।
सर्वया २३ माधव की चतुरग रमु चल चल चाल लई अचलाई । मानहुं मेटि दई पगस दरि रेनु भई सु पकासहि घाई । के घफुलाई के भार पर भय भीरू भमें सुर लोकहिं पाई ।
के उमही परि जारन को परसाप दवानल घूम महाई :१७६॥ अथ चतुरंग व वर्णन
-- प्रथम गज वर्णनं - मत्त मयंद झर मद नीरहि स्याम मनौं घन काल घटाई । सेतु सुकेतु ल- तिनपै बग पंकति की परसी उपभाई ।। कंचन की चमके चई प्रोर बनी चउरासि किंधों चपलाई। घेरि चले हरि रूप धरै मनु मेटन को परि ग्रीषमताई ।।८०11
--अथ रथ वर्णनं -- सागर छार पपार चमुंभरि तारन कौरथ पोत सहाई । बचमई पर वक्र धरै मध प्रश्व चल मनु पौन बहाई ॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
उन्ना सं धी पटु :: जि का भी ग: प.। र पंच दल समा दाई ॥१॥
__ -मथ अश्व वर्णनं - चञ्चल चाल चले चन चामर, चाव तुरंगम अंग सुहाए । फिक्रिनि हार गरे भप पाखर लापर कंचन जीन कसाए । मारू बजे तजि नीद न, परचें नही जमके नटवाए। पौन के पूत किंधों बड़या सुल सत्रु समुद्रहिं सोखन धाए ।।१२।।
-अप पदाति बपन -- स्यांग सु कौच कठी दिढलाइ, किधों तन पंधन की छवि छाया । सूर पयादल ढाल विसाल महा करवाल लयें कर पाए ।। कांघ कमान कटारि छुरी सर कोस सु बैंचि कटिझाए । दुरजन के दल वारन की मनु दौरि चले जम पुत्र महाए । ८३||
वोहा ऐसी विधि चतुरंग दल, लीन आदक राई । प्राइ ठये कुरुखेत तट, महा उदय फौं पाइ ।।४।। दुनिमित्त तब बहु भये, जरासंषि की सैन । दृश्य के सूत्रक प्रगट ही महा मजस के दैन ।।५।। भयो राहुते रवि गहन, मगन मांहि भयदाई। वरस्पों बारिद बिन समैं, दीनी सैन बहाई ॥८६॥ प्रात ही काग धुजान पं, रवि सन मुख एडन्ति । गृद्ध कुद छवादि पै, बैठे नसनि खनन्ति ॥ ७॥ भूकम्पन अनहद रुदन, मार मार ध्रुनि बाह । बार-बार उलका पतन, पिर चिष्टि दिगदाह ।।८।। कसगन लखि कोरब पति, मन्त्रि प्रतें यो भाखि । दुनिमित्त हे मन्त्रिपति, लखीयत है वहूं प्रॉखि ।।६।। मंत्रि कहै भो प्रमु कहाँ, नाहि सुनी सुम बात ! गिलि है सर्बाद तिमिगि ज्यों, यह कुरुश्चेत विश्यात ।।६।।
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पाण्डवपुराण
सरिता रुषिर प्रवाह की
तामैं स्नान करे बिना राछस भूत पिचास गर्न, तिनके तिरपत कारनं
वह है या भू माहि । रहि है कोऊ नांहि ॥६९॥ चाहत बलि नर मांस । मरि है बहु भट रासि ||१२|| निरत करत भकास |
हैं विधवा घास ॥६३॥ प्रात पात्र के भाल । भरून बरुन विकराल ॥१६४॥
जरि है आयुध प्रगनि तें कौरव वंश विसाल । यौं भापत दिग दाहू यह, राज बाल भूचाल ।। ६५ ।।
मुंडि फिकारत राहसी, राजनि की अनिता घनी गिद्ध स्थाल मंडलात अति होइ धरनि लोधनि मई,
कुत्सित रन को खेत है, रुदन करतुद असद
यह कुरु खेत कुखेत । कौरव नासत हेत ॥ ६६ ॥ कुनि दुरजोषन यों को कहो मंत्रि मो इष्ट कितनी है मरि बाहिनी, किसने भट हम सिष्ट ||१७||
सो बोल्यो सुनिये नृपति, जे भूपति बल जोर । दनिवासी से सबै भये विष्णु की प्रोर ||
१७३
सवैधा २३
है बहुत करि सिद्धि कहा, प्रभु काइर स्थारन सूरनि मारैं । एक धनंजय सब भूपत एरण मैं न बराबर सारं ।। कोई समर्थ निवारन कौं नहि, जारि सौं प्रसुरादिक हारें । और हली हल मूसल धारत, जास नसे प्ररि हुँ भय भाई ||
विद्य सुप्रग्य यती प्रमुखा, जिस सिद्धि भई अरिनासक सारी ।
1
मार कुमारि सु ताहि निवारण को रण मै नहि सैन हमारी ॥ पावन पान सत्रु बिनासन, भूपरि भूप भुजाबल घारी | मोहि न दीनत कोइ बली, तुम ता समहा बल को मपहारी ||१०० ॥
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कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
बोहरा
सात अछोहिनि बल सहित, भूपति बली प्रसस्त तिनकी पाइ सहाइ हरि, सब घरि करे निरस्त || १०१ || एकादसह छोहिनी, दल दुरबल हम साथ | कहा होत बहुते भये, जो न बसी हूं नाथ ॥ १०२ ॥ ऐसी सुनि हुरजोध नृप को चक्रि प्रति स सत्रुन कौं तिन सम गिनत, भारत चित अति ग
।
।। १०३ ।।
सर्वय्या २३
माजरा सुद्ध कौल रहे सम भार घरा परि, भोर भये रवि की कर लागें ॥ ज्यो बिचरं मृग होइ सुछंदन, केसरि सोभित केसरि जायें।
,
मुक्त करा मांहि भरी सब देखत ही दश हूं दिसि भागं ।। १०४ ।। यों कहिकै त्रय खंड पती, गजराज चढे रण कौं चढि आयो । ताही समं दिसि नाथन को दस दिसि साथहि कंप दिवायो । संग लये गजराजनि के नर, छत्र निसे नभ भांगन छायो । रेणु उड़ाय चमु चपनें घन, रूप भये
तिन सूरहि पायो ।। १०५।।
जरासंधि निज सेन गरुड व्यूह श्रीकृष्ण
वोहरा
में,
नै
सर्वया २३
चका व्युह सुरचाय |
ठान्यौं बहु भय दाय ।। १०६ । ।
दोक महा दल दारुन ले हम, घोर भयो तम भू रज छाये । जाय छिपे जुग कोकन के निज, आलनि में रवि अस्ताये ॥
काग पुकारि उठे भय पाय सुद्योसहि में निति के भरमाये । जुद्ध पग्य प्रति कोप जग्यो, जम के परलै प्रगटी रन ठाये ॥ १०७॥१
वोहरा
माधव मागध यों मरे, एक राज के हेति ।
जीवन ममता वजि सुभट, सरन मंडे कुरुखेत || १०८ ||
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पाण्डवपुराण
सोरठा उमगि चले रन खेत, बुई प्रोर के सूर यों।
गाकि क के ऐन, निन माय लैं ।।१०।। करत धौर संग्राम, तजि सनेह निज देह को । बिसरि भाम सुख धाम, सुमरि सूरपन सूरही ।।११०॥
अलि
असि निकासि ललकारि, चले निज कोस ते। देत सत्रु . सिर माहि, भटाभट रोस हैं। धन कुदाल ते जैसे, दली भेविये ।
त महाते तों, परि माया छेदिये ।।११॥ घन समान भट केइक, मति ही मजि के। गुजं घात ते मारत, परि कौं तजि है ।। रकत धार निकसी, गज कुभ विवारि ते । भई लाल दस दिसि, मनु कम विदारि से ॥११२॥ हनत अश्व प्रसवार, सुह्य प्रसवार ही। धाइ धाइ रथ सारथ रहिं हकार हीं । मत्त मत गजराज के, सनमुख प्रावहीं । कुभ कुभ त, दंतहि दंत भिरावहीं ॥११॥ बान बान ते छेदि, घनूर सूरहीं । संचि बैंपि पाकणंहि, अंबर पूरही ।। परस परस हैं, वाड हि दण्ड सुखंड हो । करत जुर परचण्ड, महाबाल बंड ही ।। ११४।। चक्रि सैन ते हरिदस, भाज्यो ता समैं । जल प्रबाह ज्यों, दावानल ज्वाला दमैं ।। कुवर सबू तब निज जन धीरज धार तो। मुडयों जुड़ को, उद्धत परिगन मारतौ ।।११।।
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१७६
कविबर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज छेम विद्धि षय तन ही सन्मुत्र मापक । लही सबसौं प्रति ही बल प्रगटाय के ।। करौं संवु नै रविन भूमि गिराइयो । जुख छोडि सो खेचर, तब ही पालाईयो ।।११।। उठयो मोर खग तोलौं, रण को मद धरें। विधा मांहि सुविसारद, प्रायुष अमरें ।। करयों संबुत सो भी, निरबल ऋद्ध से। कहयो भाजि मत खग रे, अब तू जुद्ध तं ।।११।। बार बार ललकारयौं, भैस भाषि के। गयो भाजि खग ती भी, जीवहिं रात्रि के।। कालसंबर सुत वहीं, प्रायो खगपती । हुनत सत्रु को पहिरै, कंकट दिढ प्रती ।। ११८॥ कुबर संबू के सनमुख, पायौ जुद्ध कौं। धनु चढाइ सरलाइ, बदाइ विरद्ध कौं । तबहि संचु को, बज्जिसु मायो मार हीं । मेघ मोघ ज्यों बरक्त, शर की घार ही ।।११।। भने मार खग प्रति, तू जनक समान है । शुद्ध जुक्त नहिं तो, संग म्याइ प्रमान है ।। फिरि सु जाउ तुम तात, हम सौं मत लरे । तब हि मार सों, खगपति से उच्चर ।।१२।। स्वामि काज के कारी हम सेवग सही, जुस मांहि वच ऐसे काहि ने हैं कहीं । कर निसंक तु तातै धनु संघान ही, जुन माहि नहि दोष भरे प्ररि हान ही ।।१२१॥ सहि मार अरु काल सु संबर गाजि के, करत जुद्ध जुग जोधा प्रायुध साजि के ।। लगी बार बहु रति पति की लरते जबै । तज्यो बनि प्रज्ञपती विनामय तवं ।।१२२।। सकल शस्त्र करि व्यर्थ भयो तब खग पती । पून्मवंत स्यौं चल न बल भरि को रती।
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पाण्डवपुराण
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कालसंबरहि बोषिकर्यो निज रथ विर्ष, मल्यखेट नब गायो 'पा के मनमुते ।। १२३।। तबहिं मारनै छोडे सर बह तीछना, छदि सल्य को संवन कीनो जीरना । सल्य और रथ चढि के रण प्रति ही कर्मा, सिम्ममान को या मनसों दानुसरो ।।१२४।। हस्यो मार फौं सरत मूछित कर दीयो, बहरि यांन गन तजि के रष णित कीयो । गिर्यो स्वामि अरु देख्यो रथ टूट्यो जबे, भयो सारथी अति ही भय पीड़ित तबै ।।१२५।। ह्र सचेत उठि बैठ्यो तोलौं काम ही, सुथिर चित्त हबोल्यो गुरु गणा धाम ही । पहो सारथी हिरवं भय नहिं धारिये, भये भीत रण मांहि परिसों हारिये ॥१२६।।
दोहरा
रण सनमुख काइर भये, सुर नर सभा मझार । खेटन मैं पाहब नमैं, ल जीए पावत हार ।।१२७१। फुनि दशाई बस कृष्णा मैं, आवै हम को लाज । सात या तन प्रसुषि ते, ह है कौन सुकाज ।।१२८।। कीजै पुष्ट शरीर कौं, करके सरस महार । को गुण तासौं बुद्ध मैं, जो भाजे भय धार ||१२६।। यो कहि मनमय अन्य रय, जति सारथि थिर कीन । सिस्सुपाल के अनुज सौं, बहुरि भयो रण लीन ।।१३०॥
अडिल्ल सगे जुद्ध को दोऊ रण कौबिद महा । दुहू मनि तिन के मामो हरि तहां ।।
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१७८
कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
तब सत्य खग षायी भट प्रति विष्णु को । कहत एम सिर छेदों श्रब में कृष्ण करें ॥१३१३ नभ खगेश में छायो वामन सौ तबै । परत दृष्टि नहि केशव रथ सारथि सबै ॥ मन मद्धि सर पंजर घेरे भानि कै ।
लखें सूर सब जीवित संसय
जानि के ॥ १३२॥
कंपमान रुधिरारुरण नर एक और हीं । भाइ कृष्ण प्रति बोल्यो तिस रा ठौर हीं 11
भो मुरारि किम करत वृथा तुम जुद्ध ही । हते पांडवा पांची रण मे क्रुद्ध ही ।। १३३ ।।
फुनि दशार्ह से बलघर जोधा और जे । जरासंघ ने मारे रण में ठोर से नगर द्वारिका सिंधु विजय नृप जोर है : जुद्ध मांहि सो अरि ने भेज्यों जम ग्रहै ॥। १३४ ।। लई सत्रु नै निहुचे द्वारावति पुरी | श्रबहि नाथ क्यों मरत वृषा तुम हे हरी ॥। भाजि जाहु तुम रण ते जो वांछों सुखें । मायामय बच सुनि इम हरि बोल्यो वषै ।। १३५।।
परे दुष्ट मो जीवत जादव नृपन क । को समर्थ नर जग में इन के हसन कौं ।
बचन कृष्ण के सुनि सो माज्यों दुष्ट ही । reat विष्णु भरि ऊपरि धनु गहि रुष्ट ही ॥१३६॥२
के पिशाच खग सोलों कोइक प्रा के कधी कृष्ण प्रति ऐसे झूठ बनाइ कं ॥ भो गुपाल तुम देख नभ की ओर ही । हत्यो भूष वसुदेवहि
अरि ने ठोर हृीं ॥१३७॥ यौ त्यागि रन लगगनता बिन भय रत्यो ।
यही बात कहि वृछ विशेष हरि पे हृत्य |
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पाण्डवपुराण
सिली घान तै हरि ने छेद्यौ छिन विर्ष । तबहि कृष्ण परिसार्यो परवत ह्र वर्षे ।।१३८।। मसनि घांन त मिरि भी हरि नै नासीयो। गयो भाजि तब खेचर हरि ते त्रासीयौ ।। तहि विष्णु की नर सुर पर संसौं घनौ । बहरि प्राइ तिन खग ने नुत कर्यो भन्यों ।।१३६॥ भो नरेन्द्र जब सौ खग दूजो माह के। केतु छत्र रथ तेरे सुदन न धाइ के । का जुद से जाना को बध । मौर भांति रए मांहि परी सौं हारीए ।।१४०।। प्रही कृष्ण बिन कारन रन क्यों करते है। सिद्धि नाहि का या में अघ अनुसरतु है ॥ सुनहु चक्र ते मस्तक मागध को महा । जनक विरथा ही मारे 4 कहा ।।१४।। सुनत बात यह क्रोधित मापक यौं भने । हन्यौ नाथ किम जाइ बरा को दिन हने । यही बात फहि हरि नै असि नंदन करै । कर्यो बेट है टूफ पर्यो सो भू परै ।३१४२।। जीधिवंत हरि को अखि सुरगन गगन तें। पुष्प वृष्टि बहु कीनी निधन सुरन ते ।। को कृष्ण तब बल प्रति को विषि ठानीमे । घका व्यूह प्रक्ति दुर्जर जासों हानीये ।। १४३।।
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दोहा शाह विष्णु रण मैं सबै, तीनि सूर लै संग । चका म्यूह गिरि प्रसन ज्यौं करो छिनक में भंग ।।१४४।। जरासंघ तब ऋद्ध ह्र, अरिमन मारन करब ।। दुरजोधादिक तीनि भट पठए प्रायुध साजि ।।१४५।।
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कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
दुरजोधन के सनमुखें, जयो पार्थ परबीन । रूप्य सामही नेमिरथ, धर्मज सेना तीन ॥१४६।।
डिल
तब परस्पर सूर लगे हकारि के। करत चूरणं गज हय रथ प्रायुष मारि । सूरवीर संबद्ध भये रन सामही । चले भाजि मुख मोरि सुकायर धाम हो ॥१४७।। सूरन के तन प्रायुष ज्यों ज्यों वर्ष ही । नारदादि सुरगन कर नाचत हर्ष ही। भनस पार्थ प्रति यौं दुरजोष हकारि के। कर्यो भस्म में तोहि हुतासन जारि के ॥१४॥ रे निलज्ज नर गर्व वृषा ही क्या करें । तोहि लाज नहिं प्रावत सनमुख खर।। यही बात सुनि अर्जुन पनु टंकोरीयो । प्रलय काल को मनौं धनाधन पोरीयो ।।१४६ छोष्टि बान संघात सुकौरव छाइयो। दुई मषि जालंधर तोलौं पाइयो ।। धनुष पार्थ को छेद्यौ रण में भावते । कर्यो जुद्ध फुनि दुदंर सरगन छावः ।।१५०।। तबहिं पार्थ सौं बोल्यों रूप्यकुमार यौं । वृथा पक्ष अन्याय करत भविषार क्यों ।। वासुदेव पर कन्याहार कहै सही। अरु परस्व अभिलाषी तस्कर भीवही ।। १५१।। यह बात सुनि अर्जुन बोल्यो रे वृथा । गजि गजि किम भाषत तू दादुर जया ॥
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पांडवपुराण
न्याह और प्रत्याइ भ
दिलाइ हो । सीस छेदि तुझ जम के गेह पठाइ हों ।।१५२।।
यही बात कहि सरगन छोड़े प्रर्जुनां । कर्मी रूप्य को छिन मैं हति के चूनां ॥ हुनत विघ को जैसे श्रेयस छिनक में रूप्प खेत यो मार्यो नर ने तनक मै ॥१५३॥
जुद्ध मांहि थिर राह जुधिस्थिर र प्रत । स्वेत अश्त्र करि जो जित रथ राजित प्रतं ॥ रथारूढ रथनेमि विराजत जय करें। चक्रव्यूह को छेदि सु तीनों जस घरं ॥। १५४ ।।
सकल सूर नृप सज्जन जादव बल तनें । मये चित मानंदित पुलकित तनठनें ॥
रोग हो । हिरण्यनाभ सेनानी मागघ को वही ॥। १५५ ।। लयौ मारि सो रण में घमंजने जदा भयौ खिन्न तिस बघ लखि रबि प्रांथ्यो तदा ॥ मन पश्चिमहि सागर स्थान सुकरन को । गर्यो सांतता कारन मगश्रम हरन कौं । । १५६ ।।
दोहा
मनु सुभटन को मरन लखि, आई
करुनां
सूर । भेज्यों तुम यह जाइ के, जुद्ध कर्यो तिन दूर ।। १५७ ।। सकल भूप निसि के भये, आये निज निज धान | सेनापति बिन चऋपति, बोस्यों मंत्रिहि बांनि ॥ १५८॥
सेनापति के पद विर्ष यो सुनि के तब मंत्री यो, तौलों कौरव राह ने पांडव तट यो जा६ कै
थपीये और अनूप थाप्यो मेचक भूप ।। १५६ ।। पकयो दूत प्रदीन । मत कर बिनती कीन ।। १६० ।।
१८१
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१८२
कविवर जुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
तुम सौं कौरव यों कहस, सुनीये नाथ विचार | अब मैं जिसने ख तुमहि, दमे महा भमकार ।।१६१ ।। तिन को रम मैं सुमरि के, क्यों नहि श्रावत दोरि | जीवत मुर्खों तुमहिं करी नीर
न
न समर्थं ।
गेहू ।
जाइ कही सब
एह ॥ १६४ ॥
यह सुन बोले पांडु सुत, उत्तर दें तेरी प्रभु उदित भयो, जमपुर जानें श्रर्थ ।।१६३ ।। जरासंध के साथ हो, पठवेंगे जम सुनि के दूत सुकौरवहि, दोलों रवि मन उदयगिरि, श्रायो देखन हेत । न लगे कुरु खेस ।। १६५ । । मार मार करि ते उठे धनु सर कर सि लेत । सोबत जागि परे मन, सृष्टि हतन को प्रेत ॥ १६६ ॥
सुन
सोरठा
सुरनि में सिरमौर, रथ बैठे परम नृपति । महासरन की ठौर, प्रश्न करत सारथि ते १६९ ॥
कहाँ सुल तुम द, केतु श्रभ्य लखिन सहित । जे नृप नांम विपद्य,
सिन को वर्णन कीजिये ।। १६८ ।।
दोहरा
ऐसी सुनि के सारथी भिन्न भिन्न लचन सहित रथ सोभित जिस स्याम हय, सुर सरिता सुत भरिन को सौस सप्स साजित सुरभ, रण में सुभटन की थुजा,
निरखत अरि की सैन 1 भाषत उत्तर वैन १६६ ।। धुजा बिराजत भाल । हय भयो मनु काल ॥ १७० ॥ कलस केतु यह दोसा ।
धनुर्वेद को भौन ।। १७१ ।।
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पांडवपुराण
१५३
सो घन्ची दुरजोष यह, नील प्रश्य महि केतु । अरि के शोणित पान कों, अति उदित मनु प्रेत ।।१७२।। पीस मंग तुरंग रम, यह दुःसासन राय । लछिन जाकी केतु मैं, राजन है भन्याय 1॥१७३॥ अश्मयाम यह द्रोण सुत, हरि घुजि यवझी याह । मनु दुर्जन बन दहन को, महा दवानल दाह ।।१४।। सल्य सत्रु कोसत्य यह, सीता केतु विराज । अम्ब वर्णं बंधूक के, यह आयो रण काज ||१७॥ जाको रथ बुरबार प्रति, महाजम हद बीर ।
में मोहित दर हम, कोर केतु यह कार || प्रल्प नृपन कों जानियौं, अर्जुन नूप कपि केतु । मरि केरान मुख धनुष गाई, उठ्यो जुद्ध के हेत ॥१७७।।
अहिल
तबहिं जुल को लागी गज सौ गज घटा । सूरन के कर चमकत अनि चपला छटा ।। घोर गर्जना होत धनुष टंकोर की। यांन वृष्टि जलधारा बरसत जोर की ॥१७८ः। खेट खेट सौं जुद्ध करत आकास हौं । भूमि भूमिचर प्रापसमैं तन त्रास हो ।। खड्गपानि के सनमुल्ल खड्ग सुपानि हीं। धनुर्धरि को धनुधर मारत बान ही ॥१७॥ कुत कुत ते छेदहि गुर्ज सुगुर्ज हो । चक्र चक्रतै मारि गदागव तर्ज ही ।। गजारूढ कौ गज भारूढ सुमार ही। रथारूल के सतमुख रण भसवार ही ।।१०।। दारुढ की ह्य मारूढ बुलावही । पत्ति पत्ति के सनमुख सस्त्र पलावहीं ||
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कविवर बुलाखोचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज निशित बांन के छल से पसि भट गातहीं । मनो दंत जम के नर मांसरि खातही ।।१८१।। छेदि सीस पर हति काल' की। गिलत सृष्टि कौं मानौं रसना काल की ।। परत गुर्ण की मार मनी जम मुष्टि ही। इतहिं कुत करि तांत सनी मनु जष्टि ही ।।१८२।। मनु कि नाक को लात गदा के रूप हो । मारि माःि घमसान करे बहु भूप ही । खड़ग खड़ग से लागि झरा झरी व परं । प्रचन अग्नि के जोर फुलिगे अनुसरै ।। १८३।। कुत भनत गज के फम विदारहीं। करुन वणं तहां निकसत सोणित धार ही ।। अंतरंग मनु को पानल ज्वाला जगी । सत्रु दारु मति दारुन मारन कौं लगी ।।१८।। ताल पत्र सम गज के कर्ण सुहा नहीं । शस्त्र अग्नि की मांनी घौंकि प्रजालही ।। हस्ति हस्ति के सन मुख धावत प्रति भिरें। प्रलय पौनत पर्वत मनु लुइतें फिरै ॥१८५।। जुद्ध माहि बहु दोर तुरंग अनूप हौं । मनी चित्त प्रसवारन के हर रूप ही ।। मनिल लाग से हालत रथ पंकति धुजा। किंधों शत्रु के रहिं बुलावन की भुजा ॥१८६।। रद्ध केस को पारुण सल पतिहीं । मनी काल के किंकर गरजत मत्तही ।। घोर वीर संग्राम करत यो पूरही। स्वामि कार्य पारयन परितन चूरही ।।१८।।
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पाण्डवपुराण
१८५
बोहरा गंगासुत तारण विष, पनिच धाप सौं तांन । सनमुखहीं अभिमन्यु के, घायो धरि मभिमान ॥१८॥
अखिल तब कुमार ने प्रथमहिं बान चलाइ के । धुजा भीष्म की छेदी क्रोध बढाइ के ।। मन उदत्वता साद शोर न गी । करी नास रण मांहि सु सोभा धरण की ।।१८६॥ घुजा और पारोपि सुनिज रथ के विष । . गंगपुत्र नै दस सर मारे ह्र रुष ।। धुजा कुमार की छेदी जब गांगेयं ही । तब कुमार ने मारे सर बहु भये ही ॥१६०। रयीबाह धुज छेदे गंगा सनूज के । नसत बचत जेम कंगुरे बुरज के ।। सकल सूर सुरवानी तब से भनी । बली धन्य अभिमन्यु धनुर्घर है गुनी ।। १६१।। मनौं पार्थ मह दुजो है साक्षात ही। भयो भूमि में सुस्थिर बर विख्यात हो || बनिन ते इन नासें सत्रु अनेक ही। हनल नाग निर प्रफुसि जिम हय भेक ही ॥१६.२।। पार्थ सारथी उत्तर नामा रण विषै । तिन खुलाइ के लीन्यौं भीषम सनमुखें ।। परयो प्राइ भरि तोन्नों सल्य सुनाम ही। महाघोर रण मार्यो उत्तर सांम ही ।।१६३।। कुत खडग धन धारै सल्य सुऋद्ध तें। कृत्यो सारथी उत्तर शुद्ध विरुद्ध ते॥
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विवार
की र, लाकीदाश एव हेमराज
मनु प्रचंड मुजदंश सुपारथ को गिर्यो । सुत विराट को उत्तर पृथु पृथ्वी पर्यो || १६४।। स्वेत नाम तस् भ्राता धायौ ता समै । नयो सत्य ललकारि अनूज के नांसमै ।। तिष्ठ तिष्ठ रे सल्य पहै रण ठाइ है । अनुज बाल मौ मारि कहां अब भाइ है ।।१६५।। केतु छत्र सब शस्त्र सुता के तोडि के । करयो मल्य को बिहबल कवहि मोरि के । घोर मार बहु दीनी स्वेतकुमार ही ! मर्यो सल्य नहिं तो भी करत सिंधार हो ।।१६।। भयो ऋद्ध गंगासुत याही अंतरै । परयो भाइ दुह मधि सरासन को धरै ।। करत जुद्ध तिन रोक्यो रण मैं स्वेत ही। लयो भीष्म भी छाह सरन ते खेत ही ॥१६७।। व अदृश्य रवि नभ में पाये मेह ज्यौं । बौन स्वेत के छाये भीषम देह त्यौं । देखि भीष्म को विह्वल कौरव घाइयो। मारि मारीये याहि काहत यो पाइयो ।।१९८|| स्वेत सामने प्रायत लखि दुरजोध कौं । पार्थ ताहि ललकारि सयो धरि क्रोध कौं ।। कहत पार्थ रे कौरब तु कहां जातु है । मो मुजान ते तो मद अहिं बिलातु है ।।१६६।। वच प्रचंड यौं भाखि दुर्बोधन रोकीयो । घनुष हौंचि गांडीव सु नर टंकोरीयो ।। हत्या प्रादि दस सरत कोरब ईसही। बहुरि बीस फुनि मारे इषु चालीसही ॥२०॥ मारि मारि बरि तीरौ भैसे छाइयो। तबहीं क्रोष बह कौरवपति ते खाइयो ।।
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पाण्डवपुराण
१८७
लगे पार्थ दुरजोपन दोउ जुद्ध कौं । घरप्त ऋद्ध मद इज बढाइ बिरुद्ध कौ ।।२०१॥ खडग खाय ते भारत कुत सुत ही । मान बान ते छेदत धनुष घुनंत ही ।। दंड दंड सौं संडत प्रप्ति अल बंड ही। घोर वीर संग्राम मंड्यो परचंड ही ।।२०२।। नुप विराट के नंदन तौलौं रण विषै । करत जुद्ध परि ऋद्ध पितामह सनमुखें ।। चाप छत्र धृज छेटी भीपम के तहाँ ! हत्त्यो घात फुनि तास उरस्थल में महा ।।२०३।। सिथल होइ के गिरन लम्मो तन भार हीं। कौरव सेन भयो तब हा हा कार हो ।। भयी दिव्य धुनि तहि सुरन की गगन तैं। प्रही भीष्म मत होउ सुकाइर लरन ते 11२०४।। प्रही बीर रन माहि सजि के धीरता । तोहि मारने बैरी तजि के भीरुता ।। यही बात सुनि फुनि पिर प्रायुध होइ की । सावधान ह रथ पं धनु संजोइ के ।।२०५।। सांधि लछि सर छाडि सुमार्यो स्वेत ही । साद घाव हद सो जु पर्यो रन खेत ही ॥ सुमरि पंच पद इष्ट गयो सुरलोक सौ। लहत सर्व सुख सुमिरत जिन तजि सोक सौ ॥२०६।।
दोहरा तोलौं भई निसीथिनी, मरत लखे जोधार । मानौं रण को बर्जती, आई कारणा सार ।। २०७।। सूर छिप हरि प्रादि सब, प्रामे निज निज थान । सुत को बघ वैराट सुनि, रुदन भयो दुल खानि ।।२०।।
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१८८
कविवर बुलाकीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज हा सुत संगर के विर्ष, किन हु न राख्यो तोहि । हा वरमातम धर्मसुत, क्यों न रख्यो तुम सोहि ॥२०६।। भीम मूर्ति हा भीम भट, हा हा अर्जुन राई । सुम तेषा का है, मोगा सुन साइ ।।२१०॥ तब जुधिस्थिर राइ न, करी प्रतिग्या धोर । सत्रहमें दिन भाज ते, हति ही सल्यहि ठौर ।।२११।। जो नहिं मारे तो तर्क, अंपा पातहिं मंडि । सब के निरखत मांन तचि, जरौं प्रगनि के कुड ॥२१२।। खंडक सत्रु सिखंडियों, बोल्यो बचन प्रचंड । नवमें बासर प्राज ते, करौ भीष्म के खं ।।२१३॥ यही प्रतिज्ञा हम करी, पूरन व जो नाहि । अपने तन को होम ती, करौ हुतासन मांहि ।।२१४।। अष्टद्युम्न फुनि यों कही, मो निहचं यह ठीक । सेनांनी को मारि हौं, माम मांहि पलीक ।।२१।।
सोरठा उदय भयो दिन साज, तौलौं दिनकर हरत तम । भनु देसन के काज, कारज भारत भटन कौं ।। २१६।। लखे महत हथियार, मार मार करतें सुनें । भयो सूर भव भार, तात कंपत ऊदयो ।।२१७।।
अखिल भये भौर तब जोधा दोऊ और के। महा जुद्ध भारंभत पाये छोरि के ।। तीछन शस्त्र सौं देह परस्पर संच हो । हस्ति हस्ति ौ रथ रथ य हय प्रचंड हो ।। २१८।। पत्ति पत्ति के सनमुख धावत जुद्ध को । मारि मारि मुख मास्त्रि बढावत ऋद्ध कौं ।।
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पाण्डवपुराण
लछिन त पहिचानि भटन के सनमुखे । चले वाइ र मांहि धनंजय ह्न रु ॥ २१६ ॥ मन केसरी मत्त गयंदन की हतं । भूषन की त्यों अर्जुन दृत्ति के जय रतै ।। घोर वीर रा मांहि पितामह धाइयो । असंख्यात सर से नर को तिन खाइयो । १२० ।। इन्द्र पुत्र सरि बारा भीषम कूलहीं । प्रोर राह ठहराइन ज्यों तून वाचन तैं सुर सरिता सृत नै नभ छौ । मनो मेघ जल बरबन कौं उदित भयो । २२१॥ अंधकार मांहि करयो सर करत राति मनु दिन हैं सूर खिपा के ।। करे पार्थन ते सब निरफल छिन विषै ।
पूल हीं ॥
के ।
करत जुद्ध बहु धीरज घरि के सतमुखं ।। २२२ ।।
छुटत पार्य के बान महा परचंड हो ।
करत खंड बल चंड गजन की सुंड ही
घरन हीन इय फीने उन्नत वदि के
करत चूर रथ चक्र सनं तं भेदि के ।। २२३ ।।
कवच चूर करि सूरन के सर फोरि के ममयान प्रति नर्म सुधसहिंतु जोरि के || सकल पार्थं न छेवे धनू गांडीव ते । मरे भूरि भट रण में छुटि के जीव हैं ॥ २२४ ॥
सवैया २३
बसि के निषंग बास सर ही के रूप तीछन है भाल चुच पीछे पर लाइ के पनि
बेसि के सरासन पं ।
प्रकास में उडतु है || सर को कठोर कंठ | सो छुट है |1
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१६.
कविवर बलाकीचन्द, मुखाकीदास एवं हेमराज
परत हैं छुत होइ सुरन के सननिये । अमिष के स्वान हार हिंसा ही करतु है ।। ऐसे बान अर्जुन के जम के सिचान कियो । जिन्हें जाइ दावे ते सासन भरतु है ।।२२५१
दोहा इहि विधि सर अर्जुन तन, छुटत लखे दुरजोध । भीषम को निदंत तई, बोल्यो घारत कोध ॥२२६॥ सात सात तुम रण विष, यह प्रारंभ्यो केम । हार होत निज सैन की, जीतत दुर्जन जेम ।।२२७५१ रहि न शके रण मैं जथा, यह पारथ दुखदाइ । ग्रहीं पित्तामह सो करो, जिहि विधि शत्रु नसाइ ।।२२८।। परि प्राये रग सनमुखे, को भट ह निहवंत । तात बांन प्रचंड तजि, हतं शत्रु को संत ।।२२६।।
डिल्ल
यही बात सुनि गंगासुत पारथ प्रत। भयो जुद्ध को उद्दित ई छोभित प्रते ।। तबहि इन्द्र सुन बोल्यो सुनि भीष्मपिता। होह बैस यह सुन्य सबै तुसौ सौं रिला ।। २३०।। जमागार की तीहि तथापि पटाइ हो । अबर्हि मारि जम की पढ़ानेर कराइ हो । वच कठोर कहि अंसे लाग जुद्ध कौं । होत निर्दः भिरत बहार विरुद्ध को ।।२३१।। तब हि द्रोण रण मांहि धनुप चढाइ के। धृष्टद्युम्न के सनमुख मायौ घाई के । करक बान तं गुरु में रथ ध्रुज छेदए । चहुरि धृष्टि नै छत्र धुजा तिस भेदए ।।२३२।।
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पाण्डवपुराण
शक्ति बान सब छोड्यों गुरु नै तुरित ही । वृष्टिद्युम्न में छिन मैं देखो परत हो || तीन बुधि धृष्टार्जुन गुरु मैं घाइ के । लोड भेट की मी वोर बगाइ ॐ ॥ २३३ ॥
सीबी गुरु
हो
खंड खंड करि डार्थी छिन में भेदि मैं ।। तबहि द्रोण गुरु ढाल लई कर बाह लैं । पकरि खडग को घायो हाथ सु दाह नं ॥ २३४ ॥
षष्टम्न को मारन सनमुख ही चल्यो । मनो ऋद्ध काल विदारन को चल्मो || इसी अंतर भीम गदा ते सुत कलिंग की मार्यौ करि
हस्त हीं । के पस्त हीं ॥ २३५॥
कलिंग कौं ।
चतुरंग को |
नृपत हीं ।
प्ररिगन दलत हीं ॥२३६॥ |
नीतवंत बहु उन्नत पुत्र
दल
परयो शोमा मनु कौरव करे मीम संत्रासित धरत रोस रण मांहि सु
कौरव
गदा बात तैं सात सतक रथ चूरए । सत्रु सैंनि संधारि मही में पूरए । इक हजार हृति हाथी कीनें छय सही | घोर बीर रण उद्भुत पावनि जय लही ।। २३७|| इसी अंतरे गुरु नं तहि कुठार ज्यौं । खडग सृष्टि को खेद्यो तीछन धार स्मों ॥
जुद्ध माझ श्रभिमनु सु तोलो श्राइ के । टुकि टूकि रथ कीन्यों गुरु को भाइ के ॥ २३६॥ तबहिं प्राइक पोंच्यो सुख दुरजोच को |
नाम सुलखमण सु मानौं पुंजक रोध को || आवत हीँ तिन धनुष सुभद्रा सूनु कौं । खंड खंड करि ढार्थों मानो ऊन को ॥२३६॥
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१६२
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
और चाप अभिमन्यु सूलं तब पाइयो । छिनक मांहि मरिक दल सकल भगाइयो || तबहि स तब इक प्रति हो रु । पायें पुत्र को वेदि पार्थपुत्र पंचालन
लयो र
के विषै ॥ २४० ॥
समय हेरियो
।
मनौ सिंघ को मत्त गजो मिलि घेरियो ॥ तबहि प्राइ के पर्जुन धनु गांडीव तैं । सकल पुत्र के सत्रु विनासे जीव
नसत मेत्र के संचय जैसे पचन
ते ।। २४१
तैं ।
हत्तु
॥
जुद्ध मांहि जहि ठौर घसत पारथ बली ।
विसी ठोर परि जांहि अग्नि को हल चली ॥२४२॥
वोहरा
इहि विधि जोधा जुड में नित प्रति करते जुद्ध | जब छायो दिन नवम तत्र भयो सिखंडी ऋद्ध ॥२४३॥ लोगो शुरु गांगेय को, निज सनमुख ललकार । तब सिखंहि प्रति पार्थ यौं, बोले वचन विचारि ॥ २४४॥ हे शिखंडि भरि हसन को सर प्रचंड यह लेहू | जा सरसू हम पूर्व जार्यो खंड बने । २४५ ॥१ तब सिखंडी बल चंड नं, लीग्यो तब वह बान ।
परि मृग खंडन को महा, घायो सिंध समान ॥ २४६ ॥
अडिल
करत खंड श्ररि सैन सिखंडी भूप हो । उठ्यो जुद्ध को ऋधित जम के रूप ही ॥ द्रपद पुत्र गंगासुत लरहि परस्परें । दु मधि नहि एकहि जय को अनुशरं ॥२४७॥
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पाण्डवपुराण
११३
जुगम सिंध मनु जुद्ध करत बन के विष । धन पन्न धुनि गगन सरा सरगम अखें ।। धृष्टद्य म्न मै भाइ सिखंडी भोगैमौ । भो सिखंडि हम देख्यो जोर न तुम कीयौ ।।२४८।। जुख माहि गंगा सुत प्रबलौं ह रुष । घन समान भति गरजति है तो सनमुखं ।। फनि सुतास को रथ भी दिल खहरात है। अरु उत्तंग भति ताल धुजा फहात है ॥२४६।। पौर पार्थ भी पूरस है तो पृष्टि को। फूनि सहाड बैराट करत तुम इष्ट कों॥ यही बात सुन स सिखंड, घरायो । पनिच संधि भाकरनहिं घनु टंकोरीयो।।२५० ।। द्र पद पुत्र नै मंगासुत के सन विर्ष । सहस एक सर साधि हते पाते व रुर्षे ।। मेघ कर्ष ज्यों छावत मंडल गगन ही। लयो छाई गंगासृत तसे शरन ही ।।२५१।। कौरव को बल तौलों फरि संधान हो । द्रपद पुत्र पं छोड़न लाग्यो बांन ही ।। सन के सर ताके तन नहि लगत ही। मनु सिखंडि ते नास व भगवंत ही ।।२५२।। अष्टद्य म्न के कर लें छूटत मान जे । लगत सत्र के उर में बना समान ते ।। गंगपुत्र के सर जे नाटत तीछना । ते प्रसून ह्र जाहि सिखंडी के तना ॥२५३।। होंहि दुख्य सुख रूप सु पूरव पुन्य ते । सुख्य पुख्य ह परने सकल अपुण्य ते ।। गंगपुत्र धनु जो जो धारत कर विर्ष । पुष्टद्युम्न तिस छेदत्त सरतें है रु ।।२५४।।
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कविवर बलावीचन्द्र, तुस लीदास रन हेसहार,
छीन पुन्य गर हारत सब की साखि हीं । पुत्र मित्र अरु भ्राता कोइन राख ही ।। गंगपुत्र को कबत्र सिखंडी में तहां । तीछन बान करि हतं भेद्यो दिन महा ॥२५५५ । मेष पारत जैसें तर बरषा ममैं । पर टूटि व छीन सुथिरता नहि पमैं ।। वांन दृष्टि तें तैसे कवच सुफीद के। परयो भीष्म को रन मैं तन मौ कटि के ।। २५६।। फुनि सिखंडी ने तीन सरगन छोडाए । हते अश्व जुग सारथि रष धुज तोचए ।। प्रति अकंप रथ रहित सु गंगासुल रज्यो । कर कृपान करि परि के हतिवे की चल्यों ।। २५७।। द्रुपद पुत्र नै तबहिं तीछन सरन ते । खडग छीन करि डार्यो अरि के करन ते ॥ पुरक बनि रौं हृदय विदार्यो लीन है । पर्यो भूमि परि तबहि पितामह छीन है ।।२५८।।
दोहरा
कंठ प्रात तब जानि के, लीन्यौं सुभ सन्यास । धर्म ध्यान हिरदै गह्यो, घाँ चीर्य गुनरास ॥२५६।। अनुप्रेक्षा चित राखि के, सुमरि पंच पद इष्ट । तन भोजन ममता तजी, गहि सल्लेखन सिष्ट ॥२६०।। सबहीं रन तजि सकल नप, प्राइ ठए तिहितीर । पांडव तिस पद नमन करि, रुदन करत इम वीर ॥२६१।। ब्रह्मचरज प्राजन्म तुम, प्रति उन्नत व्रतपाल । पही पितामह पूज्य मह, सकल गुमन की माल ।।२६२।। धर्म तनुज तब यों कहत, भो उत्तम व्रतधार । हम को क्यों नहि मृश्य प्रब, आई दुख्न दातार ।।२६॥
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पुराण
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सर जर्जर मीषम कहत, कौरव पांडव सौजु । अभयदान तुम देह तुम, सवही जीवन कौजु ।।२६४।। करौ परस्पर मित्रता, तजो सत्रुता मित्त । अब लौं क्या ऐसे भये, तुम निहस्य नहि किति ॥२६५।। जे केई रन मैं मरे, गये निंद गति सोइ । तारों कीजो धर्म प्रब, दस लक्षा प्रब लोग।।२६६।। यां अंतर पाग्न जगल. प्राण नभ में संत । शुद्ध चित उत्तिम तपा, महा मुनीन्द्र गुनवंत ।।२६७।। । निकट जाइ के भीष्म के, बोले वचन गंभीर । तो समान पृथिवी विणे, और नहीं महाधीर ॥२६८।। काम मल्ल को जो सुभट, करत चित सौ चूर । ता सम जग मै और नहि, सूरन मैं महसूर ॥२६९।।
सर्वया २३
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भृकुटी कमान तीन तीछन मदन बान कामी नर उर थान मार जान छिन मैं जोषित विरुद्ध जुस नैनन सौं ठान इम ता मैं ठहरा सुर सोई सूरगन मैं बांधि बांधि प्रायुष की पारै उर धीरपन सांधि सांषि साइक जे डार परितन में नदलाल सुनु भने एतौ सूर सूरनाहि धाइ बाइ लरे जोर जो घोर रन में ।।२७० ।।
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दोहरा प्रेसी सुनि गांगेय भट, जुग मुनि के पग दद। नति करि के बोल्यो गिरा, मुन न्यायक गुन'द ॥२७॥ जो भगवन व वन भ्रमत, मैं न लगयौ नृष पर्म । कहा करौं या ठोर प्रय, किहि विधि है शिव समं ॥२७२।।
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कविवर बलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
बानन सौ हों छिन्न ह्रमर्यो सरन तुम पाइ । तुम प्रसाद या भव विौं, लहि हो फल सुखदाइ ।।२७३॥ यो सुनि करि बोले मुनी, सुनौह भव्य गांगेय । सिद्धन को चित सुमिरिक नमन करी बहु मेथ ।। २७४।।
पावडी छंद
सुभ चारि प्रारराधन चित पाराधि । घर धीरय वीर्य तन वचन साधि ।। कर तस्त्र प्ररथ श्रद्धान रूप । यह दर्श माराधन लहि अनूप ।। २७५॥ नव पदार्थ जहाँ ज्ञान होइ । नय प्रमान निज उक्ति जोइ ।। तहां ज्ञान प्राराधन होई सछ । फनि निह प्रातम ग्यान तछ ।।२७६।। चरीए मुचरण जहां विधि विचार । तेरह प्रकार प्रहार टार शार ।। खलु प्रवृत्त चिद्रूप मद्धि 1
चारित्र माराधन एहु विधि ॥२७७।। द्वादश सरूप विवहार बुद्ध, चिद्रूप रूप निहवय विशुद्ध । सप नाग अराधन एम राइ, चित धारि पाराधी सुगतिदाई ।। २७८।। तपीए जुदेह तप जुगम भौति, सुभ संजम मम गुन मूल पोति । अनशन प्रमुख तप बाह्य जानि, रागादि त्याग मंतर सुमांनि ।।२७६।। विधि अराधन इम प्रकाशि, मुनि चारन कीनी गति प्राकासि । गुणवंत संत गांगेय सार, चारी सृ अराधन हृदय धारि ।।२८०॥ त्यागौ ममत्त माहार देह, छिम भाव सबन सौं धारि एह । पद पंच इन्ट चित जपत धीर, सुभ ध्यान धरत तजि असु शरीर ।।२८॥ उपन्धी सुजाइ दिवि ब्रह्म मद्धि, वर ब्रह्मदेव लहि परम रिद्धि । मनति सुख भुगतै सुभोग, सुख होत सहज जिन धर्म जोग ।।२८२।।
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पाण्डवपुराण
तहां पाडव कौरव रुदन ठामि बहु सोच करत जग सुन्य मांनि । दुख मोहिं एम बीती सुरात, रवि आइ बहुरि कोन्यो प्रभात ।। २८३॥ हि भांति जीव संसार माँहि नित काल भ्रम सिर होत नाहि । ट्रिमी सुचपल चपला समान संध्या प्रभासम मायु जान || २६४ ।। सुतबंधु सुखादिक छिनक संग, इम जाति रहो नि धर्म संग | बर बुद्धि गंतसुत ब्रह्मचार, सुखरिद्धि बार सुर सदन सार ||२५||
फुनि पछ छीन कौरव कुराह, बल हीन दीन हुँ रुदन भाइ ।
अरु धर्म तनुत्र जयवंत संस, जग मोहिं प्रगट जस नीतिवंत ।। २६६ ।।
कृत पूर्व धर्म सुभ समं दाह, दिन धर्म परम दुख भरम पाई । जिन धर्म समान न और रत्न, जैनी सदीद सुनि धरत जन || २८७।।
इति श्रीमन्महाशोलाभरणभूषित जैनी नामांकितायां भारतभाषायां बुलाकीदास विरचितायां गांगेय संन्यास ग्रहण पंचस्व प्राप्ति पंचम स्वर्ग गमन वर्णनो नाम विशतिम प्रभवः ।
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पुराण का अन्तिम भाग
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श्रथ नेमिनाथ स्तुति सवैया
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૨૨૫
धरम के धुरंधर सुनेमि नेमि नेमीसुर, दोष दुम दाहन को दावानल रूप है । काम बेलि मंडप कौं कंदन कुदाल दंड, मंडित अड सील पंडित तूप है || मोष मग मंडन हो रोष के विटन हो, जैन अवलंबन दे तारक भौं कूप हो । कीजे उपगार भवसागर को पार अब दीजे सुविचार प्रभू चारित के भूप हो |
पद्धडी छंद
प्रम्य प्रशस्ति
कहां पांडव परित विसाल चारु, श्री गौतमादिक भाषित सुसारु । कहाँ मो प्रबोध यह अलप छीन, बलहीन तदपि वरनन सुकीन ॥ ६१ ॥
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१६८
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
जिम बाल ग्रहण उडगन करोति, जलसिंधु प्रमानत भेक पोति । तिम प्रय कर्यो निज धुखि जोग, नहिं दोष ग्रहत बर दक्ष लोग ।।२।। जे नर असंत पर दोष संघ, तिम संग म हमको काज रंच । । विष मय पियूष ते नरक राहि, लहि पाप महा मरि नरक अाहि ।।१३।। जे साधु महा पर फज्ज रक्ष, पर जद्यपि देवहि दोष सन्छ । नहि धारहिं तदपि विकारि भाव, ते होउ महाजस हम सहाउ ||४|| जिम पंद सरद उस बीच, प्रति सोभ करत द निज मरीच।। पर गुन समूह तिम संत देषि, निरघोष करत उपमां विसेपि ।।८।। राचि में विचित्र पावन पुरान, नहिं बछौं नर सर सुष निषांन । इस भक्ति तना फल होहु एहु. पद मुक्ति परम सुब रास देहु ॥८६।। पुनरुक्ति युक्त लछन सुखंद, जहाँ भूल्यो वरनत वर्ण बिंदु । तहाँ सोषि पढौ जे बुध प्रानिंद नहि मिंट करत : साप 'द ।।६।। अलंकार गनागन छंद भेद, नहि जानौं रचक अलप वेद । काल भूलि देषि इस ग्रंथ मद्धि, मति कोप करी कवि विपुल बुद्धि ।।८८11
प्रथ मूल प्राचार्य
सवैया संगन ले मूलसंगी पद्यनंदि नाम भए ताके, पट्ट सबलादिकीरत बषानियें । कोरति मुवन तात ताक भाए चंदार रि, कीरति विजय सुतास पट्ट परवानीयें ।। ताके पट्ट सुभचंद सुजस अनंद कंद, पडिन पुरान परकास कर मानीये । मति को उदीत तास पाइ के बुलाकीदास, भारतविलास रास भाषा करि जानिये ।।६।।
अथ बादशाह वंस वर्णन
सर्वा यंस मुगलाने मांहि दिल्ली पति पातिसाहि,तिमिरलिंग मोर सुत बाबर सुभयो है। साको है हिमाऊ सुत ताही त प्रकच्छ र है, जहाँगीर ताक धीर साहिजहां व्या है ।। ताजमहल अंगनां प्रगज उतंग महायलो, अपरंग साहि सावित ले जयौ है । ताकी छत्र छांह पाह सुमति के उदै पाइ भारत राइ भाषा जैनी जस लयो है | |
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पांडवपुराण
का प्रकार शामीद
सर्वया जालौं रहें तारागन सदन सुरईस को सागर, सुभूमि रहे रहे दुति भान की। भूमिवासी गौंनकासी गिरि गिरि ईस दासी, बस सि र जोति औलों संसि के विमान की ॥ गंगा प्रादि नदीनद कर्म भूमि कल्पतरू है, प्रान जौलो जग वीतराग ग्यान की । भारत सुत माहि नौलौ सुविकास लहो, भारत विलास भाषा पांडव पुरान की ॥६॥
प्रथ ग्रन्थ पाठक आशीर्वाद जे नर भव्य भनाइ भने भनि भाबन सौ ग्रह भारत भाषा । प्रादर वारि लिपाइ लिहौं लिषि देहि सुनाइ सुनै मुनि भाषा ।। सोषि सुधारि सुधारिहि सत्य सुधारस के बुध चाषा । ते नरिद महापद पावह ह है तिनकी सिव के अभिलाषा ॥६॥
अय सरस्वती स्तुति ॥बोहा॥ जिन बदनीं सदनी सुमति, अबसरनी शिव सीउ । जस जननी जैनी भनी, हरनी कुमति सीउ ।।१३।।
सवैया वीरानन सरनी हरनी दुष दोषन की भरनी रस अनुभौं देनी शिव मानी है । गोतम गुरु बरनी रमनी है चेतन की कुमति की करनी पैनी परवानी है ।। दुरित ते उपरनी धरनीधर धर्म की तरनी भौसागर की छनी भै हानी है । सुमति सूर किरनी रजनी रजनीकर बदनी हमारी जग जैनी सुषदानी है ।। ४।।
दोहा इहि विधि भाषा भारती, सुनी जिनुल दे माई । धन्य धन्य मुत सौं कही, धर्म सनेह बढ़ाई ।।६।। जननि जिनुल दे धन्य है, जिन रचाइ सु पुरान । सुगम कर्यो भाषा मई, समझ सकल सुजान ।। ६६।।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
अरु नर तन गुरु धन्य है, जाके वचन प्रभाव । संस्कृत ते भाषा रच्यो, पाइ सबब प्ररथाव ।।१७।। वीरनाथ जिन धन्य हैं, जाके चरन प्रसाद । यह पुरान पूरन भयौं, सुषदाइक शिव प्रादि ॥१८॥
अप ग्रंथ छंच प्रमाण कथम सवैया । छप्पे एक करको प्रठार इकतीसे बीस चालीसह एक मोरठे पर मानिये । छयालीस तेईसो पाचही पचीसी गनिव्वैही मुजंग छंद जनी जग जानिये ।। तीनस सिसौडिल्ल नौसंतीस दोहा भनि ढाईस सतान सु चौपाई बषानिये । सारे इक ठौर करि ठानिये बुलाकीदास एकादश पंचसे हजार चार प्रानिये |६||
प्रय सोक संस्था कथन- दोहा संख्या श्लोक मनुष्टपी, गनिये ग्रन्थ सपाइ । सप्त सहन षट सतक फुनि, पचपन अधिक मिलाइ ।। १००।
प्रथ संवत मितो–चोहा । संवत सतरहसौ घउन, सुदि प्रसाद तिथि दोज । पुष्प रित गुरुवार कौं, कीन्यों भारत चोज ।।१०१।।
इति श्रीमन्महापशीलाभरणभूषित जैनी नामांकितायां भारत भाषायां लाला बुलाकीदास विरचितायां पांडवोपसर्गसहन प्रयकेवलोत्पत्ति सिद्धिगमन द्वय सर्वार्थ सिद्धि प्राप्ति वर्णनोनाममद्धि प्रदिशातितमः प्रभावः ।।२६।।
इति श्री बुलाकीदास कृत भाषा पांडवपुराण महाभारत माम सम्पूर्णम् ।।
मिती श्रावणमासे कृष्ण पक्षे तिम्रो १४ वार दीतवार सम्बत् १९०५ का दसकत नाथुलाल पांडया का । लिषो गयो बड़े मंदिर वास्तै ।।
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हेमराज
वाविवर हेमराज इस पुष्प के तीसरे कवि हैं जिनका यहाँ परिचय दिया जा रहा है। समय की दृष्टि से हेमराज बुलाखीचन्द एवं बुलाकीदास बोनों ही कवियों से पूर्व कालिक हैं । मिश्रबन्धु विनोद ने इनका समय संवत् १६६० से प्रारम्भ किया है लेकिन उसका कोई प्राधार मष्टी दिया। इन्होंने हेमराज एवं पाण्डे हेमराज के नाम से दो कवियों का अलग २ सल्लेख किया है। हेमराज की रचनाओं के नामों में नयचक, भक्तामर भाषा एवं पंचाशिका वनिका के नाम दिये है तथा पाण्डे हेमराज के ग्रन्थों में प्रवचनसार टीका, पंचास्तिकाय टीका, भक्तामर भाषा, गोम्मटसार भाषा, नयचक्र वचनिका एवं सिप्तपट चौरासी बोल, ग्रन्थों के नाम दिये हैं। इन ग्रन्थों का विवरण देते हुये लिखा है कि ये रूपचन्द्र के शिष्य थे तथा गद्य हिन्दी के मच्छे लेखक थे । नयचन्द्र भाषा एवं भक्तामर भाषा के नाम दोनों में समान है।
डा० कामताप्रसाद जी ने अपने “हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास" में हेमराज की प्रवचनसार टीका, पम्वास्तिकाय टीका एवं भक्तामर भाषा इन तीन कृतियों का ही उल्लेख किया है। इसी पुस्तक के प्रागे हेमराज के नाम से ही गोम्मटसार एवं नयचक्र बनिका का नामोलेल्ख किया है । डा० नेमीचन्द्र शास्त्री ने हेम कवि की केवल एक कृति छन्दमालिका (सं० १७०६) का ही उल्लेख किया है 1 डा० प्रेमसागर जैन ने हेमराब का रचना समय विक्रम संवत् १७०३ से १७३०
१. मिश्रबन्धु विनोद - पृष्ठ संख्या २५२ (४३५) २. वही
, २७६ (५१३/१) ३. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास - पृष्ठ सं. १३१ ४. हिन्दी जन साहित्य परिशीलन - पृष्ठ सं. २३८ । ५. हिन्वी भक्ति काव्य पार जैन कवि - पृष्ठ सं. २१४.१६
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२०२
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
तक का दिया है। इसके साथ ही प्रवचनसार भाषा टीका, परमात्मप्रकाश, गोम्मटसार कर्मकांड, पंचास्तिकाय भाषा, नयचक्र भाषा टीका, प्रवचनसार ( १ ) सितपट चौरासी बोल, भक्तामर भाषा, हितोपदेश बावनी, उपदेश दोहा शतक एवं गुरुपूजा का उल्लेख किया है ।
राजस्थान के जन
कारों में, पाण्डे हेमराज, हेमराज साह, हेमराज एवं मुनि हेमराज के नाम से अब तक २० से भी अधिक कृतियों की पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हुई हैं। लेकिन नाम साम्य की दृष्टि से सभी कृतियों को आगरा निवासी गज की हासी गयी। इस दृष्टि से पं. परमानन्द जी शास्त्री ने श्रनेकान्त देहली में प्रकाशित अपने एक लेख "हेमराज नाम के दो विद्वान्" में इस भूल की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया क्योंकि इसके पूर्व पं. नाथूरामजी प्रेमी, डा. कामताप्रसाद जी भादि सभी विद्वान् एक ही हेमराज कवि मानने लगे थे ।
अभी जब मैंने अकादमी के छुट्टे भाग के लिये हेमराज की कृतियों का संकलन किया तथा पंडित परमानन्द जी एवं अन्य विद्वानों द्वारा लिखित सामग्री का प्रध्ययन 'किया तो मुझे भी अपनी भूल मालूम हुई क्योंकि राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूचियों में सभी रचनाओं को एक ही हेमराज के नाम से अंकित कर दिया गया । वास्तव में एक ही युग में हेमराज नाम के एक से अधिक उन सभी ने साहित्य निर्माण में अपना योग दिया । १७वीं एवं १०वीं शताब्दि में हिन्दी जैन कवियों के लिये भागरा एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा जहाँ पचासों जैन कवियों ने हिन्दी में सैकड़ों रचनाओं को निवद्ध करने का गौरव प्राप्त किया।
विद्वान् हुये पौर
"हेमराज नाम वाले चार कवि
हमारी खोज एवं शोध के अनुसार हेमराज नाम के चार कवि हो गये हैं जिन्होंने हेमराज नाम से ही काव्य रचना की थी। इन चारों हेमराजों के नाम निम्न प्रकार है-
१. मुनि हेमराज
२. पांडे हेमराज
३. साह हेमराज ४ हेमराज गोवीका
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हेमराज
इन कमियों का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है
१. मुनि हेमराज
राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में हितोपदेश बावनी" की एक पाण्डुलिपि उपलब्ध होती है 1 जिसके रचियता कवि हेमराज है और जिन्होंने अपने नाम के पूर्व मुनि शब्द लिखा है। ये हेमराज कौन से मुनि थे इसके सम्बन्ध में बावनी में कोई सामग्री नहीं मिलती। लेकिन ये मुनि हेमराज बनारसीदास के अग्रज थे क्योंकि इन्होंने बावनी की रचना संवत् १६६५ में समाप्त की थी। जिसका उल्लेख जन्होंने बावनी के अन्तिम पद्य में किया है
हरष भयो मुज माज काज सारा मन बाधित । मुनि साहिन मिल सग्राम नाम प ग मास । तस सीस पभरणी एह मावन्नी सुखाई। एह पुहषीय रस षट् पंच एह संवत मइ गाइय । प्रगट्यो गुन ए जां लगे नव मेर परणी धरण ।
मुनि हेमराज इम उच्चर सुप्रगत सुनत मंगल करण ॥५॥ बावनी में ५२ के स्थान पर ५५ छन्द हैं । जो अन्तिम दो पद्यों के प्रतिरिक्त सभी सर्वया छन्दों में निबद्ध है बावनी का हितोपदेश बावनी के अतिरिक्त अक्षर बावनी नाम भी दिया हुना है क्योंकि स्वर और व्यञ्जन के प्राधार इसके सबैटये लिखे - गये हैं। बावनी के प्रथम दो पद्यों में कवि ने मंगलाचरण एवं अपनी लधुता प्रगट
ॐकार रहित कार सार संसारह चाग्यो ।
फार विस्तार सार मंत्रहि मान्यो । ॐकार वरबान जान परिण गुरु पंसिष्यो। सह गुरु तरण प्रसाद प्रादि ए अकार लिख्यो । मन मतिजोषस प्रापणं करि ससधिया रापन्न । भविक जन तुमे सांभले, ध्यानि धरी एक मन्न ।।१।। भवि मारणे न्याकर्ण तर्क संगीत रसाला । भरह पोंगल गुण गीत नवि जाण नाममाला ।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुला कोदास एवं हेमराज
छंच पोर निरपंट मजिहिये न । प्रत्पषि गुरु जान, जाण कहो केय बखाए । शिष देवी पर लगीह, देव्यो बुद्धि प्राप्त । रसिक पुरष मन रंगना, फरि समिविया उल्लास |२|
इसके मागे तीन सर्वस्या छन्द बिना प्रकारादिक कम के हैं तथा पांचवे नछ से स्वर और व्यञ्जन के क्रम से हैं। पूरी बावनी उपदेश परक है तथा पौराणिक उदाहरणों के द्वारा अपनी बात प्रस्तुत की गयी है। एक पद्य देखिये
प्रादि को कारणहार प्रभु राखि प्रावि रे । भूलो रे गमार तुही गर भव खोयो युही । प्रम विणा दीये कुण कहे तोरि वापि रे । काम कुं पातुर भयो पापसु जमा सरो। गयो परसी नियोष माहि बुबन फरावि रे । सोचि कई जीव माहें जीत के हारि जाई ।
एक बिना भगवंत सर्व काम वादि रे ।। हेमराजि भगह मुनि मुणो सजन अन मेरो जमग्यों है जिन गुण गायवो ।।७।।
हितोपदेश बावनी की एक पांडुलिपि जयपुर के दि० जैन मन्दिर बड़ा तेरहपंथियों के मास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । कृति की लेखक प्रशस्ति निम्न प्रकार है
इति हितोपदेश बावन्नी हेमराज कृत संपूर्णम् । सविया संपूर्णम् । संवत् १७५७ वर्षे मिती वैशाख सुदि ११ दिने गुरुवासरे लेखमोस्तु ।
उक्त पाइलिपि पं. विनोदकुमार द्वार। रूपनगर में बहुजी श्री यशप जी वाचनाचं लिखी गयी थी। प्रति में १२ पत्र हैं तथा वा सामान्य है।
पाण्डे हेमराज
पाण्डे हेमराज इस पुल के तीसरे कवि है जिनका यहाँ परिचय दिया जा रहा है। ये १७वीं शताब्दि के अपने समय के प्रसिद्ध कवि एवं प्रसित थे । साहित्य सेवा ही इनके जीवन का प्रमुख धर्म था। ये हट अवानी श्रावक थे इसलिये अपनी
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T
זי
पाण्डे हेमराज
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पुत्री जैनी को भी इन्होंने धर्म अच्छी शिक्षा दी थी। बुलाकीदास कवि इन्हीं जेनी / जैनुलदे के सुयोग्य पुत्र थे जिनके प्रश्नोसर श्रावकाचार एवं पाण्डवपुराण का परिचय दिया जा चुका है ।
हेमराज आगरा के निवासी थे। ये दिगम्बर जैन अग्रवाल थे । ग इनका गोत्र था। इनका परिवार ही पंडित एवं साहित्योपासक था । श्रागरा उस समय बनारसीदास, रूपचन्द कौरपाल जैसे विद्वानों का नगर था। नगर में चारों ओर शास्त्र चर्चा, अध्यात्म ग्रंथों का वाचन साहित्य निर्माण एवं संगोष्ठियां श्रादि होती रहती थी। हेमराज पर भी बकाया हो और उन्हें साहित्य निर्माण की घोर प्राकृष्ट किया होगा ।
जन्म एवं परिवार
हेमराज का जन्म कब हुमा, उनके माता पिता, शिक्षा दीक्षा, विवाह भादि के बारे में उनकी कृतियाँ सर्वथा मौन हैं। लेकिन यह अवश्य है कि हेमराज ने की शिक्षा प्राप्त की होगी। प्राकृत, संस्कृत एवं राजस्थानी तीनों ही भाषाओं पर उनका पूर्ण अधिकार था। वे गद्य एवं पद्य दोनों में ही गतिशील थे । मच्छे कवि थे । शास्त्रज्ञ भी थे इसलिये समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय जैसे ग्रन्थों का अच्छा अध्ययन भी किया होगा और इनकी विद्वत्ता को देखकर ही कौरपाल जैसे पंडित एवं तत्त्वश ने इनसे प्रवचनसार को हिन्दी गद्य पद्य दोनों में भाषा करने का अनुरोध किया था ।
कवि का सं. १७०१ में प्रथम उल्लेख पं० दौरानन्द द्वारा किया गया मिलता है । इसलिये उस समय इनकी ४०-४५ वर्ष की आयु होनी चाहिये और इस प्रकार इनका जन्म भी संवत् १६५५ के आस पास होना चाहिये। संवत् १७०६ में इन्होंने अपनी प्रथम कृति प्रवचनसार भाषा की रचना की थी उस समय तक कवि की ख्याति विद्वत्ता एवं काव्य निर्माता के रूप में चारों ओर प्रशंसा फैल चुकी थी ।
हेमराज और बनासीदास
पाण्डे हेमराज का तत्कालीन विद्वान् महाकवि बनासीदास से कभी सम्पर्क हुआ था या नहीं इसके बारे में न तो बनारसीदास ने अपनी किसी रचना में हेमराज का उल्लेख किया है और न स्वयं हेमराज ने अपनी कृतियों में बनारसीदास का स्मरण किया है । छो बनारसीदास के एक मित्र कौरपाल का प्रवश्य उल्लेख ना
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
है और उन्हें 'ज्ञाता' विशेषरण से सम्बोधित किया है। अपने सितपट चौरासी बोल में कवि ने कौरपाल का निम्न प्रकार उल्लेख किया है
मयागर ने वसे कौरवाल सम्यान । तिस निमित्त कवि हेम नं. कोयो कवित्त बखान ॥
हेमराज और कोश्याल
प्रवचनसार की भाषा तो हेमराज ने कोरपाल की प्रेरणा एवं याग्रह से ही लिखी थी। लगता है कौरपाल परोपकारी व्यक्ति थे तथा जैन शास्त्रों के अधिकारी विद्वान् थे । वे धाध्यात्मी व्यक्ति थे तथा घागरा की श्राध्यात्मिक सैली के प्रमुख सदस्य थे। लेकिन हेमराज द्वारा बनारसीदास की उपेक्षा करना आश्चर्य सा अवश्य लगता है क्योंकि स्वयं हेमराज भी श्राचार्य कुन्दकुन्द के भक्त थे इसलिये उनके ग्रंथों का भाषानुबाद उन्होंने किया था। लगता है हेमराज का बनासीदास से मतैक्य नहीं था तथा विचारों में भिन्नता थी । हेमराज की पाण्डे हेमराज भी लिखा हुआ मिलता है। संभवतः वे मध्यस्थ विचारों के थे । कुछ भी हा दोनों कवियों में से किसी के द्वारा एक दूसरे का उल्लेख नहीं होना कुछ घटपटा सा
लगता है ।
हीरानन्द और हेमराज
संवत् १७०१ में रचित "समवसरण विधान" में हीरानन्द कवि ने हेमराज
१ हेमराज पंडित बसे, तिसी आगरे ठाई ।
गरंग गोत गुन घागरी, सब पूर्ण तिस ठाइ । उपजी ताके बेजा जैनी नाम विख्यात । शील रूप गुण प्रागरी, प्रीति नीति पांति |
२ बालबोध यह कोनी जैसे सो तुम सुरराहू कहू में जैसे । मगर आगरे में हितकारी, कोरपास ज्ञाता अधिकारी । तिनि विचारि जिय में यह कीनी, जो यह भाषा होइ नवोनी ||४||
धलप बुद्धि भी श्ररथ बलाने प्रगभ प्रगोचर पर पहिचाने । यह विचारि मन में तिसि राखी, पाडे हेमराज सौ भाषी ||५||
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हे मराज
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को पंडित एवं प्रवीण इन दो विशेषणों के साथ वर्णन किया है। इससे प्रकट होता है कि हेमराज संवत् १७०१ में ही समाज में अच्छा सम्मान प्राप्त कर लिया था तथा उनकी गिनती पंडितों में की जाने लगी थी।
लेकिन हेमराज कद से पापडे कहलाने लगे इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। मुझे ऐसा लगता है कि ये पंडित कहलाते थे पोर धीरे धीरे पाण्डे कहलाने लगे। पौर पाण्डे राजमल के समान इन्हें भी प्रबचनसार, पञ्चास्तिकाय जैसे अन्यों की भाषा टीका करने के कारण इन्हें भी पाण्डे कहा जाने लगा । पाण्डे हेमराज की मन तम निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी है--
१ प्रवचनसार भाषा (गध)
रखमाकाल सं० १७०९
संवत् १७०४
३ भक्तामर स्तोत्र भाषा (गद्य) ४ भक्तामर स्तोत्र भाषा (पद) ५ चौरासी बोस (सितपट बौरासो बोस) ६ परमात्मप्रकाश भाषा ७ पञ्चास्तिकाय भाषा ८ कमकापा भाषा १ सुगन्ध वशमी व्रत कपा १० नथम्रक भाषा ११ गुरुयुजा १२ नेमिराजमती जसरी १३ रोहिणी व्रत कथा १४ नन्दीश्वर प्रत कमा १५ राजमती लनरी १६ समयसार भाषा
संवत् १७२६
उक्त कृतियों के अतिरिक्त कुछ पद भी राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में संग्र. हीत विभिन्न गुटकों में उपलब्ध होते हैं। उक्त कृतियों का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
१ प्रवधनसार भाषा (गद्य)
कविवर बुलाकीदास ने अपने पांडवपुराण में हेमराज का परिचय देते समय जिन दो ग्रन्थों की भाषा लिखने का उल्लेख किया है उनमें प्रवचनसार गधा का नाम सर्व प्रथम लिखा है। जिसमें ज्ञात होता है कि इस समय हेमराज का प्रवचन"सार भाषा भत्यधिक लोकप्रिय कृति मानी जाने लगी थी। महाकवि बनारसीदास द्वारा समयसार नाटक लिखने के पश्चात् प्राचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत रचनामों पर जिस वेग से हिन्दी टीका लिखी जाने लगी थी प्रस्तुत प्रवचनसार भाषा भी उसी का एक सुपरिणाम है।
हेमराज ने प्रवचनसार भाषा प्रागरा के तत्कालीन विद्वान कौरपाल के प्रायवश की थी। कौरपाल महाकवि बनासीदास के मित्र थे तथा उनके साथ कौरपाल ने कुछ ग्रंथों की रचना भी की थी। बनारसीदास ने जिन पांच प्राध्यामिक विद्वानों का उल्लेख किया था उनमें कौरपाल भी थे। उन्होंने हेमराज से कहा कि पांडे राजमल्ल ने जिस प्रकार समयसार की भाषा टीका की थी उसी प्रकार यदि प्रवचनसार की भाषा भी तैयार हो जाये तो जिनधर्म की और भी वृद्धि हो सकेगी तथा ऐसे शुभ कार्य में किञ्चित भी विलम्ब नहीं किया जाना चाहिये। हेमराज ने उक्त घटना का निम्न प्रकार उल्लेख किया है
बालबोध यह कीनी जैसे, सो तुम सुनह कहुं मैं तैसे । नगर सागर में हितकारी, कोरपाल नासा अधिकारी।।४।। सिन विचार जिय में यह कीनी, भाषा यह होइ नवीनी । मालपबुद्धि भी प्रथं बसाने, प्रगम भगोचर पर पहिचानें ।।५।।
१ जिन भारम अनुशार ते, भाषा प्रणमसार । पंच अस्ति काया प्रपर, कोने सुगम विचार ॥३५॥
पांडवपुराण/प्रयम प्रभाव २ रूपयाद पंडिस प्रथम, तृतीय चतुर्भुग जान ।
तृतीय भगौतीवास नर, कोरपाल गुणधाम ।। घरमवास ए पंचजन, मिलि बठहि इक ठोर । परमारय पर्चा करें, इन्ही के कथन न मौर। नाटक समयसार
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কৰি নল
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यह विचार मन में तिन राखी, पोरे हेमराज सों भावी । मागे राजमम्स ने कोनी, समयसार भाषा रस लोनी ।।६।। अव भो प्रवचन की ह भाषा, तो जिनधर्म वर्ष सो साखा । सात करहु विलंब म कोज, परभावना अंग फल लोज ।।७।।
कोरपाल ने अपनी भावना व्यक्त की और उसके फल प्राप्त करने को कवि को प्रलोभन दिया।
हेमराज संवेदनशील विद्वान थे। वे कवि एवं गछ लेखक दोनों ही थे। गद्य पद्य दोनों में ही उनकी समान गति थी। इसलिये उन्होंने भी तत्काल प्रबचनसार की गद्य टीका लिखना प्रारम्भ कर दिया।
जिन प्रयोष अनसार प्रमे हित उपस सौं। रची भाष प्रविकार, जयवंती प्रगटहु सदा ||६|| हेमराज हित मानि, भविक जीव के हित भणी। जिनवर प्रानि प्रवानि, भाषा प्रवचन की कही ।।१०।।
कवि ने प्रपचनसार की जब रचना की थी उस समय शाहजहाँ बादशाह का शासन था। जिसका उल्लेख कवि ने निम्न प्रकार किया है
प्रयनिपति वंदहि चरण, सुनय कमल विसंत । साहजिहां बिनकर उर, मरिगन तिमिर म संत ।।
प्रवचनसार की गद्य टीका कवि ने कर प्रारम्भ की इसका तो कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन वह बित् १७०६ में समाप्त हुई ऐसा उल्लेख अवश्य मिलता है
सत्रह नव ऊसर, माघ मास सिस पाल ।
पंचमि आदितवार को, पूरन कोनी भाष ।।१६॥ प्रवचनसार मूल प्राचार्य कुन्दकुन्द की प्रमुख कृति है। इस पर प्राचार्य अमृतचन्द ने संस्कृत में तत्व प्रकाशिनी टीका लिखी थी। यह एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है जिसमें तीन अधिकार है। जिनमें जान, शेयरूप तत्वज्ञान के कथन के साथ बन
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कविवर बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज
साधु प्राचार का बड़ा ही रोचक एवं प्रभावक कयन किया गया है। अन्य की भाषा प्राचीन प्राकृत है जो परिमाजित है। यही नहीं इसकी भाषा उनके अन्य सभी मन्थों से प्रौद्ध है तथा गम्भीर अर्थ की द्योतक है। इसका दूसरा प्रधिकार प्रयाधिकार नाम से है जिसमें ज्ञेय तत्वों का सुन्दर विवेचन किया गया है। प्रबचनसार का तीसरा प्रधिकार चारित्राधिकार है । प्रवचनसार पर अग्रसेन की संस्कृत टीका भी अच्छी टीका मानी जाती है। प्रवचनसार की गद्य टीका तत्कालीन हिन्दी गद्य का अच्छा उदाहरण है।
पांडे हेमराज ने प्राकृत गाथानों का पहिसे अध्वपार्थ लिखा है मोर फिर उसीका भावार्थ लिखा है। मावार्थ बहुत अच्छा गद्य भाग बन गया है। इसका एक उदाहरण निम्न प्रकार है
"जो मोक्षामिलाधी मुनि है ताकौं यों चाहिए के तो गुणनि करि पाप समान होह के, अधिक होह असे दोइ की संगति कर प्रौर की न करें। जैसे सीतल घर के कोने में सीता हमार सने मजल गुर ही रक्षा ही है तेसैं अपने गुण समान की संगति स्यों गुण की रक्षा हो है । नौस जैसे प्रति सीतल बरफ मिश्री कपूरादि की संगति स्यों प्रति सीतल हो है तैसे गुणाधिक पुरुष की संगति स्यों गण वृद्धि हो है तातं सत्संग जोग्य है । मुनि को यों चाहिए प्रथम वा विर्ष यह कही जु पूर्व ही शुभोपयोग ते उत्पन्न प्रवृत्ति ताको अंगीकार कर पाई क्रमस्यों संयम की उत्कृष्टता करि परम दशा को धरै पाछ समस्त वस्तु की प्रकाशन हारी केवलशानानंद मयी शास्वती अवस्था को सर्वथा प्रकार पाह अपने अतींद्रिय सुख को अनुभव हु यह शुभोपयोगाधिकार पूर्ण हुवा । पृष्ठ संख्या २२८
प्रवचनसार की पचासों पाण्डुलिपियाँ राजस्थान के विभिन्न ग्रन्थागारों में सुरक्षित है। संवत् १७२८ में लिपिबद्ध एक पाण्डुलिपि हमारे संग्रह में उपलब्ध है।
२ प्रवचनसार भाषा (पद्य)
प्रवचनसार की हिन्दी गद्य टीका का ही अभी तक विद्वानों ने अपने २ ग्रयों एवं शोध निबन्धों में उल्लेख किया है लेकिन इनकी प्रवक्तसार पर पद्य टीका का कहीं उल्लेख नहीं मिलता । १० परमानन्द जी शास्त्री जैसे हिन्दी के विद्वान् ने भी हेमराज की गद्य वाली टीका का ही नामोल्लेख किया है। लेकिन सौभाग्य से मुझे
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कविवर हेमराज
२११ इसको एक पद्य टीफा वाली पाण्डुलिपि उपलब्ध हुई है जिसका परिषय निम्न प्रकार है
हेमराज ने प्रघचनसार का पद्यानुवाद भी इसी दिन समाप्त किया जिस दिन उसकी गद्य टीका पूर्ण की थी जिससे ज्ञात होता है कि उसने प्रवचनसार पर गद्य पद्य टीका एक ही साथ की थी। लेकिन जब उसकी गद्य टीका को पचासों पाण्डुलिपियां उपलब्ध होती है तब प्रवचनसार पद्म टीका की अभी तक पाण्डुलिपि उपलब्ध न होवे यह बात समझना कठिन लगता है । इसका उत्तर एक यह भी दिया जा संकता है कि खण्डेलवाल जातीय दूसरे हेमराज ने भी पद्यानुवाद लिखा है इसलिये प्रागरा निवासी हेमराज के पद्यानुवाद को कम लोकप्रियता प्राप्त हो सकी।
पद्य टीका में ४३८ पद्य है जिसमें अन्तिम ११ पद्य तो वे ही हैं जो कवि ने प्रवचनसार गद्य टीका के अन्त में लिस्बे हैं। प्रस्तुत कृति का प्रारम्भिक अंश निम्न प्रकार हैअप्पय
स्वयं सिद्ध करसार कर निज करम सरम निषि, पापं करण स्वरूप होय सापन साथै विधि । संमरचना पर पापको प्राप समप्प । प्रसारव प्रापत मापको कर थिर थप्पै । अधकरण होय भाषारनिन वरतं पूरण ब्रह्म पर।
षट निषिद्वारिकामय विधि रहित विविध येक अजर अमर ॥१।। चोहा- महासत्व महनीय पह, महापाम गुणधाम ।
चिदानंद परमातमा, बंदू रमता राम ।।२।। कुनय धमन सुवरनि प्रवनि, रमिनि स्यात पर शुद्ध ।
जिनवानी मानी मुनिय, घर मैं करोतु सुबुद्धि ।।३।। चोप- पंच इष्ट के पद वंदौ, सत्यरूप गुरगुण प्रभिनंदों।
प्रवचन प्रथ को टीका, बालबोध भाषा सपनीका ।।४। प्रवचनसार के तीन अधिकारों में से प्रथम अधिकार में २३२ पद्य, तथा शेष २०६ पद्यों में दूसरा एवं तीसरा अधिकार है।
भाषा प्रत्यधिक सरल, सुबोध एवं मधुर है। प्रवचनसार के गुळ विषय को कवि ने बहुत ही सरल शब्दों में समझाया है। कोई भी पाठक उसे हृदयंगम कर सकता है।
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२१२
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकोदास एवं हेमराज
प्रवचनसार पद्य टीका को एक पाण्डुलिपि जयपुर के बधीचन्द जी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। इसमें ३४ पद्य हैं तया अन्तिम पुस्तिका इस प्रकार है
इति श्री प्रवचनसार भाषा पांडे हेमराज कृत संपूर्ण । लिखतं दलसुख लुहाड़िया लिखी सगाईचपुर मध्ये लिसा । ३ भक्तामर स्तोत्र भाषा (पत्र)
भक्तामर स्तोत्र सर्वाधिक लोकप्रिय जैन स्तोत्र है। मूल स्तोत्र माचार्य मानतुग द्वारा विरचित है जिसमें ४८ पद्य है। समाज का अधिकांश भाग इसका प्रतिदिन पाठ करता है। हजारों महिलाएं जब तक इसको नहीं सुन लेती, भोजन तक नहीं करती। भक्तामर स्तोत्र पर अब तक ७० से भी अधिक विद्वानों ने पद्यानुवाद किया लेकिन "शिकार में काफल इस लेख में मक्तामर पर उपलब्ध हिन्दी गद्य टीकाकारों का कोई उल्लेख नहीं किया ।
भक्तामर स्तोत्र पर हिन्दी पद्यानुवाद पांडे हेमराज का मिलता है जो समाज में सर्वाधिक लोकप्रिय है । दि० जन मन्दिर कामा के शास्त्र भण्डार में स्वयं हेमराज पांड्या की पाण्डुलिपि संग्रहीत है जिसका लेखन-कास सं० १७२७ है । इस पाण्डुलिपि में २६ पत्र हैं। पांडे हेमराज ने पद्यानुवाद जितना सुन्दर एवं सरल किया है उतना अन्य कवियों के पद्यानुवाद नहीं है। एक पद्य का अनुवाद देखिये
मो माँ शक्तिहीन अति कर
भक्ति भाववश कछ नहीं आ क्यों भूगि मिज-सुस पालम हेतु
मृगपति सन्मुख माय अचेत ॥५॥ अन्तिम पञ्च में कवि ने अपने नाम का निम्न प्रकार उल्लेख किया है
भाषा भक्तामर कियो, हेमराज हित हेत । जो नर पढे सुभावसों, से पावै शिवनेत ॥४२॥
१ देखिये "तीर्थकर" में प्रकाशित-पं. कमलकुमारजी शास्त्री का लेण-पृ. १६७-७. २ राजस्थान के जैन सास्त्र भण्डारों को ग्रन्थ सूची भाग-पंचम-पृ० ७४७.
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हेमराज
कषि ने अपने इस छोटे से स्तोत्र में चौपई (१५ मात्रा) नाराष यन्स, दोहा एवं षट्पद छन्दों का प्रयोग किया है ।
४ भक्तामर स्तोत्र भाषा (गद्य)
पं० हेमराज ने जहां भक्तामर स्तोत्र का पद्यानुवाद किया वहाँ गद्य में टीका लिखकर पाठकों के लिये स्तोत्र का अर्थ समझने के लिये उसे मौर भी सरल बना दिया है। गद्य टीका भाषा संस्कृत के एक एफ शन्द के प्रत्यय के अनुसार की है। भाषा में ब्रज का प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है । एक संस्कृत पद्य का गद्यानुवाद प्रवलोकनार्थ नीचे दिया जाता है
किल अहमपि तं प्रथम जिनेन्द्र स्तोपे किलाह निश्चय करि अहमपि मै भी जु हो मानतुग भाचार्य सो तं प्रथम जिनेन्द्र सो जु है प्रथम जिनेन्द्र थी प्रादिनाथ साहि स्तोष्ये स्तवगा। कहा करि स्तोत्र करोंगो जिनपाद युगे सम्यक् प्रणम्य जिन जु है भगवान तिनि को जु पद जुग दोई चरण कमल ताहि सम्यक् भली भांति मन वचन काय करि प्रणम्य नमस्कार करि के। सौ है भगवान को घरण द्वय भक्तामर प्रणत मौलि प्रभाणां उद्योतक भक्तिर्वत जु है अमर देवता तिनि के प्रणीत नम्रीभूत जु है मौलि मुकट तिनि विषै है मणि तिनि को प्रभा तिनिका उद्योतकं उद्योत की है । यद्यपि देव मुकटनि का उद्योत कोटि सूर्यवंत है तथापि भगवान के चरण नख की दीप्ति आगे 4 मुकुट प्रभा रहित हो है तातै भगवान को चरण द्वय उनका उद्योतक है। नहरि कसो है चरण द्वय दलित पाप तमो वितानं दलित दूरि कियो है पाप रूप तम अधकार ताको वितान समूह जाने बहुरि कसो है चरण द्वय प्रगटी भव भवजले पतता जनानां प्रालंबनं । प्रगटी चतुर्थकाल को भादि विष भवजसे संसार समुन्द्र जल विष पता पड़े जु हैं तं के सो प्रादिनाथ कौन है जाको स्तोत्र में करोगी। स्तोत्र: यः सुरलोक नाथ: संस्तुतः स्तोत्रं स्तोम हूं करि यः जोत्री प्रादिनाथ सुरलोकनार्थ सुरलोक देवलोक के नाम इंद्र तिनि करि संस्तुत: स्तूयमान भया कैसे है इंद्र सकल बाल मय तिसका जु सत्व स्वरूप तिसका जु बोध ज्ञान तातै उद्भूत उत्पन्न जु है मकर बुद्धि ता करि पटुभिः प्रवीण है वे स्तोत्र कसा है जिन करि स्तुति करी जगत्रिय उदारैः प्रर्थ की गंभीरता करि श्रेष्ट है ।।२।।
४वें पद्य की टीका के अन्त में कवि ने अपने पापका निम्न प्रकार परिचय दिया है--
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२१४
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
भक्तामर टीका सदा, पढ सुने जो कोह हेमराज सिथ सुख लहे तर मन बदित होई ||
४ चौरासी बोल
हेमराज ने प्रस्तुत कृति में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदाय जो मतभेद हैं उनको बहुत ही अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है। वे भेद चौरासी हैं जिन्हें चौरासी बोल का नाम दिया गया है । कवि ने इसकी रचना फोरपाल की प्रेरणा से की थी। इसका दूसरा नाम "सित पट चौरासी बोल" भी मिलता है ।
तदमाग
में वसे, कारपाल सम्यान
तिस निमिश कवि हेम ने कियो कवित्त अशाम ।
कविवर हेमराज ने इसे संवत् १७०६ में लिखकर समाप्त किया था।
चौरासी बोल एक सुन्दर रचना है जो भाषा एवं शैली की दृष्टि से अनूठी कृति है। चौरासी बोल का प्रारम्भ निम्न प्रकार है
सुनय पोष हत योष मोक्ष मुख शिव पव वापक
गुन मनि कोष सुघोष शेष हर तोष विधायक | एक अनंत स्वरूप संत वंदित अभिनंवित
निज सुभाव परभाव भाव भरसेय मंदित | प्रविदित चरित्र विलसित प्रमित सवं मिलित प्रविलिप्त तन । प्रविश्वलित कलित निज रस ललित जय जिंनंवि दलित कलित घन ॥१॥
सर्वाइकतीसा - नाथ हिम भूधर तँ निकसि गनेश चित्त सुपरि विधारी शिव सागर लाई है। परमत वाघ मरजाद कूल उनमूलि अनकूल मारिग सुभाय हरिभाई है। बुद्ध हंस से पायमल को विध्वंस कर सरवंश सुमति विकासि रवाई है। सपत अभंग भंग उवह तरंग जानें सो बानी गंग सरयंग अंग
गाई है || २ ||
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हेमराज
दोहा
श्वेताम्बर मत की सुनी, जिनतें हैं मरजाव
गड़ के बउरासी वाव ॥३॥
तिनको कछु संक्षेपता,
पढ़त सुनत जिनके मिटे
कहिए भागम जानि ।
संसे मत पहचानि । ४ । ।
२१५
संसे मत मैं और है, प्रगनित कल्पित बात ।
कौन कथा तिनकी कहै, कहिए जगत विरूपात ॥१५॥
६ परमात्मप्रकाश भाषा
परमात्मप्रकाश दूसरी श्रध्यात्म कृति है जिसे कदिवर हेमराज ने संवत् १७१६ में समाप्त की थी । परमात्मा योगीन्दु की मूल कृति है जिनका पूरा नाम योगिचन्द्र है। इनका समय ईस्वी सन् की छठी शताब्दि का उत्तराधं माना जाता है । परमात्मप्रकाश मूल में अपभ्रंश रचना है जिसमें प्रथम अधिकार में १२६ दोहे तथा दूसरे अधिकार में पड़े हैं ।
पाण्डे हेमराज ने परमात्मप्रकाश पर हिन्दी गद्य टीका लिखकर उसके पठन पाठन को और भी सुलभ बना दिया तथा उसकी लोक प्रियता में वृद्धि की लेकिन प्रवचनसार के समान इसको व्यापक समर्थन नहीं मिल सका। यही कारण है कि जयपुर के शास्त्र भण्डारों में इसकी एक मात्र पाण्डुलिपि उपलब्ध होती हैं और वह भी पूर्ण ही है। इसकी एक पूर्णं पाण्डुलिपि डूंगरपुर के कोटडियों के मन्दिर में तथा दूसरी भादवा ( जयपुर ) ने जिन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध होती है । परमात्माण की गय टीका का एक उदाहरण देखिये -
यानंतर तीन प्रकार का मात्मा के भेद तिनि मै प्रथम ही बहिरात्मा के लक्षण कई है -
पोहा
सूक्तिण वंभुवद अप्पा तिनिहु हवेइ ।
बेहू जि धप्पा जो मुखह, सो जण सूड हवेइ ।। ११।।
मूळ कहिए मिध्यात्व रागादि रूप परिण्या वहिरात्मा श्रर विक्ख कहिए वीतराग निर्विकल्प सुसंवेदन ग्यान रूप परिणया अंतरात्मा और ब्रह्म पर कहिए शुद्धबुद्ध स्वभाव प्रमात्मा शुद्ध कहिए रागादि रहित भर बुद्ध कहिए ग्यानादि सहित
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२१६
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
परम कहिए उत्कृष्ट भाव कम तो कर्म रहित या प्रकार प्रात्मा के तीन भेद जानू । बहिरात्मा, अन्तरात्मा परमात्मा सिनि में जो देह कू प्रात्मा बाण सो प्रारगी मूढ कहिए।
उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि हेमराज ने प्रवचनसार गन टोका में जिस शैली को अपनाया था उसी को प्रागे प्रन्थों में अपनाया गया।
७ पञ्चास्तिकाय गद्य टीका
पञ्चास्तिकाय भी प्राचार्य कुन्दकुन्द को कृति है जो प्राकृत भाषा में निबद्ध है 1 इसमें दो श्रुतस्कंध (प्रधिकार) हैं षदश्य-पंचास्तिकाय और नव पदार्थ । इन अधिकारों के नाम से ही इनके प्रभिधेय का नाम हो जाता है। इस पर भी भाचार्य अमृतचन्द्र एवं जयसेन की संस्कृत टीकाए हैं।
पाण्डे हेमराज ने अपने गुरु रूपचन्द के प्रसाद से पश्चाम्तिकाय की भाषा टीका लिखी थी। मानन्द जी मामी ए1 अंगरागर दोगी । पञ्दास्तिकाय भाषा टीका का रचनाकाल संवत् १७२१ लिखा है लेकिन रचनाकाल सूचक पद्य को दोनों ने उस्लेख नहीं किया है। जयपुर के ठोलियों के मन्दिर में संग्रहीत एक पाण्डुलिपि संवत् १७१४ की लिखी हुई है इसलिये पञ्चास्तिकाय गच टीका का लेखन काल संवत् १७२१ तो नहीं हो सकता । स्वयं गद्य टीकाकार में रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं किया है । पाण्डे हेमराज ने निम्न प्रकार टीका की समाप्ति की है
प्रागै इस ग्रन्थ का करणहारे श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने जु यह पारम्भ कीना था त्तिस के पार प्राप्त हुमा कृत कृष्ण । अवस्था अपनी मानी कर्म रहित शुद्ध स्वरूप विर्ष थिरता भाव धा। असी ही हमार विष भी श्रद्धा उपजी इसि पंपास्तिकाय समयसार ग्रन्थ विर्ष मोक्षमार्ग कथन पूर्ण भया। मह कछु एक अमृत चन्द्र कृत टीका ते भाषा बालावबोध श्री रूपचन्द गुरु के प्रसाद थी। पांडे हेमराज ने अपनी बुद्धि माफिक लिखित कोना । जे बहुश्रुत है ते सवारि के पहियो ।।
१ देखिये प्रभेकान्त- वर्ष १८ किरण-३ पृष्ठ संख्या १३८. २ हिदी मैम भक्ति काम्य पोर कमि-पृष्ठ सं० ११५.
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हेमराज
२१७
इति श्री पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ पांडे हेमराज कृत समाप्त । संवत् १७१९ पौष सुदि ११ वृहस्पतिवार रामपुरा मध्ये लिखायितं पंचास्तिकाय ग्रन्थ संघ ही कला परोपकाराय लिखितं लेखक दीना । शुभं भूयात् ।
ग्रन्थ के प्रारम्भ करते समय कवि ने अपना कोई परिचय नहीं दिया है और टीका को प्रारम्भ कर दिया है ।
भावार्थ – एक परमाणु विर्ष पुद्गल के बीस गुरणन में पंच गुण पाइए । परति दिई कोई एक कोई एक वर्ण पाइए । दोइ गंध विषै कोई एक गंध पाइए। शीत स्निग्ध, शीत दक्ष उष्ण, स्निग्ध, उष्ण-रुक्ष इति चार स्पर्श के जुगलनिविध एक कोई जुगल पाइए। ए पांच गुण जानने । यह परमाणू बंघ भाव के परणया हुआ माब्द पर्याय का कारण है। और जब घ जुषा है तब शब्द तं रहित है। यद्यपि श्रपर्णे स्निग्ध रूम गुणनि अनेक परमाणु रूप स्कंध परिणति घरि करि एक हो है तथापि प्रप स्वभाव को छोड़ता नांही सदा एक द्रव्य है ।
उक्त उदाहरण से ज्ञात होता है कि हेमराज हिन्दी गद्य लेखन में बड़े कुशल विद्वान् थे । तथा सिद्धान्त एवं दर्शन के विषय को भी द्वारा प्रवाह लिखते थे । भागरा के होने के कारण उनकी भाषा में थोड़ा ब्रज भाषा का पुट है ।
८ कर्मकाण्ड भाषा
का कारण पाइ
एक रूप करि
कर्मकाण्ड प्राचार्य नेमिचन्द्र के गोम्मटसार का उत्तर भाग है । गोम्मटसार के दो भाग हैं जिनमें प्रथम जीवकाण्ड तथा दूसरा कर्मकाण्ड है । कर्मकाण्ड ग्रन्थ जैन के अनुसार पाठ कर्म एवं उनकी १४८ प्रकृतियों के वर्णन करने वाला प्रमुख ग्रन्थ है। यह १ अधिकारों में विभक्त है। जिनके नाम निम्न प्रकार है— (१) प्रकृति समुत्कीर्तन (२) बन्धोदय सत्व (३) सत्वस्थानभंग (४) त्रिलिका (५) स्थान समुत्कीर्तन (६) प्रत्यय ( ७ ) भाषचूलिका (८) त्रिकरण चूलिका (६) कर्म स्थितिबन्ध | कर्मों के भेद प्रभेदों का वर्णन करने वाला यह प्रमुख धन्य है । माचार्य नेमिचन्द्र का समय ईस्वी सन् की दशम शताब्दि का उत्तरार्द्ध है ।
पाण्डे हेडराज ने अपनी गद्य टीका के प्रारम्भ मथवा मन्तिम काल का उल्लेख नहीं किया है लेकिन पं० परमानन्द जी शास्त्री ने
भाग में रचना इसका रचना
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२१८:
कविवर बुलाखोचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
काल संवत् १७१७ लिखा है । परनीता का कोई लाभारही दिया है। जयपुर के ठोलिया मन्दिर में इसकी एक पाण्डुलिपि संवत् १७२० को तथा हमारे संग्रह में संवत् १७२६ में लिपिबद्ध पाण्डुलिपि सुरक्षित है । संवत् १७२० की पाण्डुलिपि उसी लिपिकर्ता दीना की है जिसने इसके पूर्व पञ्चास्तिकाय गद्य टीका की प्रतिलिपि की थी।
हेमराज ने प्रस्तुत धन्ध के प्रादि अन्त में अपने सम्बन्ध में लिखित प्रशस्ति निम्न प्रकार है
प्रारम्भ-मों नमः सिदेभ्यः। प्रथ कर्मकाण की बालबोध टीका हेमराज कृत लिख्यते ।
मन्तिम भाग-इयं भाषा टीका पंडित हेमराज कुता स्वबुद्धयनुसारेण । इति श्री कर्मकाण्ड भाषा टीका।
संवत् १७२६ वर्षे मासुनि मासे कृष्णपक्षे ७ सप्तम्यां सोमवासरे लिखतं साह श्री योमसी पात्मपठनार्थ । लिखितं पाठिंग विराम । श्री शुभं भवत् ।
कर्मकाण्ड भाषा टीका भी अन्य प्ररथों की भाषा दीका के समान है। इसके पद्यांश का एक उदाहरण निम्न प्रकार है---
पाधि भव विाकी नि नरकायु तिमंचायु मनुष्यायु देवायु ए चारि मायु भव विपाकी कहिए । जातै इनका मव कहिये पर्याय सोई नियाक है। प्रत्यु के उदय ते पर्याय भोगाइ ए है । सात प्रायु कर्म भव त्रिपाकी कहिए । क्षेत्र विपाकीनि प्रानुपूरयाणि । नरकायु पूरी तियंचायुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी देवानुभूज़ । चार भानुपुदी क्षेत्र विपाकी है। जासे इनका विपाक क्षेत्र है तातै क्षेत्र विपाकी है। प्रदशिष्टानि प्रष्टसप्ततिः जीय विपाकीमि पुद्गल विपाकी भव विपाकी क्षेत्र विपाकी पूर्व कहै जे फर्मएकसो प्रस्तालीस प्रकति मध्य तिनते ते बाकी रहे महत्तरि कर्मजीव विपाकी फहिए ते जीव विपाको कर्म प्रगली गाथा में नाम लेके कई है।
प्रस्तुत टीका में कवि ने केवल गाथा का पर्व ही किया है अपनी अन्य टीका अन्यों के समान भावार्थ नहीं दिया। इससे भाषा में संस्कृत पदों की पषिक भरमार पा मयी है।
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हेमराज
६ सुगन्ध कामी व्रत कथा
सुगन्ध दशमी यस भारी शुगल ' सपी के दिन रखा जाता है । यह व्रत १० वर्ष तक किमा जाता है और कर चार सा शो रसा जाता है। समाज में इसका अत्यधिक महत्व है । शास्त्र भण्डारों में बहुत सी पाण्डु लिपियां इसी व्रत के उद्यापन के उपलक्ष में मेंट स्वरूप दी हुई संग्रहीत है। इस दिन सभी मन्दिरों में धूप खेई जाती है। इस व्रत को भीवन में सफलता पूर्वक करने से दुर्गन्ध युक्त सरीर भी सुगन्धित बन गया था यही इस व्रत का महात्म्य है ।
इस कथा के मूल लेखक विश्वभूषण है जिसको हिन्धी पद्य में हेमराज ने रचना की थी। रचना स्थान गहेली नगर था जिसका कवि ने निम्न प्रकार उल्लेख किया है ।
प्रत सुगन्ध वसमी विल्यात, अतिसुगन्ध सौरभसा गत । पह अस नारि पुरुष जो करे, तो दुल संकट यह परे ।।३६।। सहर गहेलो उत्तिम बास, गम को करे प्रकास । सब भावक प्रत संयम घर, गाम पूजा सो पाक्षिक हरे ॥३७।। हेमराज कवियन यो कही. विस्मभूषन परफासी सहो । मन वन काइ सुन बो कोड, सो मर स्वर्ग ममरपति होई ॥३८॥
यह छोटी सी कृति है जिसमें ३८ पद्य हैं। इसकी एक पांडुलिपि जयपुर के पटोपी के दिगम्बर जैन मन्दिर में संग्रहीत है। पाण्डुलिपि संवत् १९८५ की है। पाहुलिपि भिण्ड नगर के रामसहाय में की थी।
१० नयचक भाषा
नयचक का दूसरा नाम मालाप पद्धति है। इसके मूलका पाचार्य देवसेन है जिनका समय संवत् १६० अर्थात् १०वीं शताम्दि माना जाता है । नयचक मूल रचना प्राकृत भाषा में है। इसमें प्रारम्भ में छह द्रव्यों का (जोव, पुदास, धर्म, प्रधर्म, प्राकाश और काला द्रव्य, गुण और पर्याय की पपेक्षा वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् द्रव्य स्वभाव का कथन किया गया है। फिर सात नयों का जिनके नाम से यह रचना विख्यात है वर्णन मिलता है 1 नंगम, संग्रह, व्यवहार, घुसूत्र
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२२०
कविवर लाखोचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
शब्द समभिरूड एवं एवंभूत के भेद से सात प्रकार के हैं। इन नयों का बहुत ही विस्तृत किन्तु सरल एवं बोधगम्य परिचय दिया गया है। हेमराज ने बिना किसी गाथाओं को उद्धृत किये हुये ना साख है. का दार्शनिक विषय है लेकिन हेमराज ने उसे एकदम सरल बना दिया है। एक उदाहरण देखिये –
(१) वहाँ सर्व नय को मूल दोइ । एक द्रव्यायिक एक पर्यायायिक | इनही का उच्चतर भेद सात और है सां लिखिये है। १. जंगम, २ संग्रह ३ व्यवहार ४. ऋजुसूत्र ५. शब्द, ६. समभिरूड एवं ७ एवंभूत। इस तरह ए सात नय दीय मूल भरु सात ए सवं मिलि तब नय हुई । इति नवाधिकार | इनको मागं यथा सम्बन्धे लिखिये होगी ।
नय ही को मंगू ले करी वस्तु को अनेक विकल्प लिए कहनों सु उप नय कहिये सो उपनय तीनि भेद व्यवहार हो के विधे संभवे सो लिखिये है । सद्भूत व्यवहार प्रसद्भूतव्यवहार, उपचरत सद्भूत व्यवहार एवं उप नम का तीन मेद । अब पूर्वोक्त नय का विस्तार परणे भेद लिखिए है ।
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(२) तिहृो प्रथम निश्वये नय हूंती व्यवहार नय तिहां वस्तु को जो प्रभेद पर बतावै सो निश्चय । श्ररू वस्तु को भेद पर बताई सो व्यवहार नय | ति पहिली जो निश्चय नय तिस के दोय भेद एक शुद्ध नय दूजी अशुद्ध नय । तिहां जो निरुपाषि रूप सो सुध निश्चय नम जैसे केवलग्यानादयो जीव भर जो उपाधि करि संयुक्त है सौ सुष निश्चय नय जैसे मति ज्ञानोदय जीव । एवं निश्चय का दोय भेव जांणचा । पृष्ठ १७
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उक्त वो उदाहरणों से पता चलता है कि नयचक्र की भाषा राजस्थानी प्रभावित श्रवस्य है लेकिन उसका स्वरूप एवं शैली दोनों ही परिस्कृत है । सैद्धान्तिक बातों के वर्णन में ऐसा सरल एवं किन्तु परिस्कृत भाषा का प्रयोग प्रवश्य ही प्रशंसनीय है ।
प्रस्तुत रचना को हेमराज ने संवत् १७२६ में पूर्ण किया था। जिसका उल्लेख कवि ने ग्रन्थ के अन्त में निम्न प्रकार किया है
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हेमराज को बोनती, सुमियो सुरुनि समार। यह भाषा नयषक की, रवि सुबुद्धि उनमाम ॥४॥ सतरसे बीस को, संबत फागुण मास ।
उजल तिथि पशमी बिहाँ फोनो बसन जिलाम ! प्रागरा में उन दिनों पं. नारायणदास थे । जो खरतर गच्छ के जिनप्रभसूरि के प्रशिष्य एवं उपाध्याय लब्धिरंग के शिष्य थे । हेमराज ने पं. नारायणदास से नयचक्र की भाषा करने के लिये प्रार्थना की । इसके पश्चात् हेमराज ने पं० नारायणदास की सहायता से नयचक्र की गद्य में भामा किया। जिसका काम प्रकार किया हैसेहरा- सिरीमास गछ खरतर, जिनप्रभ सूरि संतानि ।
लवधि रंग जवझाय मुनि, तिनके सिष्य सजानि ।। पियुष नारायणरास सो.. यह प्ररण हम कीन । न्यौ नयत्रक सटीक हू, पद सर्व परवीन ॥२॥ तिम्है प्रसन हक कही, भली भली यह बात ।
सब हमहू अनिम कियो, रबी बचनिका भात ।३।। प्रस्तुत ग्रन्थ की एक पाण्डुलिपि संवत् १७६० भादवा दी भृगुवासर को वेषम गांव में लिपिबद्ध की हुई जयपुर के पांडे लणकरण बी के मन्दिर में उपलब्ध है। मयचक भाषा का प्रादि भाग निम्न प्रकार है
बंदी भी जिन के वचन, स्याद्वाब भय मूल । ताहि सनत अनुभवत हो, होश मिथ्यास निरमूल ।।१।। निहर्च अर वियहार नय, तिनके भेद अनंत । तिम्ह में कछु इक बरग हो, गाम भेव विरतंत ॥२॥
११ गुरुपूजा हेमराज ने माध्यात्मिक साहित्य के अतिरिक्त पूजा साहित्य भी लिखा था। उनके द्वारा रचित गुरुपूजा पं० पन्नालाल बाकलीवात द्वारा प्रकाशित
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२१२
कविवर बलातोउन्ट, बलाकीदास एवं हेमराज
वृजिनवाणी संग्रह में प्रकाशित हो चुकी है। पूजा में पहिले प्रष्ट पूजा और फिर जयमाल है । 'कवि के गुरु संसार के भोगों से विरक्त होरर मोक्ष के लिये तपस्या करते हैं। वे भी भगवान जिम्मा के गुणों का नित्य प्रति जाप करते है--
दीपक उपोत समास अगभग, ससा पूर्व सया। तम नाश ज्ञान उजास स्वामी, मोहि मोह न हो कहा। भव भोग तन बैराग्यधार, निहार शिव पद तपत है। तिहं जगसनाय अधार साधु मपून नित गुन जपत है ।।६।।
पञ्च परमेष्ठी का साधु ही गुरु है । मुनि भी उसी का नाम है। वे रागदेष को दूर कर दया का पालन करते हैं। तीनों लोक उनके सामने प्रकट रहते हैं पे चारों प्राराधनाओं के समूह हैं । वे पाच महावतों का कठोरता से पालन करते है मौर छहों द्रव्यों को जानते हैं। उनका मन सात भंगों के पालन में लगा रहता है पौर उन्हें माठों ऋमियां प्राप्त हो जाती है ।
एक व्या पाले मुनिराचा, राग व हरमपरं । तीनों लोक प्रगट सब देखें, चारो पाराधन निकरं । पंच महाव्रत युदर धार, छहों परस पाने सहित । सात भंग पानी मन लागे, पावें पाठडि समितं ॥
गुरुपूजा की एक प्रति फतेहपुर (शेखावाटी) ने दिग जैन मन्दिर के सास्त्र मपचार में गुटका संख्या ७ में संग्रहीत है 1
१२ नैमिराजमति जखडी कविवर हेमराज लघु कृतियों की रचना करने में रुचि भी रखते थे। नेमिराजमति जखड़ी ऐसी ही एक लघु रचना है जिसमें नेमि राबुल का विरह वर्णन किया गया है। जखडी की एक प्रति जयपुर के बीचन्द जी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत १२४वें गुटके में लिपिबद्ध है। इसकी प्रति देहली में तिलोकचन्द पटवारी नाकसू वाले ने संवत् १७८२ में की थी।
१ राजस्थान के जैन शास्त्र भारों की ग्रंथ सूची-भाग ३ पृष्ठ संख्या १५२.
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हेमराज
२१३.
१३ सेहिणी व्रत कथा
हेमराजःने कुछ कथा कृतियों की भी रचना की थी। रोहिणी व्रत कथा को उसने संवत् १७४२ में समाप्त की थी। इस कथा की एक प्रति वि० जैन मंदिर बोरसली कोटा में संग्रहीत है। कथा का अन्तिम भाग निम्न प्रकार है
रोहणी कथा संपूरण भई, क्यों पूरय परगासी गई। हेमराज है कही विचार, पुरा सकल शास्त्र अवधार । ज्यों व्रत फल.... मैं नाही, सो विषि प्रेष धौपई सही।
मगर वीरपुर लोग प्रबीन, यया बान सिमको मन लोन ॥
कथा के उक्त अंश से पता चलता है कि इसकी रचना वीरपुर में की गयी श्री। 'बीरपुर' प्रागरा के पास पास ही कोई पाम होना चाहिये ।।
१४ नन्दीबर कषा
हेमराज की दूसरी कथा कृति नन्दीश्वर कया है। कवि ने इसे परावा नमर में निबद्ध किया था। वहीं जैनों की प्रच्छी बस्ती थी तथा गेन पुरानों को सुनने में उनकी विशेष रुचि थी । कथा का मन्तिम मंश निम्न प्रकार है
यह व्रत-नन्दीश्वर को कथा, हेमराज परगासी यथा । सहर इटायो उत्तम पान, भावा कर ममं सुभ प्यान | सुने सरा से मैन पुरान, पुरो लोक को राजे मान । लिहिण सुमो धर्म सम्बान, कोनी कपा चौपई बंध ।
१५ राजमती चुनरी इस लघु कृति की एक प्रति फतेहपुर (शेखावाटी) के दिगः जैन मन्दिर के शास्व भण्डार में साग्रहीत है।'
१रेखिये-राजस्थान के जैन शास्त्र भगारों को ग्रंथ सूची-भाग पंचम पृ. सं. ४॥
पृष्ठ सं. १९९५
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कविवर बलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
१६ समयसार भाषा पं० हेमराज ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के सभी प्रमुख ग्रन्थों का माषान्तर किया था। समयसार भाषा की उपलब्धि भभी तक हमें राजस्थान के शास्त्र भण्डारों की अन्य सूचियां बनाते समय उपलब्धि नहीं हुई थी। इस एन्य की एक पाण्डुलिपि नागौर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है ऐसा उल्लेख डा. प्रेमचन्द जैन ने अपनी स्क्रिपाटिव केटासाग माफ भम्युस्कपटस् में पृष्ट 25 पर निम्न प्रकार दी है
"RANTर भा-पं० हेमराज/पत्र संख्या १६४/माकार ११५" ५३" पसा-जीणं/पूर्ण/भाषा हिन्दी (प) लिपि-नागरी पथ संख्या १०६०/रचनाकाल-माघ शुक्ला ५ सं० १७६६iलिपिकाल x।"
उक्त परिचय में रचना काल संवत् १७६६ दिया है जो पडि हेमराज अथवा हेमराज गोदीका के साथ मेल नहीं खाता क्योंकि उक्त दोनों हो कवियों की रचनाये संवत् १७२६ तक मिली है जिसमें ४३ वर्ष का अन्तराला है। इसलिये हो सकता है यह लिपि संदत हो : रामोव ना है।
हेमराज गोदीका (तृतीय)
हेमराज नाम वाले ये तीसरे कवि हैं। ये दिगम्बर जैन खण्डेलवाल थे। गोदीका इनका गोत्र था। ये अध्यात्मी पंडित थे। उस समय सांगानेर क्रान्तिकारियों का नगर था । ममरा भीसा जो तेरहपंप के मुख्य प्राधार स्तंभ थे, वे भी सांगानेर के ही थे तथा उनका पुत्र जोधराज गोदीका भी सांगानेर निवासी थे । यह पूरा गोदीका परिवार ही भट्टारकों के विरुद्ध खड़ा हुमा था भोर उसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली थी।
हेमराज गोदीका एवं जोधराज गोदीका संभवतः एक ही परिवार के थे तथा एक ही पिता के पुत्र थे। लेकिन दोनों में मतक्य नहीं होने के कारण हेमराज को सांगानेर छोड़कर कामा जाना पड़ा । लेकिन ये दोनों ही विद्वान थे । यह भी संयोग की ही बात है कि दोनों ने एक ही संवत् अर्थात् सं० १७२४ में प्रवचनसार की पब टीका समाप्त की थी। हेमराज सांगानेर से कामां नगर पाये जबकि जोषराज सांगानेर में ही अपनी साहित्यिक सेवा करते रहे ।
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हेमराज
२२५
हेमराज की अब तक तीन कृतियाँ प्राप्त हो चुकी है जिनके नाम प्रकार हैं--- प्रवचनसार हिन्दी पद्य-रचनाकाल संवत् १७२४
संवत् १७२५
उपदेश दोहा शतक- गणितसार गड़ -
उक्त रचनाओं का विस्तृत परिचय निम्न प्रकार है
१५ प्रवचनसार माषा (पद्य)
प्रथधनसार का पठन पाठन समाज में प्रारम्भ में ही लोकप्रिय रहा है । प्राचार्य अमृतचन्द्र एवं जयसेन प्रभृति प्राचार्यों ने गाथायों पर संस्कृत में टीका लिखी है। हिन्दी भाषा में सर्व प्रथम संवत १७०६ में मागरा निवासी हेमराज अग्रवाल ने गद्य पध दोनो में टीका लिखी थी। हेमराज की गद्यात्मक टीका बहुत लोकप्रिय रही और उसी के प्राधार पर कामांगढ़ | राजस्थान) निवासी हेमराज खण्डेलवाल ने एफ और हिन्दी पद्य टीका लिखी। जिसके पद्यों की संख्या १००५ है। हेमराज ने अपना परिचय देते हुये निम्न पंक्तियां लिखी हैं
सर्वया इकतीसा हेमराज श्रावक खण्डेलवाल जाति गोत भावसा प्रगट व्यौक मोदीका बखानिये ।
प्रषचनसार प्रति सुन्दर सटीक देखि कोने हैं कवित्त ते छवित्त कम जानीय । मेरी यक वीनती विवध कवितनिसों, माल बुद्धि कवि को न दोष उर पानीय । जहाँ जहाँ छंद मोर मारय मधिक होम तहां शुख करि प्रवान ग्यान ठानोये
पोहा---
सांगानेर सुर्धान को हेमराज असमान । प्रब अपनी इन्छा सहित, बस कामगवान ॥६२२ ॥ कामागव सुखसुसह, इति भीत नहि पाय ।। कषित बंध प्रषचन कीयो, पूरन तहाँ बनाप ||३||
उस समय कामां में अध्यात्म सैली यी उसी में प्रवचनसार की पर्चा स्वाध्याय होती थी।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
इसकी रचना संवत् १७२४ की पाषाढ सुवी ८ के शुभ दिन समाप्त हुई पी। कवि ने जिसका उल्लेख प्रपने पत्र में निम्न प्रकार किया है।
सत्रहसै धौबीस संवत् सुभ प्रश्सभ धरी । कोषो प्रेम सषीस देखि देखि कोश्यो सिमा ॥१००५।।
प्रवचनसार का पद्यानुवाद बहुत ही सुन्दर एवं भाव पूर्ण हुमा है । प्रागरा निवासी हेमराज पाण्डे का गद्य रूपान्तरण जितना अच्छा है उतना पञ्च भाषान्तर नहीं है। उसने ४४१ पद्यों में है। प्रक्वन के रहस्य को प्रस्तुत किया है जबकि हेमराज गोदीका (खण्डेलवाल) ने प्रवचनसार पर विस्तृत पद्य रचना की है जो १००५ पद्यों में पूर्ण होती है। दोनों ही कवि ब्रज भाषा भापी प्रदेश के थे । काम भी बज प्रदेश में गिना जाता है।
भा गई पुन्य पा! पाई र नाही साय कर को इस दिन संक्षेप में कहे है।
गहि मावि भो एवं रात्वि विसेसोति पुरण पावाम । हिदि घोर मपार संसारं मोह सपनो ॥२८२॥
नहिसन्यते । एवं नासि, विशेष इति पुम्प-पापयो। हिडति घोर मयार, संसारं मोह संछन्नं ।।
टोका
प्राया इकसीमा
पीक पर मोह पर है भवारगर मा,
सापनी परा को बिचार , करत है। पुण्य के पोतद विषद भोग सुख पाइयत,
तिम्ह के दिलाम कु उद्यम परतु है। पाप उदे दुखी भंग होत विषा भोगनि सों,
जिगह बिलोकि मय मानि रितु है। अंस पाप पुण्य से असातर माता वेदतु है।
नई भवसागर में भावरी भरत है ।।२३॥
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हेमराज
२२७
सोहा- पुण्य पाप को एकता, मानतु नाहि जु कोय ।
सो अपार संसारमाह, भ्रमत मोह सस सोय ॥२४॥ जाहस शुभ अरु प्रसुभमद, निहलय मेव न होय । स्यों ही पुन्यरु पापमद, निहक्य भेद न कोय ।।२८५।। बेडी लोहा कनक को, बंषप्त दुवई समान ।
त्योंही पुग्यक्ष पापमई, बंधत मोह निवान ।।२८६॥ उक्त उदाहरण से यह जाना जा सकता है कि हेमराज गोदीका ने गाथा में निरुपित विषय को कितना स्पष्ट करके समझाया है। भाषा भी एकदम पारिमाजित है तथा साथ में सरल एवं बोधगम्य है।
उक्त पद्य रूपान्तरण हेमराज गोदीका ने अपने पूर्ववर्ती पाण्डे हेम राज अग्रवाल प्रागरा निवासी के प्रवचनसार भाषा (गय) के अध्ययन के पश्चात् किया था ।
उक्त ग्रंथ की दो पांजुलिपियाँ जयपुर के दि. जैन तेरापंथी बड़ा मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। जिसमें एक पाण्डुलिपि कामा नगर में लिखी हुई है जो संवत् १७४६ की है।
२ उपवेश बोहा शतक उपदेश दोहाशतक हेमराज मोदीका खण्डेलवाल की रचना है। इसके पूर्व उसने प्रवचनसार भाषा (पद्य की रचना की थी। हेमराज ने शतक में प्रपना जो परिचय दिया है वह निम्न प्रकार है
उपनो सांगानेरि को, मर कामगड पास । तहां हेम दोहा रखे, स्वपर दृषि परकास ।।१८।। कामगिर सूपस जहाँ, कीरतिसिष नरेश । अपने खग बलि बसि किये, कुण्जन जितेक देस IItell सत्रहसैर पम्चीस को, बरत संवत सार ।
कातिग सुदि तिथि पंचमी, पूरन भयो विवारि ॥१०० । उक्त संक्षिप्त परिचय से इतना ही पता चलता है कि हेमराज सांगानेर में पैदा हुये थे तथा फिर कामांगढ़ में जाकर रहने लगे थे। उपदेश दोहा घातक की
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२२८
कविवर बुलाखीचन्द, बलाकीदास एवं हेमराज
।
रचना कामा नगर में ही की गयी थी। कामा एक सूबा था जिस पर कीतिसिंह का शासन था और उसने अपने गोयं एवं पराक्रम से कितने ही देोगों पर कसा कर लिया था । उपदेश दोहा प्राप्तक की रचना संवत् १७२५ कात्तिक सुदी पंचमी को समाप्त की गयी थी।
'उपदेश दोहाशतक' एक प्राध्यात्मिक रचना है जिसमें मानव मात्र को सुपथ पर लगाने, भात्मिक विकास करने एवं बुराइयों से बचने का उपदेश दिया है । जीवन में दया व दान को अपनाने का भाग्रह किया गया है । साथ में यह भी लिखा है कि जिसने जीवन में दान नहीं दिया तथा प्रत एवं उपवास नहीं किये इसका जीवन ही व्यर्थ है क्योंकि मनुष्य तो मुट्टी बांधे माता है और हाथ प्रसार कर चला जाता है
पिये मपान सुपत्त को, क्रिये न वस उर धारि । भायो मूठो बोधि के, मासी हाथ पसारि ॥१३॥
यह भूत प्रात्मा जगह २ प्रात्मा को 'ढता-फिरता है जबकि इसी के घर में यह मात्मा बसता है जो स्वयं निरंजन देवता भी है
ठौर और लोधत फिरत' काहे बंध प्रवेव । तेरे ही घर में वस, सरा मिरंजन वेग ॥२५॥
सतक में १०१ दोहा है। इसकी पांडुलिपि जयपुर के बीचन्द जी के मंदिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है।
__ ३ गणितसार
कविवर हेमराज गोदीका गणितज्ञ भी थे। इन्होंने गणितसार के नाम से एक लघु रचना को छन्दोबद्ध किया था। इसमें ८८ पोहा छम्द हैं। जिनमें गणित के विभिन्न पथों को प्रस्तुत किया है। अब तक इस ग्रन्थ की एक प्रति जयपुर के दि. जन मंदिर पाटोदियान में तथा एक पाण्डुलिपि मादिनाप पंचायती मन्दिर बून्दी में संग्रहीत है । दून्दी वाली पाण्डुलिपि संवत् १७८४ की है तथा सांगानेर में लिपिबद्ध है इसलिये हमने गरिणतसार को हेमराज मोदीका की कृति माना है। जयपुर वाली
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हेमराज
२२६
पाण्डुलिपि अपूर्ण है और उसका अन्तिम पृष्ठ नहीं है । पलितसार का प्रादि धम्
भाग निम्न प्रकार है----
प्रारम्भ – प्रथ श्री गणितसार लिख्यते
बोहरा -
अन्तिम पाठ
r
श्रीपति शंकर सुगत विधि, निरविकार करतार | भगम सुगम मानन्दमय, सुर नर पति भरतार ||१|| चिद्विलास निरबिकलपी, अजर प्रजन्म अनन्त । जगत शिरोमणि दुखदमन, जय जय जिन मरिहंत ॥ २॥ |
बोहरा
जार्क जैसो है सकसि ताके वैसो काज | यह विचार किचित कह्या, करि मति सकति
अरथ शब्द पच छंद करि,
कृपावंत होइ सजन जन
P
जहाँ होय सविरुद्ध
तह समारह शुद्ध ॥ ८७॥ शिवयानक मैं सोई ।
जो पछि याको सरवहै,
हेमराजमय जो प्रबल, ता सम प्रविचल होइ ॥ ८६ ॥
हेमराज (चतुर्थ)
तीन हेमराज नाम के विद्वानों एवं कवियों के प्रतिरिक्त एक और हेमराज का पता लगा है जो पांडे हेमराज के समकालीन थे। मे हेमराज भी तत्वज्ञानी एवं सिद्धान्त ग्रथों के माता थे। उस समय प्रागरा में जैन समाज के विभिन्न सम्प्रदायों में पूर्ण समन्वय या इसलिये दिगम्बर ग्रन्थों की व्याख्या श्वेताम्बर विद्वान् किया करते थे। समयसार प्रवचनसार, गोम्मटसार, पञ्चास्तिकाब जैसे ग्रन्थ श्वेताम्बर समाज में भी लोकप्रिय थे । हेमराज प्रोसवाल ने जब साह भ्रानंदराम जी खण्डेलवाल ने गोम्मटसार के बारे में प्रश्न पूछे तो उन्होंने सहर्ष उसकी शंकाओं का समाधान किया । जीव समाज इन्हीं शंकानों पर माधारित ग्रन्थ है ।
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कविवर जुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
इन्हीं हेमराज की छन्द शास्त्र संभवतः एक और रचना है जिसकी एक पाण्डुलिपि जैसलमेर के भण्डार में सुरक्षित है। इसका रचनाकाल संवत् १७०६ । दिया हना है । कवि की उन दोनों रमनामों का पंसित परिचय निम्न प्रकार है
नीव समास
हेमराज ने मोम्मटसार जीवाह में से जीव समास से सम्बन्धित माथानों का संकलन किया है जिसका नाम उन्होंने जीव समास नाम दिया है। प्राकृत गाथानों पर संस्कृत में विस्तृत प्रर्य किया है। अन्य का प्रारम्भ और अन्तिम भाग निम्न प्रकार है
प्रारम्भपथ गोम्मटसारे शारीरावगाहनानयेा जीव समासान् वक्त मनाः प्रथमं तत्सवं जघन्योत्कृष्ट शरीरावगाहन स्वामिनी निशिगति ।
अन्तिम–ति विग्रह निवारणार्थ दार्पण काययोगे विग्रहगति निर्धारणार्थ श्रीमद्गीम्मटसारापुवतं हेमराजोन ।।
उक्त ग्रंथ की पाण्डुलिपि जयपुर के पाण्डे लूणकरण जी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है।
गोम्मटसार जीवकांट एवं कर्मकांड की गाथानों के एवं पंचमंग्रह की गाथामों के अाधार पर अमितगति प्राचार्य ने नवप्रश्न चूलिका बनायी थी इसी की हिन्दी पद्य में बालाबोघ टीका हेमराज ने लिखी थी। इस नव प्रश्न चूलिका में तीर्थकर प्रकृति का प्रश्न साह मानन्दराम खण्डेलवाल ने उपस्थित किये थे जिनका समाधान गोम्मटसार को देख के उसका उत्तर तैयार किया था। जो ५२ पत्रों में पूर्ण होता होता है । इसकी एक पाण्डुलिपि जयपुर के दि. जैन मन्दिर पाटोदियान में संग्रहीत है जो संवत् १७८८ पौष सुदी १० को लिखी हुई है । हेमराज नाम के पूर्व लिपिकार ने श्वेताम्बर लिजा है। पाण्डुलिपि का मन्तिम भाग निम्न प्रकार है
इह तब प्रश्न चूलिका बालाबोध किचिरमात्र तीर्थकर प्रकृति का प्रान साह मारांवराम जी खण्डेलवाल ने पूछया । तिस ऊपर स्वेताम्बर हेमराज ने गोम्मटसार को देखि के क्षयापक्षम माफिक पत्री में जवाब लिखएँ रूप चर्चा की वासना
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कविवर हेमराज
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लिखी है। संत जन भूल चूक की समुझि करि सुधारि के पठरणा सं. १७८८ पौष सुदि १० ।
छन्दमाला
हेमराज की एक रचना छन्दमाला का उल्लेख डा. नेमीचन्द शास्त्री ने हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन में किया है। इसी छ-८ माला की एक नाडपत्रीय प्रति जैसलमेर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। इस छन्द माला का रचना काल संवत् १७०६ है। सूची में भाषा गुजराती सिखा है।
इस प्रकार हेमराज नाम के चारों ही कवि हिन्दी साहित्य निर्माण के लिये घरदान सिद्ध हुये। हो सकता है सभी ग्रामरा, मैनपुरी एवं उसके पास पास के मन्दिरों में स्थित शास्त्र भण्डारों के अवलोकन से और भी कृतियां मिल जाये लेकिन जो कुछ प्रब तक उनकी रचनायें मिली हैं वे ही उनकी फीति गौरव हापा कहने के लिये पर्याप्त है।
गरा साहित्य का महत्व
पांडे हेमराज का सबसे अधिक योगदान प्राकृत ग्रंथों का हिन्दी गद्य में विस्तृत टीका सहित अनुदित करना है। पाण्डे राजमहल ने १७वीं शताब्धि के माप में जिस समयसार नाटक का हिन्दी में टना टीका लिखी पी पाजे हेमराज ने प्रवचनसार पर हिन्दी गद्य में विस्तृत एवं व्यवस्थित टीका लिखकर स्वाध्याय प्रेमियों के लिये नयी सामग्री प्रस्तुत की। वास्तव में जैन कवियों ने जिस प्रकार पहिले अपभ्रश कृतियों के माध्यम से और फिर राजस्थानी एवं हिन्दी पत्र कृतियों के माध्यम से जिस प्रकार हिन्दी भाषा को अपूर्व सेषा की थी उसी प्रकार हिन्दी पद्य में भी ग्रंथों की टीकाए' लिखकर हिन्दी गय साहित्य के विकास में भी महरदा पूर्ण योग दिया।
भी जेसलमेव दुर्गस्प जैन ताम्पत्रीय प्राप भणार सूची पर-पम सं. २१५ कम संख्या ६३१.
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कविधर बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज
प्रतिनिधि कवि के रूप में
पाण्डे हेमराज एवं हेमराज गोदीका दोनों को ही हम १७वीं शताब्दि के अन्तिम चरण का प्रतिनिधि कवि के रूप में मान सकते हैं। इन कवियों ने एक घोर जहाँ प्राध्यात्मिक रचनाओं के पठन पाठन में पाठकों की रुचि जाग्रत की वहां दूसरी ओर लघु रचनामें लिखकर जिन भक्ति की मोर भी जन सामान्य को लगाये रखा। वे एक ही धारा की और नहीं बढ़े किन्तु योनों ही धाराओं का जल सिंचन किया। जिसमें समाज रूप खेत लहलहा उठा। पडि हेमराज ने प्रवचनसार के पद्यानुवाद में तथा हेगराज गोदीका मे उपदेश दोहा शतक में अपनी जिस माध्यात्मिकता एवं पर हित चिंतन का परिचय ६५। यह सर्व प्रसनीय है।
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उपदेश दोहा शतक
(हेमराज गोबीका) विरचित
दिव्य हिष्टि परफासि जिहि जान्यो जगत बसेस । निसनेही निरदुंद निति, बदो त्रिविषि गनेस || १ || कुपन उयरि थापत सुपथ, निसप्रेही निरगंथ । से गुरु दिनकर सरिस, प्रगट करत सिदर्पण ॥१॥ गनप्रति ह्रिदय विलासिनी, पार न लहै सुरेश सारद पत्र नमि के कहो, दोहा हितोपदेश ||३|| मातम सरिता सलिल जह, संजम सोल बखानितो करहि मंजन सुधी पहुंचे पद निरबाणि ॥४॥ सिव साधन को जानिये, अनुभो वही इलाज |
मूढ सलिल मंजन करत, सरत न एको काज || ५|| ज्यौं इन्द्री त्यों मन चलें, तो सब क्रिया कथि तात ईन्द्री दमन को, मन मरकट करि हथि || ६ || तंत्र मंत मणि मोहरा करें उपाय श्रनेक | होणहार कबहु न मिटे घडो महूरत एक ॥७॥ पढ़ें ग्रंथ ईद्रो दवे, करे जु बरत विधान । घापा पर समझे नही, क्यो पावे निरबाण ||८||
तज्यो न परिगह सौ ममत, मटयोन वि विलास 1 मरे मूढ सिर मुडि कैं, क्यो छाड्यो घर बास ॥६॥ पहली मनसा हाथि करि, पाछे और इलाज । काज सिद्धि की बाधीए, पानी पहली पान ||१०|| ब्रह्मचर्य पाल्यो चहै, घट्ट न तिय स्योम | एक म्यांन मैं द्वं खरग कही समाव केम ॥। ११ ॥
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२३४
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
प्रसन विविधि विजन सहित, तन पोषित थिर जानि । दुरजन जन की प्रीति ज्यों है दर्गाी निदानि ।।१२।। दिये न दान सुपत्त को किये न व्रत उरि धारि । भायी मूठो बाषि के जासी हाथ पसारि ॥ १३ ॥ जो नर जीवन जांनिया श्रर जानि न रख्या कौन । विद्ध समं मुखि लालसो, नरभव पांणी दीन || १४ || सज्जन फुनि लघु पद लहै, दुर्जन के संग साथि यसन को मदिरा कहै. क्षीर कुलालनि हामि ।। १५ ।। गज पतंग मृग मीन अलि भये भ्रष्य बसि नास । जाऊं पांच बसि नहीं, ताकी फंसी प्रा ।। १६ ।। लाभ पलाभादिक विष, सोबत जागत मांहि । सुद्धातम अनुभौ सदा, तजे सुधीजन नांहि ॥१७॥ कोटि जनम लौं तप तर्फे, मन बच काय समेत सुद्धातम धनुभो बिना, क्यों पार्व सिब खेत ||१८|| बजी श्रापदा संपदा, पूरव करम समान । देखि अधिक पर को विभो, काहे कुढत प्रज्ञान ॥१६॥
जब लौं बिभी तलाव जल,
जुस्यो पुनि संजोग ते, दस विधि बिसी बिलास पुनि घटत घटि जाइगो, गिनत मुंढ थिर तास ॥२०॥ घटेन खरक्त बीर । तब लौं पूरब पुन्ति की, मिर्ट नहीं तलसीर ॥२१॥ जोन भोग हिस्या करम करत न बंधत जीव । रागादिक संजोग ते, वरन्यो बंध सदीव ||२२|| लागि लागि मांगत फिरत, भुक्षत सोहि कहां सौ देहिगे राम दोष जार्क नहीं, तासु देव की सेव सो,
दीन कुदेव ।
मूढ करत तू सेव || २३ || निसप्रंही
निरदंद |
कर्ट करम
के फंद ।। २४ ।।
ठौर ठौर सोबत फिरत, काहे
तेरे ही रूट में बसे,
सदा
च प्रवेव ।
निरंजन देव ॥२५॥
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उपदेश दोहा शतक
२३५
सौवत सुमिनी साप सो, जागत जान्यो झूठ । यह समुझि संसार स्यो, करि निज भाव प्रपूठ ॥२६॥ पढत ग्रंथ प्रति तप तपत, अब लौ सुनी न मोष । दरसन जान चरिस स्यौ, पावत सिव निरदोष ॥२७॥ निकस्यो मंदिर छांडिक, करि कटुव को त्याग । फटी माटि भोगत विर्ष, पर त्रिय स्यौ अनुराग ॥२८॥ पुनि जोग ते संपदा, लहि मानत मन मोष । सो तो लैब है भुगष, परभ नरक निगोद ॥२६॥ कोटि बरस लौ धोइये, प्रसाद तीरम नीर । सदा अपावन ही रहे, मदिरा कुम सरीर ॥३०॥ फटे वसन तनहूँ लट्यो, धरि धरि मामत भीख । बिना दिये को फल यहें, देत फिरत यह सोख ! २६.. पाप प्रॉन पर पीडस, पूनि करत उपमार । यहै मतो सब ग्रंथ को, शिव पक्ष साबन हार ॥३२॥ खोई खेलत बाल बै, तरुनायौ त्रिय साथि । बुषि समै व्यापी जरा, अप्पो न गो जिन नाथ ॥३३।। जा पंह सब जग तगो, भरवं है सब लोग । सा पडे है दु है, कहा करत सठ सोग ॥१४॥ किये देस सब पाप बसि, जीति दसौ दगपाल । सबही देखत लै बस्यै, एक पलक में कास ।।३५11 मिल लोंग बाजा बजे, पान मूलाल फूलेल ।। जनम मरण अरु स्याह मै, है समान सौ खेल ॥३६॥ परम परम सरवरि बसं, सम्जन मीन सुमांनि । तिप बडछी सौ कातिये, मनमय कीर बलानि ॥३७॥ ईद्री रसना जोंग · मन, प्रबल कर्म मैं मोह । ए' पनीत जोत सुभट, करहि मोष की टोह ।।३।। होत सहज उतपात जग, विमसत सहन सुभाइ । मूड पहमति पारि के, अनमि जमि भरमाई ॥३॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
कापत देखें सलिल मैं, गड्यौं थंभ जल तीर ! त्यो परजाप बिनास ते, मानत दृष्य प्रपोर ।।४।। सौण समूरत साथि सब, करत काज संसार । मूढन समुझ भेव यह, सुधरं सुधरन हार ॥४१॥ दुरजन नर मठ प्रगनि को, जानह एक सुझाव 1 जाही गहर बासि है, ताही देत अगद। ४२॥ करत प्रगट दुरजन सदा, दोष करत उपगार । मधुर सचिक्करण पोष त, करत मार ज्यो मार ।,४३॥ लागि विर्ष सुख के विष, लख न प्रातम रूप । दह कहबति साची करी, पर्यो दीप लें कूए ||४|| सुजस बड़ाई कारण. तजे मोक्ष सुख कोइ । लोह कौल के न को, ढाहत देवल सोइ ।।४५।। तब लो विर्ष सुहावनौं, लागत चेतन तोहि । जब लौ सुमति बयू कहे, नही पिलानत मोहि ।।४६।। ज्यौं धंतर मांतो लसं, मांटी कनक समान । त्यों सुख मानत विषय सौं, संगति कुमति मग्यान [1४७।। पाप हरन जिन पाप करि, करुना कर न बिनास । किते न लागे तीर तरि, तजि तजि प्रासापास ।।४।। हर हर सुद्धरत हरि, कर्म कम से कम्मं । सेय चरन सिव सुख करन, इहो यहाँ जागि धर्म ।।४६॥ विर्ष प्रास पासा बंध्यो, प्रास पास जग जीव । ताही विर्ष बिलास को, उद्यम करत सदीव ।।५।। करत पुन्य सौ हेत जो, तजि के पापारंभ सो न जीति है मोह कौं, गड्यौ जगत रपयंभ ।।५।। षट बिधि त्रस थावर बसै, स्वर्ग मध्य पाताल । सबही जीव प्रनादि के, परे मोह गल जाल ॥१२॥ उपजे द्रव्य सुकष्ट ते, स्वरबत कष्ट बखानि | काट कष्ट करि राखिम, द्रव्य कम्ट की जानि । ५३५
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उपदश दोहा शतक
२३७
देव ग्रंथ गुरु मंत्र मुनि, तीरथ परत विधान । जाकी जैसी भावना, तैसी सिद्धि निदान ।।५४।। मिलि के कनक कुधातु सौं, भयो बहुत विधि बान । त्यो पुदगल संजोग सौं, जीव भेद परबान ॥१५॥ स्याम रंग से स्पामत, मा पम्नान नही। त्यो चेतन जब जोग से. जाइता लहै न कोइ ।।५६॥ खीर नीर ज्यों मिलि रहे.' ज्यौं कंचन पाखान । त्यों अनादि संजोग भनि, 'पुदगल जीव प्रवान ।।१७।। सिव सुख कारनि करत सह, अप तप बरत बिधान ! कर्म निर्जरा करन को, लोहं सबद प्रमान ॥५॥ तज मर्ष संपप्ति लख, परखं विर्ष मजांन । ज्यों गजमोती तजि गहै, गुंजा भील निदाम ॥५६।। दुर्जन संगति संपदा, देत न सुख दुख मूल | कर प्रधिक उर जगत मैं, ज्यों प्रकाल के फल 1.!! सज्जन लहे न सोभ की, दुर्जन संगति सेत ।
ज्यों कुंजर दर्पन विर्ष, हीन दिखाई देत ॥६॥ सोरठा- इहै जलधि संसार, पठि मुनि ध्यान जिहान पर ।
तत छिन पंहुचे पार, प्रपल पवन तप सपत ह ॥६२।।
दोहा
सज्जन संगति दुर्जन के दोष भयोष लहोत । ज्यों रजनी ससि संग तं, सबै स्यामत खोत ।।१४। जाहि जगत त्यागी कहत, ता सम किरपन कौन । सांची पूरब जनम को, मरत करत हू गौन ॥६॥ खाइ न खरचै लाछि कौं, कहै कृपन जग जांहि । बड़ो पानि वह मरस ही, छोरि चल्यो सब ताहि ॥६५॥ सिव साध परिगह सहित, विषय करत वैराग। उरम सेइ पाहत प्रमी, उत्तमता मुखि काम ॥६क्षा
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२३८
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकोदास एवं हेमराज
बाम अंग वामा बसे, मदा पक्र करि ताहि । अप बसि किवो न काम , कहै जगत पति ताहि ।।६। महा मल्ल मनमथ हियो, ध्यान पनि उरि पाहि । t' प्रकाम मिरमै भये, गनी जगत पति ताहि ।।६।। वेतन तेरे मोम को, दोष प्रगट जगि जोइ । परसत बांकी दीठि ज्यों, पंद एक ते घोह ॥६॥ ग्रीषम बरथा सीत रिति, मुमि तप तपत त्रिकाल | रतनत्रय चिन मोक्ष पर, सहे न करत जंजाल ||७|| रतनत्रय भारी पर, के म मा । पंचम कालि न पाइर्, भवदषि तरन जिहाज ||७१॥ केवल ग्योनी के बचन, केवल शाम समान । वरत पा
पहुंचा निरवान ॥७२॥ यों बरत. परिंगह विर्ष, सम्यक विष्टी जीव । न्यों सुत अंतर मेद सौ, पोखं वाय सदीव ||७३n जगत भुजंगम भी सहित, विष सम विष बखानि । रवन ऋय जुगपति हहै, नाग वमनि उरि मानि ॥४४॥ भए मत सौ मत्त चे, ते मति वाले जीव । मही टेक छूट न ज्यों, भरकट मुठि अतीव ।।७५॥ परदरा परमव्य मल, लग्यो चीफन चित । मिटै न मोडे सलिल सौं, मंजन करत सुमित ७६|| जौ व मन उज्जल को, चाहे इहै उपाइ । पर दारा पर द्रव्य सों, उलटि मलस गुनगाइ ।।७७) पोवत देह न छोइए, सगी चित्तरज मूढ । दर्पण के प्रति बिब मल, मांजत मिटै न मुन ॥७॥ करि क सुक्रित तरुन , पीछे फुरै न कोइ । व्यापप्त जरा तिजयरा, अंगरल पंगज होह ॥७९॥ जगत चाक त्रिय कील दिट, मिथ्या माव भार । भाटी पिड सुराइ भनि, भावना विविध प्रकार |
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उपदेश दोहा शतक
हाड मांस विष्टा दिथे, भरी कोपरी घाम । ताहि कुषि धनं न करें, चंद मुखी कहि नाम ।।१।। सुद्धातम अमृत प्रच, भए सात मुनि सूरि । तिमहिन बनत की, मु द.पान- .....२ मूंद विणे सौं सुख कहै, विशे न सुख को हेत ।। स्वाम स्यादि निज रुधिर को, कहै हाइ रस देत ।।८३॥ मूढ प्रपुनपी देह सौं, कहै इह सुख खोनि । सो तो सुर गीत हु विणे, महाकष्ट की दानि ॥४॥ रतन अय संपति मख, ताहि न लख गवार । भूमि विकार विलोकि के, मानप्त संपति सार || नरक नरक जान को, उर को उपजे पास । सो काहे को सेव हो, बहु विधि विणे बिलास ॥६॥ गर्न न दुख परलोक को, संयत विणे गेबार ।। सब ही हर को लोपि के, ज्यो पय पिवक्त मजार १८७) शानी को तप तुबहू, कर मोक्ष सुख कार। ज्यों थोरै प्रक्षर सुकवि, ठान अरव प्रपार ।।८।। मोह बधक भव बनि बसे, वाम बागुरा जानि । रहे पटकि छूट नही, मग नर मूतु वखानि III तो विराग करवाल करि, भव पनि बस निसंक । जोति समै अप बसि किये, मोहादिक प्ररि रंक १०|| न्यौं वरिषा रिति जेवरी, बिन ही जल बल हीन । स्यों विषई वनिता निरखि, चित्त वक्र गति लीन ||१|| पिसुन प्रेम धौसर वचन, ह्र उतंग घटि जाहि । सूषि थाह जुग जाम सम, बढे सु छिन २ मांहि ||१२|| चंदन सेपादिक कर, सीतल बनत भमंग । मिटै न प्रीषम उपमा, विनु सज्जन के संग ॥९३|| करक खात पावत कनक, मद को कर सुन्याय । इह प्रपुण्व मद कामिनी, चितवत चित बौराय ॥४॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
संपति खरमत डरत सळ, मत संपति घटि जाय । इह संपति सुभ दान दी, विलसत बढत सवाइ ।।६।। छंद मत्त पर प्ररथ की, जहां प्रसुषता होइ । वहां सुकवि अवलोकि के, करहु सुत सब कोइ |७|| उतनी सांगानेरि को, अब कामां गढ वास। तहां हेम दोहां रखे, स्वपर बुषि परकास ॥१८॥ कामा गढ़ सू बस पहा, संत सिंष नरेस । अपने खग बलि बसि किए, दुर्जन जितेक देस IIREn सतहौर पचीस को. बरते संवत सार । कातिम सुदि तिथि पंचमी, पूरन भयो विचार ॥१०॥ एक प्रागरे एक सौ, कीये दोहा छंद । जो हित है बांगे पह, ता उरि बड़े प्रनंद ।।१०।।
· ।। इति हेमराज कृत उपदेश दोहा शप्तक संपूर्ण ।।
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प्रवचनसार भाषा (पद्य)
रचयिता - पाण्डे हेमराज
प्रण प्रवचनसार को सिते ।
छप्पय
स्वयं सिद्धि करतार करें निज करम सरम निषि । श्राप कारण स्वरूप होय साधन सार्धं विषि ।। संप्रदा घरँ ग्रापको ग्राफ समय श्रपाराय आप आपकों कर थिरप्यं ।। अधकरण होय प्राधार निज बरते पूरण ब्रह्म पर ।
विधि कारिक मय विधि रहित विविध येक पजर अमर ॥१॥ दोहा
महातत्व महनीय मह महाषाम गुणधाम । चिदानंद परमात्मा, बन्दु रमता राम ॥२॥ कुनय दमन सुबरनि प्रवनि रमिनि स्यात पद शुद्ध जिनमानी मानी मुनिय घट में करो हूँ सुबुद्धि ||३|| चौदई
पंच इष्ट पद के पद बंदी, सत्य रूप गुण गरए अभिनंदी । प्रवचनसार ग्रन्थ की टीका वालबोध भाषा सयनीका |१४|| रों माप परकों हितकारी, भनि जीव आनंद बिधारी ।
प्रवचन जलधि अरथ जल लेह, मति भाजन समान जल येह |५|
दोहा
प्रमृतचंद कृत संस्कृत, टीका अगम अगर 1 तिस अनुसार कहीं कछुक, सुगम प्रलय विस्तार ||६||
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२४२
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
वर्षमान स्तुति-कवित सुर नर असुर नाथ पद बंदन, धातिय करम मैस सब धोये । भयो अनंत चतुष्टय परगट, सान तरन बिरतिह, सोये ।। भातम धरम ध्यान उपदेसक, लोकोलोक प्रतष्य जिन जोये । असे वर्धमान तीर्थकर बंदे घरण भरम मल खोये ।।७।। बाकी तीर्थकर तेईस, सिद्धि सहित बंदू जगदीश । निर्मल दर्शन ज्ञान सुभाव, कंचन शृद्ध मग्नि जिप ताव ।।८।। बंदो शूर प्रवर उवझाय, सकल साघु मुनि बदू पाय । दरमान शान मरन तप बीज, पंचाचार सहित शिव कीब ।।६।।
खेत्राम नमस्कार कयन-चौपाई महा विदेह क्षेत्र है जहां, वरतमान जिन है तसु तहाँ ।
से सबही बंदू समुदाय, जुदै जुवे फुनि बंदू पाय ||१०|| पंच परमेष्ठी समुच्चम, नमस्कार कपन-छप्पय नमति मादि परहंत सिद्ध फुनि सूरन नत पद । उपाध्याय फुनि नमित नमित सव साषु गलत मद ।। यह परम पद पंच ज्ञान परशन यानक नित । तास रूप मनलंबि सुद्ध पारित्र प्रगट हित ।। फुनि है सराग बारिष के गर्राभत अंस खाय मल । सो करम नंष सम त्याग करि, कहू सुक्ष पारिष फल ।।११।। दरशन ज्ञान प्रधान जीव चारित्र चरन धुव । सुही मेद केक थिति वीतराग सराग हव । वीतराग शिव उदय करत अविचल प्रखंड पर । मुर नर असुर विभूति देत चारित्र सराग पर ॥ तासे सराग संसार सार फल वीतराग सुख मोक्ष पर। यह भेद भाव अवलोकि के हेय उपदेय करहु नर ॥१२॥
अग्लिस जो निहवे चारित्र घरम को मावरं । मोहादिक ते दोन साम्य भावनि पर।
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प्रवचनसार भाषा (पद्य)
२४३
निहचे पारित धरम साम्य है एक हो । मग ५
मा पाही रस
दोहा यह परिणामी भातमा ऋणवत धारित रूप । ता समय चारित्र सों, तनमय एक सरूप ॥१४॥ जैसे गुटिका लोह कू, होत अगनि संजोग । ता समय प्रबलोकि ही, अग्नि रूप सब लोग ॥११॥ जैसे इंघण जोग , प्रमानि इषनाकार । तैसे परमातम भयो, पारित जोग प्रषार ॥१६॥ जीव शुभाशुभ सुर सों, प्रणवत तन्मय होय । सा समय अवलोफिये, वह एकता सोय ।।१७।।
कवित्त विषय कषाय असुभ रागादिक पूजा दान भगति सुभ भाष । चारित शुद्ध शुस परिणामी, जहाँ न भन संजोग कहाय ॥ यह तीन उपयोग लहे जिह तिह तसी विषि कर लखाय । सो चारित्र घरत परमातम, चारित रूप एवं शिवराय ॥१८॥
दोहा रक्तादिक संजोग ते, फटिक बरम घन होत । त्यों उपयोगी प्रातमा, बहुविधि करन उद्योत ॥१६॥ जैसे करनी माघरे तैसो कथन कहाय । करनी त्यागत मातमा निह शुद्ध सुभाव ॥२०॥
सर्वया बिना परिणाम प्रस्ति रूप ने द्रष्य को। कोक बिना प्रथ्य परिणाम पस्ति न पखानिये ॥ दव्य गुन पर्याय येक छोर होस तव । वस्तु भस्ति रूप सदा काल परवानिए ।
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२४४
चन्द बुलाकीदास एवं हेमराज
जैसे दूध दही गोरस पर्याय दूध दही घृत होन गोरस न मानिये । जैसे परमात्मा द्रव्य गुन पर्याय शुभाशुभ रूप सो संजोग परवानिये
२१.
प्रडिल
पीत सादि गुन कनक कुडलावि पर्याय बहुविधि
ध्य के जानिए |
मानिए 11
कनक है ।
द्रव्य गुन पर्याय अस्ति ते ईन की अस्ति म जहां कनक नवि बोहा
शुद्ध स्वरूपाचरन तैं, पावत सुख निरबान । शुभपयोगी आत्मा स्वर्गादिक फल जाम ||२३|| बेसरी चंब
तनक है ।। २२||
विषय कषाई जीव सरागी करम बंध की परमति जगी । नहीं शुद्ध उपयोग बिदारी, ता विवधि मांति संसारी ||२४|| सपत भी सोचत मर कोई, उपजत दाह सांति नही होई । श्योंही शुभोपयोग दुख सानै, देव विभूति सनक सुख माने ||२५|| शुभोपयोग शक्ति सुनि भाई, इन्द्रयाधीन स्वर्ग सुखदाई ।
छिन में होई जाई छिन माहे, शुद्धाचरण पुरुषों वाहे ॥२२६॥
छप्पय
लटित घटित प्रहख वर वर
फटत वसन तम अधिक क्रूर फुनि कुटिल सीम सम फिरत सुघर पर | कटुक चयन दुःख दन तयन सुख कबहु न सुतव ॥ सरस अनि भरि उदर पूरि भोजन नहि नुत्तव ।
क्लोकि विभव परताप पर कुट्टि बुट्टि छत्तिय कर
यह असुभ करम परसा फल घरमत पुरुष न कर ।।२७।। कीट पतंग लठादि स्थान संघादि विवषि १८ ।
र
वलय तुरंग कुरंग परस्पर सीत घाम दुख जाय नगमं तन भार करि पारचिय बंधि देख दुख पराधीन पर ॥
भयंकर ॥
पीठ पर ।
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२४५
प्रवचनसार भाषा (पध)
यम कपन कहां लों कीजिए अधिक मास तिरअंचगति । सो प्रसुभ करम परतक्ष फल तजत पुरुष घरमा मदि ॥२८॥ छेद भेद सापादि भूख तिस पीसत प्रानी। मारि मारि फुनि बांषि तहां सुनि एबहु बानी ।। अनम जनम के पैर उदय देखिन विधि पर । एक समय अंतर न होम दुस बीच महत नर ।।
कएन RTER(R. HELi44. i सो पसुभ कर परत फल सजत पुरुष धरमा मत ॥२६॥
धेसरी -
नरक कुनर तिरजप गति शुभ उदय महि जीव । साके दुख पूरन न है, परनम करत सोव ।।३०।। प्रशुभ अपमोग उदे की बात, भ्रमप्त जीव दुख पावत जात । स्याग रूप सर्षया बखान्यो, याते उपाय सुभ मान्यो ॥३॥ काहू इक काहू परकाश, शुभोपभोग पारित की पारा। कम क्रम उबप मोम रस भीनों, तातै उपादेय शुभ कीनों ।।३सा
सोरठा अशुभपयोगी जीव चारित शातिक समंथा। है भव पास सदीव, ज्ञानवंत नहीं पाचरं ॥३क्षा
प्रगिल्ल यह शुभाशुभ नाग विधारि विलोकिये । प्राचारिप गुभ राम मशुभ को रोकिए ।। निहाथै दोउ त्याग जगत को पूरि है। शुखातम परतक्ष बोडू से दूर है ॥३॥
दोहा सबही सुन्ध ते प्रधिक सुख है प्रातम पाधीन । विषमतीत बाधा रहित, शुद्ध पान शिव कीन ॥३॥ शुलापरल विभूति सिम, मतुल प्रखंड परकास । सदा उब के रस लिये, बर्शन सान बिलास ॥१६॥
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२४६
कविवर बुलाखीचन्द, नुलाकीदास एवं हेमराज
बेसरी बन्द ज्यों परमातम शुद्धोपयोगी विषय कषाय करहित उर योनी। कर न उत्तर पूरब मान, सहा मोल को उमम ठाने ।॥३७॥
इन्द्र नरिद्र कणिद्र सुख, रुच इन्द्रियाधीन । शुद्धादरन प्रखंड रस, उपमा रहित प्रवीन ॥३८॥
सर्वया जीव मजीव पदारव शाक्क केवल झान सिद्धान्त बखाने । भोम विषय अभिलाष त, तप संजम राम बिता जर ठान इष्ट पनिष्ट संजोट
:: किमाया । शुद्धपयोग मई मुनिराजसु तीन लोक बसेकर माने ॥३२
कुर लिया शुद्धपयोग प्रसादत करम फातिमा नासि । सर्वमेय माता भये केवल ज्ञान प्रकासि ।। केवल ज्ञान प्रकासि छडि करि परावीन सुख । तिहां स्वयम्भू नाम साधि षटकार माप रख ॥ सकल सुरासुर पूजि झान बरसन रस भोगी । पायो निरमल स्प जानि सुन सुउपयोगी ॥४.10
बेसरी छंद करता करम करन सुनि भाई, संप्रदान नग यो सुखदाई । प्रपादान प्रधिकरण विस्पाता, निह षटकारक शिवदाता ॥४॥ निह षट् कारक ज्यों होई, माप शक्ति से साषिक सोई। पराधीन साधिक व्यवहारी, प्रथिट रूप षटकारक पारी ॥४॥
सर्दया मतुस प्रखंड प्रविधस तिहुकान सदा सासतो। स्वम्प धोव्य भाव परवानिये सुद्ध उपयांम के प्रसाद के स्वभाव पाय
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प्रवचनसार भाषा पिद्य)
२४७
यह उतपाद अविनास रस मानिये । इसे जे घिभाव परिणाम राग देष मोह ।। कीये है पिनास फेर उई ने बखानिये । पैर है स्वयंभू भूतानात पर्तमान ॥ अस्पाप म्यय प्रोम बेक समब जानिये ।१४३॥
हा शु स्वभाष उपजत जाहाँ तहां प्रसुख को नास शौम्य रूप परमात्मा, मेक समय परकास ॥ सर्व द्रष्य परजायते उत्पति नास बस्लानि । सातै जीपादिकन की सिद्ध होत परवान ॥४॥ सत्ता बिन कोऊ द्रभ्य, समत न मस्ति स्वरूप । उतपति घिरता नासत, सत्ता सपस पनूप ॥४६॥
छप्पय कबह देव नर कबहु, कबहु तिथंच नरक कबहु । पुग्गल उस्पति नास प्रकट मम जीव करत सबु ॥ कंकणादि भाभणं कनक उत्पाद मास एव । कुडव कर वस राब मृप्तकर विधि द इव ।। यह उदय अम्ति संसार मपि स द्रव्य उर धानिए । उत्पाद नास पुन रहित जबु तमु जग लोप पखानिये ॥४॥
बोहा सर्व द्रष्य परजायं करि उत्पति नाम सिद्धत । निज निब सत्ता सम मबन मह उपदेश करत In
सोरठा उत्पति नास वखानि काहे तुम करत हो। भौम आक परवान से क्यों न हो सबा ||YEn घट कुंडव नर देव कंकरण कुंडल एष दधि । परसे इतने भेव, उस्मारिक गुन रहित र
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
चौपाई सिद्ध अवर संसारी जीव झान भाव करि प्रोग्य सदीव । जयाफार शात परजाय उत्पादादि सक्षत समवाय ।।५।।
सवैया-३१ कीयो है विनास जिन फातिका कर्म च्यार । उदयो अनंत बर वीर तेज परि के॥ इन्द्रिया रहित ज्ञानानंद निज भाष वेदि । ममता उछेदि पराधीन मुख हरि है। असे भगवान कान दर्शन प्रकासबान । प्राभर्ण मानि निरावर्ण दशा करि के। जैसे मेघ पटातीत दीसत अखंड जोति । त्यों ही जीव सहज स्वभाव कम दरि के ॥५२॥
अडिल भोजन सुख दुख भूख शरीर सम्बन्ध है। तिनके केवल शान व्याप प्रबंध है। उदय प्रतिद्री शान सदा सुख रूप है। अक्स प्रखंड अमेव उद्योत मनुफ है ।। ५३॥
दोहा सोह प्रंसगति अग्नि के लग न कबहू चोट । त्यो सुख दुख बेवक नहीं तात जीव सन वोट ।।५४॥
अडिस्स केवल मान स्वरूप केवली परनए । सर्व द्रव्य परजाय प्रगट जम अनुभए । प्रवाहादि जे भेद क्रिया करि हीन है। यह प्रतीन्द्रीय मान सदा स्वाधीन है ॥५॥
जगत वस्तु छानीन को, सब इन्द्री गुन जानि । प्रक्षातीत उदै भयो, निजाधीन निज ज्ञान ।।५६)
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प्रवचनसार भाषा (पद्य)
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बेसरी छ। इन्द्रिय विषम भोग के यानी, सपरस वर्न गंध रसवानी। 'बुदे जुदे अपने रस पाहै, एक एक निम गुन अवगाहै ।।५।। तृपति न परत करत सुख सेती निज निज क्रम ते वर्ततेती। छिन में उदय मस्त दिन मांहे, खंड खंड ज्ञान अवगाहै ॥१८॥
दोहा मान प्रक्ष के काज को कर न पक्ष जु मान । निज निज मर्जादा लिये, बरते पक्ष प्रवान !||५६||
सदा प्रीत द्रि ज्ञान की जानहू शक्ति अनंत । सब इन्द्रिन के विषय सुख, एक समय झलकत ।।६०॥
कवित्त बेतन ज्ञान प्रवान सदर भनि सय प्रवान ज्ञान गति बान । लोकालोक प्रवान जय सब तातं शान सर्व गतमांन । ज्यों पावक गभित ईषन के दरसत ईधन ज्ञान प्रवान । स्यों ही छहों द्रव्य जग पूरित व्यापक भयो केबली ज्ञान ॥६१।।
दोहा पीततादि निज गुन लिये, कुजलादि परजाय । ईनही के गर्भित कनक, अधिकन हीन कहाय ।। ६२॥ ज्ञान प्रदानन पास्मा, मानत कुमती कोई । हीन मषिकता मत विषै, साधत मातम सोई ।। ६३५॥ जो लघु मातम ज्ञान, ज्ञान प्रचेतन होय । अधिक ज्ञान से मानिये ज्ञान पनो वह खोइ ।।६।। जहा अधिकता ज्ञान को, तहां जीव लघु होय । जेतो ज्ञाननु अधिक है सपरसादि जह सोई ।।६।। जहां अचेतन द्रव्य है, जान पनों तहां नास । ज्यों पावक गुण ऊनत, परं न जारे पास ॥६६॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
जुदे न पायक उष्णता, जुदे न चेतन प्रात अधिक होन के मान तं, साषत भित्र प्रदान ।।६७। सातै चेतन ज्ञान सों, जहा मषिमता हो। सोनाम प्रचेता, घट पटाद बिषि सोह॥६॥ ज्यों पावक गुन उष्ण है, स्यों चेतन गुन ज्ञान । अधिक हीन जो परन, उपजत दोष निदान ।।६।। अधिक हीन नहीं प्रात्मा, है गुन ज्ञान प्रवान । यह याको सिद्धांत सब, जान हू वचन निदान ||७|| सकल वस्तु जो जगत की, शान मांहि झलकत । ज्ञान रूप को वृषः धित, गटत ५ मा ७१॥
कवित ज्यों मल हीन पारसी के मध्य घटपटादि कहिए विवहार । निहच घटपटादि न्यारे सब, तिष्टत प्राप ग्राप प्राधार । त्यों ही ज्ञान ज्ञेय प्रति बिबित, दरसन एक समय संसार । निह भिन्न ज्ञेय ज्ञायक कहति शान ज्ञेय माकार ||७२।।
अडिस पट पटादि प्रतिविछ भारसी मांहि है। निह पट पट रूप पारसी नांहि है। स्यों ही केवल मान ज्ञेय सब भासि है। अपने स्वत: स्वभाव सदा मविनास है ।।७३|
कवित ज्यों गुन शान सुही परमातम सो परमातम सो गुणज्ञान 1 धर्म प्रधम काल नभ पुग्गल ज्ञान रहित ए सदा प्रजान । तातं ज्ञान शक्ति परमातम ज्ञान हीन सब जष्ठ परवान । क्यों गुण ज्ञान क्यों ही मुख वीरज, यों मातम मनंत गुगवान ।७४।
दोहा शान प्रवर परमात्मा है अनादि सनमंत्र । ज्ञान होन जे जगत में, सबै द्रव्य अरु ग्रंथ |१७५॥
है अनादि सनमध ।।७५॥
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प्रवचनसार भाषा (पद्य)
२५१
छप्पय शानी ज्ञान स्वभाव प्रवर जड रूप ज्ञेय सबु । माप प्राप गुन रक्त परसपर मिल तन को कयु । नयन विषय ज्यों नयन देखिये विवधि वस्तु बहू । बिना किये परवेस जानि कर गए मरम सहू । निहले स्वरुप सब भिन्न भनि कपन एक व्यवहार मत्त । गड ज्ञान जय सनमंध है दुरनिवार तिरकाल गत ॥७६॥
सवय्या ३१ जैसे नीलमणि को प्रसंग पाय स्वेत पीर । नील रंग न न नीर रगर है जैसे नैन बस्तु को बिलोकि व्यापि रहे सत्र यद्यपि तथापि भिन्न पंकन ज्यों नीर है। मानों ज्ञेय भाषको उखारि ज्ञान गिलि गयो प्रेसी ही विचित्रता प्रखंडित सधीर है ॥७॥ देखन जानन की शक्ति ज्ञान नैन मैं होत । तात व्यापत जेय सौं, निह भिन्न उझोत ॥७॥ जैसे दर्पण दरसि है घट पटादि माकार ।। निहर्च घट पट रूप सों, दर्पण है प्रविकार १७६
बेसरी छंब . जहाँ न जय ज्ञान में प्राव, तहाँ न केवलज्ञान कहा। जो केवल सब ज्ञेय प्रकासी, तो सब शेष ज्ञान मैं भासी । जब घट पर दर्पण मैं भासे, तब दर्पण सब नाम प्रकासे । घद पट प्रतिबियत नहि होई, दर्पण नाम न भासे कोई ।।
घट पट चर्पण मैं भरा, दर्पण घट पट नांहि। शान ज्ञान में रम रसो, मेय ज्ञान के माहि ॥५२॥
सोरठा शेय ज्ञान सनमंध, हे काहू उपचार करि । निहर्च सबै पबंध, माप माप रस में ममन ८३||
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२५२
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
चौपाई त्याग ग्रहणवै न परस, केवल शान मेकपन वरस । देसन शामन के गुण सेती, गायक वस्तु जगत में जेती IIEIL
दोहा सहशि यकति : मे, इ. मेष प्रतिभास । स्याग ग्रहण पलटन क्रिया, शान दसा में नास ||५|| जैसे चोखे रतन की, ज्योति प्रकप प्रकास । सहज रूप थिरता लिये, त्यों ही ज्ञान विलास ॥८॥ बिन इच्छा प्रतिबिंब सब, दरसे दरपण माहि । त्यौही वैवल ज्ञान में, शेय भात्र प्रवाहि ।।५।। न्यारी दरसरण पारसी, न्यारे घट पट स्प। स्यों मारे य जायकी, यहै मनादि अनूप ||८||
कवित्त देश क र जानस परमातम निज रूप वसंघ । सो परमातम सहज स्वभावनि प्रायक लोकालोक प्रसंष ॥६॥ सात श्री जिनवर इम भावत शुत भावी त केवल रेख । केवल ज्ञान भवर श्रुत केवल दोउ देदत प्रातम भेष ।। पूरन भाव मनंत सक्ति करि बेदत प्रगट केवली मान । अत केवल केतीक शक्ति से क्रमवत्ती पेदत परवान || दोह एक शान निहलै मनि, भेद भाव प्रावरण बखान । जैसे मेष घटा माछादित, दीसत अधिक हीन दुति भान Hon
मडिल मतिज्ञामादिफ भेव एक ही शान के । ज्यों बादल भावरन ल रहे भान के ।। श्रत केवल सामान्य विसेष विवेक है। निहन शायक जोति ज्ञान रवि एक है ||११||
कवित्त जिनवर कथित वचन की पंति द्रव्य सूत्र कहिए परवान । ते सब वचन स्वरूप पनतम ताके निमित पाय बह शान ।
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प्रवचनसार भाषा (प)
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सोई भाव सूत्र निहचे भनि भ्य सूत्र व्यबहार दान । ता नम चरन ज्ञान परमातम भिन्न भेद भाव भगवान ॥१२॥
दोहा द्रव्य सूत्र पुग्गल मई जामें बचन बिलास । निर्विकार परमात्मा क्यों वनि है इक वास ।।१३।। द्रव्य सूत्र के निमित करि, उपजत ज्ञान प्रदान । तात प्रत व्यवहार नय, गभित झान घखान ||१४|| अ त भन्न गाहक जान को, लाई यह व्यवहार । निहर्ष उतपति ज्ञान की, ज्ञान माहि निरधार ।।५। जागिए शक्ति है जीव में, सोही ज्ञान नखान । जीव जानि है ज्ञान तं, बन ज प्रारम जानि ||६|| घट पटादि प्रतिबिंब सब, परसत वपंण माहि । स्योंही ज्ञान प्रकास तें, जय भाव पवगाहि ॥६३।। जानन प्रातम जान तं, बिना ज्ञान अह जीव । जीव बान की भिन्नता, कुमती कहे सदीव ||६|| जीव ज्ञान की भिन्नता, सापत कुमति कोय । माके मन मातम अभ्य, ज्ञान हीन बड़ होय ।।६।। घट पट असे जगत में, प्रगट अचेतन दृष्य ।
समय पाय ये होयगे, चेतन रूपी सवै ।।१००||
x xxx xxx मन्तिम पाठ
मूल ग्रन्थ कर्ता भए, दकद मतिमान । ममृतचन्द टीका करी, देव भाष परवान ।।४२८|| जैसो फरता मूल को, तसो टीकाकार । तास प्रति सुन्दर सरस, बर्ते प्रवचनसार ॥४२६।। सकल तत्व परकासनी, तस्त्रदीपका नाम । टीका सुरसत देव की, यह टीका प्रभिराम ।।४३०॥
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
पीपरी बालबोध यह की नी जैसे, यो तुम सुनह कहु मै सैसे । नगर आगरे मैं हितकारीकौरमा माता का ॥४३१।। तिन विद्यारि जिय मैं यह कीनी, जो भाषा यह होय नवीनी । अलप बुद्धि भी प्रमं वज्ञान, पगम भगोचर पद पहिषानं ॥४३२॥ इह विचार मन मैं लिहा रानी, पांडे हेमराज सो माषी। मार्ग राजमल्ल ने कीनी; समयसार भाषा रस लीनी ।।४३३।। प्रब ज्यौ प्रवचन की ह भाषा, तो जिन परम वर्ष वृष साखा। ताते कह विलंबन कीज्ये, परम भावना अंग फल सीन्ये ।।४३४॥
वोहा अवनीपति बंधहि बरन, सुरणय कमल विहसंन । साहजिहां दिन कर उदय, मरिगण तिमरत संत ।।४३५||
सोरठा निज सुबोध अनुसार, प्रसे हित उपदेश सौ ।। रबी भाष प्रविकार, जयवंती प्रगटो सवा ।।४३६।। हेमराज हित प्रानि, मविक जीव के हित भणी - जिपवर पास प्रवान, भाषा प्रवचन की करी ।४३७|
दोहा
सनहस नव उत्तर, माघमास सित पाष ।
पंचमि आदितवार कों, पूरन कीनी भाष । ४३८।। इति श्री प्रवचनसार भाषा पांडे हेमराज कृत संपूर्ण । लिखतं इलमुख सुहाड्या लीखी सवाई जयपुर मध्य लिखी । श्री श्री श्री ।
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प्रवचनसार भाषा (कवित्त बंध)
रचयिता-हेमराज गोबीका मप भी प्रवचनसार सिद्धान्त कवित्त बंध भाषा लिय/मय परमात्मा को नमस्कार
अरिल्ल छन्द ध्याय अगनि करि कर्म कलंक सर्व दहै तित निरंजन ग्यान सरूपी ह रहे । ध्यापक शेयाकार ममत निवारि के,
सौ परमाता है नसों पर शानि :: अथ प्रादिनाथ स्तुति सदैग्मा-31 प्रादि उपदेश सिन साधन बतायो, सोइ गाषत सुरेश जाम तारन तरन है ।
जाके ग्यान मांहि लोकालोक प्रतिभासित है, सोभित अनुरूप कंचन बरन है । जुगल' परम की धानि के निधारन को, मातम परम के प्रकार कु करम है । असो मादिनाथ हेम हाथ जोरि वंदत है.
सदा भवसागर में सबको सरन है ॥२॥ अब पंच परमेष्टो को नमस्कार दोहरा
अरिहंतादिक पंच पद, नमहं भक्ति जुत तास ।
जाके सुमिरन ध्यान सौ, लहै स्वर्ग सिव बास ।।३।। मथ सरस्वति स्तुति--मरहटी छंध
अंदी पद सारद भवदघि पारद सिक साधन को खेत, निरमल बुधिदाता जगति विख्याता सेवत मुनि परि हेत।
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कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज
सो जिनवर बानी त्रिभुवन मोनी दिव्य वचन मंडार ।
हौ फुनियर पोऊ कवित्त बनाऊं पूरन प्रदचनसार ।।४11 प्रथ कवित्रय नाम छप्पय छन्द
कुदकुद मुनिराज प्रथम गाथा बंध कीनी, गरभित अरय अपार नाम प्रवचन सिन्ह दीन्हो । अमृतचंद फुनि भये ग्यान गुन अधिक विजित गाथा गूळ विचारि सहस्कृत टीका सजित । टीका जुमोड जो परय भनि बिना विबुध को ना लहे सब हेमात्र ष पिः काल सरदह ।।५।।
येसरी छंद पाउ हेमराज कृत टीका पढत पढन सबका हित नौका । गोपि प्ररथ परगट कर दीन्हो सरल घनिका रचि सुख लोन्ही ॥६॥
चौपई टीका तत्व दीपका नाम, हरत प्रग्योन सिमर सब घाम ।
आम दरव कथन अधिकार, पढत प्रगटन ग्यांन अपार ।।७।। प्रथ कवि लघुता कयम- सवैय्या ३१
जैसे कोऊ बालक बिलोंकि ससि विव दुति । कर कर करष उबकि भरे वाथि हो। जैसे मन कायर करन कहै झूम जहाँ तहाँ । धन सूरि हरि हायिन के जथि है । जैसे कर वरन ते हीन बल खीन नर पर, उर उद्यम जलघि पैसि मधि है । तैसे हैं प्रजान अंक मात न पिछानो जाहि,
प्रवचनसार को म पार कैसो कषि है । भय ग्रंथ स्तुति तथा कवि लघुताई कयन सबईया-३१
जैसे करहू पर्वत को मारग विषम लहू दीसत उतंग शुग सैल की सी पार है।
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प्रवचनसार भाषा ( कवित्त बंध )
तहाँ एक चतुर सिलावट बनाय दई पंडीन की पंकति सु सुगम सुद्वार है । स्योही प्रवचनसार परमागम अगम श्रति गूढ गति अरब सु प्रषिक पंडित सटीक करि फोमल
अपार है ।
प्रकासि दयो
मेरी हू पलप मति तार्क अनुसार है || २ ||
या श्री कुंदकुदाचार्य प्रथम ही ग्रंथ पारंभ विषे मंगलाचरण निमित्त नमस्कार करे है।
X
प्रतिम पाठ
२५७
कति छन्द
सुर नर प्रसुर नाथ पद वंदित घातिय करम मैल सब घोये, भयो अनंत चतुष्टय परगट तारन तरन विश्व तिह्न लोये । प्रातम घरम ध्यान उपदेसक लोकालोक प्रतक्ष जिन जोये 1 अँसे वर्धमान तिथंकर वंदत चरन भरम मल खोये ||११||
चौपाई
बाकी तिर्थंकर तेइस सिद्धि सहित बंदी जगदीश ।
निरमल दरसन ग्यान सुभाव, कंचन सुद्ध प्रगति जिम ताब ।। १२ ।।
X
X X X X
X X
श्रावणाभास मुनि कैसा है य कथन करें है- सर्वया बाईसा जो मुनि संयम भाव भराधि करें तप साधि सिद्धांत सर्व जो परमागम सो परमातम भेद विचार लहे न जयं जो वरसे जग मैं मुनि सौं फुनि सो मुखौ कहियेन कर्वे तास बिनो करियेन कछु सिन्ह ते नहि संभिक ज्ञान फर्व ॥ ९४२ ॥
1. गाया एवं उनको संस्कृत टीका को यहां नहीं दिया गया है। केवल कवित यंत्र भाषा को ही दिया जा रहा है।
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२५८
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकीदास एवं हेमराज मा यथार्थ मुनि पद संयुक्त मुनि की विनायिदि क्रिया जो न करे सो पारित रहत है यह दिखाव है
वोहरा जो मुनिस को वेखि मुनि, कर दोष दुरभाव ।
सो मुनि जी पाय हमा. पानि नन महान it. प्रागै जो जाति भाव करि उत्कृष्ट है ताको जो माप ते होन प्राचर सो अनंत संसारी है यह दिखावे हे--
दोहरा जो मुनि प्रांन मुनीस ये, चाहै प्रादर भाव । सो मुनि भवधि तिरन की, लहै न कबह दाव ।।१४६॥ कहा भयो जो मुनि भयौ हम फुनि मुनिवत पार ।
से भूनि के गर्व ते, लहै न भवधि पार ||१४॥ मन माप दिनाः कः मनि०. है। जो गुण होन की विनयाविक करे तो पारित्र का नास होय यह दिखावै है-दोहरा
जो मुनि गुन उतकिष्ट घर कर जपनि सो संग । सो मिथ्या सुत जगत में, कहिये चारित भंग I.६४|| होन मंगति ते हीनता, गुर ते गुरता जानि ।
सम ते सम गुन पाइये, यह संगति परवानि ॥५०॥ प्राग कुसंगति मन करै है- विलंबित घेव
करके मुनि मागम ठीक, परमारथ जानते नीके। तप साधि कसाय न मान, उपयोग अकंप सुठान ||२|| ममता तजि संजय बार, तिर माप सु भोरनि दार। बब लोकि को सृग द्वान, छिन मैं मुनि बारित मान ।।१५३॥ जिय पाबक के संग पानी, निज सीतसतातहि भांनि ।। मुनि लौकिक लक्षण सौ, बरन जिन भागम तैसी ६५४||
मोट-१४३, १४५, ६५१ संख्या गाया है।
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प्रवचनसार भाषा (कवित्त बंध)
२५२
भागे लौकिक मुनि का लक्षण झहै है-सर्वथ्या २२
जो निरग्रंथ दिक्षा परि के, बनवास वस मुनि को पर धार संगम मील भमा तप पाचरि जोतिक वैदक मंत्र विचार । सो जग में मुनि लौकिक जान, चारित भिष्ट सिति उचार।
जे मुनिराज विराजत उत्सम, ते तिम्ह को परसंग निवारं ॥५६|| प्रामै भली संगति कोजिए यह दिखाव है--
सुन संमान - गु षिक, सास करिये संभ । जासौ सिव सुख पाइये, चारित रहै मभंग ।।१८।। सीतल जलपर को नमै, सीतलता न घटाय । त्योंही संग समान सौं गुन समान ठहराय ६५El द कपूर घरि छाह जल, मषिक सीत हूं जात । स्यों ही पुर के संग त, माने गुर पद को पात ॥६६॥ पावक संगसि सीत अल, सिनक माझ तप जात । त्यों कुसम के संम स्यौं, गुन प्रयगुनता पात ।।६८१३
वेसरी ईद
पहल सुभपयोग मुनि धारे, क्रम क्रम संवम भाव विचार । जब संजम उतकिष्ट बदाये, तब मुनि परम बसा को पार्य ॥९६२॥
मोहा परम दसा परि के मुनी, पार्य केवल ज्ञान ।
जो प्रानंद मैं सास्वतो, चिदानंद भगवान ।६६३॥ इति श्री शुभोपयोगाधिकार पूर्ण हुवा । मागे पंच रस्न कहे है । पंच गापानि करि । अथ पंच रन नाम कथन ।
बेसरी छंद प्रथम तत्व संसार बखानी, दुतिय मोष तत्व पहिधानी । वितिय तत्व सिद्ध साधन की, सिव साधक पानक फुति कीनं ॥६॥
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२६०
कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकोदास एवं हेमराज
जो सिद्धत फल लाभ बतावं, पंचम तस्व जिनागम गावं । ये हो भव सिम को थिति माफ, भनेकांत मत ताहिं अराध ॥६६॥ . ये ही पंच रतन जग माहि, यह गरंथ इन्ह की परछांही ।
साते पंच रत्न जयवंता, होह जगत में जिन भाषता ||६६६|| प्रथ संसार तत्व कहै है- कवित्त
जिन मत विर्ष दरच लिंगी मुनि, परि है नगन पवस्था जोई । यं परमारथ भेद न जानत, गहि विपरीत पदारथ सोई। कहै यहै ही तश्य नियत नय, यो उरमानि रहत इहि लोई।
काल अनंत भ्रमत भुजत फल, यह संसार तत्व बगि होई ।।६।। मार्ग मोक्ष तत्व को प्रगट कर है- सर्वव्या २३
जो मुनिराज स्वरूप विष बरत तजि राग विरोध दसाको, जो निहने र पानि पदारथ नीर दयो भव वास वसाको । जो न मिथ्यात क्रिया पद धारत जारत है प्रति मोह दसाको ।
सो मुनि पूरन ताप दई कहियं नित मोष सरूप मासाको ।।६७०|| प्रागे मोक्ष तत्व साधक तत्व दिखाइए है-सर्वया २३
जो चउबीस परिग्रह छंडित दिम दिगंबर को पद पारे । जो निहाचे सबु जानि पदारथ, पागम तत्व प्रखंड विचार। जे कबहु न विर्ष सुख राचत, राग विरोष कलक निबार ।
ते मुनि साधक है सिव के फुनि, माप तिर भरु पोरनि तार ॥६७२६६ प्रागे मोक्ष तत्व का साधन है तत्व सर्व मनोवांछित अनि का स्थान कहै यह दिखा है- कविस
जो मुनि बीतराग भावनि को प्रस्त हवं सो सुद्ध कही जै । जाकै दरसत रमान सुद्ध भनि साही के सिव शुद्ध लहोजे । सो मुनि सुद्ध सिद्ध सम जानव, आके घरन नमत सुख लीज्य । मन वंछित थानक सिच साधन, करि के भक्ति महारस पीजे 11९७४||
नोट--९६७, ६७१, ६७३ संख्या गाथाओं की है।
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1
प्रवचनसार भाषा (कवित बंध)
आगे शिष्य जन को सास्त्र का फल दिखाय सास्त्र की समाप्ति करे है
कवित्त
ओ नर मुनि श्रावक करि याको, घारत जिन भागम श्रवगर्हि । प्रवचनसार सिद्धांत रहसि को प्राप्त होत एक छिन माहै । भेदाभेद सरूप वस्तु को साधत सौ मालम रस चाहे सो सिद्धांत फल लाभ तत्व बल पूरन इति पंच रत्न कथन समाप्त | प्रथ ग्रंथ कर्ता कवि स्तुति - बोहरा
मूल प्रांय करता भये कुंद कुंद मतिमान ।
२६१
कर्म कलंकति दाहै ॥९७६ ।।
प्रमृतचंद टीका करि देव भाषा परबांन ॥ ६६७८ खेसरी छन्द
पांडे हेमराज उपगारी नगर प्रागरे में हितकारी । तिन्ह यह ग्रंथ सटीक बनाये, बालबोध करि प्रगट दिखायां ||१७|| बाल मुद्रि फुर्ति अरथ बखानं स धगोचर पर पहिचान । लप बुद्धि हम कवित बनाये बुद्धि उनमान सर्व वनि भायौ ॥२७६॥ जीवराज जिन धर्म घरेया, सबै जीव परिक्रिया करिया । प्रवचनसार ग्रंथ के स्वादी, रहे जहां न होत परमादी ॥८०॥
तिन्ह उर मैं विचार यहू कीयो, प्रवचनसार बहुत सुख दीयो ।
कंठ पाठ करि है सब कोई ॥८१॥ कवितबंध भाषा सुखदानो । घर घर विषै पढे सबु कोई ।।६६२।। मनिष जनम को सुभ फल कीजे । करिये वेग न विलंब कराई ||६८३॥ अमृत सम तुम यात बखानी । क्यों करनी प्रवचन के तांई ॥९८४॥ लघु दीरघ मै मो मति माठी । घर पुनयक्त सब्द भनि कोई ।।६८५ ॥ कषित उचार किसी विधि ठानी । पंडितजन भर कविता होई, मोहि बिलोकि इसी मति कोई ।।१८६६
कचित बंध भाषा जो होई, सब हमस्युं यहु बात बखानी प्रवचन कवित बंध जो होई, इहि विधि काल बसीत करीजं, निज पर सब ही कौ सुखदाई, हेमराज फुनि यहु उर मानी, मलप बुद्धि मो मांझ गुसाईं, मैं नहि कवित छंद की पाठी, छंद भंग गर्न गन जु होई, तिन्ह को कछु भेद नहिं जानौं,
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२६२.
कविवर बुलखीचंद, बुलाखीदास एवं हमराज
वोहरा
छंद प्ररथ गर्न पुनसंकत होत न जहाँ प्रवान । विबुध क्षमा करि कीजियो, सुद्ध जथा तुम्ह ज्ञान ||६८७: करंग कं, नीत घरम
पातिसाह
परगास ।
पदवास
देत मसौस सबै दुनी, प्रचल राज जिने भूप भूपर बसे, सब सेवै जार्क चादर नीत की तनी जाय दधिवार ||६८६ ॥
दरबार ।
||६८८ ॥
राया
सोभित जेसिष महासिंघ सुत कूरम के अवनि के मारसों सुमार पीठ बनी है । सार्क घरि कीरति कुमार से उदार चित, कामांगट राजित ज्यो राजे दिनमती है । जहां पर करता 과학기 महिल जाति कायष प्रदीत सवे सभा नति सनी है । वहां खहो मत को प्रकास मुख रूप, सदा कामांगढ सुन्दर सरस छवि बनी है ।६६०३
सवैया इकतीसा
हेमराज श्रावक खंडेलवाल जाति गोत भवसा प्रगट क गोदीका बखानिये। प्रवचनसार प्रति सुन्दर सटीक देखि कीये है कवित छवित रूप जानिये । मेरी एक बोनसी fagध कविवंत सौ, बालबुद्धि कवि को न दोष उर आनीये | जहां जहां छंद और मरथ अधिक हीन, तहां शुद्ध करिकै प्रचान म्यांन ठानिये ।। ६३१ ।।
बोहरा
सांगानेर सुधान को अब अपनी इच्छा सहित कामगिक सुख सु बस, कवित्त बंध प्रवचन कोयी,
हेमराज वसबोन | बसे कामांगढ़ थान ॥१२॥ ईत भीत नहि थय । पुरन तहाँ बनाय ।।६६३॥
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प्रवचनसार भाषा ( कवित्त बंध)
छप्पय
बंदी हु गुर निरगंथ जहां तिणमत्त न परिह । बंद घर्म सुदा सबै सुख दानि दोष प्रठारह रहित देवबंदू सो सुगुरु सुषमं सुदेव परषि पुज्ने भनि हेम जिलागम जेम गहि सो समकित जो कुमुद्धी कुनर मिथ्यामती सुनहि त्याग पुज्जहै मनर ॥४॥
धारक है उर ।
प्रध्यात्तम सेली सहित बनी सभा साधर्म 1
'
सदा सह 1
शिक्कर 1
सुजा निकर ।
चरचा प्रवचनसार की करे सबै
सहि ममं ।। ६६५।।
P
भरचा अरिहंत देव की सेवा गुरु निरथ । दया धरम र भावरे, पंचम गति की पंथ ॥६६॥
२६३
बेसरी छंद
चीनमा पुरे दिन गती सातम चरचा रस माती । जब उपदेस सबन को लीयों, प्रवचन कवित्त बंध तब कोयो ॥६७॥ बोहरा
प्रवचनसार समुद्र सरस लीन सु घरथ अपार । मति भजन अनुसार ।।६६८ ।। करि है प्ररथ विचारि ।
लहसु सबै जे विबुध जन, सुर गुरादि सब जनम भरि सो फुनि पारन पावहि, प्रचचनसार अपार ||६६६ ॥ जो नर उर यो जानहि, मैं जान्यो सब भेद |
सो बालक बुधि जगत में करत मविरथा खेद ||१०००| ज्यौ पावक ईंधन विष, ज्यो सलिता दधि छीन ।
त्यो प्रवचन मैं अरथ की, पूरतान निदांनि ||१००१ || कथन सु प्रचचनसार को, कहि कहि कहे किर्तीक | तात कवि घरने हती, मति अनुसार जिलोक ॥१०२॥ छंद की संख्या कहै है - कवित्त
उन िकथितरित्त यत्तीस सुबेसरि छंद निवे प्ररतीन दस पढरी चारि रोडक मनि, सब चारीस पोपई कोन |
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कविवर बुलाखीचंद, बलाखीदास एवं हेमराज
दोहा छंद तीनसे साठा सामं एक कीजिये हीन । गीता मा पा लिया ए मा निहू प्रवीन ।। १०० ३ ।।
बाईसा भनि बारि पौष चौईसा कहिये । इकतीसा बत्तीस एक पचीसा लहिए । छप्पय गमि तेईस छद पुनि सात बिलबित । जानहु वस पर सात सकल तेईसा परमित । सोरठा छंव तेतीस सब सात सयर पचवीस हुव । भाषा मास दुसीया धवल पुष्य नक्षत्र गुरबार घुव ।। १०.४॥
- सोरठा
सत्रहरी चौदस संवत सुभ भर सुभ घरी ।
कीनी प्रथ सुधीस देखि रोष कीजहु विषा |१०.५ इति श्री प्रवचनसार सिद्धत माषा कवित समाप्तानि । शुभं भवतु । सर्व श्लोक संख्या २८७० । संवत १७२६ वृषे पोस सुधि १० बुधवार संपूर्ण। श्री श्री श्री ।
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नामानुक्रमणिका
कौरतिसिंह २४० कौशल्या ४१ कुमुदचन्द कोरपाल १,२०५,२०६.२०८,२०१
२५४
प्रजितनाथ ७४६ मंगरवाल ३०.११६,११७,१२०,१५२ अभिनन्दननाथ ८ अश्वसेन १४ मनन्तनाथ १२,५५ परभाष १३,५८ अमृतपाद २४१,२५३,२५६,२६१ प्रमरसी ११७,१११.१२० पचलकीति २ प्राचार्य सोमकीति ? अमरा भीसा २२४ मानन्दराम २३० प्रवरङ्ग १९८ प्रर्हदवरूभसूरि ४३ अरुन १२५,१५५ मोरङ्गजेब १४६ अकबर १४७ प्रादिनाथ ४५ उमास्वामी ८,३१,४३, कल्याण सागर ३ कुन्दकुन्द २०,२८,१०५,१५२,२०६
२०८,२५३,२५६,२५७,
२६७ कुथनाथ १३,५८ कामता प्रसाद २०१,२०२
अपवन १२५ गोयल ११७ गुरणभष्ट १५३ गुप्तामुप्त २८,१०५ गौतम २६ गारवदास ३ कक्कुरसी १ चन्द्रदत्त १०.५१ चन्द्रप्रभ १०,५१ चतुर्भुज २०६ जनुलदे ११७.११८.१२१.१२२,१४,
जितारय ४७ जितरिपु ६ जयदेवी ५४ जयकीति ३
जगतराम २ जयसेन २१० जहांगीर १४७,१६८
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कविवर बुलाखीचन्द बुलाकीदास एवं हेमराज
पं० पन्नालाल बाकलीवाल २२१ पं० हीरानन्द २०५ पं० नारायणदास २१६ परमानन्द २०२,२१७ पदमदत्त ४६ प्रताप ३,११४ प्रभावती ५६ बनारसीदास १,२,४१,२०३,२०५,
जम्दू स्वामी ५.११३ जयकुमार ८५,८६,१२१ जीचमज २६१ जोधराज गोदीका २,२२४ जगी ११८,१६४,२०५ जैसवाल ३,१५,३६,३८,६४,१५३ लिहिनपाल २६.११३ तुलसी १ तिमिर लिंग १४७,१६८ दलसुख २५४ देवमेन ११६ प्ररथ १० धर्मनाथ १२,५६ धरसेन ५६, धुरराजा ५० नन्दलाल ११६.११७.११८,११६,
नेमिदस ६१ नेमिनाथ १३,१४.६१.२९७ मिचन्द २.२०१,२१७ कामिराजा १७ नंदीवर २६ नंदिसेन ५६ नंदाराणी ५३,८४ नाभिराय ४५,८१,८४ पाश्वनाय १४,६२ पुष्पदन्त १०.५२ पेमचन्द ११६,११७,११६,१२०,१५३ पदमप्रभु पुरनमल ३ पं. विनोदकुमार २०४
बुलाखीचन्द ११४,११५,११६,२.०१
२०२.२०३ बुलाकीदास २.११६,१११,१२१,१२२
१२३, १२६,१४६, १४७,१४६,१६४ १६८,२०१.२०५,
२०६,२०७ बूलचन्द ११७,११८,११६,१२१,
१२८,१५५ धराज १ भरत १६,२५,३२ भ० रनकीति १ भ. ज्ञानभूषण ? भद्रबाहु १०५ भ० शुभचन्द १४७ भानु १२,५६ भरथराय ८४ मीरा १ मनोहरलाल २ माधनन्दि २८ महासेन १०,५१ मगला ९
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नामानुक्रमणिका
मरदेवी १७, मिश्रबन्धु २०१ माल्लिनाथ १३,५६ मुनिसु . ३.६० मेघराय ४७,४६ महेन्द्रदत्त ५० मरदेवी ४५,८१.७५ महावीर १४,२६,२७,३३,३८ २० पशोधर १ योगीन्दु २१५ रूपचन्द १,२०१.२०५,२०८ रामचन्द्र २ राजमल्ल २.,२५४ राजसिंह १ प्र रायमल्ल १ राघव ३ लछमा १०.५६ लालचन्द ३११२ लोहाचार्य ४३ वामादेवी १४.६२ वासुपूज्य स्वामी ११ विमलनाथ ११, विषयसेन ५७,६० विजया ६,४६ विमला ५३ दरमत ५८ सुमतिनाथ सिद्धारथ १४,५४,६३ सोमकीर्ति ४३ सुरजादेवी ५६ सुपामधनाथ ५,५० संभवनाथ ८,४७ सोमदत्त ५० सावित्री ४७
सबदेवी ६२ साहिजहाँ १६८,२५४ मुन्दरी ४ ममंतभद १५.२ सघारु १ सुदर्शन ५८ सागरमल ४,११४ सुलोचना ८५,१२१ समुद्रविजय ६२ सूरदास १, सुग्नीव ५२, सुभचन्द्र १५५.१६८ शक्तिकबर ३२ शिवादेवी १८ शांतिनाथ १२,५७ शीतलनाथ १०.५२ श्रेणिक २६,२७ श्रेयांसनाथ ११५३ श्रीराणी ५८ श्रवणदास ११६.११७११६,१२० हेमराज २,२०,११६,११८,१२०,
२०२,२०२,२०४,२०७, २०८,२०६,२१०,२११, २१२२१४,२१७.२१८
२२५,२२६,२२७,२३० हेमराज शाह २०२ हेमराज गादीका २२२,२२७.२२८, २३२,२३३,२४०,२५५ हेमराज पाण्डे २०२,२२७ २३२,
२२१,२५६ हेमराज (चतुर्थ) २२६ हीरानन्द २,२०६ हिमाऊं १४४,१६८ त्रिशला १४
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ग्रंथानुक्रमणिका
उपदेश दोहा शतक
२२७, २२८ २३३, २४०
३२ ,२४, १०१,
एकीभाव स्तोत्र कर्मकांड भाषा
प्रवचनसार भाषा ४०, ११८, १२०,
१५४, २०२, २०५, २०६, २०७, २०८, २४६, २१०, २२५,
२२६, २२७ प्रश्नोत्तर रत्नमाला
१२४ प्रश्नोतर श्रावकाचार ११७, १२१,
१२२, २०५ भक्तामर स्तोत्रभाषा ३२,२०११ २०७,
२१२, २१३ भूपास स्तोत्र
३२ रोहिणी व्रत कथा २०७, २२३ सजाती चुड़ी २०७, २२४
कल्याण मन्दिर स्तोत्र ३२ गुरुपूजा
२०२, २०७, २२१ बीबीसी घोरासी बोल २०७, २१४ छन्दमाला नन्दीश्वर ब्रत कथा २०७, २२३ नयचक्र भाषा २०१, २०२, २०७,
१२४
वार्ता
नेपिराजमती जखजी २०७, २२२ पाण्डव पुराण ११६, ११६, १२२,
१२३, १४७, १४६. १५०, १५१, १६८,
२०५, २०८ पंचास्तिकाय भाषा २०, २०२, २०५.
२०७, २१६. २१७,
बचनकोश विषापहार स्तोत्र
३२ समयसार भाषा २०७, २२४ समयसार नाटक १.२, ४०, २०५,
२०७, २०८, २०१,
२२४, २२६ सुगन्ध दशमी व्रत कथा २०७, २१६ सितपट चौरासी बोल २०१, २०६ . समवसरण विधान
२०७ हितोपदेश बावनी २०२. २०३, २०४
२२६ .
परमात्म प्रकाश पंचाशिका
२०२, २०७
२०१
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नगर-ग्रामानुक्रमणिका
१३६
अमरोहा अजमेर अयोध्या अवधपुरी प्रागरा २, ३, १२०, १२१॥
१५३, १५४, २०६,
११४, २५४, २६१ आमेर इन्द्रप्रस्थपुर
१२२. १ कपिलापुरी
११, ५४ करनाद कशमीर कलिंग काकदी कामागढ़ २२५, २४०, २५२ कुरुखेत कुण्डलपुर
१४, ६३ कौशंबी कोकण कोशिकपुर कोसल गजपुर १२, ५७, ५८, १३८, १४० ग्वालियर चहकहपुर चम्पापुरी चन्द्रपुरी
अयपुर २०४. २१५, २८१. २३०,
२५४ जलपथ जहानाबाद
१२१, १२२ जालन्धर
सलमेर ३२, ३४, ३५, ४१ जंबद्वीप तिलपथ
सारासह तिहवनगिरी दिल्ली
२, १४७, १६५ द्वारावती धर्मपुर
५६. १४५ नागौर पावापुर
१४, ५०, १०४ पोवनपुर बमाना ११७, ११६, १२०, १५२
२२८ बैराठ मध्यदेस मध्यप्रदेश मालवा मुलतान मथुरा मिथिलापुर १३, ६०, ६१
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________________ 270 कविवर बुलाखीचन्द, बुलाकोवास एनं हेमराज 153 117, 163 महाराठ मगधदेख मंगलपुर मन्दिरपुर 58 150 10, 53 भवातु भरतपुर भागलपुर राजस्थान रुपनंगर रसमपुरी वीरपुरी बदनपुर 4, 5, 15 वृन्दावन 5,8, 113 वाशिकपथ सांगानेर 2, 224, 225, 240, 262 सिषपुरी 11, 53 सुनकापुरी सुरपुरि सोरठ सावित्री नगरी सिद्धार्थपुरी हस्तिनापुर 46, 141, 146 त्रिभुवनगिरी सजग्रही वाराणसी विजयापुर 13, 137 13, 15, 84 46